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यहाँ तक कि मुझे स्थानीय अदालतों से भी बुलावा आने लगा है। एक स्थानीय कंपनी में जिम्मेवारी के पद पर कई वर्षों से मैं नौकरी कर रहा हूँ, इस कारण पुलिस और अदालतों को मेरी निष्पक्षता पर काफी भरोसा है। मेरी इस समाज–सेवा का पुलिस और अदालतें पूरी तरह से आर्थिक मुआवजा भी देती हैं। मेरी कंपनीवाले भी मेरे इस कार्य के पूर्णरूप से समर्थक हैं।

पुलिस स्टेशन पहुँचा तो ड्यूटी पर तैनात सिपाही ने मेरा अभिवादन किया। वे तो मेरी प्रतीक्षा ही कर रहे थे। मुझे तहकीकातवाले कमरे में बैठा दिया। एक महिला पुलिस आफिसर उस लड़की को ले आई। वह लड़की मुश्किल से बीस या इक्कीस साल की होगी। पतली–दुबली। इतनी सर्दी में भी उसके बदन पर एक पतला–सा स्वेटर ही था। वैसे, पुलिस स्टेशन गर्म था, पर वह शायद ठंड से या डर से काँप रही थी।

"खड़ी क्यों हो बैठ जाओ, तुम! क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने सहानुभूति के लहजे में कहा। मैं अपनी बात पूरी कर भी नहीं पाया था कि वह हिचकियाँ लेकर रो पड़ी।

"यह बेचारी पहले तो डर और घबराहट से रो रही थी। अब शायद, एक भारतीय चेहरा देखकर कुछ उसके दिल को तसल्ली हुई है, इसलिए रो रही है", मैंने महिला पुलिस अफसर से अंगरेजी में कहा और कहा कि "कुछ देर मैं इससे अकेले में बात करके इसका विश्वास जीत लूँ, तब शायद, यह बयान देने को राजी हो जाएगी।" मैंने उस पुलिस अफसर से पूछा कि इस बेचारी को हिरासत में क्यों लिया गया है?

उस अफसर ने बताया कि किसी मि. मेहरा ने इसके खिलाफ चोरी की रिपोर्ट लिखायी है कल सवेरे कि उनके घर से पंद्रह पाऊंड और एक घड़ी लेकर यह भाग गयी है। उनके यहाँ यह नौकरानी थी। जब पुलिस ने इसे पकड़ा तो इसके पास से न तो कोई घड़ी बरामद हुई और न ही पैसे। सड़क पर रात में अकेली चली जा रही थी हाईवे के किनारे–किनारे कि तभी पुलिस ने इसे पकड़ लिया।

वह महिला अफसर उसको मेरे साथ छोड़कर बाहर चली गयी।
"बैठ जाओ न तुम! तुमने अपना नाम नहीं बताया?" वह बैठ गई।
"जी, कांता है मेरा नाम।"
"अपने बारे में कुछ बताओ कांता! तुम इस समय काफी मुश्किल में फँस गयी हो। सच–सच मुझे अपनी सारी कहानी बताओ, जिससे मैं तुम्हारा पुलिस में बयान ठीक तरह से लिखा सकूँ।"

वह अपनी कहानी सुनाने लगी –
"मैं इलाहाबाद की रहनेवाली हूँ। मेरे पिताजी वहाँ पर किताबों की दुकान चलाते हैं। दो साल पहले माता–पिता ने मेरी शादी लंदन के एक लड़के से कर दी। लड़का अपनी माँ के साथ भारत आया था – शादी के लिए। शादी तो बड़े चाव से कर ली मैंने कि इंग्लैंड में रहूँगी। परंतु यहाँ आकर पता चला कि मेरे लिए ससुराल नर्क से भी बदतर है। तीन कमरे के घर में सास–ससुर, उनके पाँच बच्चे और मैं। सब पढ़ते हैं स्कूल–कालेजों में। मेरा पति बेकार बैठा है घर पर। कभी नौकरी मिली ही नहीं उसे। मुझे नौकरानी से भी बदतर दर्जा दे रखा है घर में। सवेरे–शाम घर के काम में ही लगी रहती हूँ। दोपहर को कई अँगरेजों के घरों की सफाई करने जाती हूँ – माई–भंगन का काम। सास बैठी–बैठी हर समय मुझ पर हुक्म चलाती रहती है। जब किसी को गुस्सा आता है तो वह मुझे गालियाँ देने लगता है। देवर–ननद भी हाथ उठा देते हैं मुझ पर। और मेरा निकम्मा पति चुपचाप सब कुछ देखता रहता है। वह भी अपना सारा क्रोध मुझ पर ही निकालता है। बेरोजगार, ऊपर से कभी–कभी शराब भी पीता है, फिर मेरी हर तरह से शामत आ जाती है।" कहते हुए वह यकायक खामोश हो गयी। फिर बोली, "मैंने कभी साड़ी इसलिए नहीं पहनी कि कमर और पीठ पर मार के निशान लोगों को न दिख जाएँ। दिखाऊँ आपको?"
"नहीं, नहीं, रहने दो।" मैंने जल्दी से कहा।

