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'मैंने सोचा था, सर कि होटल राजहंस में एक रूम बुक करा लिया जाता। वहाँ खाने–पीने की व्यवस्था भी एक ढंग की है। आराम रहता वहाँ, सर।' उसने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा ताकि सर स्वीकृति दे दें।
'सो आप जानिए।'
वह आह्लाद से भर गया।

'चौदह की रात में ही वह आ जाएँगे। उनका प्रोग्राम है पंद्रह को विक्रमशिला विश्वविद्यालय के अवशेष देखने का। पुरातात्विक विषयों और वस्तुओं में सिन्हा साहब की गहरी रूचि है। आपके पास तो अपनी गाड़ी है . . .।' सर ने बात अधूरी छोड़ दी।
'वह सब हो जाएगा, सर!' उसका भाव था कि सर इन छोटी–छोटी बातों की चिंता न करें।
'और वे कुप्पा घाट भी जाना चाहते हैं। उस गुफा को देखना चाहते हैं जिसमें से होकर मीर कासिम भागा था।'
'जी सर।'
'और एक बात हम आपको बता दें। वे पान और पान के बहुत शौकीन हैं। समझ गए?'
'समझ गया, सर।' उसने विश्वास के साथ कहा।
'उन्होंने लिखा है, सोलह की रात का ही रिजर्वेशन करा लेने के लिए। वह आज ही करा लीजिएगा। अभी तो समय है, मिल जाएगा न?'
'हो जाएगा, सर।'
'ठीक है, अब आप जाइए। लेकिन संपर्क बनाए रखिएगा।'
'जी सर।' कहकर उसने अपने छोटे, से खूबसूरत बैग में से, जो बैग प्रायः ठेकेदार मार्का लोगों के हाथ में देखा जाता है, दो पैकेट डनहिल और शहर के सबके नामी पान वाले 'भूखा ब्रह्मचारी' के पान की पुड़ियों से भरा पोलिथीन निकाला और सर के सामने ठीक उसी भाव से रखा जैसे भक्त जन भगवान को पत्र–पुष्प–नैवेद्य अर्पित करते हैं।
फिर उसी भाव से सर के दोनों पांव छुए और जाने के लिए मुड़ गया।

वह ड्राइंग हाल से निकलकर बरामदे की सीढ़ियों तक ही पहुँचा था कि सर ने पीछे से आवाज दी।
'ऐ कैलाश।'
'सर!' वह तेजी से पलटा और लपककर ड्राइंग हाल के बीचोंबीच जाकर खड़ा हो गया।
'सिन्हा साहब को सुपर में रिसीव कर लेना। उनको पहचानते तो हो न?' सर अब सहज थे और अपने स्वाभाविक संबोधन 'तुम' पर आ गए थे। कैलाश ने मन ही मन इसको नोट किया।
'जी सर, पहचानते हैं। पिछली बार जो वायवा में आए थे . . .?
'तब ठीक है। उनको होटल में पहुँचाकर मुझे रिंग कर देना! ठीक?'
'अब आप निश्चिंत रहें, सर! किसी बात की कमी नहीं रहेगी, बस आपका आशीर्वाद भर बना रहे, सर।' उसने
भावावेश का स्वांग भरते हुए एक बार फिर आगे बढ़कर सर के पाँव छूने की मुद्रा बनाई और तेजी से पलटकर बाहर निकल गया।

कैलाश सिंह इस शहर के एक सबसे बड़े ठेकेदार और 'मसल मैन' बाबू बमशंकर सिंह का सुपुत्र है। इस परिचयात्मक वक्तव्य में यद्यपि कोई तथ्यगत भूल नहीं है, तथापि परिचय देने का यह ढंग वैसा ही बेढंगा लगता है जैसा यह कहना कि अमिताभ बच्चन हरिवंश राय बच्चन का बेटा है। कौन हरिवंश राय? नई पीढ़ी के पढ़े–लिखे लोग भी दनाक से पूछेंगे। लेकिन अगर आप इसे उलट दें तो चंद अपवादों को छोड़ शेष को यह सही और न्यायसंगत लगेगा। जैसे उस दिन हुआ जब तक लघु पत्रिका के 'इनर' पृष्ठ पर सतीनाथ भादुड़ी की रेखा–छवि देखकर एक स्थानीय साहित्यकार ने दोस्तों से कहा, 'ई सतीनाथ भादुड़ी कौन हैं जानते हैं? जया बच्चन के बाप।' 'अच्छा–अच्छा। हाँ, ठीक
कहते हैं, वह पहले जया भादुड़ी ही थी।'

