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बेसमेंट में जलते बल्ब की रोशनी सीधे मास्टर के चेहरे पर पड़ रही थी। साथियों ने उसे घेर रखा था। वे सब उससे इस्तीफ़े की वजह जानना चाहते थे। पहले मास्टर टाल–मटोल करता रहा था, पर अँत में उनकी ज़िद के आगे उसने हथियार डाल दिए थे। उसकी आँखें बंद थीं, माथे पर बल पड़े हुए थे, मानो समझ न पा रहा हो कि अपनी बात कहाँ से शुरू करे।

बाहर शाम से ही तेज़ हवाएँ चल रही थीं, अब आँधी चलने लगी थी। एकाएक बत्ती गुल हो गई और वहाँ घुप्प अँधेरा छा गया। मास्टर को अपनी राम–कहानी सुनाने के लिए जैसे अँधेरे का सहारा चाहिए था। उसका गंभीर स्वर बेसमेंट में गूँजने लगा।

सालों पहले एक मामूली–सी बात पर नाराज़ होकर मैं घर से भाग आया था। उस समय घरवालों के प्रति मन में इतना गुस्सा भरा हुआ था कि मैंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा था। शुरू–शुरू में अक्सर माँ की याद आती थी, तब मैं खुद को काम में इस कदर झोंक देता था कि उसके बारे में सोचने की कोई गुँजाइश ही नहीं बचती थी। इस तरह मैंने कोशिश कर उनकी याद को पूरी तरह दिल से बाहर निकाल फेंका था। अगर मैनेजर साहब उस दिन मुझे अंडों की सप्लाई के साथ लखनऊ न भेजते तो शायद जीते–जी मेरे मन में नौकरी से इस्तीफ़ा देकर घर लौट जाने की बात कभी न आती।

ट्रकों के काफ़िले के साथ लखनऊ रवाना होते ही मैं घरवालों के बारे में सोचने लगा था . . .माँ और बाबूजी कैसे होंगे? माँ तो अक्सर बीमार रहती थीं, कहीं उन्हें कुछ हो न गया हो? . . .चमकती आँखों वाला मेरा भाई! अब तो उसकी शादी भी हो गई होगी . . .यादों की रीलें दिमाग में सरपट दौड़े जा रही थी।

कैसरबाग गोदाम पर ट्रकों को अनलोडिंग के लिए छोड़ने के बाद मेरे पास एक दिन का समय था। घर जाऊँ कि न जाऊँ, यही मेरे भीतर चल रहा था। माँ की ममतामयी सूरत याद कर जो उत्साह मन में पैदा होता था, बाबूजी की याद आते ही ठंडा पड़ जाता था। अंत में मैंने यही फैसला किया कि दूर से ही उन्हें देखकर लौट आऊँगा, भीतर नहीं जाऊँगा।

मोहल्ला ठीक वैसा ही था, जैसा मेरे बचपन के दिनों में था। बस, सड़क पहले से कुछ तंग (संकरी) मालूम हो रही थी। कई परिचित चेहरे दिखाई देने लगे थे, किसी ने मुझे नहीं पहचाना। वहाँ की एकमात्र जनरल मर्चेण्ट की दुकान पर मेरे बचपन का दोस्त बैठा हुआ था। दुकान के सामने मैं एक पल के लिए ठिठका, उसने उचटती–सी नज़र मुझ पर डाली और काम में लग गया। मतलब साफ़ था इन बीस वर्षों में मैं अपनी पहचान खो बैठा था।

तिमंज़िले पर स्थित घर की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मैं बुरी तरह हाँफने लगा था। ये वही सीढ़ियाँ थी, जिन्हें मैं एक साँस में दौड़ते हुए तय कर लेता था।
मैं सोच में पड़ गया था – माँ और बाबूजी ये सीढ़ियाँ कैसे चढ़ते–उतरते होंगे?
भीतर से किसी बच्चे के रोने की आवाज़ आ रही थी। मैं बहुत देर तक असमंजस की स्थिति में दरवाज़े के बाहर खड़ा रहा। फिर यह सोचकर कि मुझे वैसे भी कोई नहीं पहचानेगा, मैंने दरवाज़ा खटखटा दिया था।

