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आगे की बात माँ ने पूरी की है – शांति बेचारी जिंदगी भर खटती रही और अकेले बच्चों को पढ़ाती लिखाती रही, तेरे अंकल तो नौकरी के चक्कर में हमेशा दौरों पर रहे। जब आराम करने का वक्त आया तो कैंसर उसे खा गया। माँ का गला भर आया है।

माँ बता रही है कि संदीप कानपुर से एक मैच खेल कर लौट रहा था। रास्ते में किसी बस अड्डे पर कुछ खा लिया होगा उसने जिससे फूड पाइज़निंग हो गई और यहाँ तक तो पहुँचते पहुँचते तो उसकी यह हालत हो गई थी कि वहीं बस अड्डे से दो एक लोग उसे अस्पताल ले गए। जब तक घर में खबर पहुँचती‚ वह तो खतम हो चुका था। पता भी नहीं चल पाया कि उसने किस शहर के बस अड्डे पर क्या खाया था।
अभी बेचारी शांति की राख भी ठण्डी नहीं हुई थी कि...

मेरे सामने दोहरी दुविधा है। मैं संदीप की बीवी से पहली ही बार और वह भी कैसे दुखद मौके पर मिल रहा हूँ। पता चला था संदीप की पत्नी बहुत ही खूबसूरत और साथ ही स्मार्ट भी है। शांति आँटी और अंकल भी हमेशा उसकी तारीफ करते रहते थे। मैं कल्पना भी नहीं कर पा रहा हूँ कि इतनी अच्छी लड़की को शादी के सिर्फ साल भर के भीतर विधवा हो जाना पड़ा। क्या सोचती होगी वह भी कि पहले सास गयी और अब खुद का सुहाग ही उजड़ गया।

मेरा संकट है‚ मैं ऐसे मौकों पर बहुत ज्यादा नर्वस हो जाता हूँ। मातमपुर्सी के लिए मेरे मुँह से लफ्ज़ ही नहीं निकलते। मुझे समझ ही नहीं आता कि क्या कहा जाए और कैसे कहा जाए। घबरा रहा हूँ कि मैं कि उन लोगों का सामना कैसे करूँगा। एक तरफ अंकल हैं जो मुझे बहुत मानते हैं और इन दो महीनों में ही पत्नी और जवान बेटा खो चुके हैं और
दूसरी तरफ़ संदीप की पत्नी है जिससे मैं पहली बार मिल रहा हूँ।

इससे पहले कि मैं झुक कर अंकल के पैर छूता‚ अंकल ने बीच में ही रोककर मुझे गले से लगा लिया है। शिकवा कर रहे हैं कि मैं कितनी बार यहाँ आया और घर पर एक बार भी नहीं आया। मेरे पास कोई जवाब नहीं है और मैं झेंपी हुई हसी हँस कर रह जाता हूँ। देखता हूँ इस बीच वे पहले की तुलना में बहुत कमज़ोर लग रहे हैं। आखिर दो मौतों का गम झेलना कोई हँसीं खेल नहीं। मैं संदीप या आँटी के बारे में कुछ कहने को होता हूँ कि वे मुझसे पूछ रहे हैं बंबई के हालचाल और बाल बच्चों के बारे में । मैंने एक सवाल का जवाब दिया नहीं होता कि वे दूसरा सवाल दाग देते हैं। मैं खुद किसी तरह से बातचीत का सिरा उस तरफ मोड़ना चाहता हूँ ताकि अफसोस के दो शब्द तो कह सकूँ। बाऊजी ने एकाध बार बात घुमाने की कोशिश भी की लेकिन मेहता अंकल हैं कि हँस–हँस कर इधर उधर की बातें कर रहे हैं। ठहाके लगा रहे हैं। तभी पारुल पानी की ट्रे लेकर आई है। मैं उठ कर उसे हेलो कहता हूँ। वह हौले से जवाब देती है। बेहद सौम्य और खूबसूरत लड़की। चेहरे पर गज़ब का आत्मविश्वास। लेकिन हाल ही के दोहरे सदमे ने उसके चेहरे का सारा रस और नूर छीन लिया है। शादी के साल भर के भीतर उसकी जिंदगी क्या से क्या हो गई। इतने अरसे में तो पति पत्नी एक दूजे को ढँग से पहचान भी नहीं पाते और...

तय नहीं कर पा रहा हूँ बातचीत किस तरह से शुरू करूँ। और कोई मौका होता तो कोई भी हलकी फुलकी बात कही जा सकती थी लेकिन इस मौके पर...तभी अंकल ने उसे फरमान सुना दिया है – अरे भई‚ दीपक को कुछ नाय नाश्ता कराओ।
बरसों बाद हमारे घर आया है। और वे गाने लगे हैं – बंबई से आया मेरा दोस्त।

पारुल चाय का इंतज़ाम करने चली गई है। अंकल ने बातचीत को अलग ही दिशा में मोड़ दिया है। वे कोई पुराना किस्सा सुनाने लगे हें। मैं फिर संदीप के बारे में बात करना ही चाहता हूँ कि पारुल चाय ले कर आ गई और मेरा वाक्य अनकहा ही रह गया।

