| 
					 भीषण गर्मियों 
					में लू से तपी गर्म हवाओं के कारण पंखी झलते हुए सारी रात कटती 
					थी। वह भी गली में बिछी चारपाइयों पर। दीवारों पर कील गाड़ कर, 
					उस कील से सब अपनी अपनी चारपाई बाँध देते थे, जिससे रात को 
					उनकी जगह न छिन जाए। मजाल था कि कोई नई चारपाई वहाँ जगह पा 
					जाती। एक बार नुक्कड़ की बागड़ी बन्तो ने पिछले मोड़ पर अपने बेटे 
					व नई बहू को भीतर सुलाने की खातिर बाहर चारपाई बिछा ली अपने 
					लिए, तो पूछो न क्या गालियों भरी रात चली थी। मयंक, धीरेन, 
					वीरू, कुक्कू और पाली की टोली ने तो बहुत आनन्द लूटा था। आज भी 
					उस रात को याद कर वह स्वंय ही एकांत में भी मुस्कुरा उठता था। 
 गलियों की सरकारी बत्तियाँ तो तमाम रात जलती थीं। एक एक आहाते 
					में पाँच छैः कमरे नीचे व दूसरी मंजिल पर भी उतने ही परिवार 
					बसे थे। ऊपर वाले अपनी छत पर, जमीन पर बिस्तर लगा कर सोते थे। 
					अमावस की अंधेरी रातों में, आधी रात को कौन कहाँ सोता था कोई 
					नहीं जान पाता था। जब कभी आधी रात को प्यास लगने पर भीतर जाना 
					होता था, तो पंखों की घर्र र्घर में चारपाइयों के हिलने, 
					खुर्राटों की आवाजें, साथ ही चूड़ियों की खनक मिली होती थी। 
					मयंक का जवान मन इन आवाजों में रस पाने लगता था। कुछ देख सकने 
					की ललक में, वह वहीं खड़े रहकर मटके से चार पाँच गिलास पानी 
					पीता रहता, इस बीच वह पाली के भाई भाभी को हिलते डुलते भी 
					देखता था। एक बार तो पानी पीने के बाद वह वहीं दीवार की ओट में 
					अंधेरे में लेट ही गया था। चोरी चोरी उनकी पूरी रासलीला देख कर 
					उनके सोने के उपरांत चुपके से गली में जाकर अपने बिस्तर पर 
					दुबककर बाकि की सारी रात ख्यालों में खोया रहा था। तभी उसे लगा 
					था उसका बदन भी तप रहा था। वह भी अब जवान हो गया था। फिर न 
					जाने कब भोर के तारे के ओझल होने के पश्चात् धूप चढ़े तक वह गली 
					के शोर में भी सोया रहा था।
 
 बिड़ला मंदिर के रास्ते में रेलवे क्वाटर्स आते थे, वहाँ से भी 
					बहुत बच्चे मंदिर में खेलने आते थे। उन्हीं में थी भूरे बाल 
					कंधों तक बिखराए, प्यारी सी झनक। एक बार सड़क पार करते हुए एक 
					तेज आती कार से उसे बचाकर खींच ही लिया था मयंक ने। तभी से वह 
					उसके शरीर का स्पर्श भूला नहीं था। नाम पता भी पूछा था व वे 
					सभी उसे घर तक छोड़ कर आए थे, मानो उन्होंने कोई र्मोचा जीत 
					लिया था। उसके पिताजी रेलवे के मेन आफिस बड़ौदा हाऊस में कलर्क 
					थे। अब झनक भी कली से फूल बन चली थी। स्कर्ट की जगह सलवार कमीज 
					ने ले ली थी। झनक की एक झलक पाने के लिए मयंक के पाँव हर रात 
					उसी रास्ते को नापते थे। कई बार उनका आमना सामना हो जाता था। 
					दोनो ही एक दूसरे को देखते ही झेंप जाते थे। उधर झनक को भी 
					मयंक का प्रतिक्षण इंतजार रहने लगा, मयंक की अर्थभरी आंखों का 
					प्रभाव झनक के गुलाबी पड़ते चेहरे पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होने 
					लगा था। एक रात दोनो ने लज्जा का बाँध तोड़कर प्रेम का इज़हार कर 
					ही डाला, फिर तो प्रेम की पींगें चढ़तीं चली गईं थीं।
 
