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उस दिन राम चौदह वर्ष के बनवास के बाद अयोध्या से वापस लौटे थे ना? पैरिस बीच में ही बात काट कर बोल पड़ी,
"अरे पैरिस तुम तो मेरे से भी ज़्यादा जानती हो।" रूपम एशियन होने के बावजूद भी कुछ न जानने की वजह से एक अजीब-सी शर्मिंदगी महसूस कर रहा था। अविक उसकी मन:स्थिति समझ सकता था, प्राय: उसके सभी भारतीय मित्रों का यही हाल था। ऐसा नहीं था कि उन्हें भारत और भारतीयता के प्रति आकर्षण नहीं था, बस जीविका की आपाधापी में डूबे माँ बाप के पास इतना समय ही नहीं होता था कि दो मिनट पास बैठते, उन्हें भारत, भारतीय संस्कृति के बारे में बता या समझा पाते। माँ बाप के साथ बैठकर फुरसत से दो बातें करना तो दूर, अक्सर उनके दर्शन तक दुर्लभ हो जाते थे बिचारों के लिए। अविक का मन दर्द और सहानुभूति से भर आया।
"अगर तुम लोग चाहो तो अगले वर्ष मेरे घर चल सकते हो दिवाली पर। खुद ही देख लेना दिवाली कैसे मनाई जाती है और आइ एम श्योर माँ भी बहुत खुश होंगी तुम सबसे मिलकर।" पर उसमें तो अभी पूरा एक साल बाकी है अविक, पैरिस की आवाज़ निराशा में डूबी हुई थी।
वे बात कर ही रहे थे कि फ़ोन की घंटी बज पड़ी। लाइन पर माँ ही थीं।
"पूजा कर ली अविक बेटा।"
"हाँ माँ, मेरे कुछ मित्र भी हैं यहीं पर और हम सब मिलकर दिवाली मेला देखने जा रहे हैं। दिवाली के बारे में सबकुछ जानने को बहुत ही उत्सुक हैं ये लोग।"
"अगर ऐसी बात हैं तो, इन सबको लेकर घर ही आ जा न। हम सब दिवाली मिलकर मनाएँगे।"
अविक की आँखें खुशी से चमकने लगीं "पूछता हूँ माँ।" इस आमंत्रण पर सभी खुश थे और निश्चय यह हुआ कि केंब्रिज और लंडन की घंटे भर की दूरी कुछ भी ज़्यादा नहीं। पहले मेला फिर माँ के साथ दिवाली।
पर मेले का भीड़भरा माहौल चारों मित्रों को दस मिनट से भी ज़्यादा न रोक पाया। सभी का कहना था कि यह तो बस एक बाज़ार जैसा है ब़स कोई भी एक और पार्टी। उन्हें तो पारंपारिक भारतीय अंदाज़ में दिवाली मनानी हैं और चारों अविक के घर माँ के साथ दिवाली मनाने चल पड़े।

अशोक के पत्तों में गुँथी फेयरी लाइट और उनके बीच बीच छोटी-छोटी घंटियाँ, नीचे करीने से माला-सी सजी दियों की लंबी कतार और सामने प्रवेश द्वार पर ही फूलों की घूमती रंगोली के बीच कमल के आकार की दीप्त मोमबत्ती, लक्ष्मी के स्वागत में सजे सँवरे घर के बंदनवार ने नन्हीं-नन्हीं घंटियों से गूँजकर मेहमानों का स्वागत किया। माँ हाथ में पूजा की थाली लिए दरवाज़े पर ही खड़ी मिलीं और वहीं माथे पर तिलक लगाकर स्वागत किया उन्होंने अपने मेहमानों का।
"यह क्या माँ?"