एक सज्जन ने कुछ भाव से उद्गार व्यक्त किया कि कितने सौभाग्यशाली हैं सतीनाथ भादुड़ी, जया भादुड़ी का पिता होने का गौरव उन्हें प्राप्त है।

कैलाश सिंह अपने पिता से बीस नहीं, पच्चीस पड़ता है। ठेकेदारी में, मसलमैनी में और रौब–दाब में ही नहीं, राजनीति में भी। उसके पिता को राजनीति का ककहरा नहीं आता था और वह है कि जिला युवा . . .का अध्यक्ष है। खूब गोरे–गठीले शरीर पर राजीव गांधी कट कुर्ता–पायजामा–बंडी डाट कर जब वह मंच पर खड़ा होता है तो नेता लगता है। आने वाले चुनाव में वह अपने मूल गृह–क्षेत्र की उम्मीदवारी का प्रबलतम दावेदार है। उसके पास पैसा है। हथियार है। आदमी हैं। यानी सही अर्थ में जिसको ताकत कहते हैं और जिसके ही बल पर चुनाव जीते जाते हैं, वह है। एक सबसे बड़ा प्लस प्वाइंट उसके पक्ष में यह है कि वह जिस क्षेत्र का है, उसमें उसकी जाति की संख्या सबसे अधिक है। इतना ही नहीं, उस क्षेत्र का बारह आना धन–बल उसी जाति के पास है। आला कमान भी इस सच से अवगत
तथा सुंतष्ट है। कल यदि कैलाश सिंह आपको पटना या दिल्ली में सफेद मारूति पर उड़ता नजर आ जाए तो अचरज में नहीं पड़िएगा।

कैलाश सिंह के पिता बाबू बमशंकर सिंह की बहुत इच्छा थी कि उनका बेटा अंग्रेजी बोलने वाला ठेकेदार बने, क्योंकि वह स्वयं ठीक से हिंदी भी नहीं बोल सकते थे और यही कारण है कि उन्होंने अपनी मातृभाषा अंगिका को ही अंगिया लिया था। यह दीगर बात है कि इससे उनको लाभ ही हो गया था। वह जब ऑफिसों–अफसरों से खांटी, मुहावरेदार तथा गालियों से अलंकृत अंगिका में 'डील' करते थे तो काम दनादन–दनादन निकलता जाता था। मगर यह तो उपरली बात है। भीतरली बात यह है कि उनको अंग्रेजी बोलने वाले ठेकेदार अधिक भाते थे और इसीलिए वे कैलाश सिंह को बचपन से ही वैसी शिक्षा दिलाने के लिए सचेष्ट थे।

शहर के सबसे कीमती अंग्रेजी स्कूल में कैलाश सिंह का दाखिला कराया था बाबू बमशंकर सिंह ने। कैलाश सिंह की रगों में क्यों कि बाबू बमशंकर सिंह का लहू दौड़ता था और वैसे ही माहौल में वह सोलह–सत्रह घंटे रहता था, बचपन से ही वह पढ़ाई से अधिक शहर के शेर अपने पिता की चाल–ढ़ालों पर अधिक चलने लगा था। तथापि, इतना 'मिनिमम' लाभ तो हुआ ही था कि वह भारतीय और ब्रितानी दोनों ही से अलग तरह से उच्चारण तथा टोन वाली अंग्रेजी बोलना सीख गया था। बाबू बमशंकर सिंह के लिए इतना काफी था। काफी से भी ज्यादा। बाकी जो कसर–मसर
थी यानी डिग्री, वह तो अब बिकने लगी है और खरीदने के लिए भगवान की दया से उनके पास पैसे की कोई कमी नहीं थी।

