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					 ससुराल 
					के लोग खाते पीते लोग थे सो अब्दुल कुछ रोज़ वहीं रह गए। फिर एक 
					डिग्री कालेज में प्रिसिंपल हो गए। और बाकायदा ससुराल में रह 
					कर ज़िंदगी का मज़ा लूटने लगे। कहने वाले कहते हैं कि वहाँ उन की 
					एक साली थी, वह उस पर लट्टू हो गए थे सो वहीं रहने लगे। 
					बहरहाल, जो भी हो धीरे–धीरे वह वहीं के हो कर रह गए। ज़िंदगी 
					चैन से कट रही थी कि तभी उन पर आफत बरपा हो गई। 
 वह भी सर्दियों के दिन थे। भारत पाकिस्तान में जंग शुरू हो गई। 
					जंग खत्म होने के बाद पूर्वी पाकिस्तान का अस्तित्व खत्म हो 
					चुका था। अब नया देश बाँगलादेश दुनिया के नक्शे पर उभर आया। 
					भारत पाकिस्तान के बीच जंग भले खत्म हो गई थी, वहाँ बाँगलादेश 
					में आपस में लोगों में खून खराबा जारी था। खास कर बिहारी 
					मुसलमानों की वहाँ खैर नहीं थी। तब वहाँ माना जाता था कि 
					बिहारी मुसलमान पाकिस्तान परस्त है। बाँगलादेश बनने के पहले भी 
					बिहारी मुसलमानों और बंगाली मुसलमानों में भारी मतभेद थे। 
					बल्कि बाँगलादेश बनने का यही बड़ा सबब बना। बिहारी मुसलमान और 
					बंगाली मुसलमान तब के दिनों भी अगल बगल खड़े हो कर नमाज़ तो पढ़ 
					लेते थे लेकिन शादी–ब्याह और खान–पान इन के बीच नहीं था। रोटी 
					और बेटी का रिश्ता नहीं था। दूसरे, बिहारी मुसलमानों की भाषा 
					उर्दू थी जब कि बंगाली मुसलमानों की बाँग्ला। एक दुश्वारी यह 
					भी थी कि बंगाली मुसलमानों को लगता था कि उर्दू उन पर लादी जा 
					रही है। उनको लगता था कि बिहारी उन का मज़ाक उड़ाते हैं।
 
 आबादी के हिसाब से बंगाली मुसलमान ज़्यादा थे सो बिहारी 
					मुसलमानों को जब तब सबक सिखाते रहते थे। पर ज़्यादातर बिहारी 
					मुसलमान आर्थिक रूप से संपन्न थे, ऊँची कुर्सियों पर थे। सो वह 
					बंगाली मुसलमानों को मौका पाते ही रगड़ते रहते थे। नतीजतन दोनों 
					वर्गों के बीच गहरी खाई खुदती गई। हालाँकि तब के वहाँ के नेता 
					शेख मुज़ीबुर्रहमान जो खुद भी बंगाली मुसलमान थे, चाहते थे कि 
					दोनों वर्ग मिल जुल कर रहें। बाँगलादेश आज़ाद होने के बाद सत्ता 
					उन्होंने ज़रूर संभाल ली लेकिन इस खाई को पाटने के पहले ही उन 
					की हत्या हो गई। खून खराबा शुरू हो गया। अब्दुल के ससुराल का 
					मकान जला दिया गया था, जायदाद लूट ली गई थी। अब्दुल के ससुर और 
					एक साले की हत्या हो गई। बाकी लोग बचते–बचाते जान लिए 
					पाकिस्तान भाग लिए। अब्दुल ने भी भाग कर बीवी–बच्चों समेत 
					हिंदुस्तान की राह पकड़ी।
 
 भाग कर अपने घर आए। घर की छत के नीचे सुकून ढ़ूंढ़ने, पर यहाँ तो 
					वह पाकिस्तानी डिक्लेयर हो चुके थे। बाँगलादेश से ज़्यादा आफत 
					यहाँ थी। वहाँ तो खून खराबा था, यहाँ उस से भी ज्यादा अविश्वास 
					की नागफनी मुँह बाए खड़ी थी। और वो जो कहते है न कि जैसे नागफनी 
					का काँटा नागफनी को खुद चुभ जाए! वहीं हालत हुई थी तब अब्दुल 
					मन्नान की। हिंदू तो खुले आम उन्हें पाकिस्तानी जासूस कह कर 
					ताना क्या कसते थे, लगभग जूता मारते थे। लेकिन मुसलमानों में 
					भी कम अविश्वास नहीं था उनके प्रति। मुसलमान भी जल्दी उन से 
					बात नहीं करते थे। करते भी तो सीधे मुँह नहीं। तो इसलिए कि 
					अव्वल तो जुलाहों में पढ़ाई–लिखाई का अभाव था सो जाहिलियत। 
					दूसरे, कहीं पुलिस पाकिस्तानी होने के फेर में सब के गले में 
					फंदा न डाल दें। तीसरे, पट्टीदार भी चाहते थे कि अब्दुल को 
					पाकिस्तान भेज दिया जाए। ताकि उन के हिस्से के मकान, जायदाद पर 
					उनका कब्ज़ा बना रहे।
 
 वैसे भी हर दूसरे, तीसरे रोज़ पुलिस आती अब्दुल को मय परिवार के 
					उठा ले जाती पूछताछ के लिए। जाने कौन पूछ–ताछ थी जो खत्म नहीं 
					होती थी और पुलिस फिर–फिर पकड़ ले जाती। तो अब्दुल मन्नान की 
					मदद में कोई खड़ा नहीं होता। अब्दुल अपना राशन कार्ड, पुरानी 
					वोटर लिस्ट, अपने नाम पुश्तैनी मकान के कागज़ात, अपनी पढ़ाई 
					लिखाई के सर्टिफिकेट, यूनिवर्सिटी टॉपर होने, गोल्ड मेडलिस्ट 
					होने और अपने को सभ्य शहरी होने की ढेरों दलीले रखते।
 
 लेकिन सब बेअसर।
 पागल हो गए थे अब्दुल मन्नान। खाने के लाले पड़ गए। फाका होने 
					लगा। कोई मकान तक खरीदने या गिरवी रखने को तैयार न था। कोई 
					मामूली सा काम या नौकरी देने को तैयार न था। अब्दुल काम माँगने 
					बाद में जाते, उन से पहले उनके पाकिस्तानी होने की खबर पहुँची 
					रहती। उनकी पत्नी थोड़ी खूबसूरत थी सो थक कर हार कर पत्नी को 
					साथ ले वह तमाम छोटे बड़े नेताओं, मौलानाओं, अफसरों के घर भी 
					गए, सिर पटका, गिड़गिड़ाए, अपने सोलह आने हिंदुस्तानी होने का 
					वास्ता दिलाया, सुबूत दिया, कुरआन की कसमें खाई। पर सब बेकार, 
					बेअसर!
 एक बार मय बीवी बच्चे के ज़हर खा कर मरने की कोशिश भी की अब्दुल 
					मन्नान ने। पर खाना न देने वाले, काम न देने वाले लोग ही उठा 
					कर उन्हें अस्पताल ले गए और वह सपरिवार बच गए।
 यह बात सारे शहर में आग की तरह फैल गई। हिंदुओं में तो फिर भी 
					नहीं, मुसलमानों में थोड़ी–थोड़ी सहानुभूति अब्दुल के प्रति 
					उपजने लगी।
 
 ऐसे ही मुसलमानों में एक थे मुहम्मद शफी।
 मुहम्मद शफी एक प्रिंटिंग प्रेस चलाते थे। प्रेस उन का काफी 
					बड़ा था। इस प्रेस से वह उन दिनों सोलह पेज़ का एक साप्ताहिक 
					अखबार भी निकालते थे। और चूँकि तब शहर में कोई दैनिक अखबार 
					नहीं था सो उन के अखबार को तूती बोलती थी। बनारस, लखनऊ से छप 
					कर कुछ हिंदी, अंगरेजी अखबार तब वहाँ पहुँचते जरूर थे, कुछ 
					साप्ताहिक, पाक्षिक अखबार और भी थे शहर में पर जो हनक और रसूख 
					मुहम्मद शफी के अखबार की थी, किसी और अखबार की तब के दिनों 
					बिलकुल नहीं थी। मुहम्मद शफी ने भी बड़ा संघर्ष किया था। थे तो 
					धुर देहात के। पिछड़े हुए तराई इलाके के और बीड़ी बना–बना कर 
					पढ़ाई की थी। सोशियोलाजी में एम.ए. थे। अब्दुल मन्नान की तरह 
					टॉपर या गोल्ड मेडलिस्ट नहीं थे, पर ज़िंदगी ज़रूर वह सलीके से 
					ऐश करते हुए जी रहे थे। कुछ सालों तक मुहम्मद शफी ने दिल्ली के 
					एक बड़े अखबार में भी काम किया था और वहाँ के पोलिटिकल सर्किल 
					में अपनी पैठ भी बनाई थी। प्रधानमंत्री तथा कई मंत्रियों के 
					साथ अपनी फोटो भी अलग–अलग खिंचवा रखी थी उन्होंने। उन की 
					प्रतिभा को देखते हुए पूर्वांचल के एक केंद्रिय मंत्री उन्हें 
					वापस यहाँ लाए और एक अखबार निकालने का पूरा सेटअप दिया। लंबा 
					चौड़ा स्टाफ रखा। उन दिनों जब पत्रकार चप्पलें चटकाते घूमते थे 
					वैसे में हैंडसम सेलरी विथ कार एँड ड्राइवर दिया। तो मुहम्मद 
					शफी ने भी अच्छा अखबार निकाल कर तहलका मचा दिया। उनकी 
					महत्वाकांक्षाएँ बढ़ने लगी। जल्दी ही उन्होंने मंत्री जी का सब 
					कुछ गड़प कर अपना अखबार निकालना शुरू कर दिया। यह अखबार भी चल 
					निकला। अब शफी ही शफी थे, हर तरफ।
 
						इसी बीच संसदीय चुनाव आ गया। 
						शफी ने अपने तराई क्षेत्र की सीट से कांग्रेस का टिकट 
						जुगाड़ लिया। प्रतिद्वंद्वियों को अच्छी टक्कर दे वह जीत भी 
						रहे थे। लेकिन तब के जनसंघियों ने कांग्रेस उम्मीदवार शफी 
						को हराने के लिए एक निर्दलीय मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा कर 
						दिया था। वह निर्दलीय मुस्लिम उम्मीदवार शफी के काफी 
						मुस्लीम वोट काट रहा था। शफी ने उसे कई बार चुनाव में अपने 
						पक्ष में बैठाने की कोशिश की। पैसे आदि का प्रलोभन दिया, 
						डराया धमकाया। गरज़ यह कि साम, दाम, दंड, भेद सब अपनाया पर 
						वह निर्दलीय मुस्लिम उम्मीदवार शफी की बातों, धमकियों या 
						प्रलोभन में आया नहीं। उसे शफी के विरोधियों ने दरअसल समझा 
						दिया था कि अब तो तुम्हीं जीतोगे। और वह इसी गुमान में अड़ा 
						रहा। चुनाव में शफी को कड़ी टक्कर देता रहा, कि उसकी एक रात 
						अचानक हत्या हो गई। तोहमत शफी के सिर आ गई। शफी कहते रहे, 
						चिल्लाते रहे कि, 'यह मुझे हराने की जनसंघियों की साज़िश 
						है, मुझे फँसाया जा रहा है।' पर शफी की किसी ने एक न सुनी, 
						मुसलमानों ने भी नहीं। बल्कि क्षेत्र के मुसलमानों ने तो 
						उन से नफरत शुरू कर दी।
 शफी चुनाव हार गए। हत्या दरअसल उस निर्दलीय मुस्लिम 
						प्रत्याशी की नहीं, वास्तव में मुहम्मद शफी की हुई थी।
 राजनीतिक हत्या!
 शफी के हारने में यह हत्या तो एक फैक्टर था ही, एक फैक्टर 
						और था। दरअसल शफी जब दिल्ली में थे तब एक हिंदू परिवार में 
						उन का आना जाना बहुत बढ़ गया था। पैसे और अपने रसूख के दम 
						पर उन्होंने उस परिवार की मालकिन को गाँठ लिया। यह लोग भी 
						हालाँकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इटावा के ही रहने वाले 
						थे, फिर भी शफी और उन लोगों के लिए काफी था यू.पी. – 
						यू.पी.! हिंदू–मुस्लिम की दीवार भी पैसे के दबाव और रसूख 
						की आँच में बह गई। वह परिवार व्यवसाई था और शफी ने अपने 
						रसूख के दम पर उनके बिजनेस को खूब प्रमोट करवाया। कोई 
						दिक्कत नहीं थी। अब तक उस महिला से शफी के सरोकार काफी 
						"प्रगाढ़" हो चले थे। हालाँकि शफी शादीशुदा थे पर उनकी अनपढ़ 
						जाहिल पत्नी तराई के उनके गाँव में रहती थी। शफी पहले तो 
						उस के लिए भागे–भागे गाँव पहुँचते थे, लेकिन तब लड़कपन था। 
						पर अब तो वह उस की चर्चा तो दूर अपने को कुँवारा ही 
						फरमाते।
 