"यह नए वर्ष के लिए मेरी तरफ़ से मंगल कामना और तुम्हारा भारतीय अंदाज़ में स्वागत है।" माँ ने मुस्कुराकर कहा, जैसे शायद अयोध्या वासियों ने कभी अपने राम का किया होगा। माँ के इतना कहते ही चारों बच्चों ने खुद को बहुत ही ज़िम्मेदार और विशिष्ट महसूस किया।
"और अब हमें क्या करना चाहिए?" तीनों के एकसाथ पूछने पर माँ ने उन्हें बताया कि अभी-अभी मैं पूजा से उठी हूँ। भारत में तो बच्चे बड़ों के पैर छूते हैं पर तुम सब मुझे नमस्ते कर लो ऐसे माँ ने दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते की, पर इसके पहले कि माँ का वाक्य पूरा हो चारों एक साथ माँ के आगे झुके हुए थे और चारों का दायाँ हाथ माँ के चरणों पर था। हर्ष और प्यार से गदगद माँ ने चारों को गले से लगा लिया। बच्चों के लिए ही नहीं, अविक की माँ के लिए भी यह एक अभूतपूर्व अनुभव था, हर्षातिरेक से छलके आसुओं को और खुद को सँभालती वह बस इतना ही कह पाई, ''खूब खुश रहो, माँ बाप का नाम रौशन करो। चलो तुम अब सब हाथ मुँह धोकर तरोताज़ा हो लो तब तक मैं खाना गरम करती हूँ, बिस्तर पर तुम तीनों के लिए कुछ नए कपड़े हैं, जल्दीसे पहनकर आओ। दिवाली की पूजा नए कपड़े पहन कर ही की जाती है। माँ कह रहे हो तो बात भी माननी पड़ेगी, मुझे अच्छा लगेगा।"
"जरूर माँ, पर पहले हम खाना गरम करने और खाने की मेज़ लगाने में आपकी मदद करेंगे फिर आप जैसे चाहोगी वैसे ही दिवाली मनाएँगे।" आदतन मजबूर सहृदय पैरिस एकबार फिर तुरंत ही बोल पड़ी थी और फिर तो चारों बच्चों ने "हाँ, माँ आप अब आराम कीजिए बाकी का काम अब हम करेंगे।" की एकस्वर तुमुल घोषणा कर दी।
आनन-फानन बातों-बातों में ही सारा खाना गरम होकर कब खाने की मेज़ पर पहुँचा किसी को पता भी न चल पाया और अगले पाँच मिनटों में ही अविक रूपम सानिया और पैरिस चारों ही माँ के दिए भारतीय कपड़ों में जलते हुए दिए से जगमग थे। सबने मिलकर लक्ष्मी की मूर्ति पर फूल चढ़ाए और फिर खील बताशे भी। कौन-सी मिठाई खाई जाए कौन-सी छोड़ी जाए निश्चय करना एक कठिन समस्या हो चली थी उनके लिए, बारबार माँ का प्यार भरा आग्रह और साथ में बेहद सलीके से सजा अति स्वादिष्ट भोजन। बाहर छूटते अनार और चकरी में ज़्यादा जोश था या इन पाँचों के मन में, आज तो शायद भगवान भी यह निश्चय नहीं कर पाते।
"हमारे भारत में तो घर भरके मिठाई बनती है और अगले दिन सब मिलने जुलने वालों और गरीबों में बाँटी जाती है, गाना बजाना, मिलना जुलना सभीकुछ चलता रहता है इन तीन-चार दिन। पहले धन-तेरस, फिर छोटी बड़ी दिवाली पाड़वा और भैया दूज, पूरे पाँच दिन का त्योहार है यह। नए कपड़े, खिलौने, खूब मौज मस्ती रहती है बच्चे बड़े सभी की। माँ बच्चों के से जोश से बोले जा रही थीं। कमरे में लौटते ही माँ ने ढोलक और हारमोनियम निकाल लिए। अविक तबले पर माँ हारमोनियम पर। गाने बजाने की महफिल ऐसी चली कि सुबह ही हो जाती अगर माँ बीच में ही न रोक देतीं, अरे अभी तो हमें ताश भी खेलने हैं। ताश, सबके मुँह आश्चर्य से खुले हुए थे, हाँ आज के दिन ताश भी तो खेलते हैं, गंभीर और भारी भरकम समझी जाने वाली भारतीय सभ्यता का यह एक नया और अनूठा पहलू था पैरिस के लिए। कोई भी खेल माँ? ''नहीं, तीन पत्ती।'' ''तीन पत्ती क्या?'' रूपम, पैरिस और सानिया तीनों आश्चर्य-चकित एकसाथ ही बोल पड़े।" ''यू मीन बैग पर यह तो जुआ है माँ।'' ''नहीं, जुआ तब कहा जाएगा जब हम अपनी सामर्थ्य से ज़्यादा दाँव पर लगा दें और हार जीत बर्दाश्त करने लायक न रहें। अपना नुकसान कर लें। हर चीज़ के दो पहलू होते हैं, इस खेल से हम सीखते हैं कि लालच से कैसे बचा जाता है और संयम क्या है। पर दिवाली