सर (उनका नाम तो आप जानते ही हैं) उनके मित्र हैं। साथ–साथ उठना–बैठना, पीना–खाना यानी दांत–काटी रोटी है। सर के ही आशीर्वाद तथा प्रयासों से कैलाश सिंह ने हिस्ट्री में एम.ए. किया है। जी हाँ, जी हाँ, प्रथम वर्ग में। सर चाहते तो गोल्ड मेडल भी मिल सकता था, मगर वह उनकी एक चहेती शिष्या की 'झोली' में चला गया था। सर के ही आशीर्वाद से कैलाश सिंह का शोध–प्रबंध भी तैयार हो गया था। तीन सप्ताह के रिकार्ड समय में दोनों परीक्षकों की रिपोर्ट आ गई थी और अब सोलह को मौखिकी है।

ताली एक हाथ से तो बजती नहीं है। बदले में उनकी ताकत के बल पर सर बब्बर शेर की तरह विभाग में, विश्वविद्यालय में और शहर में भी चलते हैं। आलीशान घर में रहते हैं। हमेशा चमचमाती रहने वाली गाड़ी में घूमते हैं। विश्वविद्यालय की राजनीति को अपनी मुठ्ठी में रखते हैं। विभाग हो कि विश्वविद्यालय या शहर, तनिक भी गड़बड़ होने पर कैलाश सिंह  (पहले बाबू बमशंकर सिंह) मिनटों में विज्ञापन वाले जिन की तरह अपने आदमियों
तथा हथियारों से गाड़ी भर कर आते हैं और सर का हिलता हुआ रौब पुनः मजबूती से गाड़कर लौट जाते हैं।

चौदह की रात में कैलाश सिंह अपने आदमियों तथा दो गाड़ियों के साथ स्टेशन पर उपस्थित था। सिन्हा साहब ने सर को गाड़ी के साथ–साथ बोगी नंबर की भी सूचना दे दी थी – एस–थर्टीन। सो कोई परेशानी नहीं हुई। सिन्हा साहब को उचित सम्मान के साथ रिसीव किया गया। एक गाड़ी में उनको बिठाया गया। दूसरी में कैलाश सिंह तथा उसके लोग बैठे। और इस प्रकार मय सामान उनको होटल राजहंस पहुँचा दिया गया। तीन सितारा होटल, उसकी चमक–दमक, इंतज़ाम–बात देखकर सिन्हा साहब मन ही मन खुश हुए।
'चौधरी साहब ठीक हैं?' अपनी खुशी को इस प्रश्न में भरकर सिन्हा साहब ने कैलाश सिंह से पूछा।
'जी सर! उनको सूचित कर दिया है। अभी कुछ मिनटों में आ रहे हैं।'
'काहे को कष्ट दिया उनको रात में। सुबह भेंट होती। मैं ही जाता उनके यहाँ।'
कैलाश सिंह कुछ नहीं बोला। वह जानता है, इस तरह के शब्द खाली खोखों की तरह होते हैं – अर्थहीन। इनका जवाब मौन ही होता है।
सर आए। सिन्हा साहब ने उठकर उनको अंक में भर लिया।
'कैसे हैं, डाक्टर साहब आप?'
'बस कट रहा है किसी तरह। आप बताइए। यात्रा कैसी रही?'
'आजकल की यात्रा तो, डॉक्टर साहब आप जानते ही हैं . . .अब अनुशासन नाम की कोई चीज तो रही नहीं, न कोई रोकने–टोकने वाला है उनको। स्लीपर और जनरल बोगी में कोई फर्क ही नहीं रह गया है। आप अपने मुकाम पर सही–सलामत पहुँच जाते हैं तो शुकर मनाइए।'
'तो कुछ थकान मिटाने की व्यवस्था हो! क्यों?' सर ने मंद हास के साथ गंभीर स्वर में पूछा।
'हाँ, कुछ हो जाए तो मजा आ जाए।'
'कैलाश?'
'सर!' कहकर कैलाश सिंह कमरे से बाहर हो गया।

