|
"रोज़ी यह बहुत अच्छी पेन्टर है ... . .कोई मामूली शख्सियत
नहीं . . ." रोज़ी की मुखमुद्रा में तो कोई अन्तर नहीं आता
था परन्तु गुल अवश्य ही ट्रांसफार्म सी होकर उस कगार पर
पहुँच जाती जाती थी जहाँ बहुत वर्ष पहले समीर के
प्रेम
में डूब कर बड़ी फिल्मी अदा से शिमला के 'स्कैन्डल प्वाइंट'
से भाग गई थी।
आज कौन कह सकता है कि कभी गुल सुन्दरी रही
होगी – अमीर बाप की लाड़ली बेटी गुल? समीर का मध्यम वर्गीय
परिवार और एक के बाद एक तीन बच्चों का जन्म . . तब से आज
तक बस काम ही काम, अंतहीन व्यस्तता – कभी बच्चों का महँगा
स्कूल, कभी मकान की किश्तें – कितना कुछ था जो उसके
व्यक्तित्व को तराश रहा था, कुरेद रहा था। कभी ब्रुश पकड़े
पेन्ट करती, कभी सस्ते सस्ते काम, पोस्टर और पत्रकारिता,
पैसे के लिए कुछ भी करती थी। गले में पैन्डैन्ट सा झूलता
चश्मा और दफ्तरी कागज़ जैसे उसके अस्तित्व का हिस्सा
बन गए थे – उसका घर भी तो कैसा था?
पहली बार गई थी तो उसके कमरे में सीली हुई हुमस थी, अजीब
सी तुर्श खट्टी, फरमेन्टेड सी महक और घर के उस पसरे हुए
सन्नाटे में गुल की दबी–दबी सिसकियों की सरसराहट भी तो थी
जो सारे वातावरण में धुएँ सी घुटी हुई थी। |