अँधेरे में धोखा खा जाती है। तिल्ली उल्टी रगड़ती है। वह टूट
जाती है तो दूसरी निकालकर जलाने लगती है। फिर वैसा ही होता है।
तीसरी बार अम्मा गलत नहीं
करती। उँगलियों से मसाले वाले सिरे को छू लेती है। जलती है तो
कमरा जगमगा जाता है। एक तिल्ली से दो काम होते हैं। रात को
पीये बीड़ी के बचे टुकड़ों में से एक को जलाने के बाद उसी से
ढिबरी भी जलाती है।
उठने लगती है तो कई बार बिस्तर में पसरी बिल्लियाँ कुरते और
सलवारों के पंजों में नाखून गड़ाए रखती हैं। गुस्से से छुड़ाती
है और झटके से उन्हें नीचे फेंक देती है। अम्मा कितने ही जोर
से क्यों न फेंके वह सीधी गिरती है। अम्मा जानती हैं बिल्लियों
को यह वरदान भगवान ने दिया है। उनकी पीठ नहीं लगती। ...फिर
दो–चार गालियाँ ...
"सालियो, तुम दूसरी बार आणा बिस्तर में। जान न निकाल दी तो
बोलणा। सारी–सारी रात चूहे सिर पर दौड़ते रहते हैं और तुम
चुपचाप बिस्तर की गर्मी में खर्राटें मारती रहती हो। छि . .. .छि
...ठहरो तुम ...।"
...और बिल्लियाँ वहीं कहीं अँधेरे की ओट में छिप जाती हैं।
माँ बेटी हैं बिल्लियाँ। सफेद और काले रंग की। कई बार धोखा लग
जाता है कि छोटी कौन–सी है। एक का नाम काली और दूसरी का नाम
निक्की। पुकारो तो नाम सुनती हैं।
कई बार अम्मा उन दोनो को पौड़े की छत पर ओडू से ऊपर धकेल देती
है और नीचे से ढक्कन बंद। बहुत देर तक उसमें बैठी
म्याऊँ–म्याऊँ करती रहती हैं। पर मजाल कि अम्मा ढक्कन खोले। छत
पर अम्मा ने छोलकर मक्कियाँ रखी हैं। इसके अम्मा को दो फायदे
हैं। एक तो वे सूख जाती हैं और दूसरा सड़ने से बची रहती हैं।
अम्मा के लिये आँगन में सुखाना उन्हें वारा नहीं खाता। भगवान का
क्या पता कब बरस जाए। कब आँधी–तूफान आ जाए। अकेले बाहर–भीतर
लाना–छोड़ना अम्मा के बस के बाहर है। जब अम्मा को पिसाने के
लिये
दाने चाहिए हों तो दस–बीस मक्कियाँ निकालकर बोरी में भर देती
है। बोरी के मुँह में रस्सी बाँधे उन्हें एक मोटे डंडे से तब
तक पीटती रहेगी जब तक दाने और गुल्ले अलग–अलग न हो जाएँ। छत पर
काफी आगे अम्मा बीज के लिये भी मोटी और दानेदार मक्कियों का ढेर
लगाए रहती है।
छत पर अम्मा रात को ही नहीं जाती। डरती है। वैसे बिल्लियों की
छेड़ और उनकी बास से साँप या दूसरे किसी काटने वाले कीड़े का भय
नहीं रहता, पर अम्मा का बहम कौन टाले। दूध का जला छाछ को फूँक–फूँककर पीता है। आज भी अम्मा सुनाती है कि एक बार खपरैल की
छान से भीतर काला साँप कैसे घुस आया था। जैसे ही अम्मा छत पर
चढ़ी कि उसने फुंकार भर दी और अम्मा उलटे पाँव पौड़े पर। कई पल
साँस ही नहीं निकली। बड़ी मुश्किल से भगाया था।
मक्कियों के अलावा अम्मा कई – कुछ छत पर रखे रहती है। पीछे की
तरफ पुरानी ऊन, गाँठें, दो–तीन टूटी हुई लालटेनें, एक–दो टूटे
छाते, खाली बोतलें, प्लास्टिक और रबड़ के पुराने जूते तथा दूसरी
तरफ आठ–दस पुल्लियाँ शेल, उसे बटने का कुटुआ, बटे हुए पशुओं
के गलांवे और रस्सियाँ, जोच और छिकड़ियाँ। बीऊल के छट्टों के
बंडल भी अम्मा छत पर ही रखती है। अम्मा बरसात और सर्दियों में
इनके बिना आग नहीं जलाती। इसलिये गर्मियों में ही हरे छट्टों को
बाँधकर सूखने के बाद उन्हें दूर खड्डे में दबा देती है तथा
गाँव की एक–दो औरतों की ब्वारी से उन्हें तैयार होने पर फान
लेती है। अम्मा के दो काम निपट जाते हैं। पहला छट्टे जलाने के
लिये तैयार हो जाते हैं और दूसरा कफी पुल्लियाँ शेल निकल जाता
है।
अम्मा के बिस्तर पर बड़बड़ाते ही ओबरे में गाय बोल पड़ती है।
हालाँकि गोशाला काफी दूर है लेकिन इन दोनों के बीच की करीबियाँ
कितनी है। यह उनकी बातों से पता चलता है। गाय क्या कह रही है,
क्या चाहती है, यह अम्मा बखूबी समझती है। बिस्तर से ही उसे
समझाती रहती है। कई बार डाँट भी देती है, "हल्ला मत मचा न
चाम्बी। उठने तो दे। पहले तेरा ही सोचूँगी।"
दुधारू गाय है। जानती है अम्मा तड़के उसी को दुहेगी। रसोई में
जाते ही अम्मा उसके लिये चोकर तैयार करती है। कई बार दुकान से
चोकर न मिले तो आटे के खेरड़ से ही काम चलता है। कुछ छलीरा लेकर
उसमें बासी रोटियाँ डालकर लस्सी छिड़क देती है। फिर एक मुठ्ठी
नमक और हाथ से उसे खूब घोल देती है। रात की बची एक आधी रोटी भी
साथ ले जाती है ताकि दूसरे पशुओं को भी टुकड़ा दे दे। गाय को
चोकर या खेरड़ खाते देख भला दूसरे कहाँ मानेंगे।
अम्मा के ओबरे में एक जोड़ी बैल, एक बच्छिया और दो भेड़ें हैं।
गाय का खूँटा दरवाजे से भीतर जाते दाईं ओर है। उसके साथ ऊपर