अब बाहर आँधी तो नहीं चल रही थी, पर पानी बरसने लगा था। मास्टर ने थोड़ी देर की चुप्पी के बाद एक सिगरेट सुलगाई और जोरों का कश खींचा।

"फिर क्या हुआ?" अँधेरे में से कोई बोला।
"मास्टर, तुम किस बात पर नाराज़ होकर घर से भागे थे?" किसी दूसरे ने पूछा। वे अब आगे की कहानी सुनने को अधीर हो रहे थे।

मास्टर के हाथ में सुलगती सिगरेट का सिरा अँधेरे में चमक रहा था। उसने उन्हें शांत करते हुए कहा, "भाइयों, मैं उसी बात पर आ रहा हूँ – ये सब बताए बगैर बात पूरी नहीं होगी। हाँ, तो मैं दरवाज़े के बाहर चुपचाप खड़ा था, दिल तेजी से धड़क रहा था। सोच रहा था कि इतने बरसों बाद पहले किसे देखूँगा? मगर दरवाज़ा माँ ने खोला था। मेरी नज़र उनकी ठुड्डी पर ठहर गई थी। दाँत गिर जाने से वह भाग कुछ अलग–सा लग रहा था। वह पहले से काफ़ी बूढ़ी लगने लगी थी।

माँ को मुझे पहचानने में एक क्षण भी नहीं लगा था। उनके लिए मैं अभी भी बच्चा था। वह मुझसे लिपटकर रोने लगी थी। उनके पास से वैसी खुशबू आ रही थी, जिससे मैं रजाइयों के ढ़ेर में से माँ की रजाई को सूँघकर पहचान लिया करता था।
"कहाँ रहा इतने बरस?"
मुझे कुछ कहते नहीं बना।
"कितना पक्का दिल है तेरा।"
मैं चुप रहा।
"तुझे हमारी जरा भी याद नहीं आई?"
मैंने थूक गटका।

इतने बरसों में एक बार भी माँ की सुध लेने का ख्याल नहीं आया। माँ से तो मेरी कोई नाराज़गी भी नहीं थी। मैं खुद को धिक्कारने लगा था। माँ सवाल पर सवाल किए जा रही थी, मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था। मैं उन दिनों में पहुँच गया था, जब मैं मुँह में अँगूठा डाल माँ की गोद में लेटा रहता था।

"कौन आया है?" डयोढ़ी के उस पार से बाबूजी की आवाज़ सुनाई दी, इतने बरसों बाद भी पीठ में झुरझुरी–सी दौड़ गई। बाबूजी का गुस्सा बहुत तेज़ था। उनके डर से पेड़ों पर बैठे पक्षी तक ख़ामोश हो जाते थे। उन दिनों वह जितनी देर तक घर में रहते थे, हम दोनों भाई चूहों की मानिंद अपने–अपने बिलों में दुबके रहते थे। उनके सामने तो साँस भी सोच–समझकर लेनी पड़ती थी।

माँ के साथ कमरे में आया तो उन्हें देखता ही रह गया . . .बूढ़ा चेहरा . . .भीगी आँखें . . .काँपता स्वर . . .। कहाँ गया उनका तेज़–तर्रार, दबंग व्यक्तित्व।

मैंने आगे बढ़कर उनके पाँव छुए। उन्होंने दोनों हाथों से टटोलकर मुझे महसूस किया, होठों में कुछ बुदबुदाए, जो मेरी समझ में नहीं आया। शून्य में ताकती उनकी आँखें भर आई थी। वे बहुत असहाय–से लग रहे थे। वह अभी भी अपने आप से बातें किए जा रहे थे। मैंने हैरानी से माँ की ओर देखा . . .।

"बेटा, इनकी आँखों की रोशनी चली गई है," माँ ने बताया, "तेरे जाने के बाद हम पर तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था।"
माँ सिसकने लगी थी।
"थका होगा, आराम करने दो।" बाबूजी के स्वर की कोमलता पर मैं दंग था . . .क्या यह वही बाबूजी है, जिनकी डाँट से ही मेरी पैंट गीली हो जाया करती थी?