थोड़ी देर में होटल राजहंस में उपलब्ध सबसे अच्छी व्हिस्की की बोतल, दो ग्लास, सोड़ा बर्फ और कलेजी, शाही कबाब, नमकीन काजू की प्लेटें एक बड़ी ट्रे पर लिए हुए एक वेटर आ गया। सारा सामान एक खूबसूरत टी–टेबुल पर सजाकर उसने पहला पैग बनाया। तब तक दूसरा वेटर डनहिल का पैकेट, माचिस और 'भूखा ब्रह्मचारी' का पान लेकर हाजिर हुआ।

सर ने भी सिन्हा साहब के साथ ही डिनर लिया। सिन्हा साहब को 'गुड़ नाइट' कहकर सर जब मुगले आजमी चाल में चलते हुए हाल में आए तो कैलाश सिंह और उसके आदमी उठकर खड़े हो गए।
'अरे, तुम अभी तक यहीं हो।'
'आपको घर तक पहुँचाए बिना कैसे चला जाता, सर।'
कैलाश सिंह की दो गाड़ियों के बीच में सर की गाड़ी थी। अपने आवास पर पहुँचकर सर ने कहा, 'अब तुम जाव। बहुत रात हो गई।'
दूसरे दिन कैलाश सिंह ने सिन्हा साहब को शाही मेहमान की तरह घुमाया। विक्रमशिला के अवशेष दिखाए। कुप्पा घाट ले जाकर वह गुफा दिखाई जिसमें से भागकर मीर कासीम मुंगेर गया था और जिसमें साधना करके, कहते हैं, महर्षि मेंही ने सिद्धि प्राप्त की थी। चिल्ड बीयर और खाने–पीने का सारा सामान पास में होने के कारण यात्रा बड़े मजे की रही। सिन्हा साहब ने खूब 'एनज्वाय' किया।
वे लोग जब लौटकर होटल में आए तो सिन्हा साहब ने पूछा, 'और तो यहाँ कुछ देखने की चीज नहीं है, कैलाश?'
'नहीं, और तो ऐसा कुछ नहीं है, सर?'
'सुनते हैं, यहाँ का सिल्क बड़ा नामी होता है। वाइफ बोल रही थी कि एक्सपोर्ट होता है। क्या सचमुच?'
'जी हाँ सर! यहाँ का सिल्क बनारसी और साउथ जैसा तो नहीं होता है, मगर इसकी अपनी एक अलग पहचान बन गई है। आप कुछ देखना चाहेंगे क्या, सर?'
'सोच रहा था वाइफ के लिए एकाध साड़ी–वाड़ी होता तो ले लेता . . .।'
'ठीक है सर। आप कुछ देर आराम करें। मैं सात बजे आ जाऊँगा। तब चलेंगे।'
कैलाश सिंह सिन्हा साहब को सिल्क की सबसे बड़ी दूकान में ले गया। उसको देखकर दूकानदार गद्दी पर उठकर खड़ा हो गया।
'आइए, आइए कैलाश बाबू! धन्य भाग हमारे कि . . .।'
'जरा कुछ अच्छी साड़ियाँ दिखलाइए तो।'
दूकान का सबसे होशियार सेल्समैन साड़ियाँ दिखाने लगा। एक–एक साड़ी को वह अदा के साथ दोनों हाथों से सामने रखता, खोलता और उसका दाम भी साथ–साथ बोलता जाता।
'तुम चीज दिखाव, दाम हम देख लेंगे बाद में?' कैलाश सिंह ने टोका।
सिन्हा साहब के सामने साड़ियों का इतना ऊंचा अंबार लग गया कि वह उसमें डूब–से गए। वह एक–एक साड़ी को छूकर देखते जाते थे।
'बड़ा मुश्किल होता है 'सेलेक्ट' करना। तुम कुछ मदद करो न।' सिन्हा साहब ने कैलाश सिंह से कहा।
'देखा जाए न सर। वैसे मैडम का कंप्लेक्शन . . .
'कंप्लेक्शन तो फेयर ही है।'
