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सहसा चिल्की मुझे ज़मीन पर लौटा लाई, "दादी, ये तो हमारे घर से आया है ना
"क्या? क्या आया है तेरे घर से?"
"ये। ये। ये।" वह दौड़कर फूलदान के पास जाकर खड़ी हो गई, "ये दादी, ये तो हमारे घर में था ना?"
मैं भीतर तक हिल गई। कितनी जल्दी दुनियावी चीजें बच्चों को भी अपनी चपेट में ले लेती हैं।
मैंने अपने को फौरन समेटा, "पर ये घर भी तो तेरा है न। नहीं है?"
"ये तो पापा का घर है।" चिल्की ने फतवा दिया।
"अच्छा बाबा, ठीक है। ये पापा का, वो तेरा। मेरा कोई घर नहीं।" मैंने रोनी सूरत बना ली।
"नहीं नहीं, अच्छी दादी, ये तो आपका घर है। पापा का भी और . . ." उसने मेरे गले में बांहें डाल दीं – "और मेरा भी।"
चिल्की अचानक अपनी उम्र से बड़ी हो गई थी
और चहक कर अब मुझे झांसा दे रही थी। मैं उसकी समझदारी पर हतप्रभ थी। यह बच्चों की नयी पीढ़ी है।
हमारे समय से कितनी अलग – व्यावहारिक और डिप्लोमेट।
नेहा के जाने के बाद तीन चार महीने घर वहीं बना रहा था।
चिल्की को वही घर अच्छा लगता था क्योंकि वहां से उसका स्कूल नज़दीक था और
जब तब उसकी सहेलियां खेलने आ जाती थी। पर मेरे लिए दो घरों को चलाना बहुत मुश्किल था और
जिस तरह नेहा छोड़कर गई थी, उसके हृदय परिवर्तन की गुंजाइश बहुत कम थी।
देर सबेर उस घर को समेटना ही था, निखिल को फिर लंबे दौरे पर जाना था
इसलिए हमने उस घर को समेटने का फैसला लिया।
चिल्की को उस घर से आने के लिए राजी करना टेढ़ा काम था।
उसका कमरा हमने वैसा का वैसा वहां से शिफ्ट कर इस घर में हू–ब–हू तैयार कर दिया था
पर चिल्की थी कि अपना घर भूलती थी, न कमरा और न उसे जिसने कमरा बड़े मन से बनाया था।
"पर दादी का भी एक घर था, ठीक?" मैंने कहानी के छूटते जाते सिरे को थामा।
"हां, और उनका वो गिलास . . ." चिल्की कहानी सुनने की मुद्रा में फिर बैठ गई।
"तो दादी उस गिलास में ही सुबह पानी पीती थीं, फिर उसमें चाय, फिर नाश्ते के साथ गिलास भर दूध, फिर खाने के साथ पानी, फिर शाम की चाय, फिर . . ."
"क्यों, उनके घर में और गिलास नहीं था?" चिल्की ने यह सवाल बिल्कुल चिल्की की तरह ही किया।
"नहीं, गिलास तो बहुत थे बेटा पर उनको वही गिलास पसंद था। हम सब बच्चे उसको पटियाला गिलास कहते थे।
साइज में इत्ता बड़ा था न इसलिए। गिलास का खूब मज़ाक भी उड़ाते थे। कहते थे –
'दादी, आप गिलास को लेकर ऊपर कैसे जाओगे?"
"ही ही ही ही . . ." चिल्की खिलखिलाकर हंस दी, "फिर क्या बोला आपकी दादी ने?"
"कहने लगी – हट पागल, गिलास वाले तो ऊपर ही हैं, वहां गिलास क्या करना है ले जाकर।
इसे तो यहां वालों के लिए छोड़ जाना है जैसे वो मेरे लिए छोड़ गए थे।" हम बच्चे उनसे मज़ाक करते, पूछते,
"झाईजी आप मरोगे कब?" वो हंसती, "तेरे घर पोता होगा तब!" उन्हें क्या पता था, मेरे घर पोता नहीं, पोती होगी –
चिल्की जैसी . . ." मैंने चिल्की के गाल पर हल्की सी चपत लगायी।
"आपके दादाजी नहीं थे?"