बच्छियाँ बँधी रहती हैं। थोड़ा इधर भेड़ें और दरवाजे के बाईं ओर
दोनों बैल। दीवार के साथ पीछे बाँस की सीढ़ियाँ रखी हैं जिससे
अम्मा चांगड़ में जाती है। अम्मा ओबरे के चांगड़ को हमेशा घास से
भरा रखती है ताकि हारी–बीमारी या मौसम खराब होने पर पशु भूखे न
रहें। घास के साथ एक ओर दो–चार किलटे और एक–दो डालें भी रखी
रहती हैं।
दूध दुहने के बाद अम्मा सीधी रसोई में चली आती है। अब
बिल्लियों और अम्मा का झगड़ा जमकर होता है। दोनों बिल्लियाँ घर
की स्पील पर बैठी अम्मा की बाट निहारती रहती हैं। जैसे ही आँगन
में अम्मा उतरेगी, वे दोनों आगे–पीछे, टाँगों के बीच से भागती
रहेंगी। अम्मा खूब चिढ़ती है। गालियाँ देती है। पर वे कहाँ
मानने वाली। जानती हैं पहले दूध उन्हें ही मिलेगा।
म्याऊँ–म्याऊँ से सारा घर ही जगा देती हैं। अम्मा रसोई में
जाते ही पहले उन्हीं के बर्तन में बाल्टी से दूध उड़ेल देती है।
अब अम्मा को आग जलानी है। मौसम अच्छा हो या गर्मियों के दिन,
तो अम्मा ओबरे के पास से ही हाथ में सूखी घास ले आती है। और
सर्दी या बरसात में बीऊल की लकड़ी की एक–दो पाँखें चूल्हे में
पिछली रात दबाई आग के बीच ठूँस देती है। अम्मा सोने से पहले
चूल्हे की आग को चाव से दबा देती है ताकि बुझ न जाए। अंगारे कम
हों या फिर बुझने का अंदेसा हो तो अम्मा सूखे उपले को उनमें
ठूँस देती है ताकि आग न बुझे। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि अम्मा
के चूल्हे में आग बुझ गई हो। अम्मा कहती है घर में आग बुझना
बुरा होता है।
अम्मा चिमटे से आग के अंगारों को खरोड़ती है। फिर उस पर घास या
लकड़ी डालकर उनके जलने का इंतजार करती है। अम्मा को फूँक मारकर
आग जलाना नहीं सुहाता। खाँसी लगती है। भीतर इस तरह कई–कई
मिनटों तक धुएँ का साम्राज्य छा जाता है। धुएँ ने दीवारें खूब
काली कर दी हैं। बरसों से ऊपर और आर–पार जाले पड़े हैं। इनमें
और अम्मा में कोई अंतर नहीं दिखता। अम्मा भी धुएँ–जैसी हो गई
है। कोई देखे–सुने तो कई भ्रम लगते हैं, जैसे यह धुआँ लकड़ियों
का न होकर अम्मा के भीतर जल रही किसी चीज से उठ रहा हो।
बिना घड़ी समय आँकना अम्मा को बखूबी आता है। घर में न घड़ी हैं
और न मुर्गा, जैसे अम्मा को अँधेरे की आहटों का पूरा ज्ञान हो।
चाँद और तारों की छाँव से समय की परख कोई अम्मा से सीखे। सूरज
की चाल पर समय बताना अम्मा के बाएँ हाथ का खेल है। सुबह एक ही
समय उठना अम्मा की आदत है। इसलिये चिड़ियाँ भी धोखा खा जाती हैं
कि पहले वे उठती हैं कि अम्मा। चिड़ियों से अम्मा की खूब पटती
है। जैसे उनकी भोर अम्मा के ही आँगन में होती हो। ओबरे और रसोई
का काम निपटाने के बाद अम्मा उन्हें दाना डालना नहीं भूलती।
अम्मा ने चावल का चूरा, बथ्थू, कोदा इत्यादि अलग से ही रखा होता
है। घर के दोनों तरफ पेड़ की टहनियों में बहुत नीचे चिड़ियों को
पौ लगाती है अम्मा। विशेषकर गर्मियों में, ताकि चिड़ियों को
पानी मिलता रहे। इसके लिये कुम्हार से हर वर्ष मिट्टी की
डिबड़िया अम्मा मँगवा रखती है।
गाँव तक चिड़ियों को बुलाने की आवाज सुनाई देती है। भले ही वे
आसपास चहक रही हों, अम्मा दाना फेंकते उन्हें जोर–जोर से
बुलाया करती है, "चिडू आओ, चिड़िया आऽऽओ।"
दाना खाती चिड़ियों को बिल्लियाँ न झपटें, इसका अम्मा विशेष
ध्यान रखती है। जब तक उनका दाना खत्म न हो जाए, वह दरवाजे की
दहलीज पर बैठी बीड़ी पिया करती है या फिर रसोई में उन्हें दूध
दे देती है ताकि बाहर न आएँ।
अम्मा के अकेलेपन का विचित्र संसार है। सुबह से शाम तक अम्मा
कहीं–न–कहीं, किसी-न-किसी के साथ व्यस्त रहती है। अकेलेपन के
अनेक सहारे पाल लिये हैं अम्मा ने। ऐसा कोई बच्चा गाँव का न
होगा जो अम्मा के यहाँ गुड़ की डली या मक्खन–रोटी न खा जाता
हो, ऐसी औरत न होगी जो पानी–पनिहार, घास–लकड़ी को आते–जाते
अम्मा के आँगन बैठ बीड़ी का कश न मार जाती होगी, ऐसा कुत्ता न
होगा जो अम्मा के दरवाजे टुकड़ा न खा जाता होगा और ऐसी चिड़िया न
बची होगी जो अम्मा का दाना न चुग जाती होगी। पशु भी आते–जाते
उसका आँगन झाँक ही लेते हैं।
अम्मा कभी बीमार होती है तो गाँव की लड़कियाँ या औरतें अम्मा का
काम निपटा जाती हैं। पानी–पनिहार से लेकर घास–पत्ती तक। बीमारी
में अम्मा को न गाय तंग करती है, न बिल्लियाँ और न ही चिड़ियाँ।
न अम्मा किसी से झगड़ती है। अम्मा को जुकाम अक्सर होता रहता है।
ऊपर से सिरदर्द। गाय ही अम्मा के बालों को और माथे को चाटकर
सहलाती है। बिल्लियाँ आसपास ही चुपचाप या तो बैठ जाती हैं या