'तब तो यह वाली ली जा सकती है, सर।' कैलाश सिंह ने उसी पर उंगली रख दी जिसको सिन्हा साहब बार–बार उलट–पलट कर देख रहे थे।
'हाँ, यह बहुत अच्छी चीज है सर!' सेल्समैन तपाक से बोल पड़ा, 'इसका आंचल भी बहुत सुंदर है।' उसने आंचल खोलकर दिखाया। फिर साड़ी को अपने बदन पर रखकर दिखाया हालांकि उसका रंग लाल गोरा था।
'कितने की है यह साड़ी?' सिन्हा साहब ने पूछा।
'कुछ नहीं सर! मात्र बत्तीस सौ साठ रूपए की है।'
'यही ले ली जाए, सर। अच्छी चीज है,' कैलाश सिंह ने जोर दिया।
'पर अभी तो मेरे पास उतने पैसे नहीं हैं। होटल में हैं।'
'आप पैसे की चिंता क्यों करते हैं, सर।' कैलाश सिंह ने कहा।
'इसे अपनी ही दूकान समझिए साब। फिर जब कैलाश बाबू हैं तो . . .।' दूकान–मालिक बोला।
'वह साड़ी अलग कर दो?' कैलाश सिंह ने सेल्समैन से कहा।
एक आदमी जल्दी–जल्दी साड़ियों को हटाने लगा। उनमें से एक साड़ी की ऊपरी परत को उंगलियों में लेते हुए सिन्हा साहब बोले, 'साड़ी तो यह भी अच्छी है, क्यों कैलाश?'
'है ही। इसको भी ले ही लिया जाए, सर। ले ही जाइएगा तो एक ठो क्या ले जाइएगा। कम से कम दो पीस . . .।'
'
नहीं–नहीं, मेरा मतलब था कि उसके बदले इसको भी . . .।'
'उसको तो रहने ही दिया जाए, सर। ऐ इसको भी अलग कर दो?'
'और क्या दिखाया जाए, सर?'
'इसका ब्लाउज–पीस दे दो।'
'ब्लाउज–पीस तो इसमें है ही, सर।'
'औ! तब तो ठीक ही है। और तो . . .लड़कियों के लिए सूट–वूट भी रखते हैं क्या?'
'हाँ साब! एक सूट निकालो!' सेल्समैन ने एक तीसरे आदमी को सेल्समैनी ताव के साथ कहा।
'बच्ची कितने साल की है सर?'
'यही कोई बीस की होगी।' सिन्हा साहब ने थोड़ा अटककर कहा।
सूट दिखाया जाने लगा। सिन्हा साहब तो एक ही लेना चाहते थे, मगर यहाँ भी कैलाश सिंह ने जिद करके दो छँटवा दिए।
'बस हो गया, पैक कर दो।' सिन्हा साहब बोले तो लगा जैसे उनके शब्द हाँफ रहे हों।
'आप नहीं लेंगे सर अपने लिए कुछ।' कैलाश सिंह ने कहा।
'अरे मेरी छोड़ो।' सिन्हा साहब अच्छी–अच्छी चीजें खा–खाकर अफर गए आदमी की तरह बोले।
'नहीं सर। ऐसा कैसे हो सकता है। ऐ सुनो?' उसने सेल्समैन से कहा, 'एक सोबर कलर का थान दो।'

सिन्हा साहब तो ना–नुकर करते ही रहे, मगर कैलाश सिंह ने एक थान भी पैक करवा दिया।
तीन खूबसूरत पोलिथिन बैगों में सारे कपड़े पैक करके सैल्समैन ने सामने कर दिए।
सिन्हा साहब ने झिझकते हुए अपने हिप पॉकेट से पर्स निकाला। उसे खोला।
'यह सब मेरे नाम पर लिख लीजिए?' कैलाश सिंह ने सेठ जी से कहा, फिर सिन्हा साहब से बोला, 'आप रहने न दीजिए सर।'
'ठीक है। कितना हुआ टोटल बिल? चलिए मैं होटल पर आपको दे दूँगा।'