 झनक को पूर्णरूपेण अपनाने की इच्छा, मयंक को कुछ बनने की ओर 
					प्रेरित कर रही थी। बी कॉम की परीक्षा प्रथम डिवीजन में 
					उत्तीर्ण करके उसने उत्साह पूर्वक नौकरी के आवेदन पत्र भेजने 
					आरम्भ कर दिए थे। उन्हीं दिनों धीरेन के मौसाजी ने उसे अमेरिका 
					बुलाया तो मयंक के मन में भी अमेरिका जाने की लालसा जागृत हुई। 
					धीरेन का एम्बैसी का काम, वीज़ा, टिकट वगैरह करवाने में मयंक हर 
					पल उसके साथ था। न जाने कैसे. ख्याल आया कि मयंक ने भी टूरिस्ट 
					वीज़ा के लिए फॉर्म भर दिया और उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं 
					रहा. जब उस किस्मत के धनी को भी छह महीने का वीज़ा मिल गया था।
 
 दोस्तों की टोली ने तो जश्न मनाया कि मयंक की लॉटरी लग गई, पर 
					घर में सब को साँप सूँघ गया कि टिकट के पैसे कहाँ से आएँगे। अब 
					तो चार पैसे कमाकर परिवार के खर्च में हाथ बँटाने का समय आया 
					था, और ये जनाब विलायत भाग चले थे। पाकिस्तान से घरबार लुटाकर 
					मयंक के दादाजी को रिफ्यूजी होने पर यह एक कमरा सिर ढाँकने को 
					मिला था। दो बेटों को लेकर वे दिल्ली पहुँचे थे। चाचाजी तो 
					नौकरी लगने पर नेहरूनगर जाकर रहने लगे थे, मयंक के पिताजी अपने 
					परिवार के साथ यहीं रह गये थे। पहाड़गंज में फलों की दूकान थी 
					उनकी। बच्चे पढ़ाई में अच्छे थे, यही बात उनकी संतुष्टि का कारण 
					थी। किन्तु बीमार माँ जीवन से असंतुष्ट थी। उसे बेटियों के 
					ब्याह की चिन्ता खाए जाती थी दिन रात। माँ के बीमार होने पर 
					पूरनी चाची आटा गूँथ देती थी, और अनीता तंदूर से रोटियाँ लगवा 
					लाती थी। साथ ही काली दाल भी वहीं से खरीद लाती थी। क्या स्वाद 
					आता था कि आज भी उसे याद करके मयंक के मुँह में लार टपक पड़ती 
					थी। कभी कभार शादी ब्याह में फलों के टोकरे भेजने से अच्छी 
					कमाई होने पर पिताजी तंदूर से मीट या मुर्गा ले आते थे, फिर तो 
					सारे आहाते में शान से खाना होता था। ऐसे में मयंक को पैसे 
					देने की तो कही लेश मात्र संभावना भी नहीं थी परिवार में।
 
 वीरू एक म्यूज़िक ग्रुप मे ड्रम बजाता था। ग्रुप के संचालक मि 
					कपूर से वीरू की अच्छी दोस्ती थी। मयंक भी कभी कभी वीरू के साथ 
					वहाँ जाता था। मि कपूर ने वीरू की जिम्मेवारी पर मयंक के लिए 
					टिकट के पैसे सूद पर दे दिए थे, जो कि मयंक ने सबसे पहले अदा 
					किए थे, वीरू की इज्ज़त का मान रखने के लिए। वीज़ा मिलने पर मयंक 
					ने झनक को बताया, तो वह मयंक के बिछुड़ने के ख्याल मात्र से तड़प 
					उठी थी। संध्या के झुटपुटे से रात की गहराती कालिमा में भी वे 
					एक दूसरे से लिपटे आँसू बहाते रहे थे। झनक से किया वायदा उसने 
					निभाया था वापिस जाकर। झनक के माता पिता से उसने इतना वायदा 
					लिया था कि वे उसका इंतजार करेंगे, व उन्होंने भी मयंक का मान 
					रखा था।
 
