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कहानियाँ

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से
सुधा अरोड़ा की कहानी—"कांसे का गिलास"।


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समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से सुधा अरोड़ा की कहानी—कांसे का गिलास

ड़ा खूबसूरत गिलास था वह। रंगबिरंगे डिज़ाइन वाला प्लास्टिक का पारदर्शी गिलास – जिसकी दो तहों के बीच कैद नीले पानी में सुनहरे हरे फूल पत्ते और तैरती मछलियां थीं। गिरने से तड़क गया था और उसके भीतर की सारी खूबसूरती जमीन पर बड़ी बेरहमी से बिखरी पड़ी थी।

पूरे रसोई घर में फैली चमकीली पन्नियां और रंगीन पानी में तैरती प्लास्टिक की रंगबिरंगी मछलियां साफ की जा चुकी थीं पर वह थी कि बुक्का फाड़कर रोये जा रही थी। वह यानी चिल्की। छह साल की चिल्की। मेरी पोती।

"बस! अब चुप्प! बहुत हो गया!" काफी देर प्यार से समझा चुकने के बाद मैंने अपने स्वर में आए डांट डपट के भाव को बेरोकटोक उस तक पहुंचने दिया।
"पहले शोभाताई को डांटो, उसने मेरा ग्लास क्यों तोड़ा!" रसोई में काम करती शोभा तक ले चलने के लिए वह मेरा हाथ पकड़कर खींचने लगी।
"पहले तेरे पापा को न डांटूं जिसने इतना महंगा गिलास तुझे लाकर दिया?" मैंने उसके पापा और अपने बेटे निखिल के प्रति अपनी नाराज़गी जतायी।

उसकी रूलाई एकाएक और तेज़ होकर कानों को अखरने लगी।
"उफ! अब क्या हो गया।" मेरा धीरज जवाब दे रहा था।
"पापा ने नहीं," वह सुबकने लगी। सुबकती रही। फिर धीरे से बोली, "यह ममा ने ला कर दिया था।"

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