"दादाजी थे न – ऊंचें लंबे पठान जैसे। बड़े रोबदार। लेकिन वह पहले ही सफर पर निकल गए थे –
दादी को अकेला छोड़कर। वैसे तो दादा और दादी की आपस में कभी पटरी नहीं बैठती थी,
दोनों में छत्तीस का आंकड़ा था – एक पूरब जाए तो दूसरा पच्छिम। दोनों एक दूसरे की टांग खींचते रहते थे पर
एक दूसरे के बगैर रह भी नहीं सकते थे इसलिए जब दादाजी मर गए तो सबको लगा कि अब तो दादी भी ज्यादा दिन ज़िन्दा नहीं रहेंगी पर हुआ उल्टा
. . .दादा के जाने के बाद तो दादी का नक्शा ही बदल गया। हमेशा चुप रहने वाली गिठ्ठी सी दादी खूब पटर बोलने लगीं,
हर शनिचर–इतवार हवन सत्संग में हाजरी लगाने लगीं, कलफ लगी कड़क साड़ियां पहनने लगीं। दादी पोते पोतियां के साथ खूब मसखरी करतीं,
खूब कहानियां सुनातीं . . .जैसे मैं चिल्की को सुना रही हूं।"
चिल्की बड़ी बूढ़ियों की तरह दोनों गालों पर मुठ्ठियां टिकाए बैठी रही।
"लेकिन अपने मरने की पूरी तैयारी उन्होंने कर रखी थी। कहतीं, "मेरी ये सोने की चूड़ियां मेरी बिट्टो को देना,
बिट्टो मेरी बुआ का नाम था। ये कान के बूंदी मेरी पोती को, ये सोने की चेन दूसरी पोती को, ये करधन . . .
ये भी बिट्टो को और ये मेरी आखिरी निशानी ये गिलास . . .ये भी बिट्टो को . . .मां और बाऊजी हंसते,
"सब कुछ तो आपने भैनजी को दे दिया, हमारे लिए तो कुछ भी नहीं रखा . . .तो कहतीं,
"अच्छा, जो चीज उसे पसंद न आए वो तू रख लेना।"
"आपकी बुआ को बहुत प्यार करती थीं वो?"
"सब मांएं करतीं हैं।" मेरी जबान पर आया पर मैंने बात पलट दी,
"हां, बुआ तो उनकी लाडली थीं ही।" अच्छा, तो वो हम बच्चों को पास बिठाकार कहतीं,
"तुम लोग भगवान जी को बोलो – अब हमारा दादी से जी भर गया है,
अब उसे अपने पास बुला लो, वो अपना बोरिया बिस्तरा बांध के बैठी हैं, तुम्हारा रस्ता देख रही है।" "
पर दादी, आप मरना क्यों चाहते हो?"
हम बच्चे उनसे पूछते। वो कहतीं, "मेरी दादी कहा करती थीं . . ."
"माय गॉड, उनकी एक और दादी थीं?"
"एक और मतलब? दादी की दादी नहीं हो सकतीं? . . .जा, मैं नहीं सुनाती कहानी।";
"अच्छा, सॉरी सॉरी, क्या कहती थीं उनकी दादी?"
"उनकी दादी कहा करती थीं . . .'टुरदा फिरदा लोया, बै गया ते गोया, लम्मा पया ते मोया।''
"इसका क्या मतलब होता है दादी?"
"हां, फिर तो मतलब समझातीं – चलता फिरता आदमी लोहे जैसा मजबूत होता है,
जो वो बैठ गया तो गोबर गणेश और लेट गया तो मरे बराबर। कहतीं – मैं तो अब लेट गयी,
अब उठने की उम्मीद भी नहीं, तो मरे बराबर होने से मरना बेहतर। है न?
