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					 मैंने रोका "अरे भाई। इधर कहाँ चल 
					दिए। यूनिवर्सिटी इधर थोड़े ही है।"
 "जी पर आपने पहले यह तो नहीं कहा था।"
 मुझे हँसी आ गई। उसे समझाते हुए बोली
 "भइया। यूनिवर्सिटी को हिन्दी में विश्वविद्यालय कहते हैं।"
 "अच्छा।" उसकी आँखें फट 
					पड़ी।
 बोला, "पर हम तो अँगरेजी 
					जानत ना हैं।"
 क्या कहती मैं। यों तो किसी भी भाषा की समृद्धि के लिए आवश्यक 
					है कि वह अपने भीतर अन्य भाषाओं के शब्दों को समेटती 
					चले अन्यथा उसका जीवित रहना कठिन है पर उन के शब्दों को याद रख 
					कर अपने शब्दों को भूल तो नहीं जाना चाहिए।
 
 बस यही रिंग रोड का 
					रास्ता था जो मैं पिछले छः महीनो से तय करती रही थी। उस ओर कभी 
					देखा नहीं यह तो नहीं कहूँगी पर निगाह के रास्ते से वे कभी 
					दिमाग तक पहुँची ही नहीं। ये कोई पहली बार न था। ऐसी स्थितियाँ 
					हम सभी हमेशा झेलते रहते होंगे। वस्तु 
					हमारे सामने पड़ी रहती है और हम कहीं और खोजते रहते हैं। मेरे 
					साथ तो प्रायः ऐसा होता रहा है। कुछ स्थितियों में डूबती तिरती 
					रही हूँ कुछ से निष्प्रभाव पर कभी वही स्थिति एक अलग संदर्भ 
					में जानलेवा लगी है। ये ना समझ में आने वाला दिमाग कब क्या 
					प्रतिक्रिया दिखाएगा क्यों होगी वह प्रतिक्रिया कौन बता सकता 
					है।
 
 विदेश से लौटी तो गाँव का चक्कर लगा था, चक्कर भर था बस।
 खार में भागमभाग। वहाँ रुकना कम हुआ था ट्रेवलिंग टाईम ज्यादा। 
					अब तो नदी पर इतना बड़ा पुल बन गया है कि बस आसानी से गुज़र जाती 
					है।
 
 वहाँ पहुँचते ही बचपन हिलोरें लेने लगता है। क्या वक्त होता है 
					वो भी। कच्ची ज़मीन पर जैसे पाँव के पड़े चिह्न मिटाने से भी न 
					मिटें।
 
 उस दिन वहाँ का दृश्य देख कर बचपन का 
					गाँव याद आ गया। वो कीचड़ 
					सना नदी का किनारा वहीं कीचड़ से लथपथ बैठे नंग धड़ंग काले काले 
					बच्चे जो जिन्दा तो इसलिए लगते क्योंकि हिलते डुलते थे चीखते 
					चिल्लाते थे खाने के लिए शोर मचाते झगड़ते थे अन्यथा वे मरियल 
					बीमार ज्यादा लगते। वहीं पास मे पानी का पोखर ढूँढ कर बैठी 
					उनकी माएँ जो बरतन भी मलती रहतीं 
					कपड़े भी धोती रहती और अपनी 
					शिकायतों का पुलिन्दा भी एक दूसरे को सुनाती रहतीं।
 
 गाँव के नाम पर जो कुछ मुझे याद था वह था कीचड़भरे पोखर का बन 
					जाना बाढ़ का पानी उसमें बूढ़ते घर डूबते गाँव डूब गए जानवर उनमें 
					से अनेक की बहती लाशें जानवर ही नहीं बच्चों व बूढ़ों की लाशें 
					तक भी दीख जातीं। हालाकि अब बहुत कुछ बदल गया था। अब गाँव वैसा 
					तो नहीं रह गया था गाँव मे बड़ा सा पुल बन गया था जिस पर कार और 
					बड़ी बसें दौड़ सकती थीं। अब पोखर का कीचड़ भी पानी में बदल गया 
					था पर उसे बाढ़ बनने से अब भी रोका नहीं जा सकता था। प्रकृति को 
					जीत लेने का नारा लगाने वाले ये मानव क्या कभी समझ पाएँगे कि 
					वह एक ममता मयी माँ की भाँति कुछ 
					वक्त के लिए खेल खेल लेने देती 
					है पर ज्यादती बर्दाश्त नहीं करती।
 
