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दोपहर की नींद से जागा तो देखा, शिखा तैयार हो रही है। शाम के
साढ़े चार बज रहे हैं। जब तक मैं बिस्तर छोडूंगा, शिखा और अंकित
का छुपा–छुपी का खेल चार–छह बार खेला जा चुका होगा। शिखा भी
अंकित के साथ बिल्कुल बच्चा बन जाती है। कितनी ख्याल रखती है
उसकी पसंद और नापसंद का। अंकित के कारण अपने व्यक्तिगत कार्य
भी स्थगित कर देती हैं। अंकित भी कितना खुला है अपनी माँ से।
दोनों में माँ–बेटे का कम दोस्त का रिश्ता ज्यादा है। मेरे कम
बोलने को लेकर दोनों ही मुझे उलाहना देते रहते हैं। मैं सिर्फ
मुस्कराकर रह जाता हूँ क्योंकि मैं इसका
कारण जानता हूँ। कितना
फर्क है अंकित और मेरे बचपन में।
मेरा बचपन गाँव में ही बीता। जबसे मैंने होश सँभाला, अपनी
माँ
को दिन भर खटते ही देखा। काम के मारे
माँ ने मुझे अपने पास
बैठाकर बातें की हों परियों की कहानियाँ सुनाई हों, कभी चाँद
में बैठकर सूत कातने वाली बुढ़िया के बारे में बताया हो या कभी
लोरी गाकर सुलाया हो, ऐसा मुझे याद नहीं आता।
सबेरे उठकर नहा–धोकर कलेऊ करता और फिर बस्ता टाँगकर बड़े भाई के
साथ दो कोस पैदल चलकर पाठशाला जाता। घर से स्कूल तक का रास्ता
हमारा खेल का मैदान होता। पेड़ों की डालों पर झूलते हुए, गुलेल
से चिड़ियों पर निशाना साधते हुए, कुएँ में पत्थर फेंकते हुए
बेर–इमली खाते हुए हम स्कूल पहुँचते। स्कूल जाते समय बस इतना
ही खेल काफी होता लेकिन लौटते समय अपने खास अड्डे पर पहुँचकर
हम बस्ता पेड़ों की डालों पर टाँग देते फिर कभी कंचे खेलते तो
कभी गिल्ली–डंडा।
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