"उस दिन जब मेरे ससुर ने खाने की प्लेट मेरे मुँह पर दे मारी, तो मेरे दुख की सीमा न रही। आखिर, मैं भी एक इन्सान हूँ। इसमें मेरा क्या दोष, अगर एक लड़की की तरह जन्म लिया और उनके यहाँ बहू बन कर आई।

मैं उस घर से भाग आई। मुझे उसी दिन एक अंगरेज परिवार से उसका घर साफ करने की पगार के दस पाऊंड मिले थे। मैं बस के स्टेशन पर आ गयी। वहाँ बस टिकट की लाइन में एक भारतीय खड़ा था। मैंने उसी जगह का टिकट खरीद लिया, जहाँ वह जा रहा था। उसी के साथ मैं कार्डिफ आ गयी।"

वह ठंड से काँप रही थी। मैंने उससे पूछा, "चाय पियोगी?" वह एकदम मान गयी। मैं उसको वहीं छोड़ मशीन से चाय के दो ग्लास ले आया। चाय का पहला घूँट पीकर उसने कुछ मुँह–सा बनाया। मशीन की चाय का स्वाद कुछ ऐसा ही होता है।
"क्या जिसके साथ तुम कार्डिफ आई थीं, वह मेहरा ही है?" मैंने कांता से पूछा।

"हाँ, वह मेहरा ही है। मैंने ही उससे पूछा था कि कहीं मुझे कुछ काम मिल जाएगा? घर का काम, बच्चों की देखरेख, खाना बनाने का काम – यह सब मैं कर सकती हूँ।" मेहरा के तीन बच्चे हैं, बीवी भी काम करती है। उसने सुझाव दिया कि कुछ दिन उनके घर पर ही ठहरूं और जब तक नौकरी न मिले, तब तक उनके घर का काम, बच्चों की देख–रेख करूँ। वे मुझे रहने के लिए स्थान, खाना और हर हफ्ते बीस पाऊंड देंगे। मेहरा की बीवी से जब मिली, तो उसने कहा कि बीस पाऊंड ज्यादा है। वह दस पाऊंड से ज्यादा नहीं देंगी। मैं क्या करती? कम से कम यहाँ कोई मार–पिटाई तो नहीं करेगा।

मेहरा के घर काम करते मुझे कोई परेशानी नहीं हुई। बच्चे भी मुझ से बहुत खुश थे। मेहरा की बीवी भी खुश ही थी। हाँ, मेहरा अपनी बीवी की गैरहाजिरी में मुझे इस तरह घूरकर देखता था, जैसे अपनी आँखों से मेरे कपड़े उतार रहा हो।

"मैं मेहरा के यहाँ पाँच हफ्ते से ऊपर काम करती रही। मैने उनसे एक भी पैसा न तो माँगा और न ही उन्होंने दिया। मेहरा की बीवी ने कुछ अपने पुराने कपड़े मुझे पहनने को दे दिये थे, इसलिए पैसों की मुझे जरूरत ही नहीं पड़ी। धीरे–धीरे मुझे अपने पति का ध्यान आने लगा। वह जरूर परेशान हो रहा होगा। आखिर, बेचारा करे भी क्या? जवान आदमी बिना नौकरी के माँ–बाप की रोटियों पर पल रहा था। सारा क्रोध मुझ पर ही निकालता था। और किसके ऊपर निकालता? एक दिन मैंने उसे फोन किया। सौभाग्य से घर पर और कोई नहीं था। आधे घंटे तक बातें की। कहने लगा तू लौट आ।

फिक्र क्यों करती है, जैसे ही कोई नौकरी मिल जाएगी, मैं इस नर्क से तुझे निकालकर अपना संसार बसाऊँगा। मेरा मन किया कि उसी क्षण मेहरा का घर छोड़कर लंदन चली जाऊँ। फोन पर उससे बात कर ही रही थी कि मेहरा अचानक बाहर से आ गया। मैंने फोन रख दिया। मेहरा पूछने लगा किसे फोन कर रही थी, जब मैंने बताया लंदन कर रही थी, तो नाराज हो उठा। मुझे डाँटने लगा। मेरा हाथ पकड़कर वह मुझे बेडरूम में ले गया और मेरी कमीज फाड़ डाली।" कांता की कमीज का फटा हुआ कंधा स्वेटर के अंदर से भी दिखाई दे रहा था।

"उसने मुझे पलंग पर गिरा दिया। मैं उसका इरादा समझ गयी और किसी तरह गिरती–पड़ती भाग निकली।

भागते–भागते पैदल ही शहर आ गयी। सुबह से भूखी थी। एक भारतीय रेस्टोरेंटवाले से खाना माँगा। उसने कहा कि चल कुछ सब्जी ही काट दे, तब खाना मिलेगा। खाना खाकर मैं लंदन जानेवाली सड़क पर आ गयी। आने–जाने वाली कारों को लिफ्ट देने का हाथ से संकेत करने लगी। कार्डिफ से चालीस मील दूर ही जा पायी थी कि हाईवे पर पुलिस ने मुझे पकड़ लिया और यहाँ ले आई।"

"पर मेहरा ने तो अपने रिपोर्ट में यह लिखाया है कि तुम पैसे और घड़ी चुराकर भागी हो उसके यहाँ से।"

"साहब, अगर पैसे चुराये होते तो बस का टिकट खरीद कर आराम से लंदन नहीं चली गयी होती।"

कांता का तर्क मुझे बिलकुल ठीक लगा। इतनी ठंड में ठिठुरती हुई वह हाईवे पर क्यों खड़ी होती?

