सेक्टर में भी युद्ध छेड़ दिया
था और तब से मेरे बेटे का कोई समाचार नहीं मिल पा रहा था। मेरा
मन आशंकाओं से भरा रहता था। राजेश द्वारा दरवाज़ा खोलते ही
सामने फौजी अधिकारी को खड़ा देखकर
मेरा हृदय धक से रह गया था। मेरा गला रुँध गया था और आँखों में
आँसू भरने लगे थे।
वह युवक अधिकारी राजेश को सैल्यूट मारकर एक ही साँस में बोल
गया, "सर, औन फोर्टीन्थ डिसेम्बर कैप्टेन सुजीत वाज़ लीड़िंग एक
रेकी पार्टी, ही हैज़ नौट कम बैक सो फार . . .औल आउट एफर्टस् आर
बीइंग मेड टु सर्च हिम।"
मेरी आँखों में भर आए आँसू इस अन्तिम समाचार, जो असीम
वेदनादायक होने के साथ साथ आशा की एक अस्तप्राय किरण पर टँगा
था, को सुनकर जम से गए – वे न तो बाहर आए और न ही भीतर वापस
गए। उस अधिकारी ने सांत्वना के कुछ शब्द कहकर विदा ली, परंतु
ज्यों ज्यों समय बीतता गया और सुजीत का कोई पता नहीं चल रहा था
त्यों त्यों मेरी उद्वेलित वेदना मेरे मन पर एक बोझिल पत्थर के
समान स्थापित होती जा रही थी। साथ ही मेरे हृदय पर एक ऐसा घाव
हो गया था जो किसी भी बाहरी संवेदन से रिसने लगता था। अतः मैं
अपने एकांत में अपनी वेदना के भार को लिये हुए जीने को विवश
थी। मैं यथासम्भव किसी से नहीं मिलती थी। मेरे पति मुझे इस
स्थिति से उबारने के लिये
प्रायः किसी न किसी को मेरे घर पर आमंत्रित करते रहते थे।
आज दिसम्बर महीने की दोपहरी मे नेशनल पुलिस एकेडेमी, हैदराबाद
के परिसर में कुनकुनी सी धूप फैली हुई थी – धूप में देर तक
बैठो तो त्वचा में जलन का अनुभव हो और छाया में देर तक बैठो तो
शीत का अनुभव हो। वह रविवार का दिन था और संपूर्ण परिसर में
सूनापन छाया हुआ था – न तो प्रशिक्षणार्थियों के बूटों की खटखट
और न घोड़ों की नालों की टपटप। प्रकृति भी ज्यों विश्रामवस्था
में थी – बोगेनवेलिया और डहलिया के पत्तों का हिलना डुलना बंद
था, पेंज़ी और गुलाब के फूलों पर मँडराने वाले भौंरे न जाने
कहाँ गुम हो गए थे, झील निद्रानिमग्न थी और उसके ऊपर बहने वाली
हवाएँ शांत थीं। मैं पिछले माह ही राजेश, जिनकी नियुक्ति
डायरेक्टर, नेशनल पुलिस एकेडेमी हुई थी, के साथ यहाँ आई थी।
एकेडेमी एक पहाड़ी, जो एक बड़ी सी झील के किनारे स्थित थी, पर
बसाई गई थी। डायरेक्टर का बंगला पहाड़ी के एक ऊँचे स्थान पर बना
हुआ था, जहाँ से न केवल रात्रिकाल में आकाश में चाँद और
सितारों के अद्भुत दृश्य दिखाई देते थे वरन् प्रातःकाल परेड
ग्राउंड पर होने वाली परेड का अनायास निरीक्षण भी होता रहता
था। आज सुबह की फ्लाइट से दिल्ली जाते समय राजेश मुझसे मनुहार
कर कह गए थे, "पुलिस पर शोधकार्य करने पाकिस्तान से शबीना नाम
की एक लड़की आई हुई है, अच्छी लड़की है। परसों मैंने उसे आज लंच
पर घर आने हेतु आमंत्रित कर दिया था परंतु
अचानक गृहमंत्री ने दिल्ली में
आज मीटिंग रख दी है, अतः मैं नहीं रुक पाऊँगा। तुम शबीना को
लंच खिला देना।"