फिर अम्मा के पाँव या हाथ चाटती रहती हैं। चिड़ियों का दल पौ
लगे पेड़ों पर चहचहाते हुए फुदकता रहता है, जैसे वह भी बेबस
अम्मा के आसपास आकर रहें, पर बिल्लियों के डर से वह नहीं आतीं।
...इन सभी की दुआओं से ठीक होती होगी अम्मा।
पिता को मरे चार बरस हो गए हैं। उन दोनों के एक बेटा था और एक
बेटी। बेटी का छोटी उम्र में ब्याह कर दिया। बेटे को खूब
पढ़ाया–लिखाया। उसके पिता की जिद्द रहती कि एक ही बेटा है, इसे
अफसर नहीं बनाया तो हमारा कमाना व्यर्थ है। उसे खूब
पढ़ाया–लिखाया। हजारों कर्जा सर पर ले लिया। एक–दो खेत रेहन रख
लिये। कालेज पूरा हुआ तो नौकरी भी लग गई। लेकिन उन बूढ़ों को यह
भनक भी न लगी कि शहर के तौर–तरीकों और चटक ने उसे उन दोनों से
बहुत दूर कर दिया है। उसका रिश्ता अपनी माटी से कटता गया।
फासले बढ़ते चले गए और एक दिन जब उन दोनों को यह खबर मिली कि
उसने शहर की किसी लड़की से ब्याह कर लिया तो बेचारे गाँव में
किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहे।
कई दिनों बाद बेटा बहू को लेकर गाँव आया तो दो–चार दिनों बाद
वापिस शहर लौट गया। बहू क्या जाने गाँव का रहना कैसा होता है।
उसे तो यहाँ कैदखाना हो गया। मिट्टी–गोबर की बास और बूढ़ों का
रहन–सहन उसे नहीं भाया। अम्मा–पिता के अरमान थे, बहू आएगी तो
उनकी टहल–फाजत करेगी। अम्मा के खोये दिन लौटेंगे। खूब खेती
बाड़ी होगी। पशुओं से फिर ओबरा भर जाएगा। गाँव के सरीकों के बीच
इज्जत–परतीत बढ़ेगी। उनका दुख–दर्द भी देखेगी। पोते–पोतियों को
अम्मा दिनभर खिलाती रहेगी। घर–आँगन में खुशियाँ–ही–खुशियाँ।
पिता ने तो बेटे की शादी के लिये कई जगह रिश्तों की बात भी चला
दी थी। सोचा करते कि एक ही एक बेटा है। ऐसी शादी रचाऊँगा कि
सरीक देखते रह जाएँगे। ...और वह देखते ही रहे।
अम्मा ठीक भी जल्दी हो जाती है। फिर वही दिनचर्या। वही
काम–काज। सुबह से शाम तक कहीं–न–कहीं व्यस्त होती है अम्मा। कई
बार गाँव की कोई औरत या मर्द भी टोक देता है –
"देवरू काकी, क्यों अपने अंग–प्राण तुड़वा रही हो। बेटा हर
महीने पाँच सौ भेजता है। आराम कर।"
और अम्मा तड़ाक से जवाब दे देता है, "काम से कोई नहीं मरता रे।
जब तक शरीर में प्राण है चलणा तो है ही। फिर इतणी जगह–जमीन,
गाय–बैल बरबाद तो नहीं किए जाते।"
कभी परधान या कोई ठाकुर ताना कस देता, "देवरू! बेच दे
जगह–जमीन। दे दे इन गाय–बैलों को। बहू–बेटा तो गाँव आएँगे
नहीं। इन्हें रखकर क्या करेगी। तेरे से चला तो नहीं जाता अब।"
अम्मा इनकी चाल समझती है। जगह–जमीन पर इनकी नज़रें हमेशा से लगी
रही हैं। पर अम्मा के आगे टिकना मुश्किल है। कह देती है,
"परधान जी, इतने तो अभी और पाल सकती हूँ।" नौकरी–चाकरी तो चार
दिनों की है। बेटे ने कमा के घर ही आना है। इसकी चिंता मैं
करूँगी तुम अपना काम निभाओ।"
अम्मा समझती है, उनके मरने के बाद इन्हीं गिद्धों के काम आएगी
यह खेती। नोच लेंगे टुकड़ा–टुकड़ा। बेटे को तो कोई परवाह है
नहीं। गाँव–गाँव ही होता है। अपना–अपना ही। नौकरी चार दिनों की
है। आदमी की इज्जत–परतीत तो घर से होती है।
डाकिया कई बार अम्मा को बेटे का मनीऑर्डर थमाते शहर के किस्से
सुना जाता है। पिता के मरने के बाद हर माह बेटा अम्मा को पाँच
सौ भेजता है। पर अम्मा के अकेलेपन को वह रुपए कितना बाँट पाए
हैं, यह कोई अम्मा से पूछे। अम्मा का मन नहीं करता किसी से कुछ
लेने का, पर गाँव–बेड़ में इज्जत रहे, इसलिये ही पकड़ लेती है
पैसे। अम्मा का खर्चा तो उसकी खेती और गाय ही दे देती है।
अम्मा को डाकिये की बातें कई बार अकेले में याद आ जाया करती
है। वह डर जाती है। शहर में कितनी बेचैनी बढ़ गई है। रोज
कुछ–न–कुछ घटता ही है। दंगे–फसाद होते हैं, लाठियाँ–गोलियाँ
चलती हैं। इन सभी के बीच उसके बेटे–बहू कैसे रहते होंगे। पोतू
स्कूल कैसे जाता होगा। इसलिये अम्मा को अपना गाँव बहुत भला लगता
है। कहीं कुछ नहीं घटता। शांति है। चैन है। न दंगे–न–फसाद। न
लाठियाँ न गोलियाँ ...पर कोई क्या समझे कि अपने आप में अम्मा
कितनी आतंकित रहती है। माँ का दिल है न ...बेटा दूर ही क्यों
न हो, बहू नफरत ही क्यों न करें, अम्मा अक्सर उन्हें याद किया
करती है।
अम्मा साठ के करीब हो गई है। अपने शरीर की कभी परवाह नहीं की।
फटे–पुराने कपड़े जब तक चिथड़े–चिथड़े न हो जाएँ, उतरेंगे नहीं।
बाल अनधोये बिखरे रहते हैं जिन्हें अम्मा एक फटे हुए दुपट्टे
से पीछे की तरफ बाँधे रखती है। कई बार सोचती भी है कि सिर नहा
ले, पर समय ही कहाँ मिलता है। कभी–कभार गाँव की कोई औरत या