 पिछले दिन ही तो गाँव से लौटी थी। कार उस रास्ते से रोज़ ही 
					जाती थी पर उस दिन कोहरे की गहन चादर से झाँकती वे दीख पड़ी। 
					मैने देखा बस देखती रह गई। सोचने लगी कि आखिर वे दो दिन में 
					यहाँ कहाँ से आ गईं। अभी परसों तक तो नहीं थीं। पर फिर कोई जादू 
					की छड़ी फिरने जैसा कामल तो हो नहीं सकता। एक साथ इतनी सारी 
					लगभग पचास तो होंगी ही।
					पचास साठ झोंपड़ियाँ एक साथ इस थोड़ी सी जगह में एक रात में तो 
					बन नहीं सकतीं। मैं सोचती रही मन ही मन तर्क करती रही।
 
 अफसोस हुआ अपनी 'जागरूकता' पर। लोग कहते है कि लेखक की 
					दृष्टि बहुत पैनी होती है । जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि 
					की उक्ति सुनती आ रही थी। कोनो कुचीलों तक को देख लेने वाली 
					मेरे लेखक की दृष्टि को क्या हुआ। अफसोस करती रही। अब मैं उनका 
					जायजा लेने लगी थी।
 
 रिंग रोड का ये वो हिस्सा है जहाँ कभी जमुना अपने पूरे प्रवाह 
					और आवेग के साथ बहती थी। आज जमुना नदी की दिशा बदल दी गई है। 
					आखिर लोगो को रहने के लिए जगह तो चाहिए आबादी किस तेज़ी से बढ़ 
					रही है। नदी को पीछे करना पड़े या पहाड़ काटने पड़े क्या फर्क 
					पड़ता है। ये तो हम इंसानों का हक है। हमेशा से मानव प्रकृति को 
					अपने तरीके से अपनी जरूरत के अनुसार तोड़ता इस्तेमाल करता आया 
					है। रिंग रोड के उस हिस्से में जमुना तो नहीं बच रही थी पर 
					बारिश के पानी के जमा हो जाने के कारण एक बड़ा सा पोखर बन गया 
					था। ये पचास साठ झोपड़ियाँ उसी के किनारे सटी सटी बनी थीं। 
					झोंपड़ियो के बाद काफी लम्बी चौड़ी जमीन खाली पड़ी दीख रही थी। 
					उसी खाली जमीन को देख कर मन में आया था,
 "इन लोगों को झोंपड़िया उस खाली जमीन पर बनानी चाहिए थी। यहाँ 
					पानी की गन्दगी कीचड़ मक्खी मच्छरों गन्दगी के बीच रह रहे हैं 
					ये लोग। कोई इन्हें समझाता क्यों नहीं।"
 सोचा तो मैंने यही था पर ये भी ध्यान आया कि पानी का पास में 
					रहना जीने की बहुत सी सुविधाएँ भी तो जुटाता है। पानी सारी 
					गन्दगी को धो भी तो देता है। दिन भर के क्रिया कलाप पानी की 
					वजह से ही अंजाम पाते है। पानी न हो तो जिएँगे कैसे। उस कोहरे 
					भरे दिन में झोपड़ियो का झुण्ड किसी हिल स्टेशन पर बनी पेंटिग 
					सा दीख रहा था। मैंने कार का शीशा खोला दूर तक देखा चार छोटी 
					छोटी लड़कियाँ थीं हाँ वहीं तो होंगी कोई पाँच से सात साल के 
					बीच की। पास में कपड़ों की पाँड दूसरी ओर बर्तनों का ढेर बड़े 
					पतीले कुकर भी दीख रहा था असल में बर्तनो के रंग ऐसे थे कि 
					पहचानना मुश्किल हो रहा था कि कौन सा बर्तन है। वैसे भी कुछ 
					स्पष्ट दीख ही कहाँ रहा था। हिलती डुलती हँसती खिलखिलाती ये 
					लड़कियाँ इतनी निश्चिन्त बेफिक्र मस्त दिखी कि मुझे सचमुच उनसे 
					हसद होने लगी थी। वे शायद कपड़े धोने और बर्तन माँजने का काम कर 
					रही थीं पर ये तो मेरे लिए काम है। उनके लिए मात्र खेल। इतनी 
					बेफिक्री इतनी मस्ती इतनी निरपेक्षता मुझे आश्चर्य हुआ। कितनी 
					निरपेक्ष बैठी है ये रिंग रोड पर बहती इन कारों स्कूटरो की नदी 
					से। दूर बहती नदी से उनका वास्ता भी क्या। वो तो पास के उस 
					कीचड़ भरे पानी से सम्बद्ध थीं। आखिर पास का वह पानी ही तो उनको 
					जीने की सुविधाएँ 
					जुटा रहा था। क्या जरूरत थी कि वे दूर की किसी खुबसूरत वस्तु 
					के बारे में सोचती। दृश्य तो कार के चलने की गति से बदलता है 
					अतः बदल गया। मैंने कार का शीशा बन्द कर दिया। अजब दृश्य था। 
					मन पर छप ही गया था। हटने का नाम ही नहीं 
					ले रहा था। तमाम रास्ता कोशिश कर के भी आँखो के आगे तिरता ही 
					रहा था।
 
