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					 आपके दुःख का ज्वार तो अभी जरा 
					देर बाद यहाँ से वापस लौटते ही उतरना शुरू हो जाएगा, पर मुझे 
					तो कहीं जाना नहीं हैं, मेरे साथ ऐसा कहाँ होगा।  जब–जब लगा है 
					कि मैं अपने दुःख से उबर रही हूँ, तब–तब किसी नई चोट ने मुझे 
					जहाँ का तहाँ पहुँचा दिया है। और पास आ जाइए, मैं जोर से नहीं 
					बोल सकूँगी। पीछले चार दिनों से इस तस्वीर वाले आदमी के बारे 
					में मन ही मन सोचते हुए मैं बीमार सी हो गई हूँ... अब आप लोगों 
					का यही दोमुँहापन मुझे सहन नहीं होता। मेरी मरी हुई खाल पर तो 
					बड़े प्रेम से बैठ जाएँगे। और एक जीती–जागती हिरनी जरा देर पास 
					बैठने को कह रही है तो नाक पर कपड़ा रखकर ऐसा दिखा रहे हैं जैसे 
					मेरे पास से कितनी बदबू आ रही है। 
 आपको शुरू से बताती हूँ। मेरे जन्म को पाँच–छः दिन हुए थे। रात 
					का समय था और जंगल की बिना मिलावट वाली हवा हमारे फेफड़ों में 
					ताजगी भर रही थी। मेरी माँ, मेरा एक बड़ा भाई और मेरे खानदान के 
					बहुत से लोग मुझे साथ लिये झुंड बनाकर बैठे थे। दिन भर मेरी 
					माँ मुझे दुश्मन को चकमा देकर निकल भागने की तरकीबें सिखाती 
					रही थी, खास तौर पर लंबी छलाँग लगाने का अभ्यास करते–करते मेरे 
					नए–नए कमजोर–से पैरों में कुछ थकान–सी उतर आई थी। मेरी माँ 
					मुझे बता रही थी कि जंगल में सिर्फ पेट भर लेना ही काफी नहीं 
					होता, उससे भी जरूरी होता है अपनी–सी न लगने वाली हर आवाज और 
					गंध के प्रति हमेशा सजग रहना।
 मैं माँ की 
					वो बातें सुन रही थी। उस समय उसी के प्रति लापरवाही भी बरतती 
					जा रही थी। कभी किसी जंगल में रात का समय गुजारा है आपने? 
					नहीं, इस तस्वीर बन गए आदमी की तरह नहीं। सचमुच जब कोई जंगल से 
					उसी की भाषा में बात करता है या वनस्पतियों की हरी और नम गंध 
					के पास बैठता है तो जंगल में मदहोश कर देता है कभी किसी जंगल 
					में दिन और रात बिताइए, आप पाएँगे की जंगल रोज रात को नए सिरे 
					से जवान होता है। सागौन, अर्जुन, बाँस और बेंत की मादक गंध 
					मेरे नथुने पहचानने लगे थे और मैं माँ की बातें सुनते हुए भी 
					जैसे नहीं सुन पा रही थी। दूध पी चुकने के बाद मेरा पेट भरा 
					हुआ था, लेकिन मैंने अपना मुँह अपनी माँ के पास सटा दिया और 
					उसके शरीर की गंध पीने लगी, जो मुझे वनस्पतियों की गंध से कहीं 
					अधिक प्रिय लगती थी।
 मुझे अपने से सटाकर बैठी मेरी माँ, मेरे आराम या नींद की जरा 
					भी परवाह किए बगैर एकाएक उठकर खड़ी हो गई। वह एक तरफ उचक–उचककर 
					देख रही थी। उसके दोनों कान तनकर सीधे खड़े हो गए और उसने किसी 
					आसन्न खतरे से हम सबको आगाह करने के लिए अपना अगला पैर जमीन पर 
					कई बार पटका। उसने आसपास सबको शांत रहने का इशारा किया, जो एक 
					साथ कुछ बोलने लगे थे।
 
