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कितने पहर, यह तो उसे पता नहीं। उसे तो सिर्फ इतना भर मालूम है कि वह अपने गांव से चलकर रेलवे 'टिशन' पहुँची थी और गाड़ी में उस समय सवार हुई थी, जब सूर्य ढल गया था। पूरी एक रात गाड़ी पर बिताने के बाद दूसरे दिन उसने उस समय नई दुनिया में कदम रखा था, जब सूर्य बिल्कुल सिर पर चढ़ गया था। बोली थी तो अनपढ़ देहाती। इसलिए उसका कालबोध घंटा, मिनट और सेकेंड के रूप में नहीं बल्कि पहर और सूर्य के उगने, ऊपर चढ़ने और डूबने के रूप में था। उसे तो यह भी पता नहीं था कि वह ठीक-ठीक पैदा किस समय हुई। उसकी दादी बताती है कि जब वह पैदा हुई थी तो उस समय सूरज उगने में कुछ पहर बाकी थे।

बोली के मां-बाप ने उसके मामा के कहने पर शहर के रहन-सहन और तौर-तरीके सीखने के लिए शहर भेजा था, जहां उसे अपने मालिक-मालकिन के साथ रहकर उनकी सेवा करनी थी और शहरी बनना था ताकि उसकी शादी में कोई दिक्कत न हो और ससुराल में उसे गंवार और देहाती न समझा जा सके।
उसके मां-बाप ने यही समझाकर उसे उसके मामा के साथ इस नई दुनिया में भेज दिया था।
नई दुनिया माने नई दिल्ली! उ़सने यहां आने के पहले इस चकाचौध वाली दुनिया के बारे में जितने सपने देखे थे और जितनी कल्पनाएं की थीं, उनसे कहीं अधिक रंगीन और खूबसूरत थी यह दुनिया। यह दुनिया उसके लिए बिल्कुल अनजान और अपरिचित थी। यहां उसके मामा के अलावा कोई ऐसा नहीं था, जिसे वह अपना कह सकती।
मामा यहां इसी कारखाने में मजदूरी करते थे, जहां उसके मालिक बड़े अफसर हैं।
मालिक-मालकिन के बारे में उसके मामा ने इतना ही बताया था कि वे बड़े नेकदिल और भले इंसान हैं। गरीबों के लिए उनके दिल में बड़ी दया है। उन्होंने इसी कारण गांव की किसी लड़की को अपने साथ रखने और उसे पढ़ाने-लिखाने का फैसला किया था।

शहर में बोली को गंवार और देहाती नहीं समझा जाए, इसलिए उसके मालिक-मालकिन ने सोच-विचारकर उसका नाम रखा था - बोली। मालिक-मालकिन शरीर को विदेशी 'लुक' देने का यही तरीका जानते थे। उन्हें यह पता नहीं था कि दिमाग और विचार को कैसे विदेशी बनाया जाए, इसलिए बोली मानसिक तौर पर देहाती और गंवार ही बनी रही। ऐसी देहाती जिसे यह पता नहीं था कि साबुन भी कई तरह के होते हैं। बोली को साबुन के बारे में केवल इतना पता था कि कोई ऐसी मुलायम और चोकोर चीज, जिससे चाहो तो बदन साफ कर लो या कपड़े।

साबुन के बारे में उसके पास एक और महत्वपूर्ण जानकारी यह थी कि उसे रगड़ने पर झाग निकलता है - उसी तरह का झाग जैसा नदी में बाढ़ आ जाने पर किनारे-किनारे जमा हो जाता है। शादी के बाद शहर में अपने मर्द के साथ रहकर मजदूरी करने वाली उसकी सखी ने बताया था कि शहर में औरतें शरीर और बालों में उजली मिट्टी नहीं, बल्कि साबुन लगाती हैं। साबुन लगाने से शरीर बिल्कुल साफ और मन तरोताजा हो जाता है। सभी मैल दूर हो जाते हैं। इसीलिए तो शहर की औरतें इतनी गोरी और संुदर दिखती हैं।