 सुनहरे भविष्य के ढेरों ख्वाब संजोए जब वह अमेरिका के लिए उड़ 
					चला था, तो यों प्रतीत होता था जैस वह कोई वी आई पी बन गया था। 
					धीरेन न्यूर्याक के जे एफ के हवाई अड्डे पर उसकी राह देख रहा 
					था। फिल्मों में देखा हुआ न्यूयार्क वास्तविकता में बहुत सुंदर 
					दिख रहा था। यहाँ की गगनचुम्बी इमारतें व अट्टालिकाएँ देखकर वह 
					विस्मय व हर्ष से भर उठा था। क्वीन्स के एक छोटे से रेस्तरां 
					में पच्चीस डॉलर का खाना व बीस डॉलर टैक्सी का बिल धीरेन 
					द्वारा देने पर, मयंक मन ही मन डॉलरों को रूपयों में गिनकर, 
					धीरेन के प्रति कृतज्ञता से भर उठा था। वहाँ से पैदल ही वह उसे 
					अपने भीड़ भरे कमरे में लाया, तो मयंक को लगा उसके स्वप्न टूटकर 
					बिखर गए थे। वहाँ पाँच भारतीय लड़के और भी रहते थे। वहीं जमीन 
					पर सब सोए हुए थे। मयंक का भी नया सूटकेस एक कोने में रखकर 
					धीरेन उसे चुपके से बाहर ले आया, व बताया कि अनाथ होने के कारण 
					उस की मौसी ने उसे अमेरिका बुला तो लिया था, किन्तु फिर पल्ला 
					छुड़ा लिया था। वे भी कठिनाई से अपना खर्चा पूरा करते थे। धीरेन 
					केवल प्रति शनिवार रात उनके पास घर का खाना खाने जाता था। उसने 
					बताया कि कमरे में सोए ये भारतीय लड़के, प्रोफैशनल्स हैं। 
					फिलहाल जो काम मिलता है वही करके गुजारा कर रहे हैं। कल की कल 
					देखी जाएगी। बस यही यहाँ की वास्तविकता है।
 
 इतनी कड़ुवी सच्चाई मयंक के गले नहीं उतर रही थी। उसके विचारों 
					में तो अमेरिका में रहने वालों के ठाठ ही निराले होते हैं, वे 
					भारत आने पर तभी तो ढेरों गहनें, कपड़े आदि खरीदते हैं। उनके 
					पास बड़ी बड़ी कारें व कोठियाँ होती हैं। लेकिन, मालूम हुआ कि 
					बेहद लगन, मेहनत व मुकद्दर से ही इस मुकाम तक पहुँचा जा सकता 
					है। तभी अमेरिका आपके स्वप्न भी पूरे करता है। अगले दिन धीरेन 
					बस से उसे अपने काम पर साथ ले गया। मैनेज़र ने बताया कि टूरिस्ट 
					का काम करना गैरकानूनी है अमेरिका में। उसे कहीं काम नहीं मिल 
					रहा था। क़रीब दस दिनों बाद एक गुजराती रेस्तरां के रॉकी पटेल 
					ने उसे आधी पगार पर काम दे दिया। सुबह का नाश्ता व संध्या समय 
					चाय या कॉफी भी मिलती थी वहीं से। कुछ ही दिनों में अपनी लगन व 
					मेहनत से मयंक ने रॉकी का दिल जीत लिया था। वह अन्तर्राष्ट्रीय 
					ड्राइविंग लायसेंस बनवा लाया था। वह पटेल की गाड़ी लेजाकर 
					रेस्तरां की ग्रासरी 'खाद्य सामग्री' भी खरीद लाता था। मयंक 
					पूरी तन्ख्वाह बचा लेता था। ऊपर से जो टिप मिलती थी उससे वह 
					भारत फोन कर के उनसे झूठ मूठ बताता था कि वह बड़े मज़े से है।
 पटेल को मयंक 
					ने प्यार, सेवा व कार्य कुशलता की डोर से बाँध लिया था। छह 
					महीने बीतने पर उसने भारत वापिस जाना था, पटेल ने उसे दोबारा 
					अपने पास बुलाने के लिए काम का पत्र दे दिया था। उसी पत्र के 
					आधार पर वह पुनः अमेरिका आ गया था। भारत वापिस जाकर उसने वीरू 
					का कर्ज़ उतारा, झनक से शादी की व पिताजी को भी पैसे दिए थे। 
					उसके आने के एक वर्ष बाद झनक भी गुनगुन को लेकर उसके पास आ गई 
					थी। अपने स्वप्न साकार देखकर मयंक को स्वंय से ईर्ष्या हो रही 
					थी। उस एक वर्ष में धीरेन के साथ मिलकर दोनों दोस्तों ने बेकरी 
					खोल ली थी। धीरेन बेकरी संभालता था। झनक के आने के पूर्व ही 
					मयंक ने एक कमरे का घर भी ले लिया था। दोनो के बचपन की दोस्ती 
					दुख सुख साझा करते करते पक्की हो चुकी थी। धीरेन को भी अपना 
					कहने को मयंक का परिवार साथ था। रात को दोनो इकठ्ठे खाना खाते 
					थे व झनक के हाथ का खाना खाकर दोनो उँगलियाँ चाटते रह जाते थे। 
					गुनगुन की हँसी व बाल सुलभ अठखेलियों ने मयंक का जीवन 
					इन्द्रधनुषी रंगों से भर दिया, उसने भी एक सैकण्ड हैंड हीरो 
					सिविक कार ले ली। धीरेन भी गुनगुन से थोड़ी देर खेलने के बाद 
					उसे सुलाकर ही जाता था। मयंक की जीवन की गाड़ी अब दौड़ चली थी 
					रफ्तार लेने को। 
 भारत में मयंक के पिताजी अब सिर उठा कर गर्व से चलते थे। भाई 
					अमेरिका में होने से अनिता का रिश्ता भी बढ़िया मिल गया था। 
					मयंक के पैसे आने से मां की बिमारी भी ठीक हो गई थी। अपनी 
					हैसियत से बढ़कर अनिता की शादी की थी मयंक ने। गुनगुन को बेबी 
					सीटर के पास छोड़कर झनक ने भी काम करना प्रारम्भ कर दिया था। जब 
					उसे स्कूल भेजने का समय आया, तो ज्ञात हुआ झनक पुनः मां बन रही 
					थी।
 