ससुराल से बेटी आकर धुला जाती है तो अम्मा को कई दिनों चैन
रहता है।
साल–फसल के दिन तो अम्मा के लिये खूब व्यस्तता के होते हैं।
अम्मा की बुवाई–गुड़ाई ब्वारी से ही चलती है। अम्मा की मदद के
लिये पूरा गाँव ही उमड़ पड़ता है। सभी जानते हैं कि अम्मा
आदर–खातिर में कसर नहीं छोड़ती। कई बार छोकरे–छल्ले अम्मा से
मजाक कर लेते हैं, "देख काकी, हम तो तेरी गुड़ाई या गोबराई में
तभी आएँगे जब तू पौवा–शौवा पीने को देगी।"
अम्मा झट से झाड़ देती है, "मुए शर्म करो। मुँह से तो दूध की
बास नहीं गई, बोतल पूरी चाहिए। पौवा–शौवा कुछ नहीं मिलेगा।"
सभी जानते हैं कि आज के जमाने घी कहाँ मिलता है। पर अम्मा की
गुड़ाई–गोबराई में यह परंपरा टूटी नहीं। खूब घी–शक्कर मिलता है।
अम्मा को याद है जब मक्की बड़ी होती तो खूब गुड़ाई लगती। घर में
बेटा होता, उसके पिता होते और ब्याही हुई बेटी। ऐसी गुड़ाई कभी
न लगी हो जब तीस–चालीस ब्वारे न आए हों। अम्मा की गुड़ाई बिना
ढोल–शहनाई के कभी नहीं हुई। पिता शहनाई के माहिर थे।
गाँव–परगने में तकरीबन सभी ब्याह शादियाँ, जातरें और गुड़ाईयाँ
उन्हीं की शहनाई से निपटती थीं। गुड़ाई में तो अम्मा भी साथ
रहती। उन्हें पिता के साथ विशेष तौर से गुड़ाई में बुलाया जाता।
झूरी गाने में मजाल कि उनका मुकाबला कोई कर सके।
अपनी गुड़ाई का तो आनंद ही कुछ और रहता। पिता शहनाई पकड़ते। उनका
जोड़ीदार ढोल और अम्मा कभी 'झूरी' तो कभी 'जुल्फिया' गाती।
अम्मा की आवाज मक्कियों के खेतों को चीरकर दूर घाटियों में
टकरा जाती। खेत मानो जवान हो गए हों। घाटियाँ गूँज गई हों।
बरसात के बादल उमड़ते–घुमड़ते हुए मस्ती में झूम रहे हों। रिमझिम
बरखा और लोगों का अनूठा जोश, वातावरण को नया रंग दे गया हो।
झूरी के बोल खत्म होते ही पिता की दूर से आवाज आती,
"शाबाशेऽऽ।"
आज भी अम्मा को गाँव की औरतें अपनी गुड़ाई में मजबूर कर देती
हैं कि वह एक–आध बोल झूरी के गा दे, पर अब वह पहले जैसा जोश
कहाँ। हिम्मत कहाँ। वह मना कर देती है। कहती, "अरे अब तो
साँस
तक नहीं लिया जाता, गाना तो दूर।"
साँस अम्मा ले भी कैसे। पर यह बात भला दूसरा कैसे जान सकता है
कि अम्मा भीतर ही भीतर कितनी जल रही है। पर औरतें मानेगी कहाँ।
फिर अम्मा मान भी जाती है, पर गाया नहीं जाता। दबी हुई आवाज
में बोल ऐसे निकलते हैं जैसे किसी अनजान आदमी ने कोई राग
गुनगुनाना शुरू कर दिया हो। गाते–गाते खाँसी के आठ–दस चक्कर,
आँखें लाल जैसे अम्मा के प्राण ही निकलने लगे हों। ....पर
अम्मा के जख्म तो हरे हो गए हैं। खाँसते–खाँसते उनकी आँखें
पूर्व स्मृतियों से भर आती है। वह मुड़कर देखती है, जैसे पिता
हाथ में शहनाई लिये दूर से कहने लगे हों, "लाड़ी। हो जाए एक झूरी।"
पर पिता है कहाँ ...चार बरसों का अंतराल, जैसे कल ही की बात
हो। विश्वास ही नहीं होता पिता नहीं रहे हैं। अम्मा को उनकी
यादें अक्सर सताती है। रुलाती है। ...वहीं तो एक आसरा था
अम्मा के लिये।
रात को कई बार अम्मा को लगता है, पिता दूसरी चारपाई पर हैं।
जिस कमरे में अम्मा सोया करती है, पिता की चारपाई उसी में थी।
अब भी चारपाई वहीं है। अम्मा ने बदली नहीं। जैसे वह चारपाई भी
उनके अकेलेपन को बाँटती है। अम्मा कई–कई बार रात को पिता के
लिये तंबाखू भरकर लाया करती। पिता का हुक्का आज तक चारपाई के
सिरहाने वैसा ही है। दूसरे–तीसरे दिन अम्मा राख से उसे अवश्य
माँज लेती है। उसका पानी बदल देती हैं। कोई गाँव का बुजुर्ग आ
जाए तो उसी में तंबाखू पिलाती है। काँसा इतना नया जैसे रेत पर
चाँदनी खनक रही हो।
कभी रात को अम्मा आधी नींद में उठकर धोखा खा जाती है। पिता
सोये हुए अक्सर ऊपर ओढ़ी रजाई नीचे फेंक दिया करते थे। अँधेरे
में अम्मा को पिता की सांसे सुन पड़ती हैं। चारपाई पर हरकतें
होती दिखती हैं। वह उठकर अँधेरे में हाथ से छूती है तो वहाँ
बिल्लियाँ सोई रहती है। अम्मा उन्हें नहीं छेड़ती। चुपचाप लौटकर
बिस्तर में घुस जाया करती है। बिल्लियाँ कई बार ऐसा ही करती
है। वह जब अम्मा के बिस्तर में नहीं जातीं तो पिताजी की चारपाई
के बीच सोई रहती हैं।
अम्मा का विश्वास है पिता की अल्पमृत्यु हुई हैं। उन्होंने
अचानक प्राण छोड़ दिये थे। कई बार सपने में आते हैं। कहते हैं,
"लाड़ी! हरिद्वार–पोहा करवा ले। मेरे प्राण बीच में अटके हैं।"
अम्मा क्या करे। कैसे करवाए। घर से बाहर परदेस है। सोचती है,
पित्तर बिगड़े तो कभी सुख शांति नहीं होती। यह बात अम्मा को
बराबर कचोटती है।. भीतर–ही–भीतर सालती है। बेटे को
