हर्ष
को अपना कमरा याद आया जो इतना छोटा था कि वह कभी वहाँ
लाइफ–साइज तस्वीर पर खुलकर, फैलकर काम नहीं
कर पाया। वह सोचता रहा लड़की के पास जाए या न जाए।
उसे दर्शन की याद आई। दर्शन को कहानियाँ, नाटक लिखने का शौक
था। पहले पहल वह विशुद्ध स्वांतः सुखाय लिखा करता था। फिर
मित्रः सुखाय लिखने लगा। अब तो बाकायदा बहुजन हिताय बहुजन
सुखाय लेखन करता और प्रसार भारती की गोद में खेलता है।
कितना अजीब है कि बी.ए. किए हमें चार बरस बीतें या चालीस, हम
उन दिनों के दोस्तों को इतनी भावुकता से याद करते हैं। वे दिन,
वे दोस्त, किसी पुरानी फिल्म की तरह, हमारी आँखों में
चलते–फिरते जिंदा होते जाते हैं। उनकी स्मृतियाँ हमें स्पंदित
करती रहती हैं। उसी परिसर में थोड़ा आगे, बच्चों के लिए
खेल–पार्क था। यहाँ विद्युतचालित पागल गति के खिलौने थे,
दुश्मन टैंकों को मार गिराने वाली कड़कड़ाती बंदूकें और गनगनाती
मोटरसाइकिलें। इन वीडियो खेलों में गति नहीं, गति का संभ्रम
था। बच्चों के मनोरंजन मे कौतुक, विस्मय, सौंदर्य, संगीत के
लिए कोई स्पेस नहीं था। भारी बक्सों में विकृत आवाजें और दृश्य
भरे हुए थे। बच्चों के मूढ़ माँ–बाप उन्हें इन खेलों में व्यस्त
कर गर्व और आनंद से मुस्करा रहे थे।
स्वचालित सीढ़ियों के नीचे फव्वारा था और छोटा–सा तालाब। तालाब
के ठीक सामने वह स्टॉल था जिसके स्टूल पर वह लड़की बैठी थी,
निश्चल।
हर्ष को अफसोस हुआ कि वह
अपनी स्केचबुक साथ नहीं लाया। ''एडोरा'' में बिजली से चलने वाले
घरेलू उपकरणों की प्रदर्शनी लगी थी। स्टॉल में दो लड़के दाईं और
बाईं ओर खड़े थे।
हर्ष बेमतलब महारानी मिक्सी का वह कागज पढ़ने लगा जिसमें संजीव
कपूर हँसते हुए न्योत रहा था, ''खाना खजाना की शान, महारानी
मिक्सी से पिसी दालें और मसाले।''
उसके हाथ में कागज देखते ही ताम्रसुंदरी हरकत में आई। स्टूल से
उतर वह मिक्सी काउंटर पर पहुँची। उसने अपनी बड़ी–बड़ी आँखे उठाकर
हर्ष को देखा और बोली, ''यह हमारा सबसे अच्छा उत्पाद है। इसमें
कड़ी से कड़ी चीज भी मिनटों में पिस जाती है। मैं आपको हल्दी
पीसकर दिखाऊँ!''
