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अभी मैं
क्लीनिक से आकर बैठी ही थी कि मिस्टर वर्मा का फोन आ गया। वह
बुरी तरह घबराए हुए थे, उन्होंने रूआँसी वाणी में कहा, "डॉक्टर
आप तुरंत आ जाइए, ऋतिका को पता नहीं क्या हो गया है, साँस ही
नहीं ले पा रही है।" मैं समझ गयी कि जिस घड़ी से मैं डर रही थी
वह आ ही गयी, ऋतिका का साँस न लेना इस बात का द्योतक है कि
उसका फेफड़ा तक रोग की चपट में आ चुका है। मैंने तुरंत अपने
अधीनस्थ कनिष्ठ डॉक्टर को अवश्यक निर्देश दिये
और गाड़ी ले कर ऋतिका के घर की ओर
निकल पड़ी।
जब पहुँची तो ऋतिका श्री वर्मा की बाहों में अधलेटी सी साँस
लेने का कठिन प्रयास कर रही थी। उसकी विवश आँखों में मुझे देख
कर याचना उभर आई मानो कह रही हो कि 'डॉक्टर मुझे बचा लो, मैं
जीना चाहती हूँ' वर्मा जी भी मुझे देख कर आशान्वित हो उठे। मैं
उन्हें क्या बताती कि स्थिति मेरे वश से बाहर हो चुकी है,
परिणाम जानते हुए भी प्रयास तो करना ही था, मन में कहीं एक
झूठी सी आस थी कि क्या पता कोई चमत्कार ही हो जाए। कैसी
विडम्बना थी कि अभी सप्ताह भर पूर्व ही जिस ऋतिका की उत्साह से
पूर्ण वाणी इस घर में विवाह की शहनाई से एकमय हो कर गूँज रही
थी वह आज निष्प्राण सी पड़ी जीवन से जूझ रही थी। मैं अपने
विचारों को झटक कर कर्तव्य पूर्ति में व्यस्त हो गई।
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