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ऋतिका और वर्मा जी को ले कर मेरी गाड़ी तीव्र गति से अस्पताल की ओर दौड़ने लगी और मेरा मन उससे भी तीव्र गति से अतीत की ओर दौड़ पड़ा।

उस दिन भी नित्य की भाँति मैं रोगी देखने में व्यस्त थी, मैंने एक रोगी को देखने के बाद अगले रोगी को देखने के लिए घंटी बजाई तो लगभग पैतालिस पचास के वय की एक आकर्षक और सौम्य महिला ने प्रवेश किया, कहते हैं कि कुछ संबंध पहले से ही निर्णायित होते हैं। शायद मेरी उससे होने वाली आत्मीयता का आभास मेरी छठी इन्द्रिय को हो गया था तभी वह मुझे प्रथम दृष्टि में ही नितान्त आत्मीया सी लगी। उक्त महिला को मेरी मित्र डॉक्टर वागले ने व्यक्तिगत रूप से भेजा था। जब मैंने डॉक्टर का पत्र और साथ में संलग्न रिपोर्ट पढ़ी तो ज्ञात हुआ कि आगन्तुका स्तन कैंसर से ग्रसित हैं।

मैं कैंसर विशेषज्ञ हूँ अतः इस दुःसाध्य रोग की घोषणा कर के रोगी को हतप्रभ करना मेरी विवशता है। यद्यपि यह दुष्कर कार्य मुझे सदा ही अवांछित रहा है पर रोगी को वास्तविकता से अवगत कराना मेरा कर्तव्य है। कुछ रोगी तो ससमय आ जाते हैं तो रोग मुक्त कर मैं सन्तोष का अनुभव करती हूँ पर कुछ लोगों का रोग इतनी देर में ज्ञात होता है कि उनके जीवन की डोर हम डॉक्टरों की पहुँच से बाहर हो जाती है। ऐसे रोगी को उसकी वास्तविकता बताते हुए मुझे ऐसा अनुभव होता है जैसे मैं किसी निर्दोष को फाँसी का दंड सुना रही हूँ। ऐसे में मेरा भावुक हृदय मुझे सदा ही प्रेरित करता है कि मैं रोगी को कुछ भी न बताऊँ, कम से कम वह जीवन के शेष दिन तो सामान्य रूप से व्यतीत करेगा, उसे हर पल मौत रूपी भयानक राक्षस द्वारा पल पल पास आने का डर न सताए। पर मस्तिष्क सदा मेरे मन की इच्छा को पूरी होने से रोक देता है और डॉक्टर का कर्तव्य स्मरण करा देता है, साथ ही तर्क देता है कि यदि रोगी को अपना सीमित जीवनकाल ज्ञात होगा तो वह अपने आश्रितों के लिये कुछ व्यवस्था कर देगा और अपनी जो आकांक्षाएँ पूर्ण कर सकता है, कर लेगा।

ऋतिका को भी इसी सत्य से अवगत कराने के उद्देश्य से मैंने ऋतिका से पूछा, "क्या आप अकेले आई हैं?" तो ऋतिका ने कहा, "जी डॉक्टर, पर आपको जो भी बताना हो, मुझे ही बता सकती हैं।" मैं कुछ क्षण असमंजस में रही कि उसे बताऊँ या नहीं, फिर भूमिका बनाते हुए मैंने कहा, "देखिए मिसेस वर्मा, चिन्ता की कोई बात नहीं है क्योंकि अब तो हर रोग की चिकित्सा संभव हो गई है। बस आपको तुरंत ऑपरेशन करवाना होगा।" फिर थोड़ा रूक कर बोली, "क्योंकि आपको स्तन कैंसर हैं, पर आप ठीक हो जाएँगी।" प्रायः मेरी यह उद्घोषणा रोगी को कुछ क्षणों के लिये निस्पंद कर देती है। अतः उस दुर्वह क्षण से पलायन करने हेतु मैं अति व्यस्त होने का नाटक करते हुए व्यर्थ ही इंटरकाम पर अपनी अधीनस्थ परिचारिका को कुछ निर्देश देने लगी। पर मेरी आशा के विपरीत ऋतिका तो ऐसे स्थितप्रज्ञ सी बैठी रही मानो उसके पास बैठे किसी अन्य रोगी से मैंने बात कही हो। फिर सामान्य रूप से बोली, "डॉक्टर मैंने रिपोर्ट पढ़ ली थी, माना वह आपकी चिकित्सीय भाषा में थी पर मुझे आभास हो गया था फिर जब डॉक्टर वागले ने आपके पास भेजा तब तो मुझे पूरा विश्वास हो गया कि मुझे कैंसर हैं।"