''नहीं, नहीं,'' हर्ष कहना चाहता था पर तब तक लड़की ने हल्दी की
गाँठें डाल कर मिक्सी चला दी। हाथ के इशारे से हर्ष ने उसे
रोका। उसे बताया कि नून, तेल, हल्दी की उसके जीवन में, फिलहाल,
कोई जगह नहीं। लड़की कपड़े धोने का उपकरण दिखाने लगी।
''देखिये, यह सामने से खुलने वाली मशीन है। इसमें कपड़े ऐसे
धुलते हैं,'' उसने हाथों से मूक अभिनय किया।
हर्ष को हँसी आ गई। क्या
यह लड़की उसे अपना संभावित ग्राहक समझती है। वह तो गुणग्राहक की
भूमिका में आया है। उसने कहा, ''जब कपड़े मैले हो जाते हैं, मैं
नए खरीद लेता हूँ।''
''क्या आप इतने अमीर हैं?'' लड़की की आँखें कुछ फैल गई।
''नहीं, मैं इतना आलसी हूँ।''
लड़की ने एक क्षन दिलचस्पी से हर्ष को देखा, फिर वह वापस स्टूल
की तरफ जाने लगी।
हर्ष को लगा उसे तत्काल कुछ करना होगा। वह यकायक बोल पड़ा,
''क्या आप मेरे साथ कॉफी पीना पसंद करेंगी, यहीं सामने।''
उसकी आशा के विपरीत लड़की ने कहा, ''हाँ प्लीज, मैं बहुत ऊब रही
हूँ।''
''यहाँ की बिक्री?'' हर्ष ने पूछा।
''बिक्री करना मेरा काम नहीं है। मैं सामान का प्रदर्शन करती
हूँ। बिक्री वाले लड़के यहाँ खड़े हैं,'' उसने दोनों लड़कों की तरफ
इशारा किया।
लड़की ने अपना पर्स स्टूल से उठाया। लड़कों से कहा, ''दस मिनट के
लिए जाती हूँ, ठीक है।''
लड़कों ने गर्दन हिला दी।
हर्ष को लगा, लड़की खुली किताब है। पहली मुलाकात में सबकुछ बता
दिया। नाम– इंदुजा, शिक्षा– बी.एससी., काम– प्रत्यक्ष प्रचार।
''अर्थात मॉडलिंग!'' हर्ष ने कहा।
''बिल्कुल नहीं। मैं
मटक–मटक कर रैंप पर कैटवॉक कभी न करूँ,'' लड़की को मॉडल शब्द से
परहेज था।
''हम कलाकारों की दुनिया में मॉडल इतना खराब शब्द नहीं समझा
जाता। हमारे लिए तो सारी सृष्टि ही मॉडल है।''
''सिर्फ भू–दृश्यों के लिए। आजकल कौन बताता है भू–दृश्य। आपकी
दुनिया में मॉडल का मतलब आज भी सजीव, नग्न आकृति है। आपके यहाँ
मॉडल और नग्नता पर्यायवाची शब्द हैं।''
हर्ष ने लड़की को जैसे समझा, उससे वह कहीं ज्यादा सचेत निकली।
उसने कहा, ''आपके दस मिनट हो गए हैं। आप फिर कभी मिलें तो मैं
आपको बताऊँ कि पेंटिंग की खूबसूरती और खुसूसियत क्या हैं।''
इंदुजा ने कहा, ''ठीक है हर्ष।''
हर्ष चौंका, ''आप मेरा नाम जानती हैं?''
''हाँ, जहाँगीर आर्ट गैलरी में आप अपनी एकल प्रदर्शनी में अलग
और अकेले खड़े थे। तब मैंने आपकी तस्वीरें देखी थीं।''
हर्ष बहुत खुश हो गया।
''देखता हूँ, विज्ञान की पढ़ाई ने कला के दरवाजे आपके लिए बंद
नहीं किए।''
''दरवाजे तो सिर्फ रोजगार के बंद पड़े हैं।''
''मगर यह काम जो कर रही हैं?''
''यह तो दस दिन का काम है। पांच हजार का अनुबंध है। पांच सौ
रूपये रोज, उसके बाद छुट्टी।''
''फिर क्या करेंगी?''
''किसी और चीज का प्रचार करूँगी। प्रस्ताव आते रहते हैं।''
''कल आएँगी?''
''बताया न दस दिन का कैंप
हैं। आज तो दूसरा ही दिन है।''
जानकारी छोटी थी पर हर्ष को बड़ी लगी। इतनी बड़ी कि उसे दर्शन को
बताने की जल्दी हो गई।
दर्शन घर पर अगली स्क्रिप्ट पर काम कर रहा था। हर्ष का
तरोताजा, क्लीन शेव्ड चेहरा देखकर बोला, ''लाइन मारने जा रहे हो
या लाइन मारकर आ रहे हो?''
हर्ष ने भवें सिकोड़ीं, ''हर हफ्ते सड़ियल सीरियल लिखते–लिखते
तुम्हारी भाषा बर्बाद हो रही है। लाइन मारना क्या होता है
बोलो?''