 अबकी बार वह अमेरिका में मयंक के पास थी। मयंक उसके खाने पीने 
					का पूरा ध्यान रखता था। पटेल की बीवी मीरा बेन उसे यहाँ की 
					बातें समझातीं थीं। इन वर्षों में झनक ने अमेरिका की भाषा, रहन 
					सहन सब अच्छे से सीख लिया था। हँसते खेलते समय अबाध गति से बीत 
					रहा था। नवप्राण के आगमन की प्रतीक्षा थी अब तो। मयंक मस्ती से 
					सीटी में धुन बजाते हुए जब भी कार की स्पीड बढ़ाता तो झनक उसे 
					टोक देती थी।
 
 झनक हाथ धो कर धीरेन के 
					पीछे पड़ी थी कि अब वह भी शादी कर ले। धीरेन मयंक से आयु में 
					चार वर्ष छोटा था, पर डील डौल में एकदम उस जैसा था। वह सदा ही 
					काम में व मयंक के परिवार में व्यस्त रहता था। अपने लिए लड़की 
					ढूँढने का उसके पास समय ही कहाँ था। मौसी भी बस शनिवार को 
					औपचारिकता निभा देती थी। धीरेन बात को हँसी में टाल देता था।
 
 झनक की डिलीवरी का समय करीब आ गया था। तभी पटेल ने इस रेस्तरां 
					का मैनेज़र मयंक को बना दिया, व स्वंय दूसरा रेस्तरां खोल लिया। 
					मयंक को प्रतीत हुआ मानो आने वाला नन्हा जीव उसके जीवन में 
					खुशियों की बहारें ला रहा है। बरखा की रिमझिम फुहार पर जैसे 
					मयूर झूम कर नाच उठता है, वैसे ही उसका सम्पूर्ण अस्तित्व झूम 
					उठा। मयंक ने झनक से कहा, "बेटा पैदा हुआ तो उसका नाम 'मयूर' 
					और यदि पुनः बेटी आई तो उसका नाम 'रिमझिम' रखेंगे।" झनक उसकी 
					रस भरी बातों पर मुस्कुरा भर दी थी। उसकी मीठी कल्पना में खो 
					गई थी, भविष्य की सुखद तस्वीर लिए। मयंक को पाने के बाद वह तो 
					अपना मायका भी भूल गई थी। उसका आदि मयंक था, तो अंत भी मयंक ही 
					था अब।
 
