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कहानियाँ   

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से देवेन्द्र सिंह की कहानी— 'मौखिकी'


"ओऽ! सिन्हा साहब का पत्र आ गया सर!" वह खुशी के झोंके में यह एक फालतू वाक्य बोल गया। बोलने के साथ ही उसे ख्याल आया, क्योंकि वह जानता है, सर फालतू बातों को बर्दाश्त नहीं करते हैं।
उसने सर को देखा। उनका मुखमंडल कठोर हो गया था और आंखों का पैनापन भी बढ़ गया था।
"आज बारह तारीख है। इस बीच सब इंतजाम कर लीजिएगा?" सर ने शून्य में आंखें गड़ाए हुए ही प्रश्न किया।
"क्या–क्या करना होगा सर?"
"
सबसे पहले तो आज ही यूनिवर्सिटी गेस्ट हाउस में एक रूम बुक करा लीजिए। आज ही, समझ गए न!"
"लेकिन गेस्ट हाउस में . . .।"
"क्या?"
"जी ऐसा है, सर। गेस्ट हाउस के केयरटेकर से हमने बात की थी। बोले, वहाँ पानी की बहुत दिक्कत है। जेनरेटर बिगड़ा पड़ा है। खाना वहाँ ढँग का . . .खैर खाना तो सर बाहर से भी पहुँचाया जा सकता है, मगर बिना पानी के . . .और बिजली भी नहीं रहती है, बहुत दिक्कत हो जाएगी वहाँ सर।"
"तब?"

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