"कांता, तुम्हारे ऊपर तो चोरी का केस चलेगा। तुम्हारा पहला जुर्म है, इसलिए शायद, सजा तो नहीं होगी या मामूली होगी। परंतु, तुम्हारा नाम अब पुलिस की फाइलों में आ जाएगा। कोई भी सरकारी नौकरी तो शायद नहीं मिलने की।" मैंने उसकी विषम परिस्थिति उसे समझाने की कोशिश की तो कांता बुरी तरह घबरा गयी।

"साहब, किसी तरह से इसे पुलिस का केस नहीं बनने दीजिए। मेरी ससुरालवाले तो मुझे कच्चा ही चबा जाएँगे।
"पुलिसवाले केस चलाएँगे या नहीं, यह तो मेहरा पर निर्भर करता है।"

तभी उस महिला पुलिस आफिसर ने आकर बताया कि मेहरा आ गया है। मेहरा ने आते ही मुझे देखकर कहा, "मैं ही मेहरा हूँ। आप शायद, मुझे नहीं जानते, मैं आपकी कंपनी को लाखों का माल सप्लाई करता हूँ हर साल। आप ही जब चैक पर दस्तखत करते हैं, तब हमारा पेमेंट होता है।"
मेहरा मुझे जानता था, पर मैं उसे नहीं जानता था।
"तो आप हैं मेहराजी!"
"लेकिन सर, आप यहाँ इतने तड़के क्या कर रहे हैं?"
"तुम्हारी रिपोर्ट पर कांता को पुलिस ने पकड़ लिया है। उसे अंगरेजी नहीं आती, इसलिए पुलिस ने दुभाषिये की तरह मुझे बुलाया है।"
"साहब, पक्की चोर है यह। मेरे घर से पंद्रह पाऊंड और एक घड़ी चुराकर भागी है।"
मैंने मेहरा का हाथ पकड़ा और उसे एक तरफ ले गया और बड़े प्यार से समझाया,
"मेहराजी, आप तो समझदार आदमी हैं। क्यों बेकार कचहरी के चक्कर में फँसते हैं? अगर उसे कुछ सजा मिल भी गयी, तो आपको क्या मिल जाएगा? आपका जो नुकसान हुआ है, वह मैं भर देता हूँ। आप अपनी रिपोर्ट वापस ले लीजिए।"

"आप कहते हैं, तो वापस ले लेता हूँ", कहकर मेहरा ने ड्यूटी कांस्टेबल से अपनी रिपोर्ट वापस ले ली। और मुझसे बोला, "साहब, कभी सेवा का मौका दीजिए। घर पर आइये कभी खाने पर।" मेहरा ने मुझसे दरख्वास्त की और कुछ ही मिनटों बाद मेहरा खुशी–खुशी घर चला गया क्योंकि, मुझसे जान–पहचान होना, उसके लिए काफी मायने रखता था।

तभी पुलिस सार्जेंट ने कांता को छोड़ दिया। कांता के पास लंदन जाने के लिए पैसे नहीं थे। मैंने अपने बटुए को देखा, उसमें तीस पाऊंड थे। मैंने उसको सारे पैसे दे दिये। जो उसके लिए लंदन जाने के लिए काफी थे। कांता को कार्डिफ के बस के अड्डे तक पुलिस कार छोड़ आएगी। जब मैंने उसके लिए इतना किया, तो पुलिसवाले इतना तो करेंगे ही उसके लिए।

कांता ने मुझसे विदा लेते हुए समय मेरे पाँव छुए। वह पुलिस कार में बैठ गयी। कुछ ही देर में पुलिस की कार चल पड़ी। वह मुझे गरदन पीछे की ओर मोड़कर देखती रही। और कुछ ही क्षणों में आँखों से ओझल हो गयी। अचानक मेरे दिल में ख्याल आया कि बेचारी कांता के माँ–पिता भारत में कितने खुश होंगे बेटी की शादी किसी इंग्लैंड में रहनेवाले के साथ कर के। शायद, उन बेचारों को तो मालूम ही नहीं होगा कि उसके ऊपर क्या बीत रही है? – यह सोचते–सोचते, स्वयं एक बेटी का पिता होने के नाते मेरी आँखें नम हो आयीं।  

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२४ दिसंबर २००३

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