 "हाँ, वही आवाज है... सुनो, कोई खतरा देखते ही तुम छोटी को 
					लेकर उस तरफ निकल जाना,"मेरी माँ ने घबराहट में किसी से 
					जल्दी–जल्दी कहा।
 "आँखें बंद कर लें?"किसी ने फुसफुसाकर माँ से पूछा।
 "जब मैं कहूँ तब आँखें बंद करके बिना हिले–डुले चुपचाप बैठे 
					रहना। अँधेरे में रोशनी पड़ते ही चमक उठने वाली हमारी ये आँखें 
					ही हमारी सबसे बड़ी दुश्मन हैं।" माँ ने मुझसे कहा और चौकन्नी 
					होकर आहट लेने लगी।
 तभी घर्र–घर्र की एक हल्की आवाज हमसे जरा दूर आकर बंद हो गई।
 
 "आँखें बंद करो।" माँ ने झपटती–सी आवाज़ में धीरे से कहा। सब के 
					सब आँखें बंद करके बैठ गए। काला घना अंधेरा था। सन्नाटा ऐसा कि 
					अपनी सांसें भी कानों में तेजी से बज रही थीं। झिल्ली की झनकार 
					और झींगुरों की चिकचिकाहट जंगल में शोर लग रही थी। हम सब 
					जीने–मरने के सवाल से जूझ रहे हैं, यह बात मैं तब तक समझ ही 
					नहीं पाई थी। बंद आँखों के भीतर अंधेरा और भी काला लग रहा था, 
					जिसमें मेरा मन घबरा उठा था। मगर माँ की वह बात बार–बार मन में 
					घूम रही थी कि रोशनी पड़ने पर चमक उठने वाली हमारी आँखें ही 
					हमारी सबसे बड़ी दुश्मन हैं। आँखें बंद किए मैं सोच रही थी कि 
					बाद में माँ से पूरी बात समझूँगी।
 
 तेज रोशनी अचानक उस जगह से फेंकी जाने लगी। जहाँ कुछ देर पहले 
					घर्र–घर्र की आवाज आकर बंद हुई थी। मैं अपने अनुभवहीन, बाल मन 
					को क्या कहूँ, रोशनी ने जैसे ही मेरी बंद पलकों को छुआ, मैं 
					आँखें खोलने से अपने को रोक नहीं सकी, और बस, मेरा आँखें खोलना 
					था कि एक तेज, कान के परदे फाड़ देने वाला धमाका हुआ। धमाके की 
					आवाज सुनते ही जंगल में कोहराम मच गया। लेकिन इस सबसे ऊपर थी, 
					मेरी माँ की कलेगा चीर देने वाली तेज चीख, जो उसके गले से 
					घुट–घुटकर निकल रही थी।
 
 "लगता है किसी की आँख खुल गई... लेकिन हमें या तुम्हें तो वह 
					अपना निशाना कभी बनाते नहीं... लगता है निशाना चूक गया उनका... 
					तेरा भाई कहाँ है... तू तो ठीक है न छोटी?" मेरी माँ तडफड़ा रही 
					थी, उसकी आवाज डूब रही थी, पर जाते–जाते भी वह मुझे बता रही थी 
					कि कैसे आए दिन यह रोशनी जंगल में हमारी बैठने की जगहों पर 
					फेंकी जाती है, कैसे हमारी चमक उठने वाली आँखों के सहारे 
					निशाना साधा जाता है और यह भी कि कैसे हम अपनी आँखें बंद करके 
					बिना हिले–डुले बैठे रहकर अपने को बचा सकते हैं।
 
 माँ तो आपके यहाँ भी ऐसी ही होती होंगी। माँ अगर किसी रिश्ते 
					का नाम होता तो हो सकता है वह आपके यहाँ न होती।
 