 समय पर झनक की डिलीवरी हुई। ओस में भीगी मुलायम काया लिए 
					रिमझिम उनके जीवन में पधारी। गोल मटोल अति सुंदर बच्ची थी। 
					इतनी सुंदर बेटियाँ पाकर मयंक के पाँव धरती पर नहीं पड़ रहे थे 
					प्रसन्नता के मारे। अगले ही दिन संध्या के चार बजे झनक व 
					रिमझिम को घर ले जाना था। मयंक ने अगले दिन साथ वाली सीट पर 
					बैल्ट लगाकर गुनगुन को 
					बैठाया, व दौड़ा ली कार। उसकी सोच पुनः अतीत में गोते लगाने लगी 
					थी और उसका पाँव एक्सीलेटर पर दबाव बढ़ाता जा रहा था। यहीं से 
					तो हमने कहानी प्रारम्भ की थी।
 
 स्वंय पर गर्वित होते हुए उसे होश ही कहाँ था। अपने आप में गुम 
					उसने देखा नहीं कि सामने का ट्रक लाल बत्ती के कारण रुक रहा 
					है। उसने बिन सोचे तेज़ कार ट्रक में जा मारी। पल में क्या से 
					क्या हो गया। चारों ओर से नीली रोशनी बिखेरतीं, सायरन बजातीं 
					पुलिस की गाड़ियाँ दौड़ीं मयंक की ओर। उसकी सफेद कार से लाल रक्त 
					की धार बह रही थी। कार सामने से पिचक गई थी, मयंक का पार्थिव 
					शरीर स्टीयरिंग व्हील के पीछे फंसा हुआ था। अलबत्ता गुनगुन 
					दाईं ओर बेहोश पड़ी थी, उसकी सांस चल रही थी। मयंक अकेला ही जा 
					चुका था बहुत दूऽऽऽ र
 
 धीरेन को फोन पहुँचा, वह अविश्वास से भरा जब वहाँ पहुँचा, तो 
					उसका यार जा चुका था उसे छोड़कर। उधर झनक हर पल मयंक की राह बड़ी 
					बेसब्री से तक रही थी, घर जाने के लिए। वह बार बार रिसैप्शन से 
					घर का फोन मिलाती, वहाँ कोई था ही नहीं तो फोन कौन उठाता। जब 
					सांध्य का धुंधलका भी रात्रि की बाहों में समाने लगा, तो उसकी 
					व्यग्रता बढ़ गई। बुरे विचारों ने उस पर हावी होना चाहा, तो 
					पलकों के प्रहरी आँसुओं की बाढ़ को रोक नहीं पाए और वेग से बह 
					निकले। आज उसे देवी देवताओं की मन्नत मन्नौती करनी भी आ गई थी। 
					वह तो पूर्णरूपेण मयंक पर निर्भर थी। वही उनका 
					अवलम्ब था।
 
 एक्सीडेंट से संबंधित सारे कार्य निपटाने में रात्रि घिर चली 
					थी। पटेल को वहीं छोड़कर केवल धीरेन ही झनक को लिवाने अस्पताल 
					पहुँचा। झनक हैरान हो धीरेन से मयंक के न आने का कारण व 
					कुशलक्षेम पूछ रही थी, साथ ही आँसू बहा रही थी। धीरेन ने 
					धैर्यपूर्वक उसे चलने को कहा व बोला, उसे काम था, उसने मुझे 
					कहा था तुम्हे लिवाने को। काम में देर हो गई, सौरी।"
 
 धीरेन ख्यालों में खोया, चुपचाप कार चला रहा था। उधर झनक उसका 
					पीला पड़ा चेहरा पढ़ने का विफल प्रयत्न कर रही थी। वह बोली कुछ 
					नहीं, बस सिसकती रही धीमे धीमे। घर में कदम रखते ही उसे अपनी 
					जान पहचान के सभी चेहरे दिखाई दिए। उसे यों प्रतीत हुआ मानो 
					उसका व रिमझिम का स्वागत करने को मयंक ने सरपराईज़ दिया है 
					उसको। उसकी जान में जान आई। उसने बरबस अपने होंठों पर 
					मुस्कुराहट बिखेरने का यत्न किया, पर उस की दृष्टि चारों ओर 
					मयंक व गुनगुन को खोजने लगी। तभी एम्बुलेंस का सायरन बजा, सभी 
					उठकर बाहर भागे, मीराबेन ने उसके हाथों से रिमझिम को उठा लिया। 
					धीरेन की मौसी, मिसेस सेन, मिसेस गुप्ता आदि उठकर उसके करीब आ 
					गईं।
 