दर्शन सकपका गया। जब से वह हफ्तावार लेखन करने लगा था, पैसा तो
उसके ऊपर बरस रहा था पर उसके आत्मविश्वास में कमी आई थी।
हालाँकि उसकी निरीक्षण–क्षमता और विसंगति–बोध पहले से तेज हुआ
था, उसे हमेशा लगता कि कल कोई बेहतर लिक्खाड़ आकर उसके
साम्राज्य पर कब्जा जमा लेगा।
हर्ष अपने क्षेत्र का फ्री लांसर था। पेंटिंग में उस पर न कोई
नियम थोपे जा सकते थे, न शर्तें। अब तक उसे नौकरी में बाँधने
के समस्त प्रयास विफल सिद्ध हुए थे। एक बार मुंबई शिपिंग
कॉरपोरेशन की कलाप्रेमी मालकिन ने बड़े इसरार से उसे अपने
सुसज्जित बंगले में एक कमरा देकर कहा था, ''हर्ष जी मैं चाहती
हूँ आप मेरे घर को एकदम शांतिनिकेतन
बना दें। इसकी हर दीवार पर आकर
हस्ताक्षर सहित चित्र सजे।''
उसने चित्रकार के लिए नई–नकोर कैनवस, तूलिका और रंग मँगा दिए।
हर्ष तीसरे ही दिन वहाँ से भाग आया, अधूरी तस्वीर वहीं छोड़कर।
साथी कलाकारों ने पूछा, ''क्या हुआ यार? मालकिन ने तुम्हारी ईगो
से छेड़छाड़ कर दी क्या?''
हर्ष ने सिगरेट का टोटा जमीन पर रगड़कर बुझाते हुए कहा, ''नहीं
यार, पर इतने चिकने वैभव में पेंटिंग तो क्या मुझसे पॉटी भी
नहीं उतरती। वह मेरी दुनिया नहीं। दो रातों से सो ही नहीं
पाया।''
इरफान उसे जानता था। उसने कहा, ''तुम्हें नींद तभी आती है, जब
पंद्रह बीस मिनट अपने कमरे का झड़ता पलस्तर टकटकी लगाकर देखते
रहो।''
''कसम से मुझे अपना कमरा बड़ा याद आया।''
ऐसे बेढब आदमी से बड़े ढब से बात करनी होती है, दर्शन को इसका
अहसास था।
''सॉरी यार, मामला गंभीर
है क्या?''
अगले दिन दर्शक को ताम्रसुंदरी दिखाई गई। तय हुआ हर्ष आगे बढ़े।
महीने भर हर्ष ने बहुत काम किया। दो तस्वीरें पूरी और एक अधूरी
बनाईं। दोनों तस्वीरों के ग्राहक भी फौरन मिल गए। वह रोज
आईमैक्स गुंबद छविगृह जाता रहा और बाद में दादर स्टेशन पर मँडराता
रहा क्योंकि इंदुजा दादर में रहती थी। जल्द उसने दोस्तों को
खबर दी कि वह इंदुजा से शादी करेगा।
इंदुजा शायद इतनी जल्दबाजी पसंद न करती पर उसके घर वाले उसकी
शादी के बारे में सोचना बंद कर चुके थे। वे उससे छोटी लड़की की
सगाई कर चुके थे और अब लड़के की शादी की तैयारी में थे। वे
इंदुजा को समझाते, ''तुम इतना
कमाओ कि तुम्हें शादी–ब्याह की
परवाह ही न रहे। पाँच सौ रूपये रोज में जो मर्जी करो। शादी में
सौ झंझट हैं।''
इन बातों से इंदुजा भड़की हुई थी। फिर हर्ष जैसा सुदर्शन विकल्प
जो मिल रहा था।
दर्शन ने पग–पग पर इन प्रेमियों का साथ दिया। वह अपनी छोटी–सी
कार, बड़े से फ्लाइओवर के नीचे मामा लांड्री के पास पार्क कर,
दादर में दिन भर इंतजार करता रहा कि कब इंदुजा घर से भाग कर आए
और वह उसे गंतव्य तक पहुँचाए। अदालत से विवाह प्रमाणित हो जाने