चाय पारुल ने खुद बना कर सबको दी है। अचानक सब खामोश हो गए हैं और कुछ देर तक सिर्फ चाय की चुस्कियों की ही आवाज़ आती रही। चाय खत्म हुई ही है कि पारुल ने अगला फरमान सुना दिया है – आप लोग खाना खा कर ही जाएँगे। पारुल ने जिस अपनेपन और अधिकार के साथ कहा है‚ उसमें मना करने की गुंजाइश ही नहीं है।

पारुल के चले जाने के बाद भी मैं देर तक बातचीत के ऐसे सूत्र तलाशता रहा कि किसी भी बहाने से सही‚ कम से कम दो शब्द अफसोस के कह ही दूं। दो एक बार आंटी और संदीप का ज़िक्र भी आया लेकिन बातचीत आए–गए तरीके से आए बढ़ गई। मैं हैरान हो रहा हूँ कि अभी तो आंटी और संदीप को गुज़रे महीना भर ही हुआ है‚ और अंकल ने उन्हें अपनी यादों तक से उतार दिया है।

अब बाऊजी और मेहता अंकल की बातचीत अपनी निर्धारित गति से अपनी पुरानी लकीर पर चल पड़ी है और मैं उसमें कहीं नहीं हूँ। में मौका देख कर कमरे से बाहर आ गया हूँ और कुछ सोच कर रसोई में चला गया हूँ जहाँ पारुल खाना बनाने की तैयारी कर रही है। मुझे देखते ही पारुल ने उदासी भरी मुस्कुराहट के साथ मेरा स्वागत किया है । मैं यहाँ भी बातचीत शुरू करने के लिए सूत्र तलाश रहा हूँ । हम दोनों ही चुप हैं।
पारुल ने ही उबारा है मुझे– बंबई से कब आए आप?
आज सुबह ही। आते ही संदीप का पता चला तो...।
मैंने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया है। पारुल भी चुप है। मैं ही बात का सिलसिला आगे बढ़ाता हूँ – दरअसल‚ मैं आप लोगों की शादी में नहीं आ पाया था इसलिए आपसे नहीं मिल पाया था लेकिन संदीप के साथ मेरी खूब जमती थी। मैं आपसे
मिल भी रहा हूँ तो इस हाल में । मेरी आवाज भर्रा गई है।

पारुल की आँखें भर आई हैं। थोड़ी देर बाद उसी ने बातचीत का सिरा थामा है – मैं आपसे पहली बार मिल रही हूँ लेकिन आप के बारे में काफी कुछ जानती हूँ। पापा और संदीप अक्सर आपकी बातें करते रहते थे।

पारुल ने शायद जानबूझ कर बात का विषय बदला है।
मैंने भी बात को मोड़ देने की नीयत से कहा – मैं कुछ मदद करूँ क्या?
मुझे लगा‚ यहाँ उसके साथ कुछ और वक्त बिताना जाना चाहिए।
नहीं‚ बस सबकुछ तैयार ही है।
आपने बेकार में तकलीफ़ की।

इसमें तकलीफ़ की क्या बात‚ मुझे खाना तो बनाना ही था। और फिर मेरे घर तो आप पहली ही बार आए हैं। संदीप होंते तो भी आप खाना खाते ही। उसकी आवाज़ भर्रा गई है।
नहीं यह बात नहीं है। दरअसल...
उसने कोई जवाब नहीं दिया है।

अब क्या करने का इरादा है। मैंने बातचीत को भविष्य की तरफ मोड़ दिया है।
सोच रही हूँ घर पर ही रह कर कमर्शियल आर्ट का अपना पुराना काम शुरू करूँ। संदीप कब से पीछे पड़े थे कि सारा दिन घर पर बैठी रहती हो‚ कुछ काम ही कर लो। पहले मम्मी जी की बीमारी थी फिर ये दोहरे हादसे। मैं तो एकदम अकेली पड़ गई हूँ। मुझे क्या पता था कि जब संदीप की बात मानने का वक्त आयेगा‚ तब वही नहीं होगा...
मेरी मदद की जरूरत हो तो बताना।
बताऊँगी‚ अभी कब तक रहेंगे यहाँ?

दसेक दिन तो हूँ ही। आऊँगा फिर मिलने। बल्कि आपका उस तरफ आना हो तो...।
घर से निकलना नहीं हो पाता। फिर भी आऊँगी किसी दिन।
तभी अंकल की आवाज आई है – अरे भई‚ यहाँ भी कोई आपका इंतज़ार कर रहा है। थोड़ी सी कम्पनी हमें भी दे दो। मैं पारुल को वहीं छोड़ कर ड्राइंग रूम में वापिस आता हूँ।
देखता हूँ – अंकल ने बोतल और तीन गिलास सजा रखे हैं। मुझे देखते ही उन्होंने पूछा है
अभी भी अपने बाप से छुप कर पीते हो या उसके साथ भी पीनी शुरू कर दी है ?
और उन्होंने एक ज़ोरदार ठहाका लगाया है।
आओ बरखुरदार तुम्हारी इस विजिट को सेलिब्रेट करें।
मुझे समझ में नहीं आ रहा‚ पैंसठ साल का यह बूढ़ा और कमज़ोर आदमी दोहरी मौतों के दुख से सचमुच उबर चुका है या इन ठहाकों‚ हँसी मज़ाक और शराब के गिलासों के पीछे अपना दुख जबरन हमसे छुपा रहा है। बाऊजी इस वक्त खिड़की के बाहर देख रहे हैं।

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१ सितंबर २००४

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