 बाद में जब उन का इस शहर में भी वापस आना हुआ तो भी 
						उन्होंने उस परिवार से नाता नहीं तोड़ा। प्रगाढ़ ही रखा। 
						बल्कि उस परिवार का आना जाना बाद में इस शहर में भी हो 
						गया। बाई प्लेन। सारे खर्चे बर्चे शफी उठाते। इसी आने जाने 
						के बीच उस हिंदू परिवार की मालकिन की दो बेटियाँ भी बड़ी 
						होने लगी। एक बेटी अंजू तो बला की खूबसूरत थी। वह बोलती भी 
						तो लगता जैसे मिसरी फूट रही हो। उस की कानवेंटी हिंदी अजीब 
						सा कंट्रास्ट घोलती। चलती तो लगता जैसे किसी फूल की कली 
						फूट रही हो। उसके होंठ भी बड़े नशीले थे। और आँखें तो ऐसी 
						गोया खय्याम की रूबाई हो। उस की शोख हँसी से लोगों के 
						दिलों में मछलियाँ दौड़–दौड़ जाती। तो ऐसे में शफी कौन से 
						ब्रह्मचारी थे? वह कैसे न फिदा होते इस अंजू नाम की लड़की 
						पर। क्यों न मर मिटते उस पर! भले वह उन की माशूका की बेटी 
						थी। तो क्या, शफी ने भी रूसी उपन्यास 'लोलिता' पढ़ रखा था। 
						फिर पड़ गए वह भी इस अंजू रूपी लोलिता के कपोलों के किलोल 
						में। उस के कपोलों पर लटकती जुल्फों के असीर हो गए। बतर्ज़ 
						मीर : 'हम हुए तुम हुए कि मीर हुए, सब इसी जुल्फ के असीर 
						हुए।'
 
 अंजू भी सोलह–सतरह के चौखटे में थी। सेक्स के पाठ में 
						जल्दी ही प्रवीण हो गई शफी के साथ। शफी के हाथ क्या पड़े उस 
						पर कि उस की रंगत ही बदल गई। देह उस की गदराने लगी। अंजू 
						की माँ को कुछ–कुछ भरम सा हुआ, शक शफी पर भी गया पर जब तक 
						शक पक्का होता हवाता बात बहुत आगे बढ़ चुकी थी। अंजू शफी के 
						बच्चे की माँ बनने वाली थी।
 अब क्या करें अंजू?
 क्या करे अंजू की माँ?
 बात अंजू के पिता तक पहुँची। उन्होंने माथ पीट लिया। बोले, 
						"मुँह काला करने के लिए इसे मुसलमान ही मिला था?" अब 
						उन्हें कौन समझाता भला कि यह मुसलमान उनके घर में बरसों से 
						सेंध लगाए पड़ा है। कौन बताता उन्हें कि बेटी तक तो वह बाद 
						में आया, पहला पड़ाव तो माँ बनी जो आप की बीवी है। आप की 
						बीवी ही पुल बनी आप की बेटी तक शफी को पहुँचाने में। लेकिन 
						बिज़नेस प्रमोट करवाने के चक्कर में आप की आँख बंद रही तो 
						कोई क्या करे भला?
 खैर अंजू के माँ बनने की खबर से पूरा घर तबाह था। अगर कोई 
						निश्चिंत था तो वह खुद अंजू थी। शफी ने सपनों के ऐसे शहद 
						चखा रखे थे अंजू को, प्यार के ऐसे पाठ पढ़ा रखे थे अंजू को, 
						कि उसे कोई फिक्र होती भी तो कैसे? ज़िन्दगी के थपेड़ों की 
						उसे थाह भी नहीं थी। वह तो अपनी खूबसूरती की चाश्नी में 
						मकलाती फुदकती रहती।
 अंततः माँ ने पहल की पूछा अंजू से, "तू क्या चाहती है?"
 "किस बारे में?" अंजू चहकती हुई प्रतिप्रश्न पर आ गई।
 "इस बच्चे के बारे में।" माँ ने साफ किया,"तेरे होने वाले 
						बच्चे के बारे में?"
 "जैसा शफी साहब कहेंगे।" वह फिर चहकती हुई बोली।
 "तुम ने कोई बात की है इस बारे में शफी से?"
 "नहीं बिलकुल नहीं।"
 "करेगी भी?"
 "जरूरत क्या है?"
 "जरूरत है।" माँ बोली, "मैं ट्रंकाल बुक करती हूँ। बात तू 
						कर!"
 "जल्दी क्या है अभी?" अंजू बोली,"अगले हफ्ते तो वह आने 
						वाले है?"
 "कौन आनेवाले हैं?"
 "शफी साहब!" अंजू यह कहती हुए लिरिकल हो गई।
 "अगले हफ्ते तक नहीं रूक सकती मैं।" माँ बोली, "तू आज ही 
						बात कर!"
 "तो तुम ट्रंकाल बुक करो मम्मी!"
 फोन पर बात के बाद माँ ने अंजू से पूछा, "तो फिर?"
 "ओह मम्मी!" अंजू माँ के गले में बाहें डालती हुई बोली, 
						"डोंट वरी, वह शादी के लिए तैयार है!"
 "कौन शादी के लिए तैयार है?" माँ ने चकराते हुए पूछा।
 "शफी साहब!" अंजू इतरती हुई बोली, "और कौन शादी के लिए 
						तैयार होगा?" वह अपने पेट पर हाथ रखती हुई बोली, "जिस का 
						बच्चा है वही तो तैयार होगा।"
 "ओफ्फ!" कह कर माँ ने माथे पर हाथ रख लिया। बोली, "तुझे 
						पता है कि शफी तुझसे दोगुनी उमर से भी ज़्यादा का है?"
 
 "पता है मम्मी।" वह बोली, "पर दिस इस नाट माई प्राब्लम!" 
						उस ने जोड़ा, "माई प्राब्लम इज दिस कि आई लव हिम!"माँ का मन 
						हुआ कि अंजू को बताए कि तुझे पता है, तेरा शफी मुझसे भी लव 
						करता रहा है? पर यह सवाल वह पी गई। बताती भी तो कैसे बताती 
						बेटी से भला यह और ऐसी बात!
 
 शफी ने सचमुच अंजू से शादी कर ली। शहर में यह बात बड़ी तेज़ी 
						से फैली कि शफी ने एक नाबालिग हिंदू लड़की को भगा फुसला कर 
						शादी कर ली। इस शादी की हवा इतनी तेज़ बही शहर में कि एक 
						बार तो हिंदू–मुस्लिम फसाद की नौबत आ गई। पर गनीमत कि बात 
						सिर्फ टेंशन तक आ कर ही निपट गई।
 
 बाद में शफी ने अपने प्रोग्रेसिव होने का सुबूत दिया। अंजू 
						का नाम अंजू ही रहने दिया। उसे मुस्लिम बनाने पर ज़ोर नहीं 
						दिया। न सिर्फ इतना बल्कि अंजू के साथ वह बाकायदा होली, 
						दीवाली भी मनाते और अंजू उन के साथ ईद, बकरीद मनाती। अंजू 
						के एक बेटी हुई। उसके तालीम की अच्छी से अच्छी व्यवस्था की 
						शफी ने और बाद में उसे नैनीताल के एक बोर्डिंग स्कूल में 
						डाल दिया। अलग बात है एक बच्ची की माँ बन जाने के बावजूद 
						अंजू के हुस्न में कोई कटौती नहीं हुई, उल्टे इज़ाफा हुआ। 
						और कई बार तो शफी ने अपनी तरक्की के लिए अंजू के हुस्न की 
						सीढ़ी का इस्तेमाल किया और खूब किया। इतना ही नहीं अंजू की 
						छोटी बहन पर भी शफी ने डोरे डाले और उस का भी खूब इस्तेमाल 
						किया। पर अंजू के हुस्न के आगे वह फिर भी छोटी पड़ती। 
						सुंदरता में अंजू के आगे वह कहीं ठहरती भी नहीं थी।
 
 तो यह एक फैक्टर भी शफी के चुनाव के खिलाफ गया, कि शफी ने 
						मुस्लिम बीवी को छोड़ हिंदू औरत को रख लिया।
 शफी ने फिर–फिर चुनाव लड़ा और फिर–फिर हारे। कांग्रेस से 
						टिकट नहीं मिला तो निर्दलीय लड़े। संसदीय चुनाव लड़े, नहीं 
						जीते तो विधानसभा लड़े। फिर भी जीत उन की झोली में नहीं आई।
 क्यों कि उन की तो राजनीतिक हत्या हो चुकी थी।
 
 चुनावी राजनीति में, वोट की राजनीति में मुसलमान उन के 
						खिलाफ थे, सो वह चुनाव हारते रहे। पर व्यावहारिक राजनीति 
						में तो शफी की तूती बोलती थी। शहर में उन दिनों वह 
						'मिनिस्टर विदआऊट पोर्टफोलियो' कहे जाते थे। कुछ अपनी 
						बुद्धि, तिकड़म और जोड़–तोड़ की महारथ के दम पर, तो ज़्यादा 
						कुछ अपनी पत्नी अंजू के हुस्न के दम पर। हालाँकि शफी थे 
						जीनियस। लेकिन राजनीति और अखबार दोनों एक साथ साधने में वह 
						'सिद्ध' नहीं हो पाए। दो नावों में पाँव रखना उन्हें भारी 
						पड़ा। लोग कहते थे कि अगर शफी साहब ने सिर्फ पत्रकारिता की 
						होती तो वह बहुत बड़े पत्रकार हुए होते। और जो सिर्फ 
						राजनीति की होती तो बेहद सफल राजनीतिज्ञ हुए होते। पर 
						दोनों के फेर में न इधर के हुए, न उधर के। हुस्न का हसिया 
						उन को काटता रहा! जो भी हो तमाम मंत्री, तमाम अफसर, तमाम 
						नेता और तमाम लोग मुहम्मद शफी पर मेहरबान थे उन दिनों। और 
						यही मुहम्मद शफी अब अब्दुल मन्नान पर मेहरबान होने जा रहे 
						थे।
 
 शफी ने आदमी भेज कर मन्नान को बुलवाया। मन्नान से पहले तो 
						सहानुभूति जताई, फिर सारा हाल जाना। उन के सारे कागज़ात 
						देखे। पूर्वी पाकिस्तान के कालेज में उन के प्रिंसिपल वाला 
						नियुक्ति पत्र भी देखा। मन्नान से कहा कि "आप पढ़े लिखे 
						हैं। अपनी पूरी कहानी खुद लिख डालिए।" मन्नान ने लिखा और 
						पूरे दिल से लिखा। सारी तकलीफ, सारा अपमान, सारी ज़िल्लत 
						पूरी संवेदना और शऊर से ब्यौरेवार लिखा।
 
 मन्नान के इस लिखे को शफी ने थोड़ा 'रीटच' किया और अपने 
						अखबार में मय मन्नान और उन के परिवार के फोटो सहित छापा। 
						हेडिंग लगाई,"मैं कैसे नहीं हूँ हिंदुस्तानी!" दिल दहला 
						देने वाले, रोंगटे खड़े कर देने वाले इस लेख को पढ़ कर लोगों 
						की आँखें फैल गई। फिर सब देख दाख कर शफी ने एक बड़े वकील से 
						कंसल्ट किया। वकील भी मुसलमान था, उसे कुरआन शरीफ का 
						वास्ता दिया, फिर कंसलटेंसी फीस दे कर कानूनी पेंचीदगियाँ 
						जानी तब अफसरों से संपर्क किया। दिल्ली के राजनीतिक 
						संपर्कों को खंगाला। विदेश मंत्रालय से लगायत गृह मंत्रालय 
						तक पैरवी करवाई। और इस सब के लिए शहर के मुसलमानों से चंदा 
						लिया। मन्नान के पास तो फूटी कौड़ी नहीं थी, शफी अपना पैसा 
						गलाना नहीं चाहते थे। सो कुछ अमीर मुसलमानों को सेंटीमेंटल 
						गिरफ्त में लिया, बताया कि यह आफत तो किसी भी उस मुसलमान 
						पर आ सकती है, जिस की नाते–रिश्तेदारी कभी भी पाकिस्तान 
						में रही हो, तो एकजुट होना ज़रूरी बताया। फिर अपना रसूख 
						दिखाया और भारी भरकम चंदा बटोर लिया था। जो भी हो मन्नान 
						का काम पूरा न सही, निन्यानवे फीसदी हो गया था। केस चलना 
						था और लोकल इंटेलिजेंस यूनिट यानी एल.आई.यू. में हर महीने 
						हाजिरी लगानी थी।
 