पर ताश खेलने का रिवाज तो महज़ अगले साल का शुभ-अशुभ देखने के लिए हैं। चारों बच्चों को पाँच-पाँच पौंड देकर माँ काउंटर निकाल लाई और खेल के नियम समझाते हुए माँ ने पत्ते बाँट दिए। हरेक के पास पाँच-पाँच पेन्स के सौ काउंटर थे। जैसे-जैसे पैसे खतम होंगे खिलाड़ी हटता जाएगा, माँ ने निर्णायक अंदाज़ में समझाया। सबसे पहले माँ ही खेल से निकलीं। और खेल में सबसे कमज़ोर फूल-सी नाजुक पैरिस के पास जा बैठीं। माँ के सहयोग से अंत में पैरिस और रूपम ही जीते। पैरिस के पास बीस पौंड और रूपम के पास पाँच पौंड थे। पैरिस ने पैसे लौटाने चाहे पर माँ ने यह कहकर वापस कर दिए कि "नहीं-नहीं यह तो तुम्हारी अमानत है, आज की इस शुभ रात्रि में माँ और लक्ष्मी का आशीर्वाद।" आशीर्वाद शब्द को पैरिस एक ही रात में पहचानने लगी थी। उसने स्वत: ही उठकर माँ के पैर छू लिए। माँ के लिए सबकुछ बहुत ही अप्रत्याशित था बरसों से अजन्मी बेटी के लिए उमड़ता प्यार आँखों से बह निकला, "कभी-कभी अविक के साथ मिलने तो आएगी ना?" भावातिरेक की वजह से रूँधे गले से वह बस इतना ही कह पाई।
अगली सुबह पैरिस अविक के कमरे में पैरों से ज़मीन कुरेदती खड़ी थी।

"उम्मीद है तुम बुरा नहीं मानोगे अविक और कॉलेज के बॉल में मेरे साथी बनकर चलोगे। यह दो टिकटें तुमसे पूछे बगैर ही ख़रीद ली थीं मैंने।"
"नहीं।" अविक के शब्द पैरिस पर बिजली की तरह गिरे।
"मैं जिसके साथ भी बॉल में जाऊँगा उसकी टिकट भी मैं ही खरीदूँगा, वह नहीं। उस साथी को पसंद करने का अधिकार सिर्फ़ मेरी माँ का है, मेरा तक नहीं।"
इससे पहले कि अपने अजन्मे सपने, काशी को सीने से लगाए खड़ी पैरिस के आँसू उसे विचलित कर पाएँ, बुत-सी खड़ी पैरिस को वहीं छोड़ अविक कमरे से बाहर निकल आया, बिना देखे और जाने कि बाहर खड़ी मुस्कुराती माँ ने न सिर्फ़ सबकुछ देख और सुन लिया था अपितु समझ और जान भी लिया था, वह भी आज नहीं कल ही जब नीले रंग के बनारसी जाल के दुपट्टे से सर ढके पूजा की थाली हाथ में पकड़े दिए की लौ-सी जलती पैरिस भगवान से भी ज़्यादा अविक पर ही ध्यान दे रही थी, माँ ने पहचान लिया था अपनी परी को, परी जिसकी कहानी वह अपने राजकुमार को सुनाया करती थीं, आज खुद ही चलकर उनके घर आ गई है।
अगले दिन लौटते समय खाने के डिब्बे के साथ माँ के हाथ में एक लिफ़ाफ़ा भी था।
"दो टिकटें हैं यह," मुस्कुराती माँ जाने किस खुशी के सातवें आसमान पर थीं। "मैंने खरीदी हैं। और सुन, मेरी परी को साथ लेकर ही तू बॉल में जाएगा।"
"परी, यह पैरिस माँ की परी कबसे हो गई" अविक दंग था, "पर इसे तो अभी हम ठीक से जानते तक नहीं माँ, और इसे तो कुछ भी नहीं आता, ना रोटी, ना गीता, ना रामायण और फिर मैं भी तो बहुत छोटा हूँ अभी।"
"सच्चे साथी और सच्ची निष्ठा को पहचानना सीखो अविक। जहाँ तक सवाल रोटी, गीता और रामायण का है, मैं सिखा दूँगी इसे और हर छोटा कभी ना कभी तो बड़ा होता ही है खुशी-खुशी इंतज़ार कर लूँगी मैं उस दिन का, तुम हाँ करके तो देखो।"
अविक अवाक खड़ा देख रहा था यह कैसा जादू जानती है पैरिस, एक ही रात में माँ के ऊपर काबू कर लिया। माँ पूरी तरह से उस पर फिदा हैं, शायद वही जादू जिससे बचने के लिए वह पिछले एक महीने से रोज़ नए उपाय ढूँढ़ रहा था। अविक ने मुड़कर गौर से एक बार फिर उस जादूगर के तिलिस्म को समझना चाहा पर पैरिस तो उसी जाने पहचाने सरल भाव से बस एकटक उसे देखे जा रही थी और माँ पैरिस को। रंग और जाति की सारी विभिन्नताओं के बाद भी अविक को दोनों की ही आखें एक-सी और जानी-पहचानी लगीं, प्यार से लबालब भरी और छलकती हुई...

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