कैलाश सिंह कुछ बोला नहीं। उसने पैकेट उठाए और चल दिया। सिन्हा साहब भी पीछे–पीछे चले। सेठ जी तथा सेल्समैन दोनों ने कैलाश सिंह को, फिर सिन्हा साहब को प्रणाम किया।
सोलह तारीख को ग्यारह बजे से मौखिकी थी। सर और सिन्हा साहब साथ–साथ आए लेकिन अलग–अलग गाड़ी में। कैलाश सिंह की एक गाड़ी हमेशा सिन्हा साहब की सेवा में होटल राजहंस के सामने पार्क रहती थी। वह उसी से सुबह सर के यहाँ चाय पीने गए थे।

कैलाश सिंह ने कुल सचिव से मिलकर सिन्हा साहब टी.ए. आदि के नकद भुगतान का प्रबंध कर लिया था। वी.आई.पी. केसेज में ऐसा होता है। साथ ही प्रति कुलपति से आदेश लेकर ए.सी. का टी.ए.भी पास करा लिया था। वैसे विश्वविद्यालय का परिनियम है कि प्रथम श्रेणी का टी.ए. ही सबको देय होगा। मगर सिन्हा साहब जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान की खातिर, जो ज्यादातर तो प्लेन से ही यात्रा करते हैं, कभी–कभी ट्रेन से करनी पड़ती
है तो ए.सी. में चलते हैं, परिनियम में ढील दे देना कोई असंगत बात नहीं थी।

आखिरकार मौखिकी के लिए अध्यक्ष अर्थात सर के कक्ष में कुर्सियों की दो गोलाकार कतारों में विभाग तथा स्थानीय कॉलेज के शिक्षक, पड़ोसी विभागों के अध्यक्ष आदि उपस्थित हुए। सबके बेठते ही खूब कीमती मीठा–नमकीन बिस्कुटों के साथ कॉफी सर्व हुई। लोग बिस्कुट टूँगते तथा कॉफी सिप करते हुए देश–दुनिया की चिंता लगे। कुछ अजाक–मजाक भी चला। ठहाके लगे। मौखिकी का दिन सुख का दिन होता है – सभी जानते हैं। वह भी कैलाश सिंह जैसी हस्ती की। सभी सुखी थे। भीतर–बाहर दोनों से।

कैंडिडेट को बुलाया गया। कैलाश सिंह आकर एकमात्र खाली कुर्सी पर बैठा। सभी गंभीर हो गए।
'कुछ पूछिए।' सर ने सिन्हा साहब से कहा।
'मुझे तो जो पूछना था, पूछ चुका हूँ। दो दिन से ये मेरे साथ हैं। लगातार बातें होती रही हैं।
'फिर भी कुछ।'
'अच्छा तो मि.कैलाश। आपको इस विषय पर काम करने की प्रेरणा कैसे मिली?'
'सर से।' कैलाश ने संक्षिप्त उत्तर दिया, 'सर के ही आशीर्वाद से मैं यह काम कर सका हूँ, वरना मेरी क्या औकात है, सर।'
'लेकिन काम तो आपका बहुत अच्छा है।'
'सब सर की कृपा है, सर!'
'मैं आपको इतने अच्छे काम के लिए बधाई देता हूँ।' सिन्हा साहब ने कैलाश सिंह की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा, 'आप इस थीसिस को पब्लिश जरूर कराइए। वैसे मैं ट्राय करूँगा कि ऑल इंडिया हिस्ट्री सोसायटी अगर इसे पब्लिश करे तो सो मच सो गुड। अब आप लोगों को कुछ पूछना हो तो पूछिए।'
जवाब में एक साथ कई 'बधाई'। तथा 'कांग्रेट्स' के स्वर गूँज उठे।
ठीक उसी समय नाश्ते की डिश  (थाल कहा जाए तो सही होगा) आ गई। आदर्श का शाही टोस्ट और रसमलाई, आनंद का आनंद बड़ा, कानपुर वाले की काजू–बरफी, नमकीन काजू तथा दालमोठ, अंगूर, सेव, केला आदि।
'यह नाश्ता है कि भोजन, कैलाश जी!' एक लोकल कालेज के टीचर ने थाल देखकर मस्का मारा।
'भोजन की व्यवस्था राजहंस में है, सर। आप सभी लोग सादर आमंत्रित हैं।' कैलाश सिंह ने हाथ जोड़कर अत्यंत
विनीत भाव से कहा।