के बाद दर्शन ने ही इंदुजा के घर तार किया। वकील की सलाह के
मुताबिक दर्शन इंदुजा के घर पर भी स्वयं सूचना देने गया कि
उसकी शादी हो गई।
अगले कुछ महीने दोस्तों ने हर्ष का नाम हर्षातिरेक रख दिया।
उसका सारा ढब ही बदल गया। अब उसके घर वक्त–बेवक्त बियर–बैठकी
नहीं हो सकती थी। दोस्तों के घर उसके चक्कर कम हो गए।
कला–वीथियों में कभी सब टकरा जाते। हर्ष कहता वह जल्दी उनकी
गप्प–गोष्ठी में शामिल होगा पर आजकल एक पीस पर काम चल रहा है।
''मास्टरपीस!'' दर्शन
पूछता।
''यह तुम्हारे हिंदी लेखन की दुनिया नहीं जिसमें जो भी, जब भी
लिखा जाता है, मास्टरपीस ही होता है।'' हर्ष हँसता। लेकिन मन ही
मन उसे अहसास होता कि दोस्त बहुत गलत भी नहीं कह रहे। जिस पीस
पर वह काम कर रहा था, वह उसके लिए खास मायने रखता था। इस
तस्वीर की शुरूआत में एक इतिहास था।
इंदुजा की तांबई रूप–राशि का ऐश्वर्य उसे दिन पर दिन रससिक्त
करता जा रहा था। इंदुजा को भी हर्ष के संग एक–मन एक–प्राण की
अनुभूति बनी हुई थी। गर्मियों की एक रात उमस से घबराकर इंदुजा
ने एकदम महीन मलमल का कुर्ता पहन लिया, बिना अंतःवस्त्रों के।
षटकोणीय लैंपशेड की आड़ी–तिरछी किरणें उसकी पीठ को जगमगा गईं।
उसकी तांबई त्वचा पर सुनहरी प्रकाश–रश्मियाँ खो खो खेल रही
थीं। उस वक्त हर्ष की उपस्थिति और अपनी देह की अवस्थिति से
निसंग वह कुर्ते का आगे का हिस्सा उठाकर अपने को हवा कर रही
थी।
नहीं, हर्ष तुरंत कागज पेंसिल लेकर नहीं आया। उस क्षण तो वह
तपे हुए तांबे का स्लोप निहारता रहा। उस स्लोप में मेरूदंड की
दो–तीन हड्डियाँ उभरी हुई थीं, जैसे दो–तीन पड़ाव।
इंदुजा ने घूम कर हर्ष को देखा। जैसे उसे पता चल गया कि हर्ष
क्या सोच रहा है। उसने कुर्ता नीचे किया और कहा, ''इस
बार कूलर जरूर लगवा लो। कमरा भट्टी की तरह तप रहा है।''
''मैं भी।''
''लेकिन मैं नहीं। मैं नहाने जा रही हूँ।''
इंदुजा कमरे से चली गई पर उसकी छवि हर्ष की आँखों में समा गई।
बगल के अधकमरे में उसने स्टूडियो बना रखा था। वहाँ बेतरतीब
कागज, हार्डबोर्ड, रंग, ब्रश पड़े रहते। थिनर की गंध हमेशा इस
कमरे में कैद रहती। यहाँ बिछी दरी में भी तरह–तरह के रंगों के
निशान पड़े थे। एक कोने में मेज पर चारकोल के टुकड़े, प्लास्टर
ऑफ पेरिस की छोटी थैली और रंग–पुती शीशी में पानी रखा था।
आधार चित्र बनाने में हर्ष को देर नहीं लगी।
रंग और रेखाओं के विवरण में बहुत सावधानी बरतनी थी।
हर्ष रात भर चित्र में लगा रहा।
इंदुजा एक बार आकर देख गई।
आधी रात जब उसकी नींद खुली, वह फिर स्टुडियो में आई।
अब तक चित्र स्पष्ट हो गया था।
उसने ऐतराज किया, ''देखो, तुम्हें पता है, मुझे मॉडलिंग से चिढ़
है। तुमने मेरा चित्र क्यों बनाया?''
