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					अब ऐसा भी नहीं है। आखिर यहाँ 
					रहने वाले हर व्यक्ति के पास ये सुविधाएँ तो नहीं हैं न ही हर 
					प्राणी इन्हें अफोर्ड कर सकता है। पर मैं तो बात अपनी कर रही 
					हूँ। वर्षों इन सुविधाओं 
					मे जीते ये सब जरूरत बन गया है। इनके बिना जीवन का कोई अर्थ ही 
					नहीं रहता।
 जल्दी में जो कार मिल पाई 
					थी ले ली थी। फिर तर्क यह भी तो था कि दिल्ली में कौन सा बर्फ 
					पड़ती है कि कार में हीटर की जरूरत पड़े। पर इस कोहरे भरे मौसम 
					में हीटर याद आ ही जाता 
					था। अब क्या हो सकता था। बीते वक्त को कौन पकड़ पाया है।
 
 अस्तु। बात तो 
					इस समय लोहे से भी मोटी 
					चादर से बिछे कोहरे की थी। मैं जिस रास्ते से जाती थी उसे 
					मुद्रिका सड़क या रिंग रोड कहा जाता था। अजीब ये था कि हम सभी 
					पढ़े अनपढ़ इसे रिंग रोड ही पुकारते थे मुद्रिका सड़क नहीं। असल 
					में तो दूसरी भाषाओं के अनेक शब्द हमारे सिस्टम में इस कदर 
					ज़ज्ब हो चुके हैं कि उनका इस्तेमाल न तो अजीब लगता है न ही 
					उनके पराया होने का एहसास 
					होता है। कुछ ही दिन पहले की ही तो बात है। रिक्शे में बैठी 
					थी। रिक्शे वाले से कहा-
					"विश्वविद्यालय चलो।"
 "जी" कहते हुए वह कमला नगर से शक्ति नगर की तरफ चल दिया।
 
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