'पित्तरदोष' लगा है। अम्मा एक बार 'मशाण' जगानेवाले के
पास गई थी। उस आदमी को पितरों को बुलाने में महारथ हासिल थी।
इतना गुणी कि सात
पीढ़ियों के पित्तर बुला देता।
अम्मा ने भी पूछा तो पिता आए थे। अम्मा सुनाती है, उनकी वही
जुबान, वही बोलचाल, जैसे काली चदर के नीचे मशाण जगानेवाला नहीं
बल्कि खुद पिता बैठे हों। कहने लगे, "लाड़ी! तुम्हारे से कोई
गिला–शिकवा नहीं। बेटे के पास मन अटका है। उसे ही भेजना।"
पर कैसे भिजवाए बेटे को। शहर ही का होकर रह गया है। उसकी बला
से कुछ हो। भुगतेगा, जब पानी सर से चढ़ जाएगा।
आँगन में बाँधे बैल चौथे–पाँचवें दिन खूँटा जरूर उखाड़ देते
हैं। एक दिन ऐसा ही हुआ। धूप में सोई अम्मा को भेड़ का मिमियाना
सुनाई दिया तो उठ गई। भेड़ अम्मा की अच्छी इनफौरमर है। अम्मा को
उसी से पता लगता है कि भीतर या बाहर किसी पशु ने खूँटा उखाड़
दिया है। जब भी कोई खुलता है तो वह डरकर मिमियाने लग जाती है।
अम्मा के बैल बहुत शरीफ है पर कई दिनों से आपस में लड़ने लगे
हैं। एक–दूसरे से दोनों को इरख हो गई है। अम्मा ने उठते ही भेड़
की तरफ देखा। वह खूँटे के चारों ओर डर से मारे घूम रही थी।
रस्सी का फंदा लग गया। अम्मा के नजदीक पहुँचते ही धड़ाम से गिर
पड़ी। अब बैल संभाले या भेड़। बैल को जोर से याड़ दी तो उल्टा
सींग मारने दौड़ आया। अम्मा के हाथ एक मोटा डंडा न लगता तो खेत
में फेंक दी गई होती। अनर्थ। अपशकुन। जरूर किसी ने कुछ कर दिया
है। वरना अम्मा के पशु की मजाल कि उसकी न सुने। पहले जैसे–कैसे
डराते हुए उसे ओबरे में भगाकर बंद कर दिया। फिर भेड़ की रस्सी
दरांती से काट दी। कई बूँदे पानी उसके मुँह में डाली तो
जान–में–जान आई।
अम्मा के लिये खूँटों की परेशानी हमेशा रहती है।
खूँटा नहीं
गाड़ा जाता। ओबरे के आँगन की बीड़ पर तब तक बैठी रहती है जब तक
कि कोई गाँव का मर्द या छोकरा–छल्ला दिख न जाए। इस बार देवता
का पुजारी दिखा। जोर से हाँक दी तो वह खेती से ही ऊपर चढ़ आया।
नजदीक पहुँचा तो अम्मा ने माथा टेककर सुख–सांद पूछी। बैठने को
पटड़ा दिया और साथ एक बीड़ी भी दे दी। पुजारी ने जितनी देर में
बीड़ी सुलगाई, अम्मा भीतर से घण लेकर पहुँच गई।
"पंडजी सबसे पहले तो खूँटा गाड़ दो। इस बैल ने तो आज जान से ही
मार दी थी।"
उसने कंधे से पट्टू पटड़े पर फेंक दिया और घण लेकर खूँटा ठोंकने
लग गया। खूँटा लगा तो अम्मा को चैन आ गई। पुजारी ने आँगन में
दूसरे खूँटों पर एक–एक ठोंक दी ताकि पक्के हो जाएँ।
"ऐसा कभी नहीं हुआ था पंडजी। आप जरा कुछ खोट–दोष देख दो,"
अम्मा कहने लगी।
यह कहते अम्मा भीतर गई और उल्टे पाँव लौट आई। काँसे की थाली
में कुछ कणक के दाने पुजारी को थमा दिये। वह पटड़े पर चौकड़ी
मारकर बैठ गया। काँसे की थाली उल्टी जमीन पर रख दी। उस पर दाने
ढेरी में एक तरफ रखे। फिर उठाए और अम्मा को कहा कि फूँक मार
दे। अम्मा ने वैसा ही किया। पुजारी ने दोनों को कुछ देर मुठ्ठी
में बंद रखा। मुँह के पास ले जाकर मंत्र का जाप किया।
देवी–देवताओं का नाम लिया और फिर थाली की पीठ पर डाल दिये।
बारी–बारी दानों की गिनती शुरू हो गई। अम्मा सामने उकड़ूँ बैठी
एकटक देखती रही। मन–ही–मन देवता का नाम भी जपती रही।
पुजारी का चेहरा लाल हो गया। जैसे देवता आ रहा हो। नीचे से तीन
बार दाने उठाकर अम्मा को दिये। तीनों बार पाँच–पाँच आए। अम्मा
जानती है, चार और पाँच दाने रक्षा के होते हैं जबकि छः दाने
दोष–खोट के। दाने पकड़ाते पुजारी ने समझाया, "देख देवरू! कुछ गल
जरूर है। कल जेठी संक्रांत है। तू कोठी के पास अवश्य आना।
देवता लाभ देगा। तू हाथ–पाँव धोकर आज कलदेवी को धूप जलाना।
गौंच–गंगाजल छिड़क देना। कुछ दाने बाहर–भीतर फेंकना और कुछ आटे
की पिन्नी में बैल को
खिला देना।" पुजारी यह कहते–कहते उठकर
चला गया।
अम्मा ने वैसा ही किया। दूसरे दिन का इंतजार मन में बैठ गया।
सोचती रही जरूर कुछ बात है। देवता की कोठी में वह अवश्य जाएगी।
पंची करवाएगी। अपने साथ बहू–बेटे के लिये भी पूछेगी कि उनका घर
से मुँह किसने फिरवा दिया। किस दुश्मन ने भूत फेंक दिया।
दूसरे दिन अम्मा ने जल्दी–जल्दी घर का काम निपटाया। देवता की
कोठी अम्मा के मकान से फर्लांग भी नहीं है। बिल्कुल दरवाजे के
सामने। बाहर निकले तो सीधी नजर देवता पर जाए। इसलिये अम्मा कभी
आँगन में जूठ–परीठ नहीं फेंकती। हमेशा गंगाजल या गौंच छिड़क
दिया करती है। घर–गृहा पवित्र रहे तो मन को शांति रहती है। पर
अम्मा के मन को शांति मिली ही कब?