 मन्नान, शफी के इस किए से उन के गुलाम से हो गए। अंततः शफी 
						ने मन्नान को अपने प्रेस का मैनेजर भी बना दिया। मन्नान की 
						बेगम भी पढ़ी लिखी थीं, उन्हें लड़कियों के एक मुस्लिम स्कूल 
						इमामबाड़ा में टीचरी मिल गई।
 
 मन्नान की मेहनत और शफी की इनायत से मन्नान के परिवार की 
						गाड़ी चल निकली क्या, दौड़ पड़ी। अब मन्नान के दिन अमन चैन से 
						कट रहे थे। सब से बड़ा लड़का हैंडलूम के पुश्तैनी कारोबार 
						में लग गया था। शादी भी हो गई थी। दूसरा लड़का उन का अब 
						यूनिवर्सिटी पढ़ने जाने लगा था, तीसरा इंटर में था। एक लड़की 
						थी उस की शादी हो गई थी और अब वह दूसरे लड़के की शादी के 
						लिए फिक्रमंद हो चले थे।
 
 हालाँकि शफी के आफिस में काम थोड़ा ढीला चल रहा था। कई बार 
						तो कर्मचारियों को वेतन की मुश्किल हो जाती। कई–कई बार 
						हफ्ते–दस रोज़ की देरी हो जाती वेतन बाँटने में। कर्मचारी 
						आते मैनेजर मन्नान से एडवांस माँगते तो मन्नान छूटते ही 
						कहते, "ज़हर खाने को पैसा नहीं है! और तुम लोग एडवांस माँग 
						रहे हो।" वह कहते, "पैसा होता तो सेलरी न तुम लोगों को 
						बाँट देता!"
 
 मन्नान अब बूढे. हो चले थे, पर उन के काम में कहीं कोई कमी 
						नहीं थी। फिर भी प्रेस में दिक्कत थी तो मन्नान के नाते 
						नहीं, शफी की पॉलिसी के नाते!
 
 शफी ने दरअसल अब दिल्ली से एक उर्दू अखबार भी निकालना शुरू 
						कर दिया था। सारा पैसा वह उसी में एडजस्ट कर देते। दूसरे, 
						प्रेस में अब नई–नई टेक्नीक आ चली थी, कंप्यूटर की आमद हो 
						गई थी सो काम भी कम होता जा रहा था। टी.वी. वगैरह ने 
						अखबारों का यूं ही धुआँ निकाल रखा था। मन्नान कई बार इसी 
						तंगी से आज़िज़ आ प्रेस की नौकरी छोड़ अपना कोई कारोबार लगाने 
						की भी योजना बनाते। लेकिन शफी की इनायतों की याद उन्हें 
						रोक लेती। जैसे–तैसे वह काम चला रहे थे।
 
 मन्नान उस रोज़ आफिस में आ कर बैठे ही थे कि तभी पुलिस आ 
						गई। दारोगा ने कहा, "जरा आइए, पुलिस आफिस चलिए।"
 "आखिर बात क्या है?" मन्नान ने परेशान हो कर पूछा।
 "कुछ नहीं।" दारोगा बोला, "बस रूटीन बात करनी है।"
 "लेकिन मामला तो अब सब खत्म हो चुका है।" मन्नान बिफरे।
 "हाँ, फिर भी कुछ बात करनी है।"
 "चलिए!" कह कर मन्नान आफिस से चल दिए। इकठ्ठा हुए 
						कर्मचारियों को तसल्ली दी। बोले, "कुछ नहीं, रूटीन बात 
						करनी है। तुम लोग काम करो।"
 पर मन्नान जब दारोगा के साथ पुलिस आफिस पहुँचे तो वहाँ 
						उनकी पत्नी, बच्चे सभी बैठे मिले तो उनका माथा ठनका। 
						उन्हें बताया गया कि उन्हें सपरिवार हिंदुस्तान छोड़ने का 
						आदेश हो गया है। यह सुनते ही मन्नान के होश उड़ गए। पत्नी, 
						बच्चे अलग रोए जा रहे थे। मन्नान की बात कोई सुनने को 
						तैयार नहीं था। आखिर वह अपने लिखे पुराने लेख की हेडिंग 
						चिल्लाने लगे,"कैसे नहीं हूँ मैं हिंदुस्तानी!"
 वह बार–बार यह हेडिंग चिल्लाते। पर कोई सुनने वाला ही नहीं 
						था।
 
 अंततः दोपहर के समय एक अफसर के सामने उन्हें पेश किया गया 
						तो मुख्तसर में अपना सारा किस्सा मन्नान ने बयान किया। 
						अफसर ने मन्नान के साथ सहानुभूति जताई लेकिन असमर्थतता 
						जताते हुए कहा, "मैं आप की कोई मदद नहीं कर सकता।" उस ने 
						बड़े सर्द ढंग से बताया, "आदेश दिल्ली से आया है। केंद्रीय 
						गृह मंत्रालय का आदेश है।"
 "लेकिन अब तो जहाँ मैं रहता था, जहाँ मेरी ससुराल थी, 
						पाकिस्तान में नहीं है।" उन्होंने जोड़ा, "पूर्वी पाकिस्तान 
						तो अब रहा नहीं। कब का खत्म हो गया।" मन्नान ने घिघिया कर 
						एक और पासा फेंका।
 "तो आप को पाकिस्तान भेजा भी नहीं जा रहा।" अफसर 
						बोला,"आपको, आपके परिवार को, आपके ही वतन बाँगलादेश भेजा 
						जा रहा है।"
 "क्या कहा?" मन्नान लगभग रोने लगे, "बाँगलादेश?"
 "जी!" अफसर बोला, "जितनी जल्दी पॉसिबिल हो आप यह देश छोड़ 
						दीजिए!"
 "पर यह तो मेरा ही देश है!" मन्नान रोते बिलखते बोले। 
						लम्बे चौड़े मन्नान ने दौड़ कर अफसर के पाँव पकड़ लिए और 
						बोले, "साहब आप हम सब को यहाँ फांसी लगवा दीजिए पर हमें 
						बाँगलादेश मत भेजिए।" वह बिलबिलाए, "वहाँ तो हम लोग 
						कुत्तों की मौत मारे जाएँगे।"
 "क्यों?" अफसर हैरान हो गया।
 "क्यों कि हम बंगाली मुसलमान नहीं, बिहारी मुसलमान है।" 
						मन्नान अफसर के पैर पकड़ बोले, "सर, कुछ भी कर दीजिए पर 
						कुत्ते की मौत मरने के लिए हमें बाँगलादेश मत भेजिए।" वह 
						बोले, "वहाँ सब हमें भून कर खा जाएँगे। पिछली ही बार किसी 
						तरह जान बचा कर भाग कर आए थे।"
 
 "ऑर्डर हम कैसे बदल देंगे?" अफसर फिर धीरे से बोला,"गृह 
						मंत्रालय का आर्डर। आप पढ़े लिखे आदमी हैं, समझ सकते हैं। 
						रोने गिड़गिड़ाने से कुछ नहीं होने वाला। क्यों कि चीजें न 
						तो आपके हाथ में हैं, न ही मेरे हाथ में।" कह कर अफसर उठ 
						खड़ा हुआ। जाते–जाते बोला, "आज ही आप को यह शहर छोड़ देना 
						है। भले ही आधी रात तक! आप जब जाना चाहें। हमारी फोर्स आप 
						के साथ जाएगी। बार्डर तक। बाँगलादेश के अधिकारियों के 
						सुपुर्द कर के ही आएगी।" चलते–चलते वह मुड़ा और बोला,"तब तक 
						आप अपने घर से ज़रूरी सामान, कपड़े लत्ते, पैसे वगैरह किसी 
						को भेज कर मँगवा लें। जिस भी किसी से मेल मुलाकात करनी हो, 
						कर करा लें।" वह बोला,"मानवता के नाम पर बस इतनी ही मदद हम 
						आप की कर सकते हैं।"
 "दो एक दिन भी नहीं टल सकता?" मन्नान स्थितियों को समझते 
						हुए बोले।
 "बिल्कुल नहीं" अफसर बोला, "क्यों कि आप के सपरिवार अरेस्ट 
						की खबर दिल्ली टेलेक्स से भेज दी गई है।"
 "ओफ्फ!" कह कर मन्नान अफसर के पीछे–पीछे कमरे से बाहर आ 
						गए।
 
 मन्नान पुलिस आफिस के बरामदे में आ कर बैठ गए। मन्नान से 
						मिलने आने वाले धीरे–धीरे बढ़ते जा रहे थे। पहले वाली 
						स्थिति अब नहीं रही थी। पहले जब वह नए–नए बने बाँगलादेश से 
						भाग कर यहाँ आए थे तो शहर के क्या हिंदू, क्या मुसलमान बात 
						करने तक को तैयार नहीं थे। पर अब सूरत बदल गई थी।
 
 मन्नान को पाकिस्तानी करार दे कर पुलिस ने गिरफ्तार कर 
						लिया है यह खबर पूरे शहर में आग की तरह फैल गई। जो जहाँ 
						था, मन्नान से मिलने भागा। कोई उनके घर गया तो कोई उनके 
						दफ्तर। फिर पता करते–कराते सब के सब पुलिस आफिस आते गए। 
						शुरू–शुरू में मर्द ही आए पर बाद में सुबकती–रोती औरतें भी 
						आने लगी। मन्नान की बेगम के कालेज की टीचरें, प्रिंसिपल, 
						यहाँ तक कि स्टूडेंटस तक आ गई थी। मुहल्ले की औरतें, 
						रिश्तेदारों की औरतें, दोस्तों की औरतें भी आई थीं। कुछ ही 
						समय में पुलिस आफिस दाढ़ी वाले मर्दों और बुर्के वाली औरतों 
						से ठसाठस भर गया। हर कोई मन्नान को तसल्ली दे रहा था। 
						भरोसा दिला रहा था, "घबराएँ नहीं सब दुरूस्त हो जाएगा। 
						अल्ला मौला पर यकीन कीजिए।" हर कोई अपनी औकात भर दौड़ धूप 
						भी कर रहा था। भीड़ अब पुलिस आफिस से बाहर की सड़क पर भी पसर 
						रही थी। लगता था जैसे शहर के सारे मुसलमान पुलिस आफिस आ गए 
						हों। मुसलमान ही क्यों धीरे–धीरे मन्नान के हिंदू दोस्तों, 
						परिचितों की भी भीड़ आ रही थी। पर हिंदू फिर भी मुसलमानों 
						से कम थे। मन्नान के दफ्तर के लोग भी आगे पीछे लगे थे।
 
 मुहम्मद शफी की बेगम अंजू भी आ गई थी, इधर–उधर पुलिस 
						अफसरों से बात भी वह कर रही थी। अपने हुस्न का सागर छलकाती 
						हुई, लोगों को भरमाती हुई, पर बात नहीं बन रही थी। तभी 
						किसी मौलवी ने मन्नान से ज़रा ज़ोर से पूछा ताकि अंजू बेगम 
						भी सुन लें, "अरे मन्नान, ये शफी कहाँ है, दिखाई नहीं दे 
						रहे? कहो कि अपनी पालिटिकल चाभी घुमाएँ दिल्ली में!"
 