वह धीमी किन्तु स्थिर वाणी में बोली, "डॉक्टर में इसीलिये आपके पास अकेले आई हूँ कि कृपया मेरे घर के किसी के सदस्य को मत बताइयेगा क्योंकि मैं अभी आपरेशन करवाना नहीं चाहती। हाँ, यदि दवाओं से काम चल सके तो चला लीजिए।" मुझे आश्चर्य हुआ क्योंकि वेशभूषा से तो वह अच्छे सम्पन्न घर की और शिक्षित लग रही थी। अतः मैंने सोचा कि शायद वह आपरेशन से डर रही है, अतः मैंने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि 'अरे आप को पता भी नहीं चलेगा, कोई कट नहीं होगा।' पर वह दृढ़ स्वर में बोली, "नहीं डॉक्टर, अभी मैं एक वर्ष तक ऑपरेशन नहीं करवा सकती और प्लीज मेरे घर वालों को मत बताइएगा।" मैंने उन्हें समझाना चाहा, "आप स्थिति की गंभीरता को नहीं समझ रही हैं, तब तक तो बहुत देर हो जाएगी। अरे संयोग से समय से रोग का पता चल गया है तो ससमय आपरेशन करवा लीजिए वरना कितनों को तो पता ही देर में चलता है और तब उन्हें पल पल मौत की प्रतीक्षा के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं होता।" मेरे इतना समझाने पर भी वह महिला अविचल रही। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि यह क्यों स्वयं मौत के मुंह में जाने को आतुर है।

उस समय तो बाहर रोगियों की भीड़ थी, अतः मैंने उसे बाद में आने को कहा। वह जाते जाते भी इस रहस्य को स्वयं तक सीमित रखने का आश्वासन ले कर ही गई। पता नहीं उस महिला में क्या आकर्षण था कि मैं वह मेरे मन–मस्तिष्क पर देर तक छायी रही और मैं उससे पुनः मिलने की आतुरता से प्रतीक्षा करने लगी।

दूसरे दिन नियत समय पर ऋतिका आ गई थी। यह समय मेरा विश्राम का होता है अतः मैं अपने कमरे में अकेली थी। ऋतिका से इधर उधर की औपचारिक बातों के बाद मैंने पूछा, "ऋतिका मैं तुम्हारी डॉक्टर हूँ और रोगी को डॉक्टर से कुछ भी नहीं छिपाना चाहिये, तुम ऑपरेशन क्यों नहीं कराना चाहती?" पहले तो वह हिचकिचायी पर मेरे बहुत आग्रह पर उसने बताया, "डॉक्टर, मेरी बेटी अनन्या को सुयोग से बहुत अच्छा वर मिल गया है और आप तो जानती ही हैं कि हमारे समाज में बेटी के विवाह में चार पाँच लाख रूपयों का व्यय साधारण सी बात है और मेरे पति और बच्चे मिल कर प्राथमिकता मेरे ऑपरेशन को ही देंगे जिसमें हमारे जीवन भर की जमा पूँजी का अधिकांश भाग व्यय हो जाएगा। फिर भावुक होते हुए बोली, "डाक्टर, आप ही बताइए, बच्चों के सपनों की चिता पर मैं अपना जीवन कैसे जी पाउंगी?" यह सुन कर मैं निरूत्तर हो गई, पर मेरा डॉक्टर मन इतना बड़ा सत्य छिपाने को स्वीकार न कर पा रहा था। मेरा कर्तव्य तो लोगों को जीवनदान देना था और ऋतिका मुझसे उसे मौत के मुँह में ढकेलने की योजना में भागीदार बनने को कह रही थी।