उनको और कोई तकलीफ तो थी नहीं। बस, टांगे सूख गयी तो चलने फिरने से रह गयीं।
बाकी उनका हाजमा एकदम दुरूस्त, बदन पे झुर्रियां नहीं, याददाश्त ऐसी कि पचास साल पहले किसके घर क्या खाया,
वो उनको याद और खाना बिल्कुल टाइम से खाना – बिना घड़ी देखे बोलती थीं – अब चाय का टेम हो गया,
अब खाना लगा दो। आंगन में धूप की ढलती परछाई से समय का अंदाजा लगा लेती थीं।
उनकी निवाड़ की मंजी ज़रा ढीली होने लगती तो कहतीं – कस दो। कोई आता, झट उकडूं होकर कुहनी के बल आधी उठ जातीं।
उन्हें मना करते, झाईजी, आप बैठे रहो, क्यों खटाक से उठ जाते हो। कहतीं – लेटे लेटे मेरी पीठ को बड़ी गरमी लगती है। मेरी पीठ हवा मांगती है।"
"पीठ की कोई जबान होती है फिर पीठ मांगती कैसे है?" चिल्की हंसने लगी फिर बोली, "पर दादी, आप गिलास को क्यों भूल जाते हो बार बार?"
ओफ! चिल्की गिलास की कहानी के बगैर मुझे छोड़ने नहीं वाली थी।
मैं उसे बार बार भुलावे में डालने की कोशिश करती थीं पर वह मेरी उंगली पकड़ कर मुझे फिर गिलास तक ले आती थी।
"हां तो वे उसी गिलास में सुबह से रात तक की हर पीने वाली चीज़ पीती थीं।
पानी, चाय, दूध, लस्सी, शरबत, अटरम शटरम सब कुछ उसी कांसे के गिलास में।
"फिर?"
"फिर एक बार क्या हुआ कि गिलास गुम गया। सुबह उठे तो गिलास मिला ही नहीं।
मेरी मां ने उनको स्टील के गिलास में चाय दे दी। वो अपना नियम से उठीं,
मां ने चिलमची में कुल्ला वुल्ला करवाया। जाप वाप करके वो चाय पीने बैठीं। हाथ में गिलास लिया। देखा तो दूसरा गिलास, बोलीं –
"मैं नहीं पीती, लश्कारे . . .(चमक)वाले गिलास में, मुझे तो मेरा वाला गिलास दो।
"ही ही, जैसे चिल्की का मेरा वाला गिलास . . .दादी कोई बच्चा थीं?" चिल्की को मजा आ रहा था।
"हां, बूढ़े बच्चे तो एक ही जैसे होते हैं। अब उन्होंने जैसे जिद ठान ली –
चाय पीनी है तो उसी गिलास में। चाय पड़ी पड़ी ठंडी हो गई। पूरा घर छान मारा। कहीं गिलास का अता पता नहीं।
ऐसे अलादीन के जिन की तरह गायब हो गया।
"तो बोलना था," चिल्की ने हाथ लंबा घुमाकर अभिनय के साथ कहा,"खूल जा सिमसिम . . .पर दादी, वो गिलास टूटता तो नहीं था न।"
"टूटता तो नहीं था पर गुम तो हो जाता था न बच्चे। तो हम सब बच्चे लग गए उस गिलास को ढूंढ़ने में।
ऊपर नीचे सारा घर खंगाल मारा। चारपाइयों के नीचे, आंगन में, छत की मुंडेर पर, कुंएं की जगत पर,
अमरूद सीताफल के पेड़ के पास। पर गिलास तो ऐसा गायब हुआ कि बस।"
उनको खाना दिया। मेरी मां ने मिन्नतें कीं कि झाईजी, आप खाना शुरू तो करो, पानी पीने तक गिलास मिल जाएगा। खाना तो गिलास में नहीं खाते न!
पर उनकी तो एक ही रट। मेरा गिलास, मेरा गिलास। बाऊजी ने उनको कसकर डांट लगाई कि क्या तमाशा है, एक गिलास के लिए सारा घर आसमान पर उठा रखा है,
गिलास न हुआ कोई कारूं का खजाना हो गया। अब तो वो लगीं रोने। पहली बार हमने उन्हें रोते देखा। बोलीं, "तुम लोगों के लिए वो एक पतरे का गिलास है।
मेरे लिए तो वो मेरा लाहौर है, मेरा वेड़ा है, मेरा पेका . . .(मायका)है, . . ."