 "शफी साहब हैं कहाँ यहाँ?" मन्नान थोड़ा अदब से बोले,"वो तो 
						दिल्ली में हैं।"
 "तो उन को दिल्ली खबर करो।"
 "कोशिश बहुत की।" अंजू बेगम घाव पर शहद घोलती हुई बोली, 
						"पर वह होस्टल से निकल चुके हैं। दो चार जगह और ट्राई 
						किया, ट्रेस नहीं हो रहे।" वह बोली, "होटल में मेसेज छोड़ 
						दिया है कि आते ही घर पे फोन करें।"
 "घर पे फोन सुनेगा कौन? आप तो यहीं हैं।" मौलवी साहब ने 
						फिर सवाल फेंका।
 "नहीं मेरी डाटर है। सर्वेंट भी हैं।" अंजू बेगम सफाई देती 
						हुई एक तरफ निकलती हुई बोली, "अभी मैं फिर फोन करके आती 
						हूँ।"
 "ओह!" मौलवी ने दाढ़ी पर हाथ फेरा, माथा सहलाया। बोले, 
						"खुदा रहम करे तुझ पर मन्नान लेकिन मानो ना मानो यह आग फिर 
						मियाँ शफी की ही लगाई हुई हैं।"
 "अब क्या बताएँ मौलवी साहब।" रूआँसे होते हुए मन्नान ने 
						अपना सिर मौलवी के कंधे पर रख दिया और सिसक–सिसक कर रोने 
						लगे। रोते–रोते कहने लगे, "मैंने तो उन की खातिरदारी में 
						कोई कसर छोड़ी नहीं। ज़िंदगी उन के नाम लिख दी।"
 
 रूमाल से आँखें पोंछते हुए मन्नान बोले, "फिर भी उन्होंने 
						ऐसा किया तो क्यों कर किया? समझ नहीं आता।" मन्नान बोले, 
						"चाहता तो कोई और कारोबार कर सकता था, यूनिवर्सिटी या किसी 
						और डिग्री कालेज में पढ़ा सकता था, तमाम और काम थे। पर 
						मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। यह सोच कर कि यह जिंदगी तो 
						शफी साहब के लिए ही जिऊँगा। चाहे जो हो जाए।" कह कर मन्नान 
						फिर रोने लग गए।
 "मत रोओ मन्नान! खुदा पर यकीन करो।" मौलवी साहब बोले।
 "पर शफी ने ऐसा किया क्यों?" एक जनाब ने पूछा मन्नान से।
 "उनको किसी ने समझा दिया था कि मैं अब अपना कारोबार शुरू 
						करने जा रहा हूँ।" मन्नान बोले, "उन को लगा कि उन के प्रेस 
						का मैं पटरा बिठा दूँगा और उन्हीं के लोगों को तोड़ कर अपने 
						यहाँ उठा ले जाऊँगा। जैसा कि उन्होंने खुद बाज़वक्त नेता जी 
						के साथ किया था।"
 "क्या सचमुच ऐसा कर रहे थे आप?"
 "कुछ नहीं! इस हिंदू औरत ने शफी की ज़िंदगी नरक कर दी।" एक 
						दूसरे बुजुर्ग मौलाना बीच में बात काटते हुए बोले, "इसी की 
						वज़ह से शफी चुनाव हारा, नहीं तो मिनिस्टर हुआ होता। इसी ने 
						शफी को मुसलमानों से काटा। साला अच्छा खासा मुसलमान था 
						शफी। हिंदू हो गया।" वह बोले, "अब तो साहब शफी सिर्फ नाम 
						का ही मुसलमान रह गया है और खतने से! बाकी तो वह अब हिंदू 
						ही है।" वह बोलते जा रहे थे, "होली खेलता है, दीवाली के 
						दीए जलाता है खुल्लमखुल्ला! क्या पता घर में बैठ कर गीता, 
						रामायण भी पढ़ता हो इस छिनार के कहे पर।"
 "क्या यह सब बक रहे हो!" मौलवी साहब बोले, "यहाँ कुछ हिंदू 
						लोग भी आए हैं।"
 "तो आएँ न! कौन मना करता है।" मौलवी बोले, "यह तो मन्नान 
						भाई का व्यवहार है जो सब लोग इन की मिज़ाजपुर्शी में आए 
						हैं। शफी के नाते तो हम लोग आए भी नहीं हैं। न ही इस छिनार 
						हिंदू औरत के नाते आए हैं।"
 "अब चुप भी रहिए जनाब!" एक दूसरे मुस्लिम बोले।
 "क्यों चुप रहें।" मौलाना बोले, "जरूर इस हिंदू छिनार के 
						भड़काने में शफी आ गया होगा तभी शफी ने मन्नान के खिलाफ यह 
						किया।"
 "नहीं, ऐसी बात नहीं हैं।" मन्नान से चुप नहीं रहा गया। 
						बोले, "अंजू जी सचमुच बड़ी नेक औरत है। उन के बारे में और 
						तो बहुत कुछ कहा जा सकता है लेकिन हिंदू–मुस्लिम वाली बात 
						करना सरासर गुनाह होगा।" मन्नान इस तकलीफ की घड़ी में भी 
						बोले, "हिंदू मुस्लिम के खाने में अंजू जी नहीं जीती। वह 
						सचमुच इस सब से ऊपर है। बड़ी नेक औरत है।"
 "तो यह . . .?"
 "उलटे शफी साहब ने इन की ज़िंदगी नरक कर दी।" मन्नान बोले, 
						"शफी साहब की बेटी की उम्र है इन की पर बहकावे में उन की 
						बेगम बन गई। तब जबकि शफी साहब के पहले इन की माँ से 
						ताल्लुकात थे!"
 "क्या?" मौलवी साहब ने माथे पर हाथ फेरा। बोले, "तौबा, 
						तौबा! फिर तो बड़ा नीच है शफी!"
 "आप लोग नहीं जानते शफी साहब के बारे में अभी पूरी तरह!" 
						मन्नान बोले, "अंजू बेगम की तो ज़िंदगी वह नरक कर ही चुके 
						हैं, अपनी तरक्की के लिए इन्हें सीढ़ी बनाने में भी वह ज़रा 
						भी गुरेज़ नहीं करते।"
 "क्या?"
 "एक से एक मिनिस्टर, नेता, अफसर आखिर क्यों शफी साहब के 
						यहाँ गिरे रहते हैं।"
 "तो यह कारोबार भी करता है शफी?"
 "अब तो यहाँ अंजू बेगम और दिल्ली में अंजू बेगम की छोटी 
						बहन सोनम!" मन्नान बोले, "अब सोनम से शफी साहब ने शादी तो 
						नहीं की है बाकायदा पर वह भी उन की लगभग दूसरी बेगम हैं और 
						दूसरी सीढ़ी!"
 "छीः छीः!"
 "आप लोग नहीं जानते शफी साहब को। नहीं जानते कि वह भीतर से 
						और क्या–क्या है!" मन्नान बोले, "बहुत से राज़ हैं, इस सीने 
						में दफन हैं। मत खुलवाइए!"
 "यह सब जानते हुए भी आप शफी के साथ बने रहे?"
 "बहुत एहसान है भई उनके मुझ पर।" मन्नान बोले, "कहा न 
						ज़िंदगी उन के नाम लिख दी। अरे, आज पुलिस आफिस मेरे लिए भरा 
						पड़ा है। पर एक दिन वह भी था जब कोई मुझ से बात करना नहीं 
						गवारा करता था, तब शफी साहब ने मेरा साथ दिया था, मुझे शरण 
						दी और मेरी, मेरे बीवी बच्चों की हिफाज़त की! कैसे भूल सकता 
						हूँ उन का वह एहसान!"मन्नान बोले, "पर आज का दिन और यह 
						फज़ीहत, अल्ला ने ज़िंदगी रखी तो यह भी नहीं भूलूँगा।" 
						मन्नान बोलते–बोलते थोड़ा नहीं, पूरे कसैले हो गए, "नहीं 
						भूलूँगा शफी साहब!" कहते–कहते वह और कठोर हो गए। वह रूके 
						और बोले, "क्या पता था कि राम के वेश में रावण मिला है 
						मुझे!"
 "पर इतना यकीन से कैसे कह सकते हैं मन्नान भाई कि यह सारी 
						खुराफात शफी साहब की ही है?" मन्नान और शफी के एक कामन 
						दोस्त रहमत ने पूछा।
 "रहमत भाई, एक समय यूनिवर्सिटी टाप की थी, गोल्ड मेडल पाया 
						था तो बेवजह नहीं।" मन्नान बोले, "ठीक है किस्मत में ठोकर 
						पर ठोकर लिखी है, लेकिन बाँगलादेश के डिग्री कालेज में मैं 
						तब के समय प्रिंसिपल था, वह बात थोड़े से और लोग भी जानते 
						है। पर उस डिग्री कालेज का नाम, एप्वाइंटमेंट का समय वगैरह 
						यहाँ इस शहर में सिर्फ मैं, मेरी बेगम और शफी साहब तीन ही 
						जानते हैं।" मन्नान बोले, "मैं बताने गया नहीं, बेगम मेरी 
						गई नहीं, भारत सरकार को यह बताने। तो गया कौन? जाहिर है 
						तीसरा आदमी गया यह बताने। और तीसरा आदमी है शफी?" यह पहली 
						बार था कि जब बातचीत में मन्नान शफी साहब की जगह सिर्फ शफी 
						बोल रहे थे। वह बोले, "अभी जिस अफसर ने कमरे में बुला कर 
						मुझसे बात की उस ने कुछ कागज़ मेरे खिलाफ दिखाए जिसमें सब 
						से पुख्ता कागज़ सिर्फ डिग्री कालेज की मेरी प्रिंसीपली का 
						था। एप्वापंटमेंट की डेट, कालेज का नाम वगैरह फुल डिटेल्स 
						में थीं।"
 "हो सकता है आप ने जो बहुत बरस पहले आर्टिकल लिखा था, जो 
						शफी साहब के अखबार में फ्रंट पेज पर छपा था, उस में यह 
						डिटेल आप ने ही लिखी हो और पुलिस ने उस आर्टिकल से ही लिया 
						हो यह डिटेल!" मन्नान के एक दूसरे दोस्त ने सवाल रखा।
 "लिखा तो था यह डिटेल में मैंने उस आर्टीकल 'मैं कैसे नहीं 
						हूँ हिंदुस्तानी' में। पर यह डिटेल शफी ने ही मुझे बता कर 
						काट लिया था, छपने नहीं दिया था। कहा था कि कोई बाद में इस 
						का मिसयूज़ कर सकता है। तो मैंने तो तब वकील तक को यह डिटेल 
						नहीं दी थी।"
 "कभी पुलिस से बातचीत में दे दिया हो?"
 "भूल कर भी नहीं दिया। सपने में भी नहीं।" मन्नान बोले, 
						"बेगम तक को ताकीद कर दी थी। बल्कि बेगम को तो अब सिर्फ 
						कालेज का नाम भर याद है। एप्वाइंटमेंट की तारीख वह भी अब 
						भूल गई है।" मन्नान ने सांस छोड़ कर कहा, "पर जनाब शफी नहीं 
						भूले वह तारीख!" उन्होंने जोड़ा,"नोट किए रहे!"
 "छोडिए भी, शफी कोई अल्ला मियाँ नहीं हैं मन्नान भाई, जो 
						आप की तकदीर लिखेंगे।" रहमत बोले, "तकदीर लिखने वाला तो वह 
						परवरदिगार है। और आप ने कभी किसी का बुरा नहीं किया है, यह 
						भी वह देख रहा है तो जो भी होगा, जल्दी ही बेहतर होगा। बस 
						अल्ला और उस के रसूल पर यकीन रखिए!"
 "हाँ, रहमत भाई अब तो उस ऊपर वाले ही के रहमोकरम पर है सब 
						कुछ!" मन्नान थक कर बारामदे की बेंच पर बैठ गए। कहने लगे, 
						"तिनका–तिनका जोड़ कर दुबारा गृहस्थी बनाई थी अब फिर लुट 
						गई। समझ नहीं आता कितनी बार यह गृहस्थी उजड़ेगी ऐसे और इस 
						तरह।" कह कर वह रहमत के कंधे पर सिर रख कर रोने लगे। बोले, 
						"यह बार–बार उजड़ना तोड़ देता है रहमत भाई! बच्चे अभी पढ़ रहे 
						थे। इन की तो पढ़ाई भी गई।"
 
 अब तक यह लगभग तय हो गया था कि मन्नान और उनके परिवार को 
						बाई ट्रेन वाया कलकत्ता बाँगलादेश भेजा जाएगा। दिन के तीन 
						बज गए थे। दो घंटे बाद ही कलकत्ते की एक ट्रेन थी। लेकिन 
						मन्नान के रिश्तेदारों ने अफसरों के हाथ पैर जोड़ कर रात की 
						ट्रेन के लिए मना लिया था जो शायद रात के ग्यारह बजे के आस 
						पास जाती थी।
 जो भी हो मन्नान के पास आने वालों का सिलसिला बढ़ता ही जा 
						रहा था। ऐसे गोया मुसलमानों की कोई रैली हो, कोई जलसा हो। 
						अब तक कुछ लोकल मुस्लिम लीडर भी आने लगे थे मन्नान से 
						मिलने खातिर। मन्नान का मनोबल बढ़ाने खातिर।
 