 सर्वप्रथम धीरेन गुनगुन को उठाए भीतर आया, झनक ने प्रेम विह्वल 
					हो गुनगुन को चूमना आरम्भ कर दिया। तभी पटेल आदि सबलोग 
					स्ट्रेचर पर श्वेत चादर से ढँकी एक लाश लाकर भीतर ज़मीन पर रखने 
					लगे। झनक एक क्षण को भयभीत हो गई। चेहरे पर से चादर हटते ही 
					वहाँ मयंक का रक्तरंजित चेहरा देखकर, झनक एक चीख़ मारकर मूर्छित 
					हो गई। गुनगुन भी मामा पापा बोलकर बिलख रही थी, व माँ के शरीर 
					से लिपटी जा रही थी। ऐसा हृदय विदारक दृश्य देखकर कौन नहीं 
					पसीजता। सभी फूट फूटकर रो रहे थे। सब प्रत्यक्ष था, किन्तु 
					किसी को विश्वास नहीं हो पा रहा था। दोनो के परिवारों को भारत 
					में खबर दी गई।
 
 धीरेन ने वास्तविकता को समझते हुए, स्वंय ही वर्तमान से जूझने 
					का संकल्प लिया। पटेल ने हिन्दू सोसाइटी वालों को सूचित कर 
					दिया था। अगले दिन शनिवार था, श्मशान में जब लकड़ी के कफ़न बॉक्स 
					में मयंक को सजाकर, नया काला सूट, टाई पहनाकर फूलों से सजाकर 
					वहाँ रखा गया, तो प्रतीत होता था, वह अभी उठकर चल देगा। झनक पर 
					तो कहर टूटा था, वह पाषाण प्रतिमा बनी, सूनी आँखें लिए शून्य 
					में तक रही थी। वहाँ गायत्री मंत्र या शिवस्त्रोत पढ़े जा रहे 
					थे, उसे कुछ ज्ञात नहीं था। जब मयंक को बिजली के अग्निकुंड में 
					अर्पित किया जा रहा था, तो उन तीन निरीह जानों को देखकर अजनबी 
					भी आँसू बहा रहे थे। लेकिन झनक थी इक मूक दृष्टा।
 
 उजड़ी बहारें दामन में समेट कर वह एक चलती फिरती लाश बन चुकी 
					थी। 'समय', अब समय ही उसके घाव भरेगा, सब जानते थे। मीराबेन, 
					धीरेन की मौसी, आदि ने चालीस दिन तक झनक का पूरा ध्यान रखा। 
					अभी वह काम करने योग्य नहीं थी। उधर धीरेन स्वयं को उन से बंधा 
					पाता था। उनका पूरा ध्यान रखना, वह अपना नैतिक उत्तरदायित्व 
					समझता था। उनके सुख का वह साथी था, तो दुख भी तो उसी ने सांझा 
					करना था न। आखिर मयंक उसके बचपन का साथी, उसका एकमात्र दोस्त 
					था यहाँ पर।
 
 एक दो माह बीतने पर, हिम्मत जुटाकर एक दिन धीरेन ने झनक से 
					भारत वापिस जाने के विषय में पूछा। गहन गंभीर सी झनक ने उत्तर 
					दिया कि वह दोनो बेटियों के साथ यहीं अमेरिका में ही रहेगी। 
					भारत में तो कोई भी ऐसा शुभचिंतक नहीं है जो पलकें बिछाए उनकी 
					बाट जोह रहा हो। ससुराल वालों को केवल मयंक का पैसा चाहिए व 
					मायके में कोई उन तीनों का खर्चा नहीं उठा सकता। अब वह स्वयं 
					ही कोई नौकरी करेगी। यह सुनकर धीरेन अवाक रह गया।
 