 मेरे जरा से बचपने से मेरी माँ मर रही थी –– ठीक मेरी आँखों के 
					सामने। माँ, जिसके मन में जाते–जाते भी मेरे लिए चिंता थी। 
					जिसके मन में किसी के लिए भी शिकायत नहीं थी, माँ जो अपनी मौत 
					को भी खेल भावना से ले रही थी। मैं अपनी माँ के सामने स्वीकार 
					करना चाहती थी कि उसकी यह दशा मेरे ही कारण हुई है। लेकिन इसका 
					मौका ही नहीं आया। सूखे पत्तों पर कुछ लोग तेज चलते हुए आए। 
					उनमें से कुछ ने, स्तब्ध–सी बैठी रह गई, मुझे दबोच लिया और कुछ 
					ने मेरी तड़पती माँ को उठाकर एक बड़े से बोरे में डाल लिया। तभी 
					मुझे सुध आई, मैंने माँ की सिखाई हुई एकाध तरकीबें आजमाई, 
					लेकिन उन्होंने मेरी एक न चलने दी।
 
 जरा देर बाद घर्र–घर्र की आवाज फिर आने लगी, लेकिन इस बार ठीक 
					जैसे मेरे सीने पर ठोकरें–सी मारती हुई वह लुढ़कने वाली। जरा 
					लंबी–सी एक जगह थी, जिसमें कई लोग बैठे थे और हँस–हँसकर बातें 
					कर रहे थे। उसे जीप कहते हैं, वह मुझे यहाँ आने के काफी समय 
					बाद मालूम हुआ तो, उन सबने बोरा जीप के पीछे वाले हिस्से में 
					डाल दिया और उसी के पास मुझे बिठा दिया। शिकंजा मेरे ऊपर तब भी 
					कसा हुआ था, तभी एकाएक बोरे में कुछ हलचल हुई और उसको दबाने के 
					लिए एक मजबूत पैर आकर उस पर जम गया। बोरे के बीच–बीच में हिल 
					उठने से मुझे लगा कि मेरी माँ अभी मरी नहीं हैं। एक बार बोरे 
					के बाहर से ही सही, मैं माँ के शरीर का स्पर्श चाह रही थी 
					लेकिन मैंने बोरे की तरफ जरा–सा मुँह घुमाने की कोशिश की तो 
					कुछ पंजे मेरी गरदन पर कस गए। मेरी साँस रुकने को हो आई। मुझसे 
					कभी किसी ने ऐसे निर्दयी ढंग से व्यवहार नहीं किया था, मैं 
					सकते की–सी हालत में थी। जीप के आगे लगी रोशनी से अँधेरे जंगल 
					के रास्ते साफ दिख रहे थे। पिछले दो–तीन दिनों में आसपास घूमकर 
					मैंने जो जगहें देखी थी, वह सब धीरे–धीरे पीछे छूटती जा रही 
					थी।
 
 तभी जीप एक जगह रुक गई। जीप के आगे के हिस्से में एक आदमी 
					चमकते कटोरे जैसी एक बत्ती लेकर खड़ा हो गया और जहाँ मैं बैठी 
					थी वहीं एक आदमी बंदूक लेकर खड़ा हुआ।
 "लाइट जलाओ," बंदूक वाले ने फुसफुसा कर कहा।
 आगे खड़े हुए आदमी के हाथ के कटोरे से तेज रोशनी निकली और जंगल 
					का उतना हिस्सा रोशनी से नहा गया। मैंने देखा, कुछ दूरी पर 
					गोल–गोल चमकती हुई बीसियों आँखें, अंधेरे पर लाइन से जड़ी हुई 
					लग रही थीं।
 मेरे पास वाले आदमी ने बंदूक उठाई और आँख की सीध में निशाना 
					लगाया। "अरे–रे मत मारो, मादा है... क्या फायदा?"
 आगे बैठी औरत ने कहा तो आदमी ने बंदूक नीचे कर ली।
 पहले मुझे लगा कि खुद मादा होने की वजह से उसके मन में 
					प्राणि–मात्र की मादाओं के प्रति एक करूणा का भाव है, लेकिन 
					फिर मैंने उसके 'क्या फायदा' की ओर ध्यान दिया तो समझ में आया 
					कि मादा को तो न मारने में ही इनका फायदा है, क्योंकि मादा ही 
					नहीं रही तो सारा खेल ही खत्म हो जाएगा।
 "अब जाने दो। रखने की जगह भी नहीं हैं।" किसी ने कहा तो बत्ती 
					बंद कर दी गई और जीप चल पड़ी।
 