 "कैसे हैं ये लोग जो गन्दगी मच्छर कीचड़ बदबू के बीच जी लेते 
					हैं। जी ही नहीं लेते हँस बोल खिलखिल भी कर लेते हैं चैन की 
					नींद सो भी लेते हैं।"
 मैंने सोचा पर फिर मन ही मन तर्क भी किया।
 
 "चैन 
					की नींद तो नहीं कहाँ सो पाता है कोई चैन की नींद मच्छरों 
					और खटमलों से लड़ते हुए शायद दिन भर का संघर्ष और साँझ की रोटी 
					कमाने की जद्दोजहद से इतना थक जाते होंगे कि पत्थर भी बिस्तर 
					नज़र आता होगा। नींद भी अगर इनको आगोश में न ले तो बिन मौत के 
					मर ही जाएँ बेचारे।" मैं सोचती रही थी।
 सोच विचार का कोई अन्त नहीं होता। तभी मन मे यह भी आया
 "और एक मैं हूँ जो कार में लदी फँदी घर पहुँच कर पस्त पड़ जाती 
					हूँ। तभी तो स्वास्थ्य का ये आलम है कि ज़रा सा चली नहीं कि 
					साँस फूल गया।"
 घर आ गया था। थकी माँदी मैं कार से उतर कर घर में घुसी। अहद 
					किया कि आज खाना खा कर सो नहीं रहूँगी बिस्तर पर पस्त सा गिर 
					नहीं पड़ूँगी। कुछ भी हो खुद को थाम कर खड़े रखने को लिए मन की 
					ताकत की ही तो ज़रूरत होती है।
 
 अब तो मेरी निगाह हर दिन आते जाते चाहते हुए या न चाहते हुए उस 
					ओर घूम ही जाती थी। धीरे धीरे कोहरा साफ होने लगा था। 
					झोंपड़ियाँ भी साफ साफ दीखने लगी थीं। अब बहुत से बच्चों का 
					झुण्ड रेज़गारी सा इधर उधर बिखरा दीखने लगा था जो हमेशा मुझे 
					गाँव की याद दिलाता। धीरे धीरे जवान होती लड़कियाँ ही नहीं उनकी 
					माताएँ भी काम करती दीखने लगी थीं।
 
 अजीब सही पर सच यही था कि अब मेरा अधिक समय उनके बारे में 
					सोचने में कटने लगा था। तमाम रास्ता बीत जाता मुझे पता ही न 
					चलता।
 मन मन में अनेक बार कौंध चुका था कि आगे आगे गर्मियाँ आने वाली 
					हैं तब ये लोग क्या करेंगे। पोखर का पानी सूखने लगेगा तो क्या 
					ये अपनी झोंपड़ियाँ उठा कर कहीं और ले जाएँगे। अब मुझे उनकी 
					चिन्ता सताने लगी। फिर सोचा गर्मियों में तो मेरी छुटिटयाँ 
					होगी मैं इस राह से गुज़रूगी ही नहीं पता ही क्या चलेगा।
 पर पर बरसात में जब पोखर 
					भर जायेगा तब क्या करेंगे ये लोग।
 