''इंदु इस पीस में मेरे सत्ताईस सालों के संस्मरण हैं।''
हर्ष ने कई सैशन में चित्र में कुछ परिवर्तन किए। स्मरण–शक्ति
ने उसका साथ दिया। अब यह पीठ अकेली इंदुजा की नहीं थी, इसमें
कई पीठों की स्मृतियाँ आ मिली थीं। इस पीठ में माधुरी दीक्षित
की पीठ थी, स्मिता पाटील की पीठ थी, यह पीठ कमनीय से अधिक कोमल
थी, कोमल से अधिक कृश थी। इसमें निराला की क्लासिक कविता ''वह
तोड़ती पत्थर'' वाली
मजदूरनी की भी पीठ थी। यह कई–कई सुधियों की पीठ थी। पूरे कैनवस
पर अकेली, लंबी, साँवली आकृति थी जो उत्तान भी थी और ढलान भी।
यह तस्वीर एक साकार स्वप्न की तरह बनी। जिस दिन राष्ट्रीय
कला–वीथि में अन्य चित्रों के साथ इसे प्रस्तुत किया गया, बाकी
चित्र जैसे अनुपस्थित हो गए। स्वयं उसके साथी कलाकार हर्ष की
सराहना किए बगैर न रह सके। कला समीक्षकों ने अखबारों में हर्ष
की चित्रकला में अमृता शेरगिल से लगाकर जतिन दास तक से आगे की
संभावनाएं ढूंढ़ी। और तो और कला–वीथि के बाहर ''पीठ'' चित्र के
फोटो प्रिंट बिकने लगे।
शहर के सबसे अमीर उद्योगपति ने कई लाख में चित्र खरीद लिया।
दोस्तों ने दावत माँगी।
सूर्यों में पार्टी रखी गई। इस शाम के लिए इंदुजा ने सलमे जड़ी
काली ड्रेस चुनी और हर्ष ने क्रीम कलर का कुर्ता सेट। पार्टी
में सबकुछ बेहतरीन रहा।
रूखसत होते रात के एक बज गया। नवरोज, इरफान, दर्शन ने बड़ी
मुबारकें दीं। तभी दर्शन ने कहा, ''हर्ष इस मास्टरपीस का श्रेय
तुम्हें नहीं, तुम्हारी मॉडल को जाता है।''
''मैंने मॉडल कहाँ इस्तेमाल किया?'' हर्ष ने विस्मय दिखाया।
''हम भी समझते हैं दोस्त।
यह इंदुजा की पीठ है, शत–प्रतिशत।''
मुझे तो पता भी नहीं, बाय गॉड, इंदुजा ने आश्चर्य दिखाया।
''तुम उधर के मेहमानों पर ध्यान दो,'' हर्ष ने इशारे से इंदुजा
को हॉल के दूसरे कोने में भेज दिया।
घर लौटकर इंदुजा ने कपड़े बदलते हुए कहा, ''आज अपनी सहेलियों से
मिलकर बड़ा अच्छा लगा। ये सब मेरे साथ मीडिया पब्लिसिटी में
थीं। सोचती हूँ, मैं भी फिर काम शुरू कर दूँ। घर में बोर होती
रहती हूँ।''
''नहीं,'' हर्ष ने कुछ कठोरता से कहा, ''तुम कहीं नहीं जाओगी।''
इंदुजा ने शरारत से कहा, ''प्यार–मुहब्बत में सात लीवर का ताला
नहीं लगाया जाता हर्ष। मैं तो वह प्रत्यक्ष प्रदर्शन वाला काम
बड़ा मिस करती हूँ।''
हर्ष ने उसे पकड़कर झिंझोड़
दिया, ''तुम्हें प्रदर्शन का चस्का लगा है। बताओ दर्शन से
तुम्हारा क्या रिश्ता है? उसने कैसे जाना यह तुम्हारी पीठ की
तस्वीर है।''
''पागल हो, मैं क्या जानूं। दर्शन तुम्हारा दोस्त है। मैं क्या
तुम्हारे दोस्त को पीठ दिखाती फिरती हूँ?''
''हो सकता है उसने तुम्हें नहाते देख लिया हो, लापरवाह तो तुम
हो ही।''
''हर्ष तुम मनोरोगी की तरह बोल रहे हो। बाथरूम में दरवाजा नहीं
है पर पर्दा तो है न। और सारे दिन तो तुम घर पर ही होते हो।''
हर्ष पर कोई तर्क का असर न कर सका। वह विषादग्रस्त हो गया।
सफलता के बावजूद वह गुमसुम रहने लगा। लोग इस मौन को उसकी
संवेदना और गरिमा से जोड़ रहे थे। आए दिन पत्रकार उसका
साक्षात्कार लेने आते। वह अपनी अन्य सभी तस्वीरों पर बोलता
लेकिन पुरस्कृत तस्वीर ''पीठ'' पर चुप लगा जाता। उसे लगता मीडिया
उसका जीवन उघाड़ने का षड्यंत्र रच रहा है। |