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कहानियाँ  

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से सूरज प्रकाश की कहानी — मातमपुर्सी


इस बार भी घर पहुँचने से पहले ही बाउजी ने मेरे लिए मिलने जुलने वालों की एक लम्बी फेहरिस्त बना रखी है। इस सूची में कुछ नामों के आगे उन्होंने खास निशान लगा रखे हैं‚ जिसका मतलब है‚ मुझे उनसे तो ज़रूर ही मिलना है।
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इस शहर को हमेशा के लिए छोड़ने के बाद अब यहाँ से मेरा नाता सिर्फ़ इतना ही रहा है कि साल छः महीने में हफ्ते दस दिन की छुट्टी पर मेहमानों की तरह आता हूँ और अपने खास खास दोस्तों से मिल कर या फिर माँ बाप के साथ भरपूर वक्त गुज़ार कर लौट जाता हूँ। रिश्तेदारों के यहाँ जाना कभी कभार ही हो पाता है। हर बार यही सोच कर आता हूँ कि इस बार सबसे मिलूँगा‚ सब की नाराज़गी दूर करूँगा‚ लेकिन यह कभी भी संभव नहीं हो पाया है। हर बार मुझसे नाराज़ होने वाले मित्रों की
संख्या बढ़ती रहती है और मैं हर बार समय की कमी का रोना रोते हुए लौट जाता हूँ।
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लेकिन बाउजी की इस फेहरिस्त में सबसे पहला नाम देखते ही मैं चौंका हूँ। उस पर उन्होंने दोहरा निशान लगा रखा है। मैंने उनकी तरफ सवालिया निगाह से देखा है। उन्होंने हौले से कहा है – मैंने तुझे लिखा भी था कि मेहता की वाइफ गुज़र गई है। मैंने तुझे अफ़सोस की चिट्ठी लिखने के लिए भी लिखा था। अभी बेचारा बीवी के सदमे से उबरा भी नहीं था कि अब महीना भर पहले संदीप भी नहीं रहा। मैं अवाक रह गया – अरे...संदीप...क्या हुआ था उसे? वह तो भला चंगा था‚ बल्कि उसकी शादी तो साल भर पहले ही हुई थी। मैंने उसे कार्ड भी भेजा था।

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