 पूरा वक्त अपनी समस्याओं और तनावों से अधिक उन झोपड़ियों के 
					भीतर बाहर की समस्याओं से जूझते हुए बीतता था मन ही मन। यह 
					दिनचर्या का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन चुका था। समझ आने लगा था 
					समाज कल्याण के कार्यों का सुखद पक्ष।
					अनेक आयाम समझ आने लगे थे। एक तो किसी की दुखती रग आराम मिलने 
					पर जिस का जरिया आप बनते हैं उस के मिलने का सुख खुद को अनुभूत 
					होता है।
					दूसरा अपनी उपादेयता का एहसास पनपता है।
					तीसरा अपने बड़े बड़े दुख छोटे लगने लगते हैं।
					और अन्त में दूसरों की समस्याओं से जूझते हुए अपनी बीमारियाँ 
					भूलने लगते हैं।
 
 मैं तो अभी मन के स्तर पर ही उन झोपड़ियों से जुड़ी थी तब भी काम 
					के रास्ते का लम्बा सफर आसान लगने लगा था। हर दिन मैं खुद से 
					वायदा करती कि कार रोक कर उनके बीच जा बैठूँगी उनकी ज़िन्दगी को 
					समझूँगी झोंपड़ियों के भीतर जा बैठूँगी पर कभी थकावट बहाना बन 
					जाती कभी वक्त की कमी और कभी गन्दगी और रोगों भरी उस नगरी में 
					घुस पड़ने के लिए हिम्मत ही जवाब दे जाती तिस पर यह भाव भी पीछा 
					नहीं छोड़ता कि कार से उतर कर वहाँ जाते हुए देखकर लोग क्या 
					कहेंगे लोग कौन से लोग कारों में जाते हुए लोग भी और वहाँ झोपड़ 
					पट्टियों मे बैठे लोग भी। हम भी अजीब मानसिकता के लोग हैं। 
					अपने से ज्यादा दूसरों के कहने न कहने की चिन्ता करते हैं। यहा 
					भाव ही अधिक मरक था।
 
 हर दिन वहाँ जाने का अहद करती जो अगले दिन कहीं पलंग के नीचे 
					धराशायी मिलता अगर थोड़ा बहुत दम बच भी रहता तो कार की स्पीड के 
					आगे दम तोड़ देता।
 वक्त बीतता गया। गर्मी की इन्तहा हो गई थी। अब तो एयरकन्डीशन 
					से बाहर निकल कर उन झोपड़ियो जाने की सोचना 
					भी बेबकूफी लगने लगा 
					था। फिर छुट्टियाँ भी हो गई थी । मैं अपने प्रोग्राम के अनुसार 
					हिल स्टेशन पर चली गई थी।
 मौसमों का क्या। वे किसी की इन्तज़ार में रुके तो न रहेंगे। 
					बरसात का मौसम आ गया। बरसात भी ऐसी वैसी नहीं मानो बादल फट पड़े 
					हों। पानी हरहरा कर बरस भी रहा था और जहाँ जगह पाता भर रहा था। 
					भला पोखर क्यों कर बच पाता। 
					पोखर के किनारो तक आया पानी कहीं 
					और जगह ना पाकर झोंपड़ियों के भीतर कब्ज़ा करने लगा था। गाँव के 
					मेरे अनुभव ने अन्दाज़ा लगा लिया था कि कीचड़ भरा पानी उन लोगों 
					की झोपड़ियों में इस कदर घुस गया होगा कि उसमें इन्सानों के रहने 
					की जगह बची ही न होगी। मुझे पता था कि अब उनकी एकमात्र चारपाई 
					ईंटें लगा कर ऊँची कर दी गई होगी। एकमात्र ट्रंक जो टूटा फूटा 
					भी होगा और जंग लगा भी तथा कुछ गिने चुने बर्तन उस पर रख दिए 
					गए होंगे ताकि उन्हे बचाया जा सके। आखिर पूँजी को बचाना तो 
					जरूरी था। पूँजी ये शब्द मेरे जेहन में घूमता रहा था। पूँजी की 
					परिभाषा सबके लिए कितनी अलग अलग होती है। पूँजी उसे ही तो कहा 
					जाएगा जिससे मानसिक तथा शारीरिक सुरक्षा जुड़ी हो और वह सबकी 
					अलग अलग ही होगी।
 