 मेरी माँ 
					अंतिम समय तक मुझे जिस खतरे से बचने के उपाय सिखाती रही थी, वह 
					कैसे सामने आता है –– यह मैं अपनी आँखों से देख रही थी। मुझे 
					अपने निरीह सगे–संबंधियों पर तरस आने लगा जो तेज रोशनी से 
					चकाचौंध होकर ठगे से रह जाते हैं और जब तक कुछ सोचें तब तक 
					चमकती आँखों के सहारे उन्हें निशाना बना दिया जाता है।
 यह तो मुझे सरासर बेईमानी लगती है। मैं तो कहती हूँ, मेरी माँ 
					या किसी और को छोड़ दो, मैं तो उस समय महज पाँच–छह दिन की थी –– 
					तुम मुझे ही दौड़ाकर पकड़ लेते तो मान जाती तुम्हें। यह क्या बात 
					हुई कि रोशनी से अचानक अंधा बना दिया और उसके बाद मार दिया, और 
					कहते हो कि शिकार खेलते हैं। नहीं, यह भी भला कोई खेल हुआ।
 
 तस्वीर वाले आदमी की गंध मैंने अगले दिन तुरंत पहचान ली, जब वह 
					मेरे पास आया। रात में वह जीप चला रहा था और जब पंजे मेरी गरदन 
					पर कसे हुए थे तब मेरा मुँह उसकी कमर से लगा रहा था। अपनी माँ 
					की छातियों को तो मैं पहचानती थी, पर जब वह माँ की छातियों के 
					अगले भाग को एक बोतल में लगा कर मेरे मुँह में डालने की कोशिश 
					करने लगा तो मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने अपने दांत जोर से भींच 
					लिये और उसके बनावटी प्यार–दुलार को एक और झटक उससे पीछा 
					छुड़ाने की कोशिश करने लगी। मेरे ऐसा करते ही कुछ हाथ मेरी गरदन 
					पर फिर कस गए।
 
 यह तो अच्छी मुसीबत थी। मैं अपनी मर्जी से गरदन तक नहीं घुमा 
					सकती थी। जो मुझे अपने साथ ले आया था उसकी गुलामी करने को 
					मजबूर कर दी गई थी, क्या इसी को आपके यहाँ प्यार कहते हैं?
 
 मुझे कसकर पकड़ा गया और किसी ने अपनी हथेलियों से मेरे दोनों 
					जबड़े इतनी जोर से दबाए कि मुझे तेज दर्द उठा और मैंने मुँह खोल 
					दिया। वह सब यही चाहते भी थे। उन्होंने माँ की छातियों के अगले 
					भाग को मुँह में ठूंस दिया। हल्का गुनगुना दूध जैसा कुछ लगा। 
					एकाएक मुझे अपनी माँ की बहुत याद आने लगी। मेरी आँखों से आँसू 
					बहने लगे और मैं दूध पीने लगी। मुझे पिछली रात से कुछ भी खाने 
					को नहीं मिला था और मुझे तेज भूख लग रही थी। मैं रोते हुए 
					जल्दी–जल्दी दूध पीती जा रही थी, और जरा देर बाद मुझे यह याद 
					करने के लिए दिमाग पर काफी जोर डालना पड़ा कि मैं माँ को याद 
					करके रो रही थी या जबड़ा जोर से दबाए जाने से उठे दर्द के कारण। 
					भूख चीज ही ऐसी होती है।
 