घर की हालत खस्ता नज़र आ रही थी। हर चीज़ से आर्थिक संकट जैसे बाहर झाँक रहा था। मेरी नज़र छोटे भाई पर पड़ी। वह अपने बेटे को चुप कराने में लगा हुआ था, जो न जाने कब से रोए जा रहा था। भाई की आँखों में पहले जैसी चमक दिखाई नहीं दे रही थी। मुझे देखकर उसके चेहरे पर खुशी का कोई चिह्न नज़र नहीं आया। एकबारगी मुझे लगा उसकी आँखें अपनी बेरोज़गारी के लिए मुझे उलाहना दे रही हैं। उसने मुझसे बात नहीं की। थोड़ी–थोड़ी देर बाद बुझी–बुझी आँखों से मेरी ओर देख लेता था, बस।
"चिड़िया! . . .मेरी चिड़िया!!"
बच्चा रोते–रोते कहे जा रहा था।
इसी बीच भाई की पत्नी ने आकर मेरे पाँव छुए। पति की बेरोज़गारी ने उसे भी निचोड़कर रख दिया था।
सबका ध्यान बच्चे की तरफ था।

"अच्छे बच्चे रोते नहीं है, अभी मिल जाएगी तुम्हारी चिड़िया।"  भाई ने कहा।
"कहीं बक्सो के नीचे न चली गई हो?" माँ ने संभावना व्यक्त की।
"एक बार सारा सामान हटाकर देख तो लो।" बाबूजी ने सुझाया।
"हर कहीं देख लिया है, बाबूजी।" भाई ने बताया।
"थोड़ी देर पहले मैंने उसे यही दरवाज़े के पास पानी पिलाया था।" बबलू ने रोते हुए बताया।
हुआ ये था कि बबलू को पड़ोस के मंदिर में चिड़िया का बच्चा पड़ा मिला था। बच्चे ने अभी उड़ना नहीं सीखा था। कोई कुत्ता–बिल्ली उसे खा न जाए, इसलिए वह उसे घर ले आया था। पिछले दो दिनों से उसकी सारी दुनिया चिड़िया के उस बच्चे के इर्द–गिर्द ही सिमट आई थी। थोड़ी देर पहले अचानक वह कहीं गुम हो गया था। इसी वजह से बबलू रोए जा रहा था।
अब पूरा घर उस चिड़िया के बच्चे को लेकर परेशान था।
अँधेरे में कोई खी–खी कर हँसने लगा।
"एक चिड़िया के बच्चे के लिए . . .वाह!" दूसरा हँसा।
"मास्टर! हमें भी बच्चा समझा है क्या?" किसी और ने खिल्ली उड़ाई।
"
चुप रहो!" चौथे ने सबको डाँटा, "इसका भी कोई मतलब होगा। मास्टर तुम आगे कहो, हम सुन रहे हैं।"

मास्टर ने उसकी हँसी की परवाह किए बिना अपनी बात जारी रखी। हम यहाँ सैकड़ों चूज़ों को रोज़ मार देते हैं। उन सबको वहाँ एक चिड़िया के बच्चे के लिए परेशान देखकर मुझे भी हैरानी हुई थी। लगा था, वे सब अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। वर्षों बाद मैं घर लौटा था और वे सब मुझे भूलकर एक चिड़िया को ढूँढ़ रहे थे . . .।
"हम अपने बेटे को दूसरी चिड़िया ला देंगे।" बहू ने बबलू को बहलाया।"
"नहीं!" वह बोला, "मुझे वही चिड़िया चाहिए।"
"चलो, एक बार फिर स्टोर में देख लेते हैं।" भाई ने कहा।
भाई उसे स्टोर में ले गया।
"थोड़ी देर पहले मैंने यहाँ एक बिल्ली को घूमते देखा था।" माँ ने उनके जाते ही बाबूजी के कान में धीरे से कहा।
"क्या कहती हो?" बाबूजी बेचैन हो उठे थे, "यह बात बबलू को मत बताना।"
मैं हैरान था, क्या ये वही बाबूजी है, जिनकी दहशत से घर में चिड़िया भी पर नहीं मार सकती थी।
"मिल गया!" तभी बबलू खुशी से चिल्लाया।
"शुक्र है भगवान का।" बाबूजी बुदबुदाए।
"कहाँ मिला?" भाई ने पूछा।
"यहाँ चौखट के नीचे खोखल में।"
"मुझे पता था, यही कहीं होगा।" माँ हँसी।
"मैंने कहा था, मिल जाएगा!" बाबूजी चहके।
पूरा घर खुशी से झूमने लगा था।