 इन झोपड़ पट्टी में बसे लोगो की मानसिक व शारीरिक सुरक्षा इन 
					चन्द बर्तनो और चिन्दी चिन्दी कपड़े ही हैं तो बस हैं। ईंटों पर 
					रख कर ऊँची की गई चारपाई उस पर फैले ट्रंक पेटिया या पोटलियाँ 
					कुछ काले कुछ साफ बर्तन कुछ खिलौने कुछ सजने सजाने के वस्तुएँ 
					शीशा बिन्दी टिकली मेंहदी की पुड़िया कंघी जो अवश्य ही जुएँ 
					बीनने को काम आती होगी और एक अलगनी जो नाड़े बाँध कर उसी समय 
					बाँध दी गई होगी जिस पर बाकी सब कपड़े टाँग दिए गए होंगे। इन सब 
					की मैंने कल्पना कर ली थी। बचपन में यही सब तो देखा था। अब 
					औरते और बच्चे बाहर सड़क के पास की ऊँची जगह पर बैठे दीखते। 
					वहीं ईटों का चूल्हा बना कर पेड़ की सूखी टहनियाँ जो बच्चे तोड़ 
					और बीन लाते पर दाल उबलने रख दी जाती। उधर दाल खदकती रहती इधर 
					वे सब गपियाती रहतीं। उन बातों के बीच ही कभी पुरानी किसी बात 
					की याद उनके जेहन में 
					उबाल ला देती और हाथ झटका कमर और कूल्हे मटका मटका झगड़ा शुरू 
					हो जाता। वहीं बैठ कर बच्चों की जुएँ बीनती उन औरतो का गुस्सा 
					बच्चों पर निकलता। वे उन्हें धमाधम पीटतीं और इस प्रकार अपने 
					गुस्से का विवेचन करतीं। वहीं परस्पर लड़तीं लड़ियाती। पास में चारपाई बिछा कर बैठी कोई दियासलाई 
					सिगरेट बीड़ी खट्टी मीठी गोलियाँ तथा घर की 
					कुछ जरूरी चीज़ें रखकर बैठी कुछ बेचा कुछ कमाया कुछ खाया इस तरह 
					चल निकली गृहस्थी।
 
 मुझे याद आते उस कहानी के पात्र जो बाढ़ आने पर एक 
					द्वीप मे फँस जाते हैं। ये जानते हुए भी कि हर किसी का अन्त 
					मौत है वह भी इसी द्वीप पर फिर भी किसी दूसरे की जरूरत की वस्तु को कई गुणा 
					दाम बढ़ाकर बेचते रहते हैं। ये लोग शायद उन से अच्छे थे। कम से 
					कम लूट लेने की हद्द तक तो नहीं पहुचे थे। इस प्रकार इन 
					झोंपड़ीनुमा घरों में रहने 
					वालों की भीतरी ज़िन्दगी के सभी 
					दृश्य बाहर सड़क पर आ गए थे।
 
 पोखर के दूसरे किनारे पर का भाग कुछ ऊँचाई पर था पर पानी से 
					दूर दूर भी नहीं कहा जा सकता बस थोड़ा सा नीचे ढलान पर उतरो तो 
					पानी था जो हो सकता है आजकल बरसात की वजह से हो। बहुत गर्मी 
					पड़ी नहीं कि सूख जाता होगा। शनिवार रविवार को मैं निकली न थी। 
					सोमवार को वहाँ से गुज़री तो देखा उस ऊँचाई पर अचानक कुछ 
					झोपड़ियाँ उग आई थीं। सड़क के किनारे के दृश्य एक ही दिन में उन 
					के भीतर चले गए।
 