तीन बजे अम्मा रोट–धूप
लिये कोठी के पास चली गई। पहुँची तो
दीवाल के बाहर जूते उतार दिये और जहाँ औरतों के बैठने की जगह थी
वहाँ चुपचाप बैठ गई। पहले देवता को माथा टेका। फिर रोट की
ठाकरी एक कारदार के पास थमा दी। कारदार ने रोट बाहर भैरों के
लघु मंदिर के पास उल्टा दिया। तीन ऊँगली रोट उठा चारों तरफ
अम्मा के नाम से देवता को फेंक दिया और पीछे से गौंच के दो–चार
छींटे। फिर कुछ चावल और एक फूल ठाकरी में डाल वह अम्मा को लौटा
दी। अम्मा ने फिर हाथ जोड़े।
चुपचाप बैठी अम्मा की नज़रें कोठी के आँगन में थी। कारदार
इकठ्ठे होने लगे थे। देवता का बजंतर बाहर निकाल दिया था।
नगारची ने नगाड़ा, ढोलिये ने ढोल, चांबी ढोल वालों ने एक–एक
चांबी, नरसिंगे वाले ने नरसिंगा और करनालची ने करनाथ थाम ली
थी। शहनाइयाँ अब नहीं थीं। अम्मा को वह खालीपन भीतर तक काट गया।
पति याद आ आए। वही देवता की हर रस्म अपने परिवार से कारदार के
रूप में निभाते थे। पति ही देवता के शहनाइये थे। हर संक्रांत
को, हर जातर में और हर देवता के काम में उनकी हाजरी रहती।
अम्मा को लगा कि जैसे वह अभी कहीं से आएँगे। बजंतरियों के बीच
बैठने से पहले हाथों से देवता को प्रणाम करेंगे और फिर थैली से
शहनाई निकालकर पत्ता ठीक करने लग जाएँगे। फिर चिंचियाएँगे और
उनके स्वर के साथ ढोलिया भी अपना स्वर ठीक करने लग जाएगा।
अब पति नहीं हैं तो कोई देवता का शहनाइया भी नहीं। अम्मा की
आँखें भर गई हैं।
पंची शुरू होने लगी है। अम्मा आगे खिसक गई। पुजारी कोठी से
बाहर आया तो अपने आसन पर बैठने से पहले इधर–उधर नजरें दौड़ाईं।
अम्मा ने दूर से ही प्रणाम कर दिया। कोठी के आँगन में पूरब की
तरफ बैठता है पुजारी। दाएँ–बाएँ दो कारदार यानि पंच। सामने तीन
अलग–अलग देवता के गूर। पंचों ने एक थाली में, धूप, चावल,
सिंदूर और दो–तीन डलियाँ गुड़ की अपने पास रख लीं।
जंग शुरू हुआ। ढोल–नगाड़ा और दूसरे बाजे खनके। लोगों की नज़रें
केंद्रित हो गईं। अम्मा को ऐसा ही होता है जब देवता का जंग
शुरू हो जाता है। सारे वाद्य यंत्र जब एक साथ बजते हैं तो
वातावरण में जैसे एक अजीब–सा जोश भर आता है। बीच–बीच में एक
कारदार रोट यानि आटे की चुटखियाँ उठाकर चारों तरफ फेंक देता है
और पीछे से गौमूत्र के छींटैं।
पुजारी में कँपकँपी होने लगी। मुख्य गूर भी जुजारी ही हैं।
देवता आने लगा। बजंतर और भी तेज हो गया। हाथ श्रद्धा से जुड़
गए, सिर झुक गया और देवता पूरी तरह आ गया।
देवता आता है तो पुजारी जोर से जमीन पर हाथ मार देता है,
"रख्खे ..."
सभी ऐसा ही कहते हैं। पंच चावल या कणक के मुठ्ठी भर दाने
पुजारी के कँपकँपाते हाथ में डाल देता है। पुजारी कई बार हवा
में रक्षा के दाने उछालता है।
पंची शुरू हो गई। अम्मा का कलेजा फटा जा रहा है। हाथ रखती तो
झटक जाता। कितनी बेचैनी। कितना भय। देवता ने खुद अम्मा को हाँक
लगाई तो वह चौंककर खड़ी हो गई," आगे आ जा देवरू।"
एक कारदार झटपट अम्मा को नजदीक लाया। देवता जोर से खेला। खूब
किल्कें दीं। शंगल कूटा। अम्मा इस बीच चुपचाप खड़ी रही। पर भीतर
एक तूफान था। आज सब कुछ कह देगी देवता से। सबकुछ माँगेगी ...कितना कुछ है अम्मा के मन में
माँगने को। एक बात होती तो
पूछे, अम्मा के पास तो प्रश्न–ही–प्रश्न हैं। दुख–ही–दुख हैं।
सभी प्रश्न आँखों में तैर आए। छलछला गईं आँखें ...देवता ने
पढ़ ली होंगी। वह तो मन की बूझता है।. उसके पास भला क्या
छुपाना?
"बैल ठीक है न?"
"तेरी रक्षा है देवा।"
"ये लो मेरे रक्षा के चावल। आँगन के चारों तरफ फेंकना। जा
...आज के बाद तेरा बाल बाँका भी न हो। काँटा भी न टूटे।"
अम्मा ने सिर झुका लिया। आँखों में तैरते हजारों प्रश्न दो
बूँदों में धरती पर आ गिरे। ...शायद देवता ने सहेज लिये हों।
देवता अम्मा को देखता रहा ...अपार श्रद्धा की देवी थी अम्मा।
बे–जुबान पशु, और देवता ही तो सहारे हैं। कोठी से बाहर निकली
तो कुछ औरतें दीवाल पर बैठी दिखीं। टोक दिया, "माल नजदीक है
देवरू, रोज माल गाने आया करियो।"
कुछ नहीं बोली अम्मा। चुपचाप चली आई।
घर पहुँची तो औरतों का बुलाना याद आ गया। माल याद आ गई। इस
पशुओं के त्योहार को कैसे–कैसे नहीं मनाती थी अम्मा।
पर मन नहीं करता कहीं आने–जाने को। वरना पहले कोई माल अम्मा के
बिना नहीं गाई जाती। आठ दिनों पहले शुरू हो जाती। कोठी के पास
कई घंटों देर रात तक औरतें गाती रहतीं। चाँदनी रात में दूर–दूर
तक गीतों की आवाज़ जाती। अम्मा उन्हीं के बीच रहती। माल गाती।
तरह–तरह के हँसी–मजाक करती। ठठोलियाँ करती। और आठवें दिन अम्मा
के पशु सजे–संवरे पानी के पास सबसे पहले पहुँचे होते। अम्मा ने
भुनी मक्कियों और अखरोटों की चन्नियों की झोली भरी होती। जो
भी
मिलता, उसे ही मुठ्ठी भर दिये जाती।
कल और आ रही है माल। अम्मा की माल तो पिछले बरस जैसी होगी।
निपट अकेली। कोई नहीं गाएगा। कोई नहीं आएगा। बिल्लियाँ होंगी।
एक गाय, दो बैल और दो भेड़ें। इन्हीं के बीच मनेगा अम्मा का यह
त्योहार। अम्मा गाएगी तो आवाजें मन की दहलीज से बाहर न
निकलेंगी, चारदीवारी से टकराकर रह जाएँगी।
मनानी तो है ही। कोई दूसरा त्योहार होता तो अम्मा टाल देती।