सब चौखट के पास जमा हो गए थे। बच्चा खोखली जगह में काफ़ी पीछे की ओर चला गया था। उसकी हल्की चीं–चीं की आवाज़ सुनकर बबलू ने उसे ढूँ लिया था। वे उसे सुरक्षित बाहर निकालने की तरकीबें सोच रहे थे। मुझे हँसी आ रही थी, मेरे लिए तो यह चुटकियों का काम था। मैंने कहा भी – "रसोई से चिमटा ला दो, मैं अभी बाहर निकाले देता हूँ।" पर बाबूजी को मेरा तरीका पसंद नहीं आया, उन्हें इसमें चिड़िया को चोट–चपेट लगने का खतरा दिखाई दे रहा था। उनका मानना था कि बच्चा अपने आप खाने–पीने के लिए कोटर से बाहर ज़रूर आएगा। यदि नहीं आएगा, तो बढ़ई को बुलाकर चौखट काटकर उसे बाहर निकाल लिया जाएगा। वे चिड़िया को बाहर निकालने के मामले में कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे। बाबूजी के इस रूप की मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि एकाएक बाबूजी मोम
की तरह मुलायम कैसे हो गए . . .।

रात को मेरा बिस्तर वहीं लगा दिया गया था, जहाँ मैं बचपन में सोया करता था। बिस्तर पर लेटते ही मेरी नज़र बगल की दीवार पर पड़ी, फिर वही गड़ी रह गई। आँखों के आगे चिंगारियाँ छूटने लगीं। बात थी ही ऐसी। बीस साल पहले की वो घटना आँखों के आगे कौंध गईं, जिसकी वजह से मैं घर से भागा था। उस दिन बाबूजी ने मुझे दीवार को लोहे के तार से खरोंचते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया था। उन्होंने मुझे इतनी बुरी तरह पीटा था कि मैं इसी बात पर नाराज़ होकर घर से भाग आया था।

नहीं, कुछ नहीं बदला था . . .दीवार पर की वो बरसों पहले की खरोंच ज्यों की त्यों थी। हालाँकि, इन बीस बरसों में घर की कई बार पुताई और मरम्मत हुई थी, पर मेरे द्वारा खरोंचा गया दीवार का वह हिस्सा हर बार बिना पोते छोड़ दिया गया था। खरोंच वाला भाग चिकना और मैला हो गया था, जैसे कोई उस पर अँगुलियाँ फेरता रहा हो . . .

मैं स्तब्ध था। खरोंच पर मेरी आँखें बर्फ की तरह जमी हुई थीं। पिछले बीस साल अचानक मेरी मुठ्ठी से रेत की तरह फिसल गए। उस खरोंच के एक ओर गर्म ब्लेड से चूज़ों की चोंच काटता मैं था, तो दूसरी ओर बूढ़ी अँगुलियों के पोरों से खरोंच को टटोलते अँधे बाबूजी थे . . .

इतना कहकर मास्टर खामोश हो गया था। बाहर बारिश तो थम गई थी, पर पेड़ों के पत्तों पर ठहरा पानी अभी भी टपक रहा था। सुनने वाले एकदम चुप थे। कोई कुछ नहीं पूछ रहा था। नहीं, उनमें से कोई भी नहीं सोया था। दरअसल, मास्टर की कहानी की उस खरोंच को सभी अपने दिलों पर महसूस कर रहे थे।

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१६ दिसंबर २००४

 
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