नाश्ते के बाद लीफ की चाय आई। पान–सिगरेट, सौंफ–लौंग–इलायची की प्लेट आई।
उस दिन होटल राजहंस के सभी टेबुल कैलाश सिंह के नाम से बुक थे।
कई गाड़ियों में भरकर विश्वविद्यालय के अधिकारी, विभागों के अध्यक्ष तथा अनेक शिक्षक, शोध–शाखा के सभी कर्मचारी, कई एस.ई तथा एक्जिक्यूटिव इंजीनियर, ठेकेदार आदि आए। बाबू बमशंकर सिंह भी अपने संगी–साथियों के साथ उपस्थित थे। बल्कि, बाबू बमशंकर सिंह की खुशी का ही इजहार थी वह विशाल पार्टी।
सबने खूब छककर पिया, खाया और गाड़ियों में लदकर विदा हुए।
सिन्हा साहब को 'सी आफ' करने के लिए कैलाश सिंह अपने आदमियों के साथ होटल राजहंस पहुँचा। सर से वह विदा ले चुके थे।
उसने एक खूबसूरत एयर बैग सिन्हा साहब के सामने रखा तो एकाएक वे चौंक से गए।

'इसमें क्या है भई?'
'कुछ नहीं सर। इसमें रास्ते के लिए थोड़ा–सा नाश्ते का सामान और रात का खाना है।'
सिन्हा साहब ने थैले की चेन खोली। अंदर कई पोलिथिन बैग भरे पड़े थे। दो–दो किलो काजू, किसमिस, अखरोट और अंगूर थे। एक में आदर्श की मिठाइयों का बड़ा सा डिब्बा था। कुछ अच्छे बिस्कुट थे। स्टील के एक बड़े टिफिन में रात का खाना था। एक पोलिथिन में पान था। पांच सौ नंबर बाबा का एक डिब्बा और दो पैकेट चांसलर।
'अरे, इतना क्या होगा, यार।'
'रास्ते में ज़रूरत पड़ेगी, सर। गाड़ी में तो कुछ मिलता नहीं है। और जो बचेगा, घर में बच्चे लोग खाएँगे, सर।' कैलाश सिंह ने विनीत भाव से कहा।
'
अच्छा, आपके पैसे कितने हुए? रिजर्वेशन भी आप ही ने कराया है।' सिन्हा साहब ने हिप पॉकेट पर दायाँ हाथ रखकर पूछा।

कैलाश सिंह ने दोनों हाथों से सिन्हा साहब के पैर पकड़ लिए और उनके सामने अपना सर करते हुए बोला, 'आप चाहे जितना जूता मार लीजिए, सर! हमारा सर हाजिर है। मगर इस तरह बेगानों जैसी बात बोलकर दिल मत तोड़िए, सर। आपको मैं सर से जरा भी कम नहीं मानता हूँ, सर! और आपकी सेवा करना अपना अधिकार समझता हूँ। हमारा यह अधिकार नहीं छीनिए, सर।'

सिन्हा साहब गद्गद थे। उनका हृदय ही नहीं गला भी भर आया था। उन्होंने कैलाश सिंह के माथे पर स्नेह से हाथ फेरा। कुछ बोले नहीं। बोल ही नहीं पाए . . .

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९ अगस्त २००४

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