पशुओं का त्योहार बरस बाद आया है, इसे तो मनाना ही है। अम्मा
भूल गई थी कि हार के लिये बुंगड़ी और सरतवाज के फूल भी लाने हैं।
सतरवाज तो आँगन में खूब हैं पर बुंगड़ी के फूल दूर घासनी से
लाने होंगे। यही तो फूल हैं जो माल को पशुओं में सजता है।
हल्के अँधेरे में ही गई थीं अम्मा। सफेद फूल को चुनने में देरी
ही कितनी लगी होगी। झटपट लौट आई। चांगड़ से एक पुल्ली शेल
निकाले। सरतवाज के फूल तोड़े और चार–पाँच हार ढिबरी की रोशनी
में गूँथ दिये।
सुबह वही दिनचर्या थी। अम्मा उठी। आज का दिन तो पशुओं के नाम
है। कामकाज निपटाया। पहले छोटी बच्छिया खोली। उसे खूब हरा घास
खिलाया। आँगने में गोबर से लिपाई की। उसके मध्य आटे और हल्दी
से छोटा–सा मंडप बनाया। फूल रखे, जूभ लाई। पिन्नियाँ तड़के ही
बना दी थीं। एक कड़छी में आग के अंगारे भरे और उस पर थोड़ा घी
डाल दिया। धूप तैयार। बच्छिया को खड़ा किया। उसके पाँव धोये और
धूप से पूजा की।
फिर आबेरे में चली गई। हार बैलों और गाय के गले में पहना दिये।
हल्दी और चावल का हल्का पीला रंग गिलास के मुँह पर लगा सभी की
पीठ पर छापे लगा दिये। सजे धजे सुंदर लग रहे थे सभी। भेड़ों को
जरूर ईर्ष्या हुई होगी। वह कनखियों से गाय–बैलोंको निहार रही
थीं। अम्मा ने बहुत सारी आटे की पिन्नियाँ बनाई हुई थीं।
उन्हें भी एक–एक खिला दी। अनायास ही गीत के बोल मुँह से फूट
पड़े ...," माल लगी गाइए ...होऽऽमालो।"
गाँव से भी माल गाने की आवाजें आ रही थीं।
याद आ गई, जब सभी साथ होते। पिता सबसे पहले गाय पूजते। गोशाला
में बारी–बारी सबके पाँव धोते। पिन्नियाँ खिलाते जाते और गाँव
के पशुओं के लिये भी पिन्नियाँ ले जाते। शाम को खूब खाना–पीना
होता। कई–कुछ पकता। आज न
पति है न बेटा। बहू के लिये माल काला
अक्षर भैंस बराबर। यादों ने रुला दिया अम्मा को। अब अम्मा ऐसे
ही रोया करती है उठते–बैठते, काम करते, रोटियाँ पकाते, सोते और
जागते।
डाकिये ने आवाज दी तो अम्मा चौकस हो गई। बोला, "काकी चिठ्ठी
है।"
गोशाला से उल्टे पाँव दौड़ गई।
अम्मा को भला कौन लिखेगा चिठ्ठी। बेटे ने तो कभी दी नहीं। बेटी
ऐसे ही किसी आने–जाने वाले के पास राजीबंदा भेज देती है। जरूर
डाकिये को धोखा लगा है।
फिर भी पूछ ही लिया, "मेरी ...?"
"हाँ काकी, तेरी ही है। देख तेरा ही नाम लिखा है, पर अम्मा
कैसे पढ़े। डाकिए को ही कहती है कि पढ़कर सुना दे।
डाकिए ने ही बताया था कि, "काकी तुम्हारा बेटा आ रहा है .
.. .।"
चौंकी थी अम्मा, "मेरा बेटा ...?"
विश्वास नहीं हो रहा था कि डाकिया सच बोल गया। हाथ में खुली
चिठ्ठी भगवान हो गई अम्मा के लिये। जाते डाकिये को आवाज देना चाहती थी कि बहू
नहीं आ रही है उसके साथ, पर वह निकल गया।
कुछ मायूस हो गई। वह आएगी भी क्यों। उसकी क्या लगती हूँ मैं।
वह तो शहरी मेम है। गाँव नहीं भाता। गोबर–मिट्टी से बास आती
है। रसोई में धुआँ काटता है। लस्सी, खैरू नहीं खा सकती।
घास–पत्ती नहीं काट सकती। बैठने को कुर्सी नहीं हैं। घूमने को
बाजार। खुले में पाखाना नहीं कर सकती ...बेटे को भी मेम ही
ब्याहणी थी। किसी शरीफ खानदान की लड़की लाता तो सुख से रहता।
...मत आए कोई। ज्यादा कटी, थोड़ी रही। कितने दिन जीऊँगी। फिर
मर्जी करें। जमीन–जगह रखें चाहे बेंचें, मेरी बला से। पर जब तक
प्राण हैं चलाए रखूँगी। सह लूँगी सबकुछ।
शनीचर को देर रात आया था बेटा।
सड़क गाँव से बहुत दूर है। पैदल कोई सात मील चलना पड़ता है। बड़ी
आस लिये थी अम्मा। बरसों बाद माँ–बेटा एक साथ खाएँगे।
बेटा आया तो पहले सीधा अपने कमरे में चला गया। घर में एक कमरा
उन्हीं के लिये बंद रहता है। अम्मा ने कभी नहीं खोला। कपड़े
बदलकर काफी देर बाद आया। अम्मा ने ढिबरी की लौ और ज्यादा कर ली
थी। देखेगी कितना जवान हो गया है। कैसा लगता है। कमजोर तो
नहीं हो गया होगा?
कहीं पीछे चली गई है अम्मा। छोटा–सा था। स्कूल से आता ...बाहर बस्ता फेंकता
...पीठ पर चढ़ जाता। हाथ भी नहीं धोता ...रोटी खाने की जल्दी लगी रहती
...अम्मा आधी रोटी और मक्खन
देती ...खाकर गोद में सो जाया करता ...।
अब वह बड़ा हो गया है। साहब है ...आया तो पैरापावणा करके
चुपचाप चूल्हे के पास बैठ गया। अम्मा चाहती थी वह खूब गले लगे
...भरी आँखों से पूछे – क्या इतने दिनों माँ याद नहीं आई ...। कुछ नहीं हुआ। ऐसा नहीं
माँ रोई नहीं ...भीतर–ही–भीतर ...।
अम्मा ने चाय दे दी। फिर हाथ धोने को पानी। वह मुकर गया। बोला,
रोटी शहर से ही बाँध रखी थी। बस से उतरते ही खा ली।
उसके लिये इतना कहना सीधा था। अम्मा पर क्या गुजरी होगी, कौन
जाने। घुटकर रह गई। मानो बिजली छूट गई हो। ऊपर कोई पहाड़ गिर
गया हो। एक तूफान उठ गया भीतर। पर अम्मा आदी हो गई है। मन
आँधियों और तूफानों का ही तो घर है।
फिर बेटे ने ही चुप्पी तोड़ी थी।
"माँ सुबह चले जाना है। बहुत काम है। नन्हें को अंग्रेजी स्कूल
में दाखिल करवाना है। सिफारिश करवाई थी कुछ नहीं हुआ। अब पूरे
तीस हजार डोनेशन माँगते हैं।
अम्मा की समझ में अधिक कुछ नहीं आया। पर वह भाँप गई कि बेटा
पैसे को आया है।
फिर बोला, "माँ इस महीने पैसे नहीं दे सकूँगा।"