मैं बोलते बोलते अटकी – "मेरा सबकुछ है।"
"वो गिलास मिला फिर?" चिल्की ने आंखें गोल करके पूछा।
"नहीं। खाना भी वैसे ही ढंका पड़ा रहा। उन्होंने हाथ नहीं लगाया। शाम तक गिलास मिला नहीं सो शाम की चाय भी नहीं पी।
बेहोश सी होने को आई। आंखें बंद होने लगीं। हम अंदर बाहर ढूंढ़ते रहे। घर के सारे बच्चे बड़े गिलास ढूंढ़ने में लगे थे।
आखिर गिलास मिला। पानी रखने की पीतल की कुंडी के तले में पड़ा था। किसी बच्चे के हाथ से गिर गया होगा।
किसी को ख्याल ही नहीं आया कि वहां भी हो सकता है।
जैसे ही गिलास मुझे मिला, मैं चिल्लायी – "झाईजी, आपका गिलास . . ."वो एकदम कुहनी के बल उठ गई।
फिर उनकी आंखों में ऐसी चमक आई कि पूछो मत। बोलीं, "जल्दी खाना लगाओ। बड़ी भूख लगी है।
उनको खाना दिया तो उन्होंने बड़े तृप्त होकर खाया। रात को एक ही रोटी खाती थीं। उस दिन तीन रोटियां खाई।
चटखारे ले लेकर सब्जियां खाई। होठों से गिलास चूमकर उसमें मटके का ठंडा ठंडा पानी पीया। हम सब खुश।
दादी का गिलास जो मिल गया था।
"बस, कहानी खतम?" चिल्की ने पूछा, "फिर क्या हुआ?"
"सुबह हम बच्चे उठे तो देखा – दादी एक हाथ में गिलास छाती से लगाए सो रही हैं और मुस्कुरा रही हैं।
हम सब उनके चारों ओर इकठ्ठे हो गए – "देखो, देखो, दादी नींद में हंस रही है।
मां ने कहा – "आज इतनी देर तक कैसे सो रही है! सबने कहा – "रात को खाना पेटभर कर खाया है न इसलिए मजे की नींद ले रही हैं।
तड़के मुंह अंधेरे सबसे पहले उठने वाली दादी अभी तक सो रही थीं।
बाऊजी ने आकर उन्हें हिलाया तो कांसे का गिलास नीचे गिर गया। दादी मर गयीं थीं।
"हॉ . . ." चिल्की का मुंह खुला का खुला रह गया – "मर गयीं?"
"हां।"
"सो सैड, है न दादी?" चिल्की की आंखें भीगी थीं – "उनको गिलास नहीं देते तो नहीं मरतीं ना!"
"शायद . . ." मैंने अपनी दादी की वह मुस्कान याद करते हुए कहा। पर मैं कहना चाहती थी –
"मरतीं तो वो तब भी पर तब उनके चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं होती।"
"वो गिलास अब कहां है, दादी?";
"दादी ने कहा था, मेरी बिट्टो को दे देना। सो मेरी मां ने दे दिया था वो गिलास बुआ को।";
"तो उनके पास है?"
"होना तो चाहिए।"
"मुझे दिखाओगे दादी?";
"अच्छा, मिल गया तो तुझे दिखाउंगी।"
वो गिलास कहां मिलने वाला था अब।
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चिल्की को पूरी कहानी सुनाते हुए एक बात मैंने छिपा ली थी कि दरअसल वह कांसे का एन्टीक गिलास दादा जी का नहीं था, दादी की मां का था।
अपनी मां के मरने के बाद यही एक चीज़ उन्हें विरासत में मिली थी। उसमें उन्हें अपनी मां, अपना मायका,
अपना लाहौर दिखता था। चिल्की को मैंने बहला दिया था पर मुझे पता था कि
बुआ अपनी बेटियों के पास अमेरिका गयीं तो पुराने बर्तन–भांडे यहीं छोड़ गयीं।
पुराने पीतल के बर्तनों के साथ वह कांसे का गिलास भी कोई कबाड़ी आकर ले गया होगा, क्या पता। चिल्की ने ठीक कहा था –
कांसे का गिलास टूटता नहीं था पर . . .
पर वो गिलास खो गया था, इसमें शक नहीं।
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