 धीरे–धीरे शाम गहराने लगी थी।
 अब अड़ोसी पड़ोसी ज़िलों से भी लोग आने लगे थे। लोगों से 
						मिल–मिल कर लगातार रोते–रोते मन्नान की आँखें सूज गई थी। 
						ऐसे जैसे किसी ने उनकी आँखों पर ही मारा हो। लोग आ कर 
						पूछते भी, "क्या पुलिस वालों ने बदसुलूकी भी की है?"
 "नहीं, नहीं बिलकुल नहीं, वह लोग तो फुल्ली कोआपरेट कर रहे 
						हैं।" वह फिर जैसे जोड़ते हुए बुदबुदाते, "बदसुलूकी की किसी 
						और ने है!"
 "किस ने की है?" लोग लगभग तल्ख होते हुए पूछते। ऐसे जैसे 
						वह मिले तो उसे जूता मार देंगे। गोली मार देंगे। लेकिन इस 
						तल्खी पर मन्नान चुप ही रहते।
 बिलकुल चुप।
 लेकिन अगल–बगल बैठा हुआ, खौलता हुआ कोई बोल ही पड़ता, "अरे, 
						वहीं शफी! अपने मुहम्मद शफी!"
 "जैसे कोई पंछी शिकारी पर विश्वास कर ले! वैसे ही मन्नान 
						भाई ने शफी पर यकीन कर लिया।" रहमत बैठे–बैठे बोल पड़े।
 
 अब तक मन्नान को बाँगलादेश तक छोड़ने जाने वाली पुलिस 
						पार्टी तैयार हो गई थी और उन के लोकल कागज़ात भी। मन्नान ने 
						भी घर से जरूरी चीजें, कपड़े कागज़ात, बैंक से चेक काट कर 
						पैसे भी मंगवा लिए थे। डोलची, अटैची, बक्से, बिस्तर वगैरह 
						भी होलडॉल में बाँध दिए गए थे। ढेर सारा अल्लम गल्लम सामान 
						भी था। तोता भी पिंजड़े सहित आ गया था।
 
 लेकिन मन्नान ने ढेर सारा सामान वापस करवा दिया। यह कर कि 
						"जान ले कर जाऊँ–आऊँ यही बहुत है।"
 "वहाँ भी इस सब की जरूरत पड़ेगी।" उन के एक पड़ोसी ने 
						हमदर्दी के साथ कहा।
 "तो क्या चाहते है मियाँ कि वहीं जा के बस के जान दे दूं?" 
						उन्होंने थोड़ी मुस्कुराहट थोड़ी, खीझ, थोड़ा गुस्सा घोल कर 
						धीरे से पूछा, "क्या चाहते हैं वापस न आऊँ?"
 "अल्ला करे आप जाएँ ही नहीं।" कह कर पड़ोसी ने मन्नान को 
						बाहों में भर लिया और रोने लगे।
 "जाना तो अभी पड़ेगा भई!" मन्नान बोले, "पर आप लोग मेरे घर 
						का खयाल रखिएगा।" वह रूके और बाले, "हाँ, मेरी बकरियाँ भी 
						आप ही संभाल लीजिएगा। चाहिएगा तो मेरे बरामदे में ही 
						बाँधिएगा। लेकिन उन को रखिएगा प्यार से। फिर उन्होंने तोते 
						का पिंजड़ा उठा कर उन्हें थमाते हुए बोले, "और ये मिठ्ठू 
						मियाँ भी आप की ही सुपुर्दगी में रहेंगे।" कहते हुए मन्नान 
						की हिचकियाँ बंध गई, रोने लगे। बोले, "क्या पता इन्हीं के 
						प्यार का नसीब मुझे वापस, मेरे वतन लौटा लाए, सही सलामत। 
						सो मियाँ इन मिठ्ठू मियाँ को बड़े प्यार और बड़ी हिफाज़त से 
						रखिएगा। संभाल कर! दिल की तरह।"
 
 फिर वह पिंजड़ा उठा कर मिठ्ठू मियाँ की चोंच से मुँह मिला 
						कर, 'मिठ्ठू–मिठ्ठू' गुहरा–गुहरा बतियाने लगे। 
						बतियाते–बतियाते रोने लगे। उन के दिल की तपन मिठ्ठू से भी 
						न देखी गई, टूक्–टुक् कर के मिठ्ठू भी रोने लगा। रोते–रोते 
						कहने लगा, 'मन्ना जल्दी आना, जल्दी आना!' यह कोई नई बात 
						नहीं थीं मिठ्ठू मियाँ के लिए। न नया संवाद। वह तो जब–तब 
						मन्नान घर से निकलते तो हर बार मिठ्ठू मियाँ मन्नान से यह 
						ज़रूर कहते,"मन्ना जल्दी आना, जल्दी आना!"
 तो आज भी मन्नान की तैयारी देख मिठ्ठू मियाँ बोलने लगे, 
						"मन्ना जल्दी आना, जल्दी आना!" और मन्नान को रोते देख 
						मिठ्ठू मियाँ भी रोने लगे।
 
 मिठ्ठू मियाँ के इस संवाद के साथ सिर्फ एक ही नई बात थी, 
						और बिलकुल ही नई। वह यह कि 'मन्ना जल्दी आना, जल्दी आना' 
						संवाद के साथ मिठ्ठू मियाँ पहली बार रोने लगे थे, 
						'टूक्–टूक्!' तो मिठ्ठू मियाँ करते भी तो क्या करते मन्ना 
						भी उन के सामने पहली ही बार रो रहे थे और फूट–फूट कर 
						पिंजड़े को छाती से सटाए हुए रो रहे थे।
 रो रहे थे मन्नान मियाँ और मिठ्ठू मियाँ एक साथ। दिल से 
						दिल मिला कर। ऐसे कि कोई बिमल रॉय, कोई गुरूदत्त, कोई असित 
						सेन, कोई गुलज़ार, कोई श्याम बेनेगल, कोई शेखर कपूर, कोई 
						कविता चौधरी, कोई महेश भट्ट अपनी फिल्म का एक फ्रेम बना 
						के, इस संवेदना, इस आग, इस आवेग, और संवेग को कैमेरे में 
						दर्ज कर कोमलता, मानवता और दिल की एक संस्पर्श भरी नदी बहा 
						दे, मन को गहरे छू लेने वाली, एक आकाश गंगा निकाल दे!
 लेकिन कहाँ?
 
 यहाँ तो पुलिस का एक दारोगा आहिस्ता ही से सही मन्नान से 
						कह रहा था, "स्टेशन चला जाए नहीं तो यह ट्रेन भी निकल 
						जाएगी!"
 "हाँ, चलते है।" मन्नान बोले, "बस दस मिनट!" कह कर वह अपनी 
						बेगम की ओर बढ़े जो कि बरामदे में एक दूसरे कोने में औरतों 
						से घिरी अचेत पड़ी थी। डाक्टर दवा दे गए थे, साथ ही नींद का 
						इंजेक्शन भी ताकि सदमे से मानसिक संतुलन भी न बिगड़ जाए। 
						कुछ इंजेक्शन और मंगा कर रख लिए गए थे, कुछ टेबलेट्स भी। 
						ताकि रास्ते में काम आए। बेटी और बहू तीमारदारी में लगे 
						थे। मन्नान पहुँचे वहाँ तो कई बुर्के वालियाँ बगल हो गई। 
						वहाँ वह बिछी चटाई पर बैठे। धीरे से बेगम का माथा सहलाया 
						और बुदबुदाए, "जाने अल्ला को क्या मंजूर है?" फिर बेटी की 
						ओर देखा। आँखो–आँखों में ही पूछा कि सारी तैयारी हो गई है? 
						बेटी ने भी अपने बच्चे को संभालते हुए बिना बोले ही आँखों 
						से ही हामी भर दी। तो वह बहू की ओर मुड़े – बोले, "बेटा, 
						क्या बताएँ हमारे साथ तुम्हें भी पिसना पड़ रहा है!"
 
 "कोई बात नहीं अब्बू!" कह कर वह खुद भी रोने लगी। दरअसल 
						हुआ यह था कि मन्नान को सपरिवार बाँगलादेश जाने का हुक्म 
						आया था। उस के बड़े बेटे की पैदाइश तो पूर्वी पाकिस्तान 
						यानी बाँगलादेश की ही थी सो उसे तो वहाँ का पक्का बाशिंदा 
						करार दे दिया गया था। पर उस की शादी यहाँ इसी शहर में हुई 
						थी सो अब बेटे को बाँगलादेश जाने का आदेश था पर बेटे की 
						बीवी के लिए कोई आदेश नहीं था। पर बीवी का कहना था कि वह 
						भी अपने शौहर, बच्चे ही के साथ रहेगी चाहे बाँगलादेश रहना 
						पड़े, चाहे हिंदुस्तान!
 समस्या मन्नान की बेटी के साथ भी थी। हालाँकि वह यहीं 
						हिंदुस्तान में पैदा हुई थी और शादी भी हिंदुस्तान में ही 
						हुई थी, बेटी का बच्चा भी वही पैदा हुआ था तो बेटी को भी 
						बाँगलादेश जाने का फरमान आया था, बेटी के पति और बच्चे के 
						लिए कोई आदेश नहीं था। इसी तरह बाकी दो बेटे भी यही 
						हिंदुस्तान में, इसी शहर में पैदा हुए थे। तो भी चूंकि 
						'पाकिस्तानी' मन्नान के बेटे थे सो उन्हें भी बाँगलादेश 
						जाना ही जाना था।
 
 सब कुछ स्पष्ट था पर बेटे की बीवी, बच्चे और बेटी के शौहर 
						बच्चे का क्या हो? यह स्पष्ट नहीं था। बेटे की बीवी तो 
						अपने शौहर के साथ जौहर के लिए भी तैयार थी पर बेटी का शौहर 
						गम में तो शरीक था, पर बीवी के लिए 'जौहर' के रंग में नहीं 
						था। फिर भी वह मन्नान के साथ कलकत्ते तक के सफर के लिए 
						तैयार था। और यही क्यों कलकत्ते तक मन्नान का सफर तय कराने 
						के लिए कोई दस बारह दोस्त नातेदार, रिश्तेदार भी घर से 
						तैयार हो कर आ गए थे।
 
 बाँगलादेश जा कर कैसे वापसी हो इस पर भी गुपचुप 'रणनीति' 
						मन्नान ने तैयार कर ली थी और इस काम में सारा रिस्क ले कर 
						उन के कुछ दोस्त और रिश्तेदार भी शुमार थे। जिन में सब से 
						आगे रहमत मियाँ और बेटे की ससुराल वाले भी थे। रहमत मियाँ 
						पर मन्नान हालाँकि पूरा यकीन से नहीं थे क्योंकि वह शफी के 
						भी कामन फ्रेंड थे। सो वह सारी 'गणित' से रहमत को अलग रखे 
						थे। फिर भी रहमत का जोश–खरोश चूंकि मन्नान के पक्ष में था 
						सो ऊपरी–ऊपरी बातों का राज़दार उन्हें भी बना लिया था 
						मन्नान ने। मन्नान के दो तीन हिंदू दोस्त भी उन की भीतरी 
						'गणित' के राज़दार थे। इन में एक वकील था जिस ने एक साथ कई 
						वकालतनामों, गड्डी भर वाटर मार्क पर मन्नान, मन्नान की 
						बेगम और बच्चों के दस्तखत ले लिए थे कि जाने कब कहाँ क्या 
						जरूरत पड़ जाए। जल्दी जल्दी में एक पावर आफ एटार्नी भी 
						मन्नान ने बनवा ली। ताकि उन का मुकदमा उन की अनुपस्थिति 
						में भी ठीक से लड़ा जा सके और जो ज़रूरत पड़े तो खर्चे के लिए 
						उन का मकान वगैरह भी बेचा जा सके।
 
