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कमरे में डरावना-सा सन्नाटा छा गया था। आग बुझ चुकी थी। सफेद राख पर जली हुई टोपी के काले-काले कतरे चिलमिला रहे थे। चाचू को शायद भीतर तक काट गए। चाचू ने पठाई से चिमटा झपटकर उठाया और उन्हें राख के भीतर जज्ब कर दिया। हल्के अँधेरे में अभी भी तेल की गंध रची थी। चाचू बैठा-बैठा पीछे खिसका। लपेटे हुए बिस्तर में जब पीठ लगी तो वैसे ही लेट गया। दोनों हाथ पीछे किए। हथेलियाँ गूँथकर नंगा सिर उन पर टिका दिया। बाई टाँग मोड़ कर उस पर दाईं रखी और कमरे की छत की तरफ मुँह किए आँखें मूँद लीं। घोड़ा अटपटाया-सा चाचू की तरफ गर्दन किए खड़ा था। सोच रहा होगा कि उसे आज इतनी जल्दी रिज मैदान से वापिस क्यों लाया गया। आज तक वे कभी भी इतनी जल्दी लौटे नहीं थे। सुबह के गए नौ-दस बजे से पहले शायद ही वे दोनों कभी पहुँचे हों।

चाचू का मन विचलित है। हजारों मन बोझ जैसे छाती पर उठा रखा हो। कोई चाचू के चेहरे को पढ़ पाता? आँखें बंद हैं पर भीगी हुई-सी। माथे पर अनगिनत झुर्रियाँ - न जाने कितने साल इन लकीरों के मध्य आते-जाते रहे। कई किस्से-कहानियाँ गढ़ती रहीं। चाचू की बंद भीतर को धँसी आँखों से वे बीते साल उमड़ने लगे हैं। पर उसके साथ कभी ऐसा नहीं हुआ जैसा आज घटा है। चाचू नंगे सिर लौटा है। उसे लग रहा था जैसे टोपी ही नहीं उसके जिस्म पर के सारे कपड़े उतार फेंके हों। वह निपट नंगा हो गया। उसे अपने साथ सभी नंगे दिख रहे थे। सारी दुनिया ही नंगी लग रही थी। पर अपना नंगापन उसे सभी से अलग लग रहा था। वह सोच रहा था कि बाहर का नंगापन भीतर के नंगेपन से कहीं ज्यादा खतरनाक है। तिल-तिल जला रहा है। चाचू भी जल रहा था। वह आज मन से भी नंगा था। उसकी टाँगें अपनी नहीं रही थीं। बाजू काठ के लग रहे थे। सारा सरीर है जैसे काठ का हो गया हो। वह चल रहा था पर मन से नहीं। अपने भीतर के जोर से, पता नहीं किस तरह रेंगता हुआ। या फिर उसका घोड़ा ही तो उसे अपने साथ घसीटकर नहीं लाया है। उसे कुछ मालूम नहीं कि वह आउट हाउस के दरवाजे से कब भीतर घुस गया। कब क्या हुआ प़र रह-रहकर सिर का नंगापन कचोट रहा था। पचहत्तर साल की उम्र में शायद ही वह कभी नंगे सिर रहा होगा। उसे यह भी याद नहीं कि उसने यह टोपी कितने बरस पहले सिलवाई थी। उसका रंग सफेद से बिगड़कर मिट्टी-जैसा हो गया था। कई जगह से फटी थी पर चाचू ने सी-सीकर उसे ठीक बना लिया था। व़ह गाँधी टोपी थी। चाचू को टोपी और गाँधी बचपन से ही प्यारे थे।

चाचू सोचते-सोचते दाईं करवट मुड़ा। बाजू के सिरहाने पