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सूरज जब पहाड़ी के पीछे उतरने की तैयारी करने लगता तो हमें भी मजबूरन अपने ताम–झाम समेटकर घर की ओर रुख करना पड़ता। कंचे और गिल्ली डंडा तो हम इमली के पेड़ की खोह में छुपा कर रख देते लेकिन धुल में सने पैर और खून रिसते छिले हुए घुटने हमारी पोल खोल देते। घर पहुँचकर भी माँ से सामना नहीं होता पर हमारी आहट मिलते ही दादी का स्वर सुनाई पड़ता 'लेओ मोड़ा आ गए' हम बस्ता फेंककर दादी से लिपट जाते। दादी प्यार से हमारे सिर पर हाथ फेरती फिर माँ को आवाज देती 'बहू दो कटोरन में दूध रोटी मीड़ के दे जइया देखो तो कैसे भूख से बिलबिला रहे हैं दोऊ।'

ताँबे के कटोरों में दूध–रोटी लिए बाई टुकुर–टुकुर देखती, सास को बेटों के सिर पर हाथ फेरते हुए। हमारे सिर पर हाथ फेरने, हमारे हाथ–मुँह को अपने आँचल से पोछने की ललक लिए बाई की उन आँखों को तब हमने नहीं पहचाना। सास के सामने लाड़लों को प्यार कर नहीं सकती और अकेले में हम उन्हें मिलते नहीं। आज याद करता हूँ तो अपने आप ग्लानि होती है, बाई के प्यार को न पहचान पाने के लिए। पहले हम अनजाने में ही उनकी शिकायत दादी से कर देते थे और दादी उन्हें कितनी बातें सुनाया करती थीं। चौके के कोने में रखी सिल पर आँवले की चटनी पीसते–पीसते बाई अपने आँसू पोछती जातीं। उन मौन आँसुओं की भाषा को तब मैं नहीं जान सका पर अब याद आते ही अपराध–बोध से घिर जाता हूँ। आज जब शिखा को अंकित से लाड़–प्यार करते देखता हूँ तो मुझे अपने बेटे से ही ईष्र्या होने लगती है। कभी–कभी तो शिखा अपनी ओर ताकते देखकर टोक देती है . . .'ऐसे क्या देख रहे हो जी कहीं हमारे प्यार को नज़र न लगा देना . . .'

और मैं सिर्फ मुस्कराकर रह जाता हूँ। ज्यादा बोलने की तो यूँ भी मेरी आदत नहीं हैं लेकिन अपने अंतर्मन में उठते हुए गुबार को मैं चाहते हुए भी शिखा को बता नहीं पाता हूँ। कैसे कहूँ शिखा से कि ऐसे प्यार को तो आज भी मेरा मन तड़पता है। मैं जितना चुप हूँ, शिखा उतनी ही ज्यादा बोलती है लेकिन उसका बोलना मुझे अच्छा लगता है। शायद उसके बोलने से ही मेरे खामोश किले की अभेद्य दीवारों में दरारें पड़ें और मेरे अंदर का ज्वालामुखी फटकर दीवारों से रिसकर बाहर आ सके।

बचपन के अपने घर का माहौल याद करता हूँ तो आज भी चुप सी लग जाती है। आज के परिवार को परिभाषा से देखता हूँ तो लगता है मैंने पारिवारिक सुख को जिया ही नहीं हैं। बाई और बाबूजी के साथ खाना खाना तो दूर कभी ऐसा भी नहीं हुआ कि मैं खाना खाऊँ और बाई प्यार से पंखा झुले। जब तक दादी जिंदा रहीं, अपने सामने बिठाकर खाना खिलातीं जैसे उन्हें यकीन था कि बाई हमें भरपेट खाना नहीं खिलाएगी या सारे व्यंजन नहीं परोसेगी जिन्हें बनाने में उन्होंने सबेरे से दोपहर कर ली।

खाना खाकर हम गली–मोहल्ले के बच्चों के साथ खेलने में मस्त हो जाते। दिन भर बाबू के घर पर न रहने के कारण हम पर कोई रोक–टोक नहीं थी। हम लोग बाबू के घर लौटने के पहले ही आ जाते और उनके आने पर अच्छे बच्चों के समान पाठ याद करते दिखते। बाबू झाँककर एक नज़र हम पर डालते, फिर आदेशात्मक स्वर में बाई को खाना लगाने के लिए कहकर दादी से बातें करने लगते। बाबू के घर के अंदर आते ही वातावरण सहम सा जाता क्योंकि बाबू तेज स्वभाव के थे। बात–बात पर गुस्सा करना उनकी आदत थी। बाई कितना भी संभलकर बात करती लेकिन बाबू को कुछ–न–कुछ मीन–मेख निकालकर झिड़कियाँ तो देनी ही थीं। बाई सहमी–सहमी सी रहती। अपना दुख–दर्द किससे कहे अगर जिठानी से कहतीं तो वह भी देवर का ही पक्ष लेतीं। 'लाल सही तो कह रहे थे तुम तो होइ सिर्रन।' बाई इसे सच समझ लेती और सोचती अब और सुघड़ता से काम करूँगी, लेकिन वह ढाक के तीन पात। बाई कितना भी सुघड़ता से काम करती लेकिन मीन–मेख निकालकर बाबू को झिड़कियाँ तो देनी ही थीं।

बाबू के ब्यारी करने का भी अलग ही अंदाज था। अच्छा मन हुआ तो खा लिया नहीं तो दांत मिसमिसाते 'जो का बनाके धर देती हो' और थाली एक तरफ खिसका देते फिर कहते 'जरा हलुआ बना लाओ, आज बोई खावे मन कर रहो है' बाई बिचारी एक हाथ में लालटेन और एक हाथ में थाली लिए चौके में जाती थाली ढककर रख देती, चूल्हा जलाती फिर शुद्ध घी से तर शक्कर से भरपूर हलुआ बनाती लेकिन जब तक थाली भर हलुआ बाबू के सामने पहुँचता बाबू का मन बदल जाता दो–तीन चम्मच हलुआ खाकर थाली एक तरफ कर देते और खिचड़ी दलिया अथवा दूध–रोटी की माँग कर बैठते। इन सारे कार्यक्रमों में दो–तीन घंटे आराम से निकल जाते।

दिन भर की उछल–कूद से हम थके होते, नींद से बोझिल हमारी आँखें बंद होने लगतीं लेकिन बाबू के डर के मारे हम किताबों में आँखें गड़ाए बैठे रहते कभी–कभी आँखें झपक भी जातीं लेकिन बाबू की गरजदार आवाज से हड़बड़ाकर जाग जाते और फिर पढ़ने लगते या पढ़ते दिखाई देने का नाटक करते। दादी बाई और हमारी हालत देखकर हँसी के मारे लोटपोट हो जाती। दरअसल जब बाबू बाई को डाँटते तो दादी को अच्छा लगता और बाबू के सुर में सुर मिलाकर वह भी बाई को दो चार कड़वे घूँट पिलाना न भूलतीं। पराए पेट की जायी न थी न इसलिए बाई के प्रति दादी के मन में जरा भी दया या सहानुभूति नहीं थी। यह भी तब हमारे नन्हें मन नहीं समझ पाते।

बाई बाबू के लिए तरह–तरह का खाना बनाती बाबू खाते उसी में झूठा डाल देते और वह अधखाई थाली ही बाई के लिए प्रसाद होती लेकिन उसे भी वे रात में ग्रहण करती या सवेरे किसी को भी जानने की फुरसत नहीं थी। हम लोग भी ताक–झाँक करके यह देखते थे कि यहाँ क्या ढक कर रखा है लेकिन यह जानने की चेष्टा कभी नहीं की कि बाई ने खाना खाया है या नहीं।

खाना खाकर बाबू दाँत कुरेदने के लिए सींक माँगते तो हम समझ जाते बाबू अब बिस्तर पर लंबे होंगे और लेटे–लेटे दाँतों में फँसे अन्नकणों को निकालेंगे। हम लोग फौरन बस्ता समेटकर एक तरफ रखते और सोने चले जाते। बाई चौके को ऐसे ही छोड़कर आकर बाबू के पैर दबाने लगती। इन पलों की प्रतीक्षा बाई को दिन भर रहती क्योंकि यही वे क्षण होते जब दादी उनके बीच नहीं होती। सारे दिन का लेखा–जोखा इन्हीं क्षणों में होता। आधे घंटे के बाद बाबू के खर्राटों का स्वर और चौके में बाई के बर्तन समेटने का स्वर सुनाई पड़ने लगता। यही हमारे लोरी होती। यही सुनते–सुनते हमारी आँख लग जातीं।

भन्सारे चक्की की घर्र–घर्र से हमारी आँख खुलती। बाई रोज हाथ चक्की पर लगभग दस किलो गेहूँ पीसती। फिर कुएँ से पानी भरकर लाती। तब तक बाबू भी उठ जाते। बाबू की नजर से बचने के लिए हम लोग नहर में नहाने का बहाना कर भाग जाते। नहा–धोकर आते तो बाबू के द्वारा विस्थापित भोज्य पदार्थ हमारा इंतज़ार करते। कलेऊ कर हम लोग जल्दी–जल्दी तैयार होकर ऐसा प्रदर्शित करते जैसे हमें पाठशाला के लिए देर हो रही है।

बाबू जेब खर्च के लिए हमें पैसे नहीं देते थे। उनसे पैसे माँगने की कभी हमारी हिम्मत नहीं पड़ती। जेब खर्च के लिए तो हम लोग दादी से प्यार जताते। हमें तो बाबू के प्यार से भी डर लगता। दरअसल बाबू के प्यार और गुस्से में हम फर्क ही नहीं कर पाते सिवाय इसके कि जब वे हमारी नन्हीं हथेलियों पर ताँबे के छेद वाले दो–दो सिक्के रख देते थे। हम पर इतना प्यार लुटाकर वे स्वयं बहुत प्रसन्न होते लेकिन हम लोगों की घिग्गी बँध जाती क्योंकि शाम को हमें उन पैसों का हिसाब देना होता था। अगर उन पैसों को अच्छे काम में खर्च किया तो ठीक है, नहीं तो ऐसी डाँट पड़ती कि बस घुटना गीला होना ही रह जाता। इसीलिए बाबू के दिए पैसों को हम गुल्लक में डाल देते और शाम बाबू को बड़ी शान से अपनी बचत के बारे में बताते जिससे वे प्रसन्न होकर हमारी पीठ ठोकते।

हमारा संपन्न परिवार था खेती–बारी थी इसीलिए घर में बटियारों का आना–जाना लगा रहता था। घर में बीज–खाद फसल की बातें होती रहतीं। खेतों में जाकर बाबू खुद देखते कि बटियारे ठीक से काम कर रहे हैं या नहीं। खेती का सामान लाने या फौजदारी के मुकदमों के चक्कर में बाबू को शहर भी जाना पड़ता था।

हमें भी बाबू फसल की नजर से देखते। खाना दे दिया, कपड़े दे दिए, पाठशाला में नाम लिख दिया, बस हो गई परिवार की जिम्मेदारी पूरी। तब हमारी नन्हीं बुद्धि के लिए इतना ही काफी था। हम खुद शैतानियों में इतने व्यस्त रहते कि हमें इससे ज्यादा सोचने की फुरसत ही नहीं रहती।

गर्मी की दोपहरी तो आम के बगीचों में गुजरती। माली बेचारा बाग का ठेका लिए बैठा रह जाता और आम हम चट कर जाते। शरारतें करने में तो हम महिर थे, शिकायतें भी घर पहुँचती रहती थीं लेकिन मेरे चेहरे का भोलापन मुझे चोर साबित होने से बचा लेता और सारी शरारतों की सजा भुगतनी पड़ती बड़े भाई साहब को। जिसका भुगतान वे किश्तों में करते रहते थे कभी मेरे कान खींचकर तो कभी पीठ पर धौल जमाकर।

उस वातावरण का प्रभाव आज भी मेरे जेहन से कम नहीं हुआ इसीलिए अंदर की झिझक भी पूरी तरह नहीं गई। शिखा को मेरा कम बोलना खलता है। वह जानती है कि मैं उसे बहुत प्यार करता हूँ लेकिन शब्दों में ढालकर अभिव्यक्त नहीं कर पाता। मेरी इसी आदत से शिखा नाराज रहती है। जिस जुबाँ ने पच्चीस वर्ष चुप रहना सीखा हो, वह एकाएक बोल तो नहीं सकती। आखिर उसे बोलना सीखने में वक्त तो लगेग ही। डरता हूँ कहीं इसमें पूरी उमर ही न निकल जाए। शिखा तो अक्सर ही कह देती है 'तुम्हारी प्यार भरी बातें सुनने के लिए तो मुझे दूसरा जन्म लेना पड़ेगा।'

दरअसल शिखा बिल्कुल अलग वातावरण में पली है। शिखा के मायके में किसी पर इतनी बंदिशें नहीं रही हैं। सबेरे की चाय हो दोपहर का खाना हो शाम की चाय हो या रात्रि–भोज सब कुछ साथ मिल–बैठकर ठहाकों के बीच होता है। सबके खुशी और गम बँटते हैं। बच्चों के लड़ाई–झगड़ों का निपटारा भी इन्हीं क्षणों में होता है। चर्चा साहित्य की, राजनीति की या किसी पिक्चर की सभी हिस्सा लेते हैं। बच्चों की पसंद और नापसंद का खास ख्याल रखा जाता है।

काश मेरे यहाँ भी ऐसा ही वातावरण होता। मैं भी कभी बाबू से जिद करता 'बाबू मुझे हाथ घड़ी ला दो या बाबू मुझे एटलस साइकिल दिला दो।' पर हम कभी इतना साहस नहीं जुटा पाए। मुझे याद है एक बार दीवाली के मौके पर हम लोग बाबू से पटाखों के लिए पैसे माँगने गए तो पैसों के बदले मिली ढेर सारी हिदायतें –'पटाका से आग लग जाती है।' पटाखन से मोड़न को चोट लगे का डर रहता है, और भी न जाने क्या–क्या... भीतर के कोठे में दादी सुन रही थी। वहीं से बोली 'त्यौहार वार को तो न डाँटो मोड़न की दीवाली तो पटाखन सेई होत हैं।'

'अम्मा तुमइरे लाड़ ने बिगाड़ो हैं इन्हें' कहकर दो–दो रुपए हमारी हथेलियों पर रखकर बाबू ने हमें चलता कर दिया।

कस्बे की पाठशाला दसवीं कक्षा तक ही थी अतः आगे पढ़ने के लिए मुझे टीकमगढ़ जाना पड़ा। यह मेरे लिए अच्छा ही हुआ। इस बहाने मैं बाहर की दुनिया से परिचित हुआ। भाई साहब मेरे अभिभावक बनकर पहले ही टीकमगढ़ पहुँच चुके थे क्योंकि वे मुझसे एक कक्षा आगे थे। भाई साहब के साथ रहने को मिलेगा, यह सोचकर मैं बहुत खुश था। दरअसल भाई साहब के बिना मुझे अच्छा नहीं लगता था। अचानक बाबू की आवाज सुनकर मैं चौंका। बाबू ने बाई से नरम स्वर में कहा 'बाकी काम बाद में कर लइयो पहले मोड़ा की तैयारी लगा दो' बाबू की आवाज दादी के कानों में भी पड़ गई थी इसीलिए उन्होंने कोई प्रतिवाद नहीं किया।

बाई को तो जैसे मनमाँगी मुराद मिल गई। तैयारी के बहाने उन्होंने मुझे अपने पास बैठाया मेरी ठोड़ी ऊपर उठाकर बड़ी देर तक निहारा बड़ी देर तक मेरे सिर पर हाथ फेरती रही और मैं आँखें फाड़–फाड़कर बाई को देखता रहा। यह क्रम मेरे टीकमगढ़ जाने के दो दिन पहले से और टीकमगढ़ से लौटने के दो दिन बाद तक चलता। उन्हीं दिनों मैंने माँ के प्यार को जाना और गहराई से उनसे जुड़ाव महसूस किया। अपने अंदर संवेदनाओं के ज्वार को भी महसूस करता जो आँखों की कोर तक आकर मुझे अपनी उपस्थिति का एहसास कराता।

अब मैंने जान लिया था कि बाबू की गरजदार आवाज़ अचानक कैसे नरम हो गई थी। यह बात और है कि वे इसका एहसास किसी को नहीं होने देना चाहते थे। सामान ताँगे में रखकर जब मैं बाबू के पास पहुँचा तो उन्होंने सिर पर हाथ रखकर कहा 'ठीक से रहियो' – आवाज की नरमीं को पहचान कर मेरी आँखें भर आई लेकिन झुककर पैर छूनेमें अपने आपको संभाल लिया। रूँधे गले से मैंने बस 'हओ' कहा और जल्दी से जाकर ताँगे में बैठ गया।

रास्ते भर बाई के प्यार भरे हाथ का एहसास मुझे अपने सिर पर महसूस होता और लगता ढेर सारा प्यार समेटे एक जोड़ा आँखें पीछा कर रही हैं। बस में बैठकर खिड़की की ओर मुँह करके एक–दो बार रो भी लिया करता। मन भी क्या चीज होती है, जब तक किसी का साथ होता है उसके प्यार को पहचान नहीं पाता, और जब पहचान पाता है तब उसके प्यार को पाना उसके बस में नहीं होता। बस एक व्याकुलता और अनकही छटपटाहट मन को घेरे रहती हैं।

अचानक शिखा की आवाज आई 'अंकित को पकड़ लिया अंकित को पकड़ लिया' मैं अपनी तंद्रा से जागा अरे पांच बज गए। शाम को शिखा लॉन में पानी सींचकर कुर्सियाँ बाहर लाकर रख देती हैं और चाहती है मैं वहीं उसके साथ बैठकर काफी पिऊँ। मैं तैयार होकर लॉन में आ जाता हूँ। लॉन सींचने से हल्की सी ठंडक हो गई है। मिट्टी की सोंधी–सोंधी महक ने रजनीगंधा की खुशबू के साथ मिलकर वातावरण को खुशनुमा कर दिया है।

शिखा और अंकित का खेल चल रहा है, चलता तो रोज ही है लेकिन आज लग रहा है मुझे अपने बचपन को दोहराना नहीं चाहिए। मैं नहीं चाहता जिंदगी के ऐसे ही किसी मोड़ पर आकर अंकित मेरे प्यार को पहचाने और जब पहचाने भी तो उसे सिर्फ दूर से छूकर ही महसूस कर पाए। नहीं मुझे बीते हुए दिनों का मलाल नहीं करना चाहिए। अब जो सुनहरे पल मेरे सामने बिखरे पड़े हैं, उन्हें समेट लेना है, दूर से देखकर यूँ ही नहीं गँवा देना है। मैं उठाकर शिखा और अंकित के खेल में शामिल हो जाता हूँ।

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२४ सितंबर २००४

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