 सब जगह दस्तखत कर, सब से यह तय कर कि किस को कब क्या करना 
						है वगैरह–वगैरह निपटा कर मन्नान और उन की फैमिली पुलिस जीप 
						में बैठ कर स्टेशन के लिए चल पड़े। मिठ्ठू मियाँ भी समेत 
						पिंजड़े के उन के साथ थे। डरे–डरे, सहमे–सहमे, बुझे–बुझे और 
						बिन बोले।
 लगभग सभी निःशब्द थे उस पुलिस जीप में। पुलिस वाले भी।
 मन्नान स्टेशन पर बाद में पहुँचे। उन से मिलने, उन्हें 
						बिदा देने वाले लोग पहले। बल्कि बहुत पहले।
 पूरा स्टेशन दाढ़ी वालों और बुर्के वालियों वाले नागरिकों 
						से ठसाठस भरा पड़ा था। हर कोई मन्नान और उनकी फेमिली से 
						मिलने को बेताब। मन्नान के लिए दुआ करता हुआ। कोई खाना लिए 
						था, कोई पैसा, कोई कंबल, कोई सब कुछ। कुछ हिंदू दोस्त और 
						उनकी बीवियाँ भी खाना, कंबल और पैसे लिए प्लेटफार्म पर जमे 
						पड़े पड़े थे। दो हिंदू दोस्त तो मन्नान के साथ कलकत्ते तक 
						भी जा रहे थे। इन में से एक श्याम सुंदर तो प्लेटफार्म पर 
						एक जगह लोगों से घिरा खड़ा कहने लगा, "बाँगलादेश तक चलूँगा। 
						देखूं भला क्या कर लेते हैं वहाँ के फसादी मुसलमान।" वह 
						बोला, "बताऊँगा वहाँ कि देखो हिंदुस्तान में हम हिंदू भी 
						मुसलमान भाइयों के लिए जान लड़ाने को तैयार है और हमेशा 
						तैयार रहते हैं। इसलिए कि यह मुसलमान भाई बंटवारे के 
						बावजूद हम पर यकीन कर के अपने देश में रह गए। तो हमारा भी 
						फर्ज बनता है कि इन के यकीन को हम बनाए रखें। चाहते तो ये 
						पाकिस्तान जा सकते थे, पर नहीं गए क्योंकि इन को हम पर 
						यकीन था। तो इन के यकीन को हम कैसे भून कर खा जाएँ!" वह 
						बोला, "वहाँ लोगों को बताएँगे कि हम हिंदू–मुस्लिम कुछ 
						जिन्ना जैसे जल्लादी सो काल्ड राजनीतिज्ञों के नाते दिलों 
						में दूरी नहीं बनाते, सुख–दुख बाँटते हैं। साथ–साथ रहते 
						हैं, साथ–साथ मरते हैं।"
 श्याम 
						सुंदर थोड़ा और भावुक हुआ और बोला, "मैं तो कहूँगा कि 
						मन्नान को मारना है तो पहले मुझे मारो, फिर मन्नान को 
						मारना!" वह बोला, "बताऊँगा कि हम उस गाँधी के देश के हैं 
						जो कभी तुम्हारा भी था। इंसानियत के लिए लड़ना नहीं, मरना 
						जानते हैं। प्यार और भाई–चारा जानते हैं। चीजों को लड़ कर 
						नहीं बातचीत कर समझदारी से तय करना जानते हैं।" वह बोला, 
						"और याद दिलाऊँगा कि तुम्हारे यहाँ भी एक मुज़ीबुर्रहमान 
						हुआ था। बेहद डेमोक्रेटिक और बेहद लिबरल। वह भी तुम्हारा 
						गाँधी था। और कि तुम जो आज़ाद हुए हो पाकिस्तानी अत्याचार 
						और उसकी गुलामी से तो वह भी भारत देश के लोगों की मदद और 
						दुआ से। और फिर भी तुम आज बिहारी मुसलमान और बंगाली 
						मुसलमान की दीवार खड़ी कर फसाद करते हो। मुज़ीबुर्रहमान की 
						आत्मा पर दाग लगाते हो!"श्याम सुंदर का भाषण चालू था।
 
 इसी प्लेटफार्म पर हिंदुओं की एक और टोली दिनेश अग्रवाल के 
						साथ जुटी पड़ी थी। दिनेश भी मन्नान के साथ कलकत्ते तक जा 
						रहे थे। उनके मुहल्ले के कुछ लड़के उन्हें स्टेशन तक छोड़ने 
						आए थे। एक लड़के ने दिनेश से पूछा, "आखिर मन्नान साहब 
						बाँगलादेश जाने से इतना डर क्यों रहे हैं?"
 "एक तो वतन छूट रहा है, दूसरे उन्हें वहाँ के मुसलमानों से 
						खतरा है। खतरा है कि वे उन्हें मार डालेंगे।" कि तभी किसी 
						नौजवान जो हिंदू ही था, ने पूछा, "पर ये मुसलमान–मुसलमान 
						आपस में लड़ते क्यों हैं?"
 "बेवकूफ है।" दिनेश सर्रे से बोला।
 "नहीं कुछ तो वजह होगी।" नौजवान ने जिज्ञासा की आँख और 
						बढ़ाई।
 "बिहारी मुसलमान और बंगाली मुसलमान का कुछ चक्कर है।" 
						दिनेश बात को टालता हुआ बोला।
 "फिर भी कोई तो फैक्टर होगा ही।" नौजवान जैसे अड़ा रहा।
 "देखो भाई सच बताऊँ?" दिनेश बोला, "मैं तो अखबारों में 
						पढ़ता हूँ कि शिया सुन्नी में दंगा हो गया। तो मैं तो ये भी 
						नहीं जानता कि ये शिया सुन्नी भी आपस में क्यों लड़ते हैं।"
 "कुछ तो वजह होगी ही!" नौजवान ने सवाल जारी रखा।
 "फिर एक सच बताऊँ?" दिनेश नौजवान से बोला, "मैं यह भी नहीं 
						समझ पाता कि यह हिंदू–मुसलमान भी क्यों लड़ते हैं? क्यों 
						दंगा फसाद करते हैं?" वह बोला, "चलो एक बार हिंदू मुसलमान 
						लड़ते हैं तो समझ में आता है कि दोनों के रीति रिवाज़ 
						अलग–अलग हैं। खाने, पहनावे में फरक है।" वह लगभग बिलबिलाते 
						हुए बोला, "कुछ टकराहट हो जाती होगी। लेकिन ये 
						मुसलमान–मुसलमान क्यों लड़ते हैं यह तो मेरी समझ में बिलकुल 
						नहीं आता!"
 "क्यों?" नौजवान ने फिर सवाल किया।
 "भाई हम को तो सभी मुसलमान एक ही जैसे लगते हैं। सभी की 
						दाढ़ी, सिर पे टोपी। बस किसी की दाढ़ी सफेद, किसी की काली। 
						और औरतें तो सभी एक ही तरह की बुर्के वाली। बस किसी की 
						काली, किसी की नीली, किसी की सफेद। अब बुर्के के अंदर कौन 
						है मुसलमान ही नहीं जान पाते तो हम हिंदू कैसे जानेंगे?"
 "मुसलमान क्यों नहीं जान पाते?" एक दूसरे हिंदू नौजवान ने 
						जिज्ञासा जताई।
 "जान पाते कि बुर्के में कौन है तो गुरूदत्त वाली फिल्म 
						'चौदवी का चांद' क्यों बनती?" दिनेश बोला, "देखा नहीं उस 
						फिल्म का पूरा का पूरा सस्पेंस ही बुर्के के भ्रम में बुना 
						हुआ है। बस बुर्का बदल जाता है तो होने वाली बीवी बदल जाती 
						है।"
 "पता नहीं चचा, मैंने यह फिल्म नहीं देखी।"
 "मैंने भी नहीं।" दूसरा नौजवान भी बोला।
 "तो बेटा लोगों, मौका निकाल कर देखो। बड़ी बढ़िया फिल्म है।" 
						वह बोला, "देखोगे तो बुर्के की नज़ाकत ।"
 "चलिए बुर्के में तो हम लोग भी नहीं पहचान पाते हैं किसी 
						को तो वह तो फिल्म है ही।"
 "अच्छा बुर्का वालियों को नहीं पहचान पाते हो तो क्या इन 
						दाढ़ी वालों को पहचान पाते हो?" दिनेश बोला, "एक साथ सभी 
						दाढ़ियाँ खड़ी कर दो। सब एक जैसी! बस काली सफेद ही पहचानूँ।" 
						वह बोला, "तो जब सब एक जैसे हैं तो ससुरे आपस में क्यों 
						लड़ते हैं?" कभी शिया–सुन्नी, कभी बिहारी–बंगाली। मेरी तो 
						समझ में नहीं आता।" उस ने जोड़ा, "वह तो भला हो मन्नान भाई 
						का कि उन के दाढ़ी नहीं हैं सो उन से दोस्ती हो गई और 
						उन्हें पहचान भी लेता हूँ।"
 "देखिए, आप लोग कुछ नहीं जानते!" एक हिंदू बुजुर्ग बहस में 
						शरीक होते हुए बोले, "कोरे नादान हैं आप लोग। और बातें भी 
						बचकानी कर रहे हैं। कोरी बचकानी!"
 "तो चचा आप ही हम लोगों की नादानी दूर कर दीजिए!" दिनेश 
						घड़ी देखते हुए बोला, "अभी ट्रेन के आने में भी देर हैं!"
 "ऐसा है कि शिया सुन्नी का झगड़ा तो इसलिए है कि मुसलमान 
						होते हुए भी इन के बीच कुछ मज़हबी मतभेद हैं, जिसकी चर्चा 
						यहाँ करना अभी ठीक नहीं है। क्योंकि यहाँ इस समय शिया, 
						सुन्नी दोनों वर्गो के लोग मौजूद हैं। बात बेबात दूसरे 
						किस्म का तनाव हो जाएगा।" बुजुर्गवार बोले, "पर बिहारी और 
						बंगाली मुसलमानों का झगड़ा धार्मिक नहीं, आर्थिक है और 
						सामाजिक भी!" वह बोले, "भाषाई झगड़ा भी है। उर्दू और बंग्ला 
						का झगड़ा।"
 
 इस तरह प्लेटफार्म पर जो जहाँ था, खड़ा–खड़ा कुछ न कुछ बतिया 
						रहा था। भीड़ बढ़ती जा रही थी और ट्रेन अभी नहीं आई थी, बस 
						आने ही वाली थी। बार–बार इस बारे में एनाउंसमेंट हो रहा 
						था। हालाँकि स्टेशन पर इस समय रेल्वे की सारी व्यवस्था इस 
						भीड़ के आगे लड़खड़ा गई थी। खास कर इस प्लेटफार्म पर तो 
						बिलकुल ही।
 
 ठीक वैसे ही जैसे मन्नान की गृहस्थी की, मन्नान की ज़िंदगी 
						की, मन्नान के दिल की व्यवस्था इस आफत के आगे ध्वस्त हो गई 
						थी। मन्नान समझ नहीं पा रहे थे कि आगे कैसे क्या संभव 
						होगा। इस आफत से निपटने के लिए कुछ दोस्तों के साथ मिल कर 
						दो तीन तरह की 'गणित' भी भिड़ाई थी, फिर भी अकल काम नहीं कर 
						रही थी।
 
 कुछ लोग बारी–बारी आ कर खाना, कंबल और पैसा भी दे जा रहे 
						थे उन्हें। वह हर बार 'नहीं–नहीं, कोई जरूरत नहीं। क्यों 
						तकलीफ कर रहे है।' जैसी बात भी कहते पर कोई मानने को तैयार 
						ही नहीं था। अंततः खाने वाले टिफिन कैरियर, कंबल बहुत 
						ज्यादा हो गए तो उन्होंने हाथ जोड़ लिए। बोले, "कितना 
						खाऊँगा, कितना ओढूंगा? अब बस भी कीजिए।" वह बोले, "चार छ 
						कंबल और इतने ही टिफिन छोड़ सब आप लोग ले जाइए। नहीं यह सब 
						बुक कराना पड़ेगा। कहाँ ले जाऊँगा?" पर दिक्कत यह थी कि कोई 
						भी अपना दिया हुआ सामान वापस लेने को तैयार नहीं था। न 
						कंबल न टिफिन। और यह सोच कर सभी लाए थे कि मन्नान के काम 
						आएगा। अब यह तो कोई जानता नहीं था कि मन्नान की मदद की शहर 
						में इस कदर बाढ़ आ जाएगी!
 
 इस मदद की बाढ़ में मुहम्मद शफी की हिंदू बेगम अंजू जी भी 
						अपनी बेटी के साथ प्लेटफार्म पर खड़ी थीं।. उन की आँखों में 
						आँसू था और गला रूंधा हुआ। कंबल, पैसा और टिफिन वह भी लाई 
						थी। पांच हज़ार रूपए उन्होंने मन्नान के हाथ में जबरदस्ती 
						थमा दिए। मन्नान के आफिस के कर्मचारी भी इसी तरह कुछ न कुछ 
						पैसे अपनी–अपनी बिसात के हिसाब से किसी ने सौ, किसी ने दो 
						सौ, किसी ने पांच सौ मन्नान को दिए। मन्नान के दोस्तों 
						रिश्तेदारों का भी यही हाल था। कोई सौ, दो सौ, पांच सौ, 
						हज़ार, दो हज़ार, पांच हज़ार, दस हज़ार जिस की जैसी व्यवस्था 
						थी देता गया। यह कहते हुए कि, "आपके काम आएगा।" और कि, 
						"इसे कर्ज़ नहीं दुआ समझिएगा।"
 
 ट्रेन आ गई थी। मन्नान को सपरिवार पुलिस ने ट्रेन में बिठा 
						दिया। कलकत्ता तक जाने वाले उन के दोस्त रिश्तेदार भी बैठ 
						गए। यहाँ तक कि मिठ्ठू मियाँ भी मय पिंजड़े के। अचानक पूरा 
						प्लेटफार्म सिसकियों–सुबकियों से भर गया। हर कोई रो रहा 
						था। मिठ्ठू मियाँ भी और अंजू जी भी। ट्रेन चलने को हुई तो 
						अचानक मन्नान ने अपने उस पड़ोसी को हाथ से इशारा कर फिर से 
						अपने पास बुलाया जिसकी सुपुर्दगी में वह दोपहर पुलिस आफिस 
						में मिठ्ठू मियाँ को थमा दे रहे थे। वह पड़ोसी फौरन मन्नान 
						के पास भाग कर पहुँचे। बोले, "हाँ, मन्नान भाई!"
 