बोली को अभी शहर आए बीस दिन हुए थे कि मालकिन ने उसे साबुन लाने का हुक्म दे दिया। उसे क्या मालूम था कि उसका साबुन से इतनी जल्दी वास्ता पड़ जाएगा। अगर उसे ऐसा मालूम होता तो वह अपनी सखी से या कम-से-कम अपने मामा से ही साबुन के बारे में विस्तार से जान लेती।
वैसे यह बात नहीं है कि उसने अब तक साबुन देखे ही नहीं हैं। वह देहाती है लेकिन इतनी देहाती नहीं। वह 'टिशन' से उतरकर अपने मामा के घर गई थी और वहीं एक रात रही थी। सुबहर होने पर मामा ने उससे कहा था कि मालिक-मालकिन के घर जाना है इसलिए बढ़िया से नहा-धो लो।
मामा ने नहाने के लिए एक साबुन का छोटा टुकड़ा भी दिया था जिससे वह शरीर रगड़-रगड़कर नहाई थी। मालिक-मालकिन के यहां रहने के बाद से उसे नहाने के लिए साबुन दिया गया है। लेकिन इसके बावजूद वह साबुन के बारे में बहुत ज्यादा नहीं जानती।

उसकी मुश्किल थोड़ी कम हो गई होती अगर उसकी मालकिन ने ही बता दिया होता कि उसे कौन-सा साबुन लाना है। असल में हुआ यह कि जब उसकी मालकिन नहाने के लिए कपड़े उतारकर टब में लेट गइंर्, तब उन्हें याद आया कि उनका साबुन तो समाप्त हो गया है। उन्होंने टब में लेटे-लेटे ही बोली को दौड़कर दुकान से साबुन लाने का हुक्म दे दिया।
मालकिन ने उससे इतना ही कहा कि रैक में रखे पर्स में जो बीस रूपये रखे हैं, उससे नहाने का साबुन ले आओ, जल्दी। बोली की दिक्कत के लिए खुद बोली तो जिम्मेदारी है ही, लेकिन उसकी मालकिन की भी गलती थी। बोली से इतनी गलती तो जरूर हुई थी कि घर से निकलने के पहले उसने मालकिन से यह नहीं पूछा कि कौन-सा साबुन लाना है।
अब बोली तो ठहरी देहाती और जाहिल, लेकिन उसकी मालकिन का तो यह फर्ज बनता ही था कि वह कम-से-कम उस साबुन का नाम बता देती जिसका वह इस्तेमाल करती हैं। बोली को तो यही मालूम नहीं था कि साबुन भी कई तरह के होते हैं। वह तो यही समझे बैठी थी कि साबुन तो साबुन होता है। उसे क्या मालूम था कि साबुन कई तरह के होते हैं और अलग-अलग आदमी का साबुन अलग-अलग होता है।

बोली की परेशानी के लिए उसकी मालकिन को भी पूरी तरह जिम्मेदारी नहीं ठहराया जा सकता। मालकिन ने, हो सकता है, बोली को ज्यादा समझदार समझ लिया होगा। मालकिन ने सोचा होगा कि इस घर में वह बीस दिन से रहती है, लिहाजा उसे इतना तो मालूम हो गया होगा कि मालकिन कौन-सा साबुन लगाती हैं।
यह भी हो सकता है कि जल्दबाजी के कारण वह बोली को साबुन का नाम बताना भूल गई हों। अब जल्दबाजी में आदमी यह थोड़े ही देखता है कि उसे बिल्कुल वही चीज चाहिए जो बिल्कुल उसकी पसंद की हो। थोड़ा उन्नीस-बीस भी चलता है।
मालकिन के हुक्म से बोली को शायद इतना तो मालूम हो गया कि साबुन शायद दो किस्म का होता है - एक नहाने का और दूसरा कपड़ा धोने का। मालिक-मालकिन ने उसे जो साबुन दिया था, उससे वह नहाती तो थी ही, जरूरत पड़ने पर कपड़े भी उसी से धो लेती थी। उसे आज से पता चला है कि दोनों कामों के लिए अलग-अलग साबुन होते हैं।
दुकान पहंुचकर उसने दुकानदार से साबुन मांगा तो दुकानदार ने उसकी ओर घूरकर पहला सवाल यही किया - "कौन-सा साबुन दंू? लक्स, हमाम, रेक्सोना, लिरिल, पर्ल, एविटा य़ा कोई और।"
एकबारगी इतने साबुनों का नाम सुनकर वह एकदम घबरा गई। उसे इस बात पर आश्चर्य भी हो रहा था। बाप रे! इतनी तरह के साबुन! उसे कौन-सा साबुन लेना है, यह तो पता ही नहीं! पता नहीं, मालकिन को कौन-सा साबुन चाहिए। अगर उसने कोई दूसरा साबुन ले लिया तो भी, और अगर खाली हाथ घर लौट गई तो भी, मालकिन के हाथों उसकी पिटाई होनी ही है।