कोई बचत न देखकर मैंने मौन स्वीकृति दे दी थी। अब घंटी की
ध्वनि सुनकर मैंने किसी तरह अपने शरीर को दरवाज़े तक पहुंचाया
और पल्ला खोला। तभी नयी खिली कली के समान सामने खड़ी शबीना
चहकी, "आदाब आँटी। बाहर संतरी ने बताया कि सर सुबह दिल्ली चले
गए हैं। चलिये आपसे अकेले में बातचीत का खूब मौका मिलेगा।"
मैं शबीना के इस खुले एवं हँसमुख आक्रमण के लिये तैयार नहीं थी
अतः बरबस मेरे होठों पर मुस्कान आ गई। फिर शबाना मुझसे ऐसे
बातें करने लगी जैसे मेरी पुरानी सहेली हो। उसके व्यवहार के
खुलेपन एवं आत्मीयता के प्रदर्शन ने मेरे मन की गांठों को धीरे
धीरे पूर्णतः खोल दिया और बच्चों का संदर्भ आने पर मैं बरबस
रोते हुए अपनी व्यथा कथा उससे कहने लगी। मेरी बात सुनकर शबीना
उठकर मेरे पास आ गई और मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोली, "आँटी आप
धीरज रखें। पाकिस्तान
सरकार मे मेरी अच्छी पहुंच है। मैं कैप्टन सुजीत के बारे में
पूरी छानबीन करूँगी।"
तभी मेरे कुक रामचरन ने आकर लंच लगा दिये जाने की सूचना दी।
मुझे शबीना के शब्दों में कोई अवलम्ब नहीं नज़र आ रहा था वरन्
उससे मेरी व्यथा बढ़ ही रही थी, अतः अपने दुख के और अधिक
प्रदर्शन से बचने के लिये मैं लंच हेतु एकदम उठ खड़ी हुई। हम
दोनों ने लंच बिना कुछ बोले चुपचाप किया। विदा होते समय शबीना
ने पुनः मेरा हाथ पकड़कर कहा, "आँटी खुदा पर भरोसा करें। मैं कल
पाकिस्तान वापस जा रहीं हूँ। जाते ही सुजीत जी का पता लगाऊंगी
और आप को फोन करूँगी। आदाब।"
मैं शबीना को सीनियर
आफिसर्स होस्टल की तरफ जाते हुए देर तक देखती रही। चाहे झूठी
ही सही पर उसके द्वारा दी गई सांत्वना में आत्मीयता की एक
स्पष्ट झलक थी।
राजेश के दिल्ली से लौटने पर मैंने लंच के दौरान शबीना के साथ
हुई बातचीत को उन्हें बताया। मेरी बात सुनकर उनके चेहरे पर इस
बात के लिये प्रसन्नता का भाव आया कि मैंने अपने मनोभावों को
किसी के समक्ष खोलकर रखा था परंतु वह स्पष्टता से बोले, "शबीना
एक भावुक लड़की है। इतने क्षीण पतवार के सहारे आशा की नाव तैरा
देना ठीक नहीं। धोखा होने पर और अधिक चोट लगती है।"
मेरे पति द्वारा सत्य को स्पष्टतः उद्भासित करने के बावजूद पता
नहीं क्यों मेरे अंतर्मन में कभी कभी वीणा का एक तार झंकृत हो
जाता था कि शबीना का फोन आएगा और मैं अब टेलीफोन की घंटी बजने
पर लपककर रिसीवर उठाने लगी थी।
शबीना के जाने के लगभग एक माह बाद एक रात बारह बजे टेलीफोन की
लम्बी घंटी बजी। राजेश सो चुके थे। मैंने शीघ्रता से चोगा
उठाकर 'हेलो' कहा। उधर से शबीना एक साँस में बोले जा रही थी,
"आँटी खुशखबरी है। उसका पता चल गया है। वह लाहौर जेल में बंद
है।"
ये शब्द सुनकर मेरी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे अटक गई थी
और मैं बेतहाशा बोले जा रही थी, "कहाँ है
मेरा बेटा? कैसा है? कैसे
मिलेगा?"