मैंने उसे समझाया, "तुम्हारे तर्क अपनी जगह, पर तुम्हारा जीवन तुम्हारे परिवार के लिये क्या अर्थ रखता है इसकी तुम्हें तनिक भी अनुभूति नहीं है?" परन्तु ऋतिका की भीष्म प्रतिज्ञा के समक्ष मुझे हारना पड़ा। घंटों के तर्क वितर्क के पश्चात भी ऋतिका के व्यक्तित्व के प्रभाव से या संभवतः उसके मातृत्व के आगे मैं झुक गई और मैंने उससे यह आश्वासन दे ही दिया कि 'मैं तुम्हारे परिवार को सत्य नहीं बताऊँगी, पर तुम्हें नियम से दवा लेनी होगी तथा दोनों दायित्व पूर्ण होते ही ऑपरेशन करवाना होगा' मेरे इस आश्वासन पर वह इतनी प्रसन्न हो गई मानो जीवन दान मिल गया हो। किसी को मौत की राह चुनने और उस पर जाने का अवसर मिलने पर प्रसन्न होते मैं पहली बार देख रही थी। ऋतिका ने कृतज्ञता से मेरा हाथ थामते हुए कहा, "डॉक्टर मैं आजीवन आप की ऋणी रहूँगी।" वह तो आश्वासन ले कर चिंतामुक्त हो कर
चली गई पर तब से आज तक मैं अपराधबोध से ग्रस्त हूँ और चाह कर भी उससे किया वादा तोड़ नहीं पाई।

कालचक्र घूमता रहा, दो माह बाद अंशुल अपनी पढ़ाई हेतु इंग्लैंड चला गया। उसके जाने के पूर्व ऋतिका ने अपने विशेष परिचितों को एक पार्टी दी तब तक मैं और ऋतिका परम आत्मीय बन चुके थे। दिन में कम से कम एक बार अवश्य एक दूसरे से सम्पर्क कर ही लेते थे, भले ही दूरभाष पर ही सही। पार्टी में ऋतिका का उत्साह देखते बनता था। वह बेटे के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना मात्र से ही प्रफुल्लित थी। उस समारोह में प्रसन्नता का वातावरण था, बस एक मैं ही आवरण ओढ़ कर प्रसन्न होने का नाटक कर रही थी क्योंकि इस प्रसन्नता का जो मूल्य दिया गया था वह मात्र मैं ही जानती थी। दो दिनों बाद अंशुल को जाना था। इन दो दिनों में ऋतिका ने क्षण भर भी अंशुल को विलग न होने दिया मानो वह इन दो दिनों में ही बेटे के साथ जीवन भर का सान्निध्य पा लेना चाहती हो। अंशुल कहता भी 'मां मैं दो वर्षों के लिये ही तो जा रहा हूँ' उसे तो आभास भी न था कि वह अवश्य दो वर्षों के लिये जा रहा है पर माँ उससे इतनी दूर जाने वाली है कि वह चाह कर भी उस दूरी को पार नहीं कर पाएगा।

अंशुल के जाते ही ऋतिका बेटी के विवाह की तैयारी में लग गई। मैंने उससे पुनः अनुरोध किया कि बेटे का भविष्य तो बन ही गया है, अनन्या की कौन सी आयु निकली जा रही है, आजकल तो वैसे भी बड़ी आयु तक विवाह होते हैं, दो वर्षों बाद अंशुल आ कर स्वयं अनन्या का विवाह करेगा। मेरी मानो अब तुम ऑपरेशन करवा लो। पर उसने मेरे मुँह पर हाथ रख दिया कि कहीं कोई मेरी बात सुन न ले और बोली, "नहीं डॉक्टर प्लीज मेरी तपस्या बीच में न तोड़ो, मलय जैसा वर बार बार नहीं मिलता, फिर अब तक तो दोनों के मध्य कोमल तन्तु भी जन्म ले चुके हैं, उन्हें मैं कैसे नष्ट कर सकती हूँ। मुझे पता है कि मलय के घर वाले इतनी लम्बी प्रतीक्षा नहीं करेंगे, वैसे भी लड़की का विवाह तय होने के बाद अधिक दिनों तक रोकना उचित नहीं, क्या पता कौन सी बाधा आ जाए।' में खीज़ उठी। उसे समझाना व्यर्थ था स्वयं तो महानता के शिखर पर पहुँचना चाहती थी और मैं व्यर्थ ही उसकी बात मान कर अपराध बोध से ग्रस्त रहती। कभी कभी तो उस क्षण को कोसती जब उसकी बात मान कर उसकी इस योजना में भागीदार बनी थी।