उसे कुछ समझ नहीं आया कि वह करे तो क्या करे और कहे तो क्या कहे कि वह दुकानदार से सिर्फ इतना कह पाई - "पता नहीं, मालकिन ने मंगाया है नहाने के लिए।"
दुकानदार लड़की के पहनावे को देखकर समझ गया कि लड़की को 'विदेशी लुक' देने वाली मालकिन का पसंदीदा साबुन कौन-सा हो सकता है। दुकानदार ने अत्यंत चमकीले और आकर्षक पैक में लिपटे साबुन को निकालकर बोली को दिया - "यह साबुन ले जाओ। तुम्हारी मालकिन को जरूर पसंद आएगा। विदेशी साबुन है। इस मोहल्ले की सारी मालकिन यही साबुन मंगाती हैं।"
बोली ने उस साबुन को बड़ी सावधानी से उलटते-पुलटते हुए दुकानदार से पूछा - "यह कित्ते का है?"
दुकानदार ने कहा - "अरे, ज्यादा का कहां है? केवल बीस रूपये का ही है!"

उस देहाती मानसिकता वाली लड़की के तो साबुन के दाम सुनकर होश ही उड़ गए। इत्ता महंगा होता है साबुन! आखिर इसमें होता क्या है! बीस रूपये में सिर्फ एक साबुन! देखने में यह जितना छोटा है उस हिसाब से यह चलता कितने दिन होगा! महीने में तो कई साबुन जरूरी होते होंगे! जब एक साबुन में इतना खर्च करना होता है तो और सामान में कितना खर्च होते होंगे! उसके अपने घर में कभी भी पूरे महीने में बीस रूपये से अधिक का सामान नहीं आया होगा।
उसके पूरे परिवार के लिए बाजार से सामान का मतलब माचिस की दो-चार डिब्बियां, एक-आध किलो गुड़, नमक और एक-आध लीटर किरासन तेल, बस! अनाज आदि बाबू को मजदूरी में मिल जाता है और इस तरह पूरा महीना किसी तरह गुजारा हो जाता है। वह जब तक गांव में थी, उसने केवल साबुन का नाम ही सुना था, देखा तक नहीं था। उसके लिए नहाने का कोई ज्यादा मतलब नहीं था। 'सपर' कर वह नदी में नहाने जाती थी। पानी लाने जाती तो उस समय नहा लेती थी। नदी के किनारे उजली मिट्टी पड़ी रहती थी। उसी को बालों में लगा लेती थी।
साबुन उसने पहली बार अपने मामा के घर में ही देखा था। अगर साबुन इतना महंगा होता तो उसके मामा साबुन कैसे खरीदते! वह मालिक मालकिन जैसे धनी तो हैं नहीं। किसी तरह से मजदूरी करके अपना और परिवार का पेट पाल रहे हैं।
जरूर यह दुकानदार उसे देहाती समझकर ठगना चाहता है। उसने वह साबुन दुकानदार को लौटा दिया - "नहीं, यह नहीं चाहिए। कोई और साबुन दिखाओ। यह बहुत महंगा है। मालकिन डाँटेंगी।"

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