 काफी दिनों तक मुझे गले में एक रस्सी बाँधकर रखा गया अपनी चीज 
					के गुम हो जाने का कितना डर होता है आप लोगों को। मैं तस्वीर 
					वाले इस आदमी के लिए एक चीज ही तो थी जिसे वह हर आने–जाने वाले 
					के सामने गर्व से पेश करता था। लोगों के घरों में कुत्ते, 
					बिल्लियां और खरगोश पले हुए थे पर तस्वीर वाले आदमी के घर में 
					आई थी –– चित्तीदार, रूपसी हिरनी। वह आते–जाते मेरी गरदन पर 
					हाथ फेरता, मुझे प्यार करता। शुरू–शुरू में तो मुझे उसके हाथों 
					से अपनी माँ के खून की गंध आती जान पड़ती, पर समय बीतता गया और 
					मैं उसे प्यार करने लगी।
 
 फिर मैं भूलने लगी, पलाश, कीकर, ढाक और शाल वनों को भूलने लगी। 
					जंगल के गोशे–गोशे में बसी वनस्पतियों की महक भूलने लगी। 
					खेलने–कूदने और घूमने–फिरने के लिए लंबे–चौड़े वनप्रांतर को 
					भूलने लगी और इस घर के चटाई जैसे छोटे–से लॉन से ही संतुष्ट 
					होने की कोशिश करने लगी। मैं अपनी माँ को भी भूलने लगी जिसके 
					बारे में कुछ भी पता नहीं चल सका था, आखिर जहाँ मैं ले आई गई 
					थी, वहाँ के हिसाब से अपने को ढालना ही था, दिखाना था कि मैं 
					खुश हूँ। ऐसी मजबूरियों के बारे में आपने कभी नहीं सुना? 
					ताज्जुब है...
 
 पता नहीं आप लोग कैसे जान लेते हैं? तस्वीर वाले आदमी ने एक 
					दिन इतने इत्मीनान के साथ मेरे गले की रस्सी खोल दी जैसे जान 
					गया हो कि अब कहीं भागने की इच्छा मुझमें बाकी ही नहीं बची है। 
					सचमुच ऐसा ही था, मेरे लिए अब यही मेरा घर था। मैं इस तस्वीर 
					वाले आदमी, इसके बच्चों और पास–पड़ोस से आने वाले ढेर सारे 
					नन्हें–मुन्नों के प्यार में पड़ गई थी। बच्चे मेरे साथ 
					दौड़–दौड़कर खेलते और इतनी प्यारी बातें करते कि मेरा मन उमड़ 
					पड़ता। कभी–कभी मुझे ध्यान हो आता कि अगर मैं यहाँ न लाई गई 
					होती तो अब तक मेरे अपने बच्चे हो चुके होते। फिर मैं अपने इस 
					दुःख को झटक देती और इन बच्चों के प्यार में खो जाती, जो मुझे 
					बिलकुल अपने बच्चों की तरह मासूम और निश्छल लगते थे। मेरे ऊपर 
					से बंधन हटा लिए गए थे और मैं इतने बड़े घर में कहीं भी आ–जा 
					सकती थी, घूम–फिर सकती थी।
 
 मैंने आपसे कहा न कि जब–जब मुझे लगा है कि मैं अपने दुःख से 
					उबर रही हूँ, तब–तब किसी नई चोट ने मुझे जहाँ का तहाँ पहुँचा 
					दिया है। घर में घूमने–फिरने की आज़ादी मिलने के कुछ ही महीनों 
					बाद मुझे अपनी माँ का पता चल गया। एक दिन साथ खेलते बच्चे उधर 
					पीछे बरामदे की तरफ दौड़ गए। मैं भी उनके पीछे भागी। एक–दूसरे 
					को ढूँढ़ने का खेल था। बरामदा सूना पड़ा था, बच्चे कहीं छुप गए 
					थे। वैसे तो मैं इन बच्चों से बहुत तेज दौड़ सकती हूँ, पर खेल 
					का मज़ा बनाए रखने के लिए मैं जान–बूझकर धीमे–धीमे चलती। तो, 
					मैं बरामदे में इधर–उधर देख रही थी, तभी मुझे एक कमरे का 
					दरवाजा जरा–सा खुला दिखाई दिया। इस कमरे में, बल्कि इस बरामदे 
					में मेरा पहले कभी आना नहीं हुआ था। मैंने अनुमान लगाया कि 
					तस्वीर वाले आदमी का छोटा बेटा इसी कमरे में छुप गया होगा।
 
 मैंने मुँह से ठेलकर दरवाजा खोला और जैसे ही कमरे के अंदर 
					झाँककर इधर–उधर देखा, मेरे मुँह से चीख निकल गई। मैं अंदर चली 
					गई। वह एक बहुत बड़ा कमरा था जिसमें बैठने की हर जगह पर अपनी 
					जैसी खालें बिछी देख, मैं सन्नाटे में आ गई। मैं कभी अपनी खाल 
					देखती और कभी उसकी मिलान उन बिछी हुई खालों से करती ठगी–सी रह 
					गई। कई खालों के बाल गिर गए थे और वह बैठने की सतहों पर चिकनी 
					हो गई थी, खालों में कई जगहों पर छोटे–छोटे छेद थे, जिनसे मुझे 
					ताजा रिसता हुआ खून–सा दिखाई देने लगा, तभी मेरी निगाह एक खाल 
					पर जाकर अटक गई। उस खाल पर एक गहरे कटे का निशान था जिसे देखते 
					ही मुझे अपनी माँ की पीठ का वह जख्म याद हो गया जिसे मैंने कई 
					बार देखा था। मैं माँ की खाल वाले आसन के पास गई, अपना चेहरा 
					उससे रगड़ने लगी, लेकिन अब उसमें मेरी माँ की कोई गंध नहीं थी, 
					मैं यह नहीं कहती, हो सकता है कि वह मेरी माँ की खाल नहीं ही 
					रही हो, पर इतने भर से तो संतोष नहीं किया जा सकता। कमरे में 
					चारों ओर जो खालें बिछी थीं, वे सब मेरे सगे–संबंधियों की थीं।
 
 उस खाल पर कटे का निशान देखकर मेरे सारे घाव फिर हरे हो गए थे। 
					कमरे में इतनी सारी खालें देखकर मेरा मन दहशत और नफरत से भर 
					उठा। जिस दुःख से मैंने अपने आप को कितनी मुश्किलों से निकाला 
					था, उसी में मैं फिर जा गिरी थी।
 
 "आओ मृगनयनी, तुम इस मृगछाला पर बैठो।" तस्वीर वाला आदमी तभी 
					एक औरत को कमरे में लेकर आया और एक खाल की ओर इशारा करते हुए 
					बोला।
 
 मैंने घूमकर देखा, इमली के चियाँ जैसी चुँधी आँखों वाली उस औरत 
					को वह मृगनयनी कह रहा था। मेरा मन चिढ़ से भर उठा। मुझे अपनी 
					आँखों से ही नफरत हो उठी। मुझे लगा कि इस आदमी ने तो मृग के 
					नयन कभी देखे भी नहीं होंगे, इसने मृग की या तो मरी हुई आँखें 
					देखी होगी या फिर रात के अँधेरे में तेज रोशनी डाले जाने से 
					चमकती आँखें। मृग की याचना भरी, करूण और मैत्री को उत्सुक 
					आँखें अगर इसने एक बार भी कभी देखी होती तो उसके कमरे में आसन 
					के लिए एक भी खाल न होती।
 
 मैं विद्रोह कर उठी थी और मन में निश्चय कर चुकी थी कि यह 
					अन्याय जान चुकने के बाद मैं चुप नहीं रहूँगी। मैं तस्वीर वाले 
					आदमी की अँगुलियों में अपने दाँत गड़ाने के लिए दौड़ पड़ी, 
					जिन्हें वह अपनी उस मृगनयनी की पलकों पर फिरा रहा था। मेरी 
					पूँछ जरा देर के लिए भी स्थिर नहीं हो रही थी, मेरे दाँत 
					किटकिटा रहे थे और मेरी आँखों से गरम आँसू टपक रहे थे मगर मेरे 
					पास पहुँचते ही उस आदमी ने उस औरत में पाई उत्तेजना से अलसा गई 
					आवाज में मुझसे बातें करना शुरू कर दिया। मेरे शरीर पर, मेरे 
					गले पर और मेरे माथे पर उसकी थरथराती अंगुलियों के स्पर्श ने 
					मुझे बेबस कर दिया।
 
 यह किसी और की देह से उपजी उत्तेजना थी, जिसकी जूठन मुझ पर 
					निसार की जा रही थी। कुरूप से कुरूप चेहरा भी प्यार पाकर सुंदर 
					बन जाता है। मन का सारा विष उस आदमी के प्यार के झरने के नीचे 
					आकर उतर रहा था।
 
 आपके लिए तो इसमें शायद कुछ भी नया नहीं होगा, पर मैं आज भी 
					याद करती हूँ तो सोचती हूँ कि मेरी सारी आग, मेरा सारा विद्रोह 
					उस आदमी के कुछ ही संस्पर्शों से कहा बिला गया था। मैं रोने 
					लगी थी, उस आदमी के हाथों में मुँह छुपाकर, जिनमें मुझे फिर 
					खून की गंध आती जान पड़ने लगी थी। मैं रो रही थी अपनी माँ के 
					हत्यारे से लिपटकर, उसी के हाथों के स्पर्श में अपने अधीर मन 
					के लिए सांत्वना खोजती हुई जिसने मेरा जंगल, मेरा घर, मेरा सब 
					कुछ छीन लिया था। आप लोगों के साथ इतने वर्षों तक रहने के बाद 
					इतना तो समझ ही गई हूँ कि मारा हमेशा गोली–बंदूक से ही नहीं 
					जाता...
 
 मैंने आपसे कहा न कि आपके दुःख का ज्वार तो अभी जरा देर बाद 
					यहाँ से वापस लौटते ही उतरना शुरू हो जाएगा, मगर इस बार के 
					आघात से उबरना बड़ा मुश्किल लग रहा है। तस्वीर बन गए इस आदमी के 
					लिए मन ही मन घुटते हुए मैं जैसे बीमार–सी हो गई हूँ, इसके न 
					रहने के बाद इसके जुल्म, इसकी क्रूरता और इसके छल कई बार याद 
					आए। कई बार मैंने अपने मन को इस आदमी के खिलाफ खड़े होने के लिए 
					तैयार करना चाहा, लेकिन वैसा कुछ नहीं हो सका। प्यार जब एक आदत 
					बन जाता है, तब उसे अपने से अलग कर पाना आसान नहीं होता। जंगल, 
					अपनी माँ और सगे–संबंधियों को धीमे–धीमे भूल ही गई थी पर क्या 
					तस्वीर बन गए इस आदमी का प्यार–दुलार इतनी आसानी से भुला 
					पाऊंगी? लेकिन सच कहूँ तो मैं चाहती हूँ कि उसके अत्याचारों को 
					जरा देर के लिए भी न भूलूँ, अपनी नफरत के भोथरेपन पर सान चढ़ाती 
					रहूँ... मगर ऐसा भी नहीं कर पाई...
 
 आप तो मेरी ओर ऐसे देख रहे हैं, जैसे इन बातों का आपकी दुनिया 
					से कोई सरोकार ही नहीं है... इतनी देर में आप भी यही सोचने लगे 
					होंगे कि मुझे अपने आपको घृणा और प्रतिशोध जैसी तुच्छ भावनाओं 
					से ऊपर उठाने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि अच्छा था, बुरा था 
					जैसा भी था वह मेरा मालिक था।
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