ऋतिका दिन पर दिन दुर्बल होती जा रही थी, एक दो बार श्री वर्मा ने कहा भी, "डॉक्टर आज कल आप की मित्र थोड़ा सा कार्य करके ही हाँफने लगती है, इस बार आपके पास आए तो इसका परीक्षण करिएगा।" मैं चुप रह जाती और उसे एकान्त में डाँटती कि श्रम कम करे पर उसे तो बेटी के विवाह में मानो अपने जीवन की संपूर्ण आकांक्षाओं को पूरा करना था। सारा शहर छान कर एक से एक आभूषण और वस्त्र चुन कर लाई थी वह। जब मैं समय निकाल कर उसके पास जाती तो कभी वह कलश पर चित्र उकेर रही होती तो कभी चुनरी में गोटा टाँक रही होती और कभी अतिथियों की सूची बना रही होती। उसका उत्साह समाए न समा रहा था। मैं जाती तो नित्य प्रति की तैयारी दिखाती पर जैसे ही मैं उसके स्वास्थ्य के विषय पर आती वह बड़ी चतुरता से विषय बदल देती और मेरे निर्देश एक कान से सुन कर दूसरे कान से
निकाल देती।

अनन्या का विवाह देखते बनता था, कहीं कोई कमी न थी, हर कोने पर ऋतिका की सुरूचि के हस्ताक्षर स्पष्ट थे। विवाह में हर क्षण पूर्ण रूपसे जीने की लालसा में ऋतिका मेरी मना करती दृष्टि की अवहेलना करती नृत्य को भी उठ खड़ी हुयी, वह बात दूसरी है कि दो पंक्ति गाने पर नृत्यके बाद ही साँस फूलने लगी। तब मैंने उसे तुरंत बैठा कर पानी पिलाया और दवा दी। सब लोगों ने इसे साधारण सी थकान समझा अतः दो क्षण को थमा संगीत फिर बज उठा और पुनः वातावरण सामान्य हो गया। विवाह समारोह निर्बाध रूप से सम्पन्न हो गया। वर का कामदेव सा रूप देखते बनता था। अनन्या और मलय की जोड़ी साक्षात राम सीता की कल्पना को साकार कर रही थी। ऋतिका की आँखों में छलकती तृप्ति और प्रसन्नता ने कुछ देर के लिये मेरे अपराध बोध को कम कर दिया था। मैंने सोचा कौन सी माँ इस सुख से वंचित रहना चाहेगी। मैंने भी ऋतिका को इस सुख को पाने में सहयोग ही तो दिया है। अनन्या की विदा की बेला में प्रयासों से रोका ऋतिका का रूदन फूट पड़ा था। उसे देख कर सभी के नेत्र भीग गए थे। अतीत की गलियों में भटकता मेरा मन भी तब चौंका जब गाड़ी अस्पताल के सामने आ पहुँची। अपने विचारों को झटक कर में तुरंत कर्तव्य पूर्ति में संलग्न हो गई। मेरे निर्देशानुसार ऑपरेशन की संपूर्ण व्यवस्था हो चुकी थी। ऋतिका को तुरंत ऑपरेशन कक्ष में ले जाया गया। आज पहली बार ऑपरेशन करते हुए मेरे हाथ काँप रहे थे और मैं प्रार्थना कर रही थी कि हे ईश्वर! इस माँ के तप का कुछ तो प्रतिफल दो अन्यथा लोगों की ईश्वर में आस्था समाप्त हो जाएगी। पर शायद ईश्वर को अपनी आस्था के खोने का भय न था, अतः उन्होंने मेरी प्रार्थना अस्वीकृत कर दी, सब कुछ समाप्त हो गया।

सबने इसे होनी मान कर स्वीकार लिया, ईश्वर का उद्देश्य पूर्ण हो गया। आज अनन्या और अंशुल अपने परिवार में संतुष्ट और सुखी है, श्री वर्मा परिस्थितियों से समझौता कर बेटे के पास रहने चले गये परन्तु अपराध बोध का दंश मेरे अंतर्मन को निरंतर टीसता रहा।

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२४ नवंबर २००३

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