 मैंने हमेशा जाना था कि बरसात का आना फसल के लिए अच्छा होता है 
					फिर लू गर्मी से छुटकारा भी मिलता है बीमारियाँ कम होने लगती 
					है लू लग मरने वालों की संख्या में गिरावट आने लगती है हालाकि 
					यह भी कैसे भुला दूँ कि बाढ़ में होने वाले जान माल का भी कोई 
					हिसाब किताब नहीं है। अब ये ख्याल सताने लगा था कि इन झोंपड़ी 
					में रहने वालों के लिए ये ठंडक पहुचाने वाली बारिश इनके लिए घर 
					निकाला साबित हुई थी। ऐसा लगने लगा था कि मैं अपनी दिनचर्या 
					और कोहरे की घनी छाई चादर से निकल कर उन लोगो के बीच जा बैठी 
					हूँ तथा उनकी ज़िन्दगी से बाबस्ता होने लगी हूँ।
 
 पोखर जिसे मैंने अपने 
					गाँव की नदी 'कुआनो' का नाम दे दिया था 
					अब उसके दूसरी ओर मारुति कार की गति से झोंपड़िया बनने लगी थीं 
					मानों वे गाँव को छोड़कर शहर की ओर का सफर कर रही हों। पानी में 
					डूबती भीगती गलती झोपडियों की इस्तेमाल की जा सकने वाले सभी 
					हिस्से दूसरी ओर चले गए थे। जो बच रहा था वहा सड़ा गला और 
					निरर्थक था जिसे काट देना आवश्यक हो उठा था। एक अच्छे सर्जन की 
					भाँति ये काम बखूबी किया था। वर्तमान में जीना कोई इनसे सीखे। 
					ये लोग तो निरन्तर एक युद्ध जीते हैं एक बाढ़ झेलते हैं और 
					तूफानों और भूस्खलन का सामना करते रहते हैं। हम लोग तो कट ही 
					नहीं पाते इसलिए तो सभी मानसिक तनावों को झेलते रहते हैं।
 
 सचमुच मैं उनकी वर्तमान में जीने की कला से खासा मुत्तस्सिर 
					हुई थी। पर फिर ये भी सोचा कितनी जद्दोजहाद भरी जिंन्दगी जीते 
					हैं लोग, कितना कठिन था उनकी कठिनाइयों का एहसास करना। उस दिन 
					मौसम खुशनुमा था धुले पुँछे पत्ते ठंडी ठंडी बयार मन तन में 
					खुशी सकून और ठंडक छाई थी। कार की खिड़कियाँ खुली थीं। मैं 
					समूची मौसम में डूबी बैठी थी। आत्मा तक लबालब भरी थी। ढेर सी 
					यादें कुलबुलाने लगी थीं। न पोखर याद रहा न झोंपड़ियाँ न इन 
					लोगों का घर निकाला न उनका तनाव दुख न अपनी बीमारियाँ डिप्रेशन 
					दवाइयाँ कुछ भी याद न रहा। ये सर्द मौसम का असर तो नहीं हो 
					सकता। इतने दिनों उनके दुखों दिक्कतों तनावों में मैं इस कदर 
					रमी थी कि मेरे मस्तिष्क की हर समय तनी रहने वाली नसें भी 
					शान्त हो गयी थीं। हर शाम होने वाला सिरदर्द भी अब ना होता था। 
					घर पहुँचती तो अब थक टूट कर चूर 
					चूर हो कर न गिर पड़ती थी। योग और प्राणायाम करने जैसा प्रभाव 
					पडा था। इसे ही स्व से पर हो जाना कहते हैं शायद।
 
 आज मुझे गाँव की नदी का कीचड़ सना तट याद नहीं आया न ही वहाँ की 
					गन्दगी या कूड़ा दीखा न ही पेट बाहर निकाले मरियल से बच्चे दीखे 
					खाँसते बूढ़े फटी धोती मे शरीर को लपेटने की असफल कोशिश करती 
					काम में जुटी गृहिणियाँ बचपन की वह सारी गन्दगी धुल पुँछ गई 
					थी। बच रही थी बस इन लोगो के भीतर की जीजिविषा जो मुझे भी 
					जिलाए रख रही थी।
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