परंतु पता नहीं क्यों शबीना ने अपनी बात कह चुकने के बाद
अविलम्ब टेलीफोन काट दिया था। मैं बौखलायी सी पलंग पर लौटी और
राजेश को जगाकर शबीना के टेलीफोन की बात बतायी। राजेश के मन
में अविश्वास मिश्रित आशा का संचार हो रहा था। भारत सरकार के
पत्र के उत्तर में पाकिस्तान सरकार पहले ही सूचित कर चुकी थी,
"खेद है कि कैप्टन सुजीत का कोई पता नहीं चल सका है।"
हम लोग रात भर सुजीत और शबीना के विषय में ही बात करते रहे और
आशा निराशा की नदी में डूबते उतराते रहे। फिर राजेश ने कहा,
"मैं सोच रहा हूँ कि दिल्ली जाकर गृहमंत्री से मिलूँ और उनसे
राजेश की वापसी हेतु पुनः प्रयत्न करने का अनुरोध करूँ।"
मेरे अवचेतन में इस प्रस्ताव से खतरे की घंटी बजने लगी। शबीना
के स्वर में निहित भय और उसके द्वारा बिना मेरी बात सुने
टेलीफोन काट दिये जाने से मुझे लगने लगा था कि किसी कारण से वह
समस्त घटनाक्रम को गुप्त रखना चाहती थी। अतः मैं बोली, "नहीं
अभी आप कुछ भी न करें। हम कुछ दिन तक शबीना के अगले फोन की
प्रतीक्षा करेंगे।"
मेरा स्वर इतना संशयरहित
था कि राजेश ने बिना हिचक मेरी राय मान ली।
फिर पंद्रह दिन की व्याकुल प्रतीक्षा के बाद एक दोपहरी में जब
मैं घर पर अकेली थी तब बंगले के दरवाज़े की घंटी बजी। मैंने
धीरे से उठकर दरवाज़ा खोला – क्षीणकाय सुजीत मेरे सामने खड़ा था।
मेरे मुँह से कोई स्वर फूटता उसके पहले ही वह आगे बढ़कर मेरी
बाहों में समा गया और 'माँ . . ." कहकर फफककर रो पड़ा। उस समय
हर्ष के आवेग में मेरी आँखों से अश्रुओं की अविरल धारा बह रही
थी और मेरी छाती स्नेहसिक्त हो रही थी। फिर राजेश का ध्यान आने
पर मैंने सुजीत को धीरे से सोफे पर बिठाया और उन्हें फोन किया।
उनके आते ही पिता पुत्र लम्बे वार्तालाप में व्यस्त हो गए और
मैं किचन में चाय बनाती हुई उनकी बातों को सुनती रही। इसी में
मैंने सुजीत को कहते सुना, "पापा मुझे तीन दिन पहले बड़े गुपचुप
तरीके से जेल से निकाला गया था और एक आदमी मोटरसाइकिल पर
बिठाकर अमृतसर की सीमा – पुलिस चौकी से दूर एक जगह छोड़ गया था।
उसने मुझे किराए के लिये पांच सौ रूपए देकर चुपचाप सीमा पार कर
जाने को कहा था। भारत की सीमा में प्रवेश करते ही मेरे नेत्र
अश्रुपूरित हो गए थे। फिर पैदल चलकर मैं निकट की सड़क तक आया और
एक अखबार खरीदकर अमृतसर जाने वाली बस में बैठकर पढ़ने लगा।
पापा, इस अखबार में लाहौर का एक आश्चर्यजनक समाचार छपा था –
"हिंदुस्तानी फौजी कैप्टन सुजीत को गुपचुप तरीके से लाहौर जेल
से फरार करने के जुर्म में शबीना नाम की एक लड़की को गिरफ्तार
किया गया है। कहा जाता है कि शबीना खुद
आई.एस.आई. की एक काबिले इत्मीनान
एजेंट थी।"
सुजीत द्वारा उच्चरित एक एक शब्द मेरे सम्पूर्ण व्यक्तित्व को
कम्पायमान कर रहा था। मैं सुजीत की वापसी की प्रसन्नता और
शबीना के अहैतुक बलिदान के प्रति कृतज्ञता के बीच झूल रही थी।
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