 झनक की अभी उम्र ही क्या थी। उसका दृढ़निश्चय व बेटियों के 
					प्रति कर्तव्य पालन की क्षमता व निष्ठा देखकर उसे झनक पर गर्व 
					हुआ। वह मयंक के विछोह में टूटकर बिखरी नहीं थी, वरन् दृढ़ 
					संकल्प हो गई थी। लौहपुरूष सा फैसला लिया था उसने। धीरेन भी 
					उसका साथ देने को उत्साह से भर उठा। वह प्रतिदिन काम के 
					पश्चात् पहले की तरह ही उनके पास आता। घने जंगल सा सन्नाटा व 
					उदासी उसके आने से छँट जाती। वह रिमझिम से खेलता, उसे हँसाता, 
					गुनगुन को होमवर्क कराता, फिर चॉकलेट और आईसक्रीम खिलाने ले 
					जाता, साथ ही घर का जरूरी सामान भी लाकर रख देता था। हाँ झनक 
					स्वचलित मशीन सी खाना बनाती व रख देती थी। न वह हँसती, न 
					बोलती, न ही नज़र उठाकर देखती, धीरेन को भी मयंक की कमी खूब 
					खटकती थी।
 
 एक बार धीरेन आया तो देखता है झनक बच्चों के साथ लेटी दर्द से 
					कराह रही है। उसे बहुत तेज़ बुखार था, धीरेन ने आग्रहपूर्वक उसे 
					दवा और चाय बनाकर दी। बच्चों को भी कुछ खिलाया पिलाया। उस रात 
					फिर वह वहीं रह गया व सोफे पर ही सो गया। प्रातः आँख खुलने पर 
					देखता है कि उस पर कम्बल डला हुआ था। उसे कुछ सुखद सा लगा। दस 
					माह की रिमझिम आजकल दाँतों के निकलने के कारण बीमार चल रही थी। 
					झनक के चेहरे पर भी बेचैनी भरी थकान चल रही थी। तेज़ बुखार के 
					कारण उसके माथे पर झनक बर्फ़ के पानी की पट्टियाँ रख रही थी। 
					धीरेन ने उसे थोड़ा आराम करने को सोने भेज दिया। पौ फटे जब झनक 
					की आँख खुली, तो क्या देखती है- धीरेन अति तन्मयता से रिमझिम 
					की पट्टियाँ तमाम रात से कर रहा था। व अब उसका बुखार उतरने पर 
					मुस्कुरा कर देख रहा था।
 
 जिस लगन और प्रेम से वह दोनो बच्चियों को उनके पिता की कमी नही 
					महसूसने देता था, उससे झनक बेख़बर नहीं थी। उसके रोने व ग़म को 
					कम करने के लिए भी तो एक ही कंधा था धीरेन का! फिर भी एक दिन 
					उसने धीरेन से कह ही दिया कि अब वह देर न करे अपनी जीवनसंगिनी 
					ले ही आए। झनक को भी साथ मिल जाएगा।
 
 इतना सुनते ही धीरेन ने आव देखा न ताव, दोनो बच्चियों को दोनो 
					बाXहों में उठाकर, दोनो ओर से सीने 
					से लिपटाकर झनक से तपाक से बोला, 'अब ये दोनो ही मेरी ज़िदंगी 
					हैं। नहीं रह सकता मैं इनके बिना.! और तुम तुम हम तीनों की 
					ज़िंदगी हो। 'झनक अवाक् मुँह उठाए धीरेन की आँखों में दृढ़ 
					विश्वास से परिपूर्ण कर्तव्यनिष्ठा देख रही थी। उसे धीरेन में 
					एक महान व्यक्ति का स्वरूप दिखाई दे रहा था। त्याग की मूर्ति 
					या उस के लिए कोई युगावतार! कोई दैवशक्ति उसे धीरेन की ओर ढकेल 
					रही थी। वह चुपचाप उसकी दोनो बाहों के मध्य रिक्त स्थान में 
					सिमट गई। उसकी दोनो बाजुओं ने धीरेन के इर्द गिर्द जाकर पीछे 
					से उँगलियाँ फँसा कर स्वंय को उससे बाँध लिया था, सदा के लिए 
					वहीं ठहर जाने के लिए!!
 |