अम्मा ने विश्वास दिलाया, "तू फिक्र क्यों करता है। भगवान का
दिया मेरे पास बहुत है बेटा। तू अपना काम कर। अब के बाद भेजना
ही मत। मेरा खर्चा ही क्या होता है।"
सांत्वना दे गई अम्मा। लेकिन बेटे के मन में बात कहीं चुभ गई।
कुछ नहीं बोला। चुपचाप बैठा रहा। अम्मा भी कई पल चुप रही। बस
चिमटे से चूल्हे में यों ही आग खरोड़ती रही। इस चुप्पी में कई
सवाल छुपे थे। तरह–तरह के। फर्क इतना था अम्मा के पास जवाब हो
सकते हैं पर बेटा तो हर तरफ से खाली है। अम्मा ने जैसे उसका
चेहरा पढ़ लिया हो।
"नींद लगी होगी बेटा तुझे। बिस्तर बिछा आती हूँ।"
कुछ नहीं कह पाया वह। अम्मा उठकर चली गई। बिस्तर झाड़ा, चादर
बदली और पेटी से नई रजाई निकाल रख दी। कमरे को काफी देर तक
निहारती रही ...आश्चर्य हुआ। अपने ही घर का यह कमरा कितना
अजनबी–सा लगा था अम्मा को। मानो किसी अनजाने घर में पसर आई हो
वह भी उठ गया। थका हुआ–सा कितना मुरझाया हुआ चेहरा है उसका।
जैसे हजारों गम मन में घर कर गए हों। चुपचाप कमरे में चला आया
...हारा हुआ–सा। मन की बात भी न अम्मा से कह पाया। पास रहते
हुए भी कितना दूर हो गया है वह। सोचता रहा, कैसे जाएगा शहर।
खाली हाथ लौटेगा तो पत्नी टोक देगी। माँ से पैसे नहीं लाए।
कैसे फीस भरेगी। वह चालाक है। जानती है बुढ़िया का खर्च कितना
है। बेटा जो भेजता है उसे ऐसे ही रखती होगी। चार–पाँच सालों की
रकम कम नहीं होती। मिल जाए तो क्या हर्ज है।
कमरे में बहुत देर बैठा रहा। बेचैन। खामोश।
अम्मा ने कुछ भी नहीं खाया। कैसे खाती। बेटा इतने दिनों बाद
आया भी तो शहर से रोटियाँ लेकर। पकाई रोटियाँ उसी तरह ढँक दीं।
बीड़ी भी नहीं सुलगाई। अम्मा की चुप्पी फिर बिल्लियाँ ताड़ गईं।
काली चुपचाप चूल्हे के सेंक में घुर्राने लगी और निक्की अम्मा
की गोदी में चढ़कर गला चाटने लग गई। अम्मा जानती है जब उन्हें
शिकार नहीं मिलता, दूध के लिये यह दुलार ऐसे ही चलता है। अम्मा
ने उसे दाएँ हाथ से पकड़े रखा और दूसरे हाथ से बाल्टी से दूध
उनके बर्तन में उड़ेल दिया। खूब सारा। दोनों छप्प–छप्प पीने लग
गई। पहले से ज्यादा दूध उड़ेल गई अम्मा।
आज हर तरफ अजीब–सा सन्नाटा है। अम्मा का किसी के साथ कोई झगड़ा
नहीं है। बिल्लियाँ फिर पास आ जाती हैं। दोनों ही गोदी में चढ़
गई हैं। उन्हें अम्मा का स्नेह और चूल्हे का सेंक अपूर्व आनंद
देता है। अम्मा उन्हें खूब प्यार करती है। खूब सहलाती है। आज
तो जैसे स्नेह के अंबार लग गए हैं। बच्चों की तरह उन्हें अपनी
छाती में भींच लिया है। तुतलाती जुबान में पता नहीं उन्हें
क्या–क्या कहती जा रही है। ...बिल्लियाँ समझती होंगी अम्मा की
जुबान। वह जितना बड़बड़ाती है, बिल्लियाँ उतना ही प्यार अम्मा से
करती जाती हैं। अम्मा से बतियाने लगती है। म्याऊँ ...म्याऊँ ...कुर्ड
...घुर्ड ...घुर्ड।
उधर बेटे से कमरे में रहा नहीं गया तो हिम्मत बटोरकर रसोई तक
चला आया। दरवाजा बंद था। अम्मा रसोई का दरवाजा बंद कर लिया
करती है। बेटे को भ्रम हुआ, अम्मा के साथ कोई दूसरा आदमी बातें
कर रहा है। ऐसी रात कौन हो सकता है। आगे बढ़ा और थोड़ा झुककर
दरवाजे के पोरों में से भीतर झांका। सभी कुछ देख गया। भूल गया
कि वह अम्मा से पैसे लेने आया है। उसे लगा वह यहीं गाँव में
रहता है। जैसे अम्मा की गोदी में बिल्लियाँ नहीं, वह स्वयं है।
अम्मा उसे दुलार रही है। बालों को सहला रही है। उसका संपूर्ण
वात्सल्य उमड़ आया। वह बचपन के क्षणों को फिर जीना चाहता है।
अम्मा के पास बैठकर। अम्मा की गोदी मे सिर रखकर। चाहता है पहले
जैसा अम्मा उसे डाँटे। झगड़ा करे। वह अपना यह अधिकार इन जानवरों
को कभी नहीं देगा ...कभी नहीं।
दरवाजा खोलना चाहता था पर रुक गया। मन में एकाएक प्रश्न उठा,
"कि क्या वह इस योग्य है। इस स्नेह के काबिल है?"
तभी अम्मा ने भीतर से टोका।
"सो जा बेटा ...सुबह जाना है न।"
अम्मा ने आहटें पढ़ लीं। कैसे देखा इस घुप्प अँधेरे में उसे। वह
तो दबे पाँव आया था। वह अचंभित रह गया। कुछ कहता, उससे पहले ही
अम्मा ने फिर कहा, "तेरे सिरहाने पैसे रख दिये हैं बेटा। लेते
जाना। तेरे काम आएँगे।"
"पैसे ...?"
अम्मा को किसने बताया कि मैं शहर से पैसे के लिये आया हूँ। कैसे
पढ़ ली मन की बात। पर इस समय इसका तो ख्याल भी न रहा था उसे?
मन किया जोर से चीखे। रोए। चिल्लाए। कहे कि मुझे अम्मा
तुम्हारा प्यार चाहिए। पैसे नहीं ...। मन की चीख–पुकार मन ही
में घुटकर रह गई। जुबान ही जैसे बंद हो गई हो। वह न कुछ सुन
सकता है और न कुछ बोल सकता है। अँधेरे की परतों ने जैसे उसे
पूरी तरह से जकड़ लिया हो। पाँव जमीन में घुस गए हों। उसे नहीं
पता वह ऊपर है या कि
नीचे। धरती पर है या आसमान पर। खड़ा है या
कि बैठा हुआ।
अम्मा फिर बिल्लियों के साथ बतियाने लगी है। जैसे उसे कुछ पता
ही नहीं कि उसका बेटा दरवाजे के बाहर खड़ा है।
उल्टे पाँव लौट आया। सिरहाने देखा एक पुराने रुमाल में चार
सालों के पैसे बँधे हैं। आँखें बरस आईं। आज हिसाब पूरा हो गया।
अम्मा की बिल्लियों से बतियाने की आवाजें अभी भी उसके कानों
में पड़ रही थीं।
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