पर अब अमृता
पहले वाली अमृता न रही। हवा से जरा किश्ती-सवार की आवाज न आती,
तो अमृता घबराने लगती। चाँदनी को खत देने में देर हो जाती, तो
अमृता दुश्चिंताओं से घिर जाती। अब अमृता को किश्ती में
अकेलापन लगता। चाँद की चाँदनी वह पी न पाती, उसका अमृत घट भी
खाली हो गया था। अब अमृता के मन में थी, तो सिर्फ बेचैनी। वह
बड़ी अशांत रहने लगी।
वह हवा में किश्ती-सवार की आवाज सुनती, चाँदनी पर लिखे उसके खत
पढ़ती, तो जरा देर को चैन पाती। फिर अगली आवाज और अगले खत की
बेचैनी अमृता के दिल में शुरू हो जाती। अमृता लहरों से
प्रार्थना करती कि वे फिर उसे किश्ती सवार से मिला दें, कभी
लहरों की दया से अमृता किश्ती सवार से मिल जाती। पर लहरें
जल्दी ही उन्हें अलग भी कर देतीं। अमृता फिर उस सुकून की तलाश
में अपना सुकून खोने लगती।
अब अमृता
अपने आप को खो चुकी थी, खो गई थी उसकी चाँदनी, जो पी थी उसने,
अमृतघट रीत गया था। वह अपने आपको किश्ती-सवार के पास गिरवी रख
चुकी थी। किश्ती-सवार हँसता तो हँसती, वह स्र्लाता तो रोती थी
अमृता। अमृता जैसे सितार का तार बन गई थी, किश्ती-सवार जैसे
चाहता वैसे सुर छेड़ता।
पंद्रह दिन
जब चाँद नहीं होता, तो अमृता को अंधेरे से डर लगता। सूरज के
ताप में पहले दिनभर भटकती अमृता की देह अब सूरज के बिना भी
तपती। लहरें आकर जब उसे अपने आँचल से ढकतीं, तो भी उसका ताप कम
न होता, बल्कि अब सागर के खारे पानी से उसकी झुलसी हुई देह और
भी जलने लगती, उसके घावों की टीस और बढती जाती।
वह कैसी
पराधीनता थी जो अमृता का सुख-चैन छीन चुकी थी।
एक दिन समंदर
में किश्ती पर तैरती बेचैन अमृता ने देखा कि आसमान में
काले-काले बादल घिर आए हैं, तेज बरसात होने लगी। अमृता को लगा
कि जैसे उसकी पीड़ा से आसमान रो पड़ा है और सारा सागर उसी के
आँसुओं से भरा है।
पर
जरा ही देर में आसमान साफ हो गया। बिलकुल साफ और धुले-निखरे
आसमान में चाँद उतर आया। पूर्णिमा का पूरा चाँद, बिलकुल साफ
उजला, सफेद चाँद, आईने-सा चाँद, अमृता ने चाँद की ओर देखा,
चाँद उसे बड़ा दिव्य और अलौकिक लगा।
अमृता चाँद
की ओर एकटक देखने लगी। देखते-देखते अमृता को चाँद में अचानक
अपना अक्स दिखा।
"अमृता..."
चाँद में दिख रहे उसके अक्स ने उसे धीरे-से आवाज़ दी। अमृता ने
यह आवाज बिलकुल साफ सुनी। वह चकित हो गई। भाव-विभोर होकर चाँद
में दिख रहे अपने अक्स से मन-ही-मन बातें करने लगी।
और बातें
करते हुए उसे पुरानी बातें याद आ गईं, जब वह चाँद से बातें
करती और चाँदनी पीया करती थी। जब उसका हृदयघट अमृत से भरा रहता
था। इन बातों के याद आते ही अमृता को लगा कि उसने अपने आपको पा
लिया।
उसने वह सब
पा लिया, किश्ती-सवार के चेहरे पर उतरे चाँद को देखकर खो बैठी
थी।
फिर
अमृता की बेचैनी गायब हो गई थी। अब अमृता को न लहरों के जरिये
किश्ती-सवार तक पहुँचने का इंतजार रहता, न हवा में उसकी आवाज
सुनने का और न ही चाँदनी पर लिखे उसके खत पढ़ने का। अब जब कभी
अमृता ने किश्ती सवार की आवाज हवा में सुनी, तो सुनकर भी जैसे
सुनी नहीं, जब कभी किश्ती-सवार ने उसे चाँदनी पर खत लिखे, तो
अमृता ने बिना पढ़े ही उन्हें सागर के हवाले कर दिया। फिर कभी
लहरें अमृता की किश्ती, किश्ती-सवार के पास ले गईं, तो अमृता
ने उसे देखकर भी न देखा। अमृता के अमृतघट की चाँदनी अब यों
फिजूल में लुटाने को न थी।
फिर अमृता ने
आसमान में चाँद को देखा और सागर पर बहती चाँदनी में दूर
क्षितिज की ओर देखा, जहाँ समंदर, आसमान से मिल रहा था। अनायास
लहरों ने उसे ढकेला और वह क्षितिज की ओर बढ़ चली। उसकी आँखें
दूर क्षितिज पर टिक गईं। वह जानती थी कि लहरें उसे वहाँ
क्षितिज तक ले जाएँगी, जहाँ से वह आसमान को छूकर देख सकेगी, घर
बनाने के लिए लोचदार मिट्टी ला सकेगी।
पर अब तो
अमृता को वहाँ जाने की चाह भी नहीं थी, न ही अब वह घर बनाने के
लिए मिट्टी लाना चाहती थी और न ही उसे सीपी बन स्वाति की बूँद
पाने और अतल समंदर में जाकर मोती गढ़ने की चाह थी।
अब तो वह हवा
का जादूभरा संगीत सुनती, यह उसे बड़ा भला लगता। अब वह अमृत
बरसाती चाँदनी पीया करती और चाँदनी पीकर आनंद विभोर हुआ करती।
उसके हृदय का घट फिर चाँदनी से भरने लगा। अब फिर अमृता की
आँखों में भरी थी चाँदनी, निर्मल धवल चाँदनी, झख-झख सफेद
चाँदनी।
जब अमृता
छककर चाँदनी पीने लगी तो फिर घट से छलकती हुई चाँदनी सारे
समंदर में बहने लगी। अब सारे समंदर में बह रही थी -- चाँदनी ही
चाँदनी। इस चाँदनी में था -- अमृता का अपना अक्स।
अब अमृता न
तो पराधीन थी और न किसी आस से बँधी थी। उसके सारे पल सुख से
भरे थे। अब उसने अपने भीतर का सुकून पा लिया था, अब उसे सुकून
के लिए बाहरी कारण की तलाश न थी। उसके हृदय में स्थित प्रेम का
अमृत बरसने और छलकने लगा और उसका नाम 'अमृता' सार्थक हुआ।
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