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कहानियाँ  

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से
ममता कालिया की कहानी—''पीठ''


वह आईमैक्स एडलैब्स के विशाल गुंबद छविगृह के परिसर में, ''एडोरा'' के शोरूम में, तस्वीर की तरह, एक स्टूल पर बैठी थी। उसके चारों ओर तरह–तरह के विद्युत उपकरण चल–फिर रहे थे, जल–बुझ रहे थे। स्वचालित सीढ़ियाँ और पारदर्शी लिफ्ट को एक बार नजरअंदाज कर भी दिया जाए पर विद्युत झरने पर तो गौर करना ही पड़ा जो अपनी हरी रोशनी से उसे सावन की घटा बना रहा था।

कैफे की कुर्सी पर टिका–टिका हर्ष उसे बड़ी देर तक देखता रहा। उसे लगा, उसके सामने ४ x ६ का कैनवास लगा है जिस पर झुका हुआ वह इस ताम्रसुंदरी का चित्र बना रहा है। पहले वह हुसैन की तरह लंबी, खड़ी, तिरछी बेधड़क रेखाएँ खींचता है, फिर वह रामकुमार की तरह उसमें बारीकियाँ भर रहा है।

लेकिन बारीकियाँ भरने के लिए, अपने मॉडल को नजदीक से जानना होता है। वह कैफे से उठा।
एकदम सीधे उस तक पहुंचने की हिम्मत नहीं हुई।
वह गुंबद परिसर में बेमतलब घूमता रहा।
उसने नरम चमड़े के मूढ़ों पर बैठकर देखा। दूर से ये मूढ़े विशाल गठरी जैसे लग रहे थे लेकिन बैठते ही ये आरामकुर्सी में तब्दील हो गए। ज्यादा महंगे भी नहीं थे। लेकिन यह तय था कि ये जगह बहुत घेरते।

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