 "कुछ नहीं!" मन्नान बिलखते हुए बोले, "सोच रहा हूँ मैं तो 
						बेवतन हो ही रहा हूँ मिठ्ठू मियाँ को काहें बेवतन करूं! सो 
						इन्हें आप अपनी हिफाज़त में ले लीजिए!" फिर उन्होंने पिंज़ड़ा 
						उठाया, मिठ्ठू मियाँ को कलेजे से लगाया। रोए और कलमा पढ़ा, 
						'ला इलाहा इल्ललाह मुहम्मदुर्रसुलल्लाह!' और एक बार फिर 
						मिठ्ठू मियाँ की चोंच को पिंज़ड़े से मुँह सटा कर चूमा। 
						बोले, "खुदा हाफिज़, मिठ्ठू मियाँ!"
 
 "खुदा हाफिज़।" मिठ्ठू मियाँ भी तुतलाते हुए बोले। तब तक 
						ट्रेन ज़रा सी सरकी। तो फाटक पर खड़े–खड़े मन्नान ने मिठ्ठू 
						मियाँ को पड़ोसी के हवाले किया। अचानक मिठ्ठू पंख फैला कर 
						कस–कस कर फड़फड़ाए। गोया मन्नान की ट्रेन के साथ उड़ पड़ेंगे! 
						पर पिंजरे की हद ने उन्हें रोक लिया। उड़ नहीं पाए मिठ्ठू 
						मियाँ पर चिल्लाए, 'मन्ना जल्दी आना, जल्दी आना!'
 
 जाने ट्रेन की खट–खट, प्लेटफार्म पर लोगों की 
						सिसकियों–सुबकियों और अपने रूंध आए गले के बावजूद मन्नान 
						सुन पा रहे थे कि नहीं, पर पिंजड़े में फड़फड़ाते मिठ्ठू 
						मियाँ आज लगातार चिल्ला रहे थे, मीठी नहीं कर्कश आवाज़ में, 
						'मन्ना जल्दी आना, जल्दी आना!' और लगातार चिल्ला रहे थे। 
						लोग हाथ हिला रहे थे, कोई–कोई रूमाल भी। ट्रेन जा रही थी, 
						चली जा रही थी, स्पीड बढ़ाती ञ्ुई।
 ट्रेन चली गई।
 लोग रह गए, लोगों की भीड़ रह गई सुबकती और सिसकती हुई। 
						खामोश भीड़। ऐसे जैसे पूरे प्लैटफार्म पर मातम की चादर बिछी 
						हो।
 लोग प्लेटफार्म पर बिलख रहे थे तो मन्नान और उन के 
						परिवारजन ट्रेन में। मन्नान के दोस्त मन्नान और उन के 
						बेटों को चुप करा रहे थे जब कि पुलिस टीम की दो महिला 
						कांस्टेबल मन्नान की बेटी, बहू को चुप करा रही थीं। लेकिन 
						किसी की रूलाई रूक नहीं रही थी। यहाँ तक कि चुप 
						कराते–कराते चुप कराने वाले भी रोने लगे। दोनों महिला 
						सिपाही भी रह–रह रो पड़ती। दूसरी तरफ मन्नान की बेगम इस सब 
						से बेखबर अचेत पड़ी थी। नींद के इंजेक्शन में नीम बेहोश!
 
 खैर, पुलिस टीम मन्नान और उन के परिवार को ले कर कलकत्ता 
						पहुँची। फिर वहाँ से बाँगलादेश बार्डर पर। पुलिस टीम में 
						बाँगलादेश बार्डर पर मन्नान और उन के परिवार को कागज़ी लिखत 
						पढ़त में वहाँ की सेना को सुपुर्द कर दिया। लेकिन जैसे 
						रिश्वतखोर यहाँ की पुलिस थी, वैसी ही रिश्वतखोर वहाँ की 
						सेना भी थी। कुछ पैसे मन्नान ने पहले ही से तैयार रखे थे 
						बाकी दोस्तों, रिश्तेदारों के दिए पैसे भी बहुत काम आए। 
						मन्नान ने अपनी रणनीति की पहली 'गणित' के मुताबिक पुलिस और 
						सेना दोनों के हाथ पैर जोड़े, सुविधा शुल्क का चढ़ावा चढ़ाया 
						और इस तरह बंगाली मुसलमानों के कहर से बच कर बाँगलादेश 
						बार्डर से वापिस फिर इंडिया बार्डर में समा गए। यहाँ की 
						सेना को भी सुविधा शुल्क का चढ़ावा चढ़ाया और कलकत्ता आ गए। 
						अपनी पुलिस टीम के साथ ही। पुलिस टीम तो पहले ही से 'सेट' 
						थी सो कोई दिक्कत नहीं हुई। फिर रणनीति की गणित के ही 
						मुताबिक पुलिस टीम कागज़ पत्तर ले कर, मन्नान के दोस्तों के 
						साथ अपने शहर रवाना हो गई। और मन्नान सपरिवार नेपाल कूच कर 
						गए। इसलिए कि हिंदुस्तान में गुप–चुप रहना भी खतरे से खाली 
						नहीं था।
 
 नेपाल में मन्नान ने फिर से अपनी टेंपररी गृहस्थी बनाई। पर 
						वह यहाँ नेपाल में भी बार–बार आशियाना बदलते रहे। इस आशंका 
						से कि कहीं फिर उन्हें पकड़ कर बाँगलादेश न भेज दिया जाए!
 पैसे बहुत खर्च हो चुके थे फिर भी तंगी में ही सही मन्नान 
						गुज़ारा चलाते रहे। बहू और दामाद वापस हिंदुस्तान आ गए थे 
						और नेपाल–हिंदुस्तान के बीच उन के कैरियर बने हुए थे।
 बारी–बारी
 
 कुछ समय बाद एक रात मन्नान ने भी हिंदुस्तान की धरती पर 
						कदम रखा। मिट्टी को चूमा और खूब रोए। वकील के घर गए और 
						'केस' के बाबत पूरी तफसील से बात की।
 फिर रात ही वह लौट गए नेपाल।
 
 मन्नान अब अकसर रात बिरात नेपाल से हिंदुस्तान आने लगे। 
						वकील से मिलते। नाते रिश्तदारों से मिलते। फिर रातो रात 
						निकल जाते। गुपचुप! एक बार उन का मन हुआ कि अपने मुहल्ले 
						में जाएँ। अपना घर, उसकी दीवारें देखें। और मिठ्ठू मियाँ 
						से भी मिले। बताएँ कि, "मिठ्ठू मियाँ मैं आ गया हूँ।" पर 
						कुछ भय, कुछ मन की कमजोरी, वह नहीं गए।
 लेकिन जब वह दुबारा आए हिंदुस्तान तो रात के अंधेरे में 
						अपने घर भी गए। रिक्शे से ही सही, मुहल्ले की गली–गली 
						घूमते रहे। बार–बार। रिक्शावाला परेशान हो गया। पर वह अपने 
						घर के अगवाड़े पिछवाड़े की गलियों में रिक्शा घुमवाते रहे। 
						फिर अचानक अपने घर के पास उन्होंने रिक्शा रूकवाया। सोचा 
						कि पड़ोसी का दरवाज़ा खटखटा कर मिठ्ठू मियाँ से थोड़ी गुफ्तगू 
						कर लें। पर चलते–चलते अचानक रूके और अपने घर की दीवार चिपक 
						कर छूने लगे। दीवारों को वह अभी मन ही मन महसूस कर ही रहे 
						थे कि एक कुत्ता उन्हें चोर समझ कर भौंकने लगा। वह भाग कर 
						रिक्शे पर बैठ गए। रिक्शे वाले से कहा, "अब यहाँ से चलो!"
 
 कुत्ते एक से दो, दो से तीन, तीन से चार होने लगे। कुत्ते 
						भौंकते जा रहे थे और रिक्शा चलता जा रहा था। अब कुत्ते 
						रिक्शे के आगे भी दौड़–दौड़ कर भौंकने लगे थे। मन्नान डर गए 
						कि अभी तो कुत्ते उन्हें चोर समझ कर भौंक रहे हैं। कहीं 
						मुहल्ले वाले जग गए और उन्हें पहचान ले तो?
 "रिक्शा तेज़ चलाओ।" मन्नान मारे डर के बड़बड़ाए।
 "तुम पागल हो कि पिए हुए हो!" रिक्शावाला बोला, "की नशा 
						किए हो!"
 "कोई नशा पानी नहीं किए हूँ। तुम बस चलो!"
 "तो काहे चोर की तरह भागि रहे हौ!" वह बोला, "चोर हो कि 
						नटवरलाल हौ!"
 मन्नान कुछ बोले नहीं।
 बोलते तो बात बढ़ती और जो रिक्शा वाला उतार देता तो बड़ी 
						फज़ीहत होती। किसी तरह वह बस स्टेशन आए और बस में बैठ कर 
						नेपाल रवाना हो गए।
 
 इस बीच मन्नान ने नेपाल में छोटा सा कारोबार भी कर लिया। 
						रोटी–दाल खातिर। आखिर कब तक लोगों का दिया खाते? नेपाल की 
						गरीबी के चलते कारोबार बहुत अच्छा तो नहीं पर थोड़ा बहुत चल 
						जाता था। रोटी दाल भर का। दिक्कत यह भी थी कि मुस्तकिल कोई 
						दुकान, दफ्तर खोल नहीं सकते थे। ज़्यादा पूंजी चाहिए होती। 
						दूसरे, उन के शहर के कुछ लोग अकसर नेपाल आते रहते थे सो 
						पहचान लिए जाने का खतरा था सो अलग!
 
 एकाध बार हुआ भी ऐसा कि कोई परिचित दिख गया तो मन्नान को 
						आँख बचा कर छुपते–छुपते वहाँ से भागना पड़ा। अपनी पहचान को 
						छुपाने खातिर उन्होंने दाढ़ी बढ़ाने की तरकीब भी निकाली। पर 
						दाढ़ी उनकी घनी नहीं थी। फिर भी उन्होंने बढ़ाई। बात बनी 
						नहीं सो साफ करा दी दाढ़ी। फिर उन्होंने पैंट कमीज की जगह 
						धोती, कुर्ता पहनना शुरू किया। फिर भी चेहरा पहचान लिया 
						जाता और बड़ा कांशस रहना पड़ता! धोती पहनने का अभ्यास था 
						नहीं सो अटपटे ढंग से चलने के नाते जिस को नहीं देखना होता 
						वह भी देखने लगता। तो यह धोती एक्सपेरीमेंट भी छोड़ना पड़ा। 
						फिर मन्नान ने शेरवानी टोपी पहनना शुरू किया। यह कुछ–कुछ 
						चल गया। हालाँकि शेरवानी टोपी की भी आदत नहीं थी मन्नान को 
						फिर भी धोती वाले एक्सपेरिमेंट से बेहतर था यह।
 
 बाद के दिनों में मन्नान इंडिया से सब्ज़ी, चावल वगैरह छुप 
						छुपा के ला कर नेपाल में बेचने लगे और इसी तरह नेपाल से 
						इलेक्ट्रानिक सामान, कुछ कपड़े वगैरह ले जा कर इंडिया में 
						दामाद, बहू को बेचने खातिर दे देते। सब्ज़ी, चावल वगैरह 
						बहू, दामाद पहले से खरीद कर रखते, जिसे मन्नान नेपाल बेचने 
						खातिर लाते। यह कारोबार अच्छा चल गया।
 उनकी बेगम अब नेपाल में धीरे–धीरे एडजस्ट हो गई थी। एक दिन 
						बड़ी खुश थी। बोली, "अब यहीं रह जाते हैं।"
 "क्या?" मन्नान चौंके। बोले, "क्या कह रही है आप?"
 "ठीक ही तो कह रही हूँ।" वह बोली, "छोड़िए इंडिया में केस 
						वगैरह का चक्कर!"
 "नहीं, ऐसा नहीं हो सकता!" मन्नान थोड़ी सख्ती से बोले।
 "क्यों नहीं हो सकता?"
 "इसलिए कि ऐसे ही आप ने तब की दफा पाकिस्तान में रोक लिया 
						था तो वह जहन्नुम के दिन भुगतने पड़ रहे हैं।" मन्नान बोले, 
						"अब और नहीं माननी इस बारे में आप की बात!"
 "सच बताइए आप मेरे कहे से तब पाकिस्तान में रूके थे?" बेगम 
						ने आँखें तेरर कर मन्नान से पूछा।
 "तो और किस के कहे से रूका था?" मन्नान झल्ला कर बोले।
 "याद कीजिए।" बेगम बोली और शरारत हँसी और तल्खी घोल कर 
						बोली, "याद कीजिए और ज़रा दिल पर हाथ रख कर याद कीजिए!"
 "आप कहना क्या चाहती है?" मन्नान झुंझला कर बोले।
 "यही कि आप मेरे कहे के नाते नहीं मेरी बहन सबीना के नाते 
						तब के दफा पाकिस्तान में रूके थे।"
 "क्या बकती रहती है आप?" मन्नान बोले, "कई दफा कहा कि वह 
						सब बातें भूल जाइए। पर आप जाने क्यों याद रखती हैं।" 
						मन्नान बोले, "घाव पर नश्तर नहीं मरहम लगाना सीखिए!"
 "अब सही बात कह दी तो नश्तर लग गया?" बेगम बड़ी तल्खी से 
						बोली।
 "इस बात को खत्म नहीं कर सकतीं आप?"
 "चलिए खत्म करती हूँ सबीना वाली बात।" वह बोली, "पर अब फिर 
						से रिक्वेस्ट करती हूँ कि नेपाल में ही रह जाते हैं।" 
						उन्होंने जोड़ा, "बड़ा सुकून हैं यहाँ की धरती पर।"
 "सुकून तो है!" मन्नान बोले, "पर यहाँ रहने की दूसरी कीमत 
						देनी पड़ेगी!"
 "यहाँ भी कोई सबीना मिल गई है क्या?" बेगम मुस्कुराती हुई 
						बोली।
 "आप औरतें भी अव्वल दर्जे की बेवकूफ होती है।" मन्नान 
						बोले, "यहाँ जान निकली पड़ी है और आप सबीना के पहाड़े में ही 
						पड़ी हैं।" वह खीझ कर बोले, "इस उमर में, इस तकलीफ में यह 
						सब सूझेगा भला?"
 "तो फिर जब कारोबार ठीक ठाक चल गया है, कोई ज़िल्लत नहीं है 
						तो यहाँ रहने में हर्ज़ क्या है?"
 "हर्ज यह है कि मैं ज़्यादा दिन इस तरह स्मगलर बन कर नहीं 
						जी पाऊँगा!" मन्नान ने बेगम से यह बात ऐसे कही जैसे चाबुक 
						मार रहे हों।
 "क्या कह रहे हैं आप?" बेगम जैसे आसमान से ज़मीन पर आ गई। 
						बोली, "या अल्लाह! आप स्मगलर कब से बन गए।"
 "जब से लोगों की भीख लेनी बंद की!" मन्नान बोले, "यह जो 
						नेपाल का सामान इंडिया और इंडिया का सामान नेपाल में 
						बेंच–बेंचवा रहा हूँ यह स्मगलिंग नहीं तो और क्या है?"
 "हाय अल्ला! ये खाने पीने की चीज़ें बेचना भी स्मगलिंग है?"
 "बेचना स्मगलिंग नहीं है।" मन्नान बोले, "इंडिया से चोरी 
						छुपे यहाँ ला कर बेचना स्मगलिंग है। क्योंकि वहाँ यह चीज़ें 
						पैदा नहीं होती। और हम ड्यूटी दे कर नहीं चोरी छुपे ला कर 
						बेचते हैं।" मन्नान बोले, "पर अब ज़मीर और यह गवारा नहीं 
						करता। क्यों कि अपने वतन के साथ यह भी एक किस्म की गद्दारी 
						है।" वह बोले, "देशद्रोह है!"
 "हाय अल्ला!" बेगम बोली, "तो फौरन से पेस्तर बंद कर दीजिए 
						यह काम!"
 "तो खाएँगे क्या?"
 "भीख माँग लेंगे। मेहनत मज़दूरी कर लेंगे पर यह काम और इस 
						काम का नहीं खाएँगे!"
 "केस कैसे लड़ेंगे? कहाँ से लाएँगे केस का खर्चा?"
 "कर्ज ले लीजिए, घर बेच दीजिए।"
 "यही तो दिक्कत है!" मन्नान बोले, "घर कौन खरीदेगा? 
						खरीदेगा भी तो रजिस्ट्री तो इंडिया में ही होगी!" वह बोले, 
						"कौन जाएगा रजिस्ट्री के लिए इंडिया में?"
 "ये तो है!"
 "कुछ नहीं अल्ला और उस के रसूल पर यकीन कीजिए।" बेगम का 
						हाथ अपने हाथ में लेते हुए मन्नान बोले, "सब ठीक हो जाएगा। 
						जैसे इतना हुआ है वैसे आगे भी होगा।"
 इसी दिन मन्नान की बहू इंडिया से नेपाल आई। उसा ने बताया 
						कि केस अब फाइनल हियरिंग के स्टेज में है। सुन कर मन्नान 
						और उन की बेगम बड़े खुश हुए। खास कर मन्नान की खुशी का कोई 
						ठिकाना नहीं था। मारे खुशी के वह बहू से बोले, "बेटा हो 
						सके तो एक एहसान और कर दो!"
 "जो कहिए अब्बू वह करूंगी, पर एहसान जैसा कुछ मत कहिए।"
 "चलो एहसान नहीं, न सही एक काम ही कर दो!"
 "बोलिए, अब्बू!"
 "किसी सूरत से मिठ्ठू मियाँ को यहाँ हमारे पास ला दो!
 पर कैसे अब्बू?"
 "क्यों? क्या दिक्कत है?
 "दिक्कत नहीं अब्बू दुश्वारी है।"
 "क्या?"
 "चलिए मैं चच्चू से माँग कर मिठ्ठू मियाँ को ले भी आऊँ, 
						अपने ही लिए कह कर सही, आप का जिक्र भी नहीं करूं तो शक की 
						एक चादर तो फैल जाएगी कि इतने दिन हो गए इस ने मिठ्ठू को 
						नहीं माँगा, अब क्यों माँग रही है?" वह बोली, "केस अब 
						फाइनल स्टेज पर है तो खामखा कहीं बिगड़ जाए! तो क्या 
						फायदा?" वह बोली, "अब तो अल्ला से दुआ मनाइए कि आप जल्दी 
						से जल्दी अपने मुल्क वापस चलिए!"
 "ठीक है बेटा!" मन्नान बोले, "पर एक बार जा के मिठ्ठू को 
						देख जरूर लेना।"
 "एक बार क्या मैं तो अकसर जाती हूँ। मिठ्ठू से बतिया लेती 
						हूँ।" वह बोली, "एक बार तो आप ही की तरह मैं ने भी सोचा कि 
						मिठ्ठू मियाँ को चच्चू से माँग लूँ। फिर यह सोच कर कि 
						बेवज़ह शक या चर्चा का मसला हो जाएगा। सो चुप लगा गई।"
 "ठीक है बेटा, अब मिठ्ठू से आएँगे तभी मिलेंगे।" मन्नान 
						बोले, "पर केस पर बराबर नज़र रखना, कोई चूक न होने पाए!"
 "बिलकुल अब्बू!"
 "और हाँ, हम लोगों ने तय किया है कि ये सब्ज़ी, अनाज़ वगैरह 
						का कारोबार अब और नहीं करेंगे?"
 "क्यों?"
 "अब ज़मीर और इज़ाजत नहीं देता।"
 "यहाँ ज़मीर कहाँ से आ गया?"
 "बेटा तुम्ही बताओ, यह एक किस्म की स्मगलिंग नहीं है?" 
						मन्नान बोले, "और जिस मुल्क से हम अपने रहने के लिए पनाह 
						माँग रहे है, उसी मुल्क के साथ यह गद्दारी ठीक है क्या?"
 "पर अब्बू! यह तो अपने मुल्क के बहुत बहुत से लोग कर रहे 
						हैं!"
 "बहुत लोगों को करने दो!" मन्नान बोले, "हम नहीं करेंगे 
						बस!"
 "ठीक है अब्बू!" वह बोली, "लेकिन फिर खर्चा कैसे चलेगा?"
 "यहीं करेंगे कुछ!" मन्नान बोले, "थोड़ा कम खाएँगे, थोड़ा 
						खराब पहनेंगे! बस!"
 "ठीक है अब्बू।"
 
 मन्नान ने सचमुच वह कारोबार छोड़ कर एक दुकान पर मुनीमी कर 
						ली। लड़के भी इधर–उधर छोटे मोटे कामों में लग गए। बेगम और 
						बेटी ने भी सिलाई–कढ़ाई का काम शुरू कर दिया। इस तरह थोड़ा 
						खाने पहनने की तकलीफ हुई, पर काम चलता रहा।
 
 इसी बीच पता चला कि दामाद ने दूसरा निकाह कर लिया। लेकिन 
						मन्नान ने यह बात किसी को बताई नहीं। न बेटी को, ने बेगम 
						को। खुद यह तकलीफ सीने में दफन कर बैठे। दामाद वैसे भी 
						बेटी से मिलने अब नेपाल नहीं आता था। धीरे–धीरे मन्नान के 
						दिन नेपाल में कटते रहे। इस आस में कि एक न एक दिन तो अपने 
						मुल्क, अपने इंडिया लौटना ही है! अपने घर, अपने शहर, अपने 
						लोगों के बीच।
 
 और सचमुच एक दिन ऐसा आ गया। मन्नान की बहू और उन के वकीलों 
						की मेहनत रंग लाई। कोर्ट ने मन्नान की भारत की नागरिकता को 
						वैध मान लिया। मय उन के परिवार के। यह खबर भी शहर को हो 
						गई। पर उस तरह नहीं जिस तरह उन की पाकिस्तानी के तौर पर 
						गिरफ्तारी की हुई थी।
 
 मन्नान की बहू ने लेकिन जल्दबाज़ी नहीं की। मज़ारों पर 
						चादरें चढ़ाई। मिठाई सब को खिला दी, यहाँ तक कि मन्नान के 
						उस दामाद को भी गर जा कर मिठाई खिलाई जिस ने दूसरा निकाह 
						कर लिया था। सब कुछ किया पर मन्नान के पास पास फौरन नहीं 
						गई क्यों कि वह कोई 'रिस्क' नहीं लेना चाहती थी। पहले 
						कोर्ट से आदेश की नकल लिया। नकल की भी कई फोटो कापियाँ 
						कराई। फिर गई वह नेपाल!
 लेकिन चुपके से!
 
 मन्नान और उन के परिवार की खुशी का ठिकाना न था। फिर तय 
						हुआ कि नेपाल से अपने मुल्क को तुरंत न जा कर हफ्ते, दस 
						रोज़ बाद पहुँचा जाए। नहीं, कहीं जल्दबाज़ी में कोई दूसरा 
						इशू न खड़ा हो जाए! न कुछ तो यही कि मन्नान परिवार सहित 
						बाँगलादेश नहीं, नेपाल में रहे। तो?
 
 फिर एक सुबह अचानक मन्नान अपने शहर, अपने घर पहुँच गए। 
						सपरिवार! मुहल्ले वालों ने उन्हें हाथों हाथ लिया। शहर में 
						भी जिस–जिस को जब–जब पता चला मन्न्नान के घर की ओर चला।
 
 दोपहर तक मन्नान के घर पर मिलने वालों की भीड़ बढ़ गई। 
						मन्नान से मिलने उन का दामाद भी आया। और तो और अंजू बेगम 
						के साथ मुहम्मद शफी भी फूलों के गुलदस्तों और फलों की 
						टोकरी के साथ मन्नान से मिलने आए। मुल्क में उन की दोबारा 
						आमद पर उन्हें गले मिल कर मुबारकबाद दी।
 
 हाँ, अगर मन्नान से कोई नहीं मिला तो वह थे मिठ्ठू मियाँ। 
						जो मन्नान से हरदम कहते थे, 'मन्ना जल्दी आना, जल्दी आना!' 
						जो उस रोज़ भी मिठ्ठू मियाँ ने कहा था जब मन्नान ट्रेन से 
						बाँगलादेश जा रहे थे। मिठ्ठू मियाँ ने तो कहा था और 
						बार–बार कहा था, चिल्ला चिल्ला कर कहा था, 'मन्ना जल्दी 
						आना, जल्दी आना।"
 
 पर आज मन्ना का इस्तकबाल करने के लिए महफिल में मिठ्ठू 
						मियाँ नहीं थे। रहते भी कैसे? उन का इंतकाल हो गया था और 
						मन्ना ने आने में थोड़ी नहीं, बहुत देर कर दी थी!
 महफिल में रौनक थी, मन्नान के आमद की। पर मन्नान कहीं उदास 
						थे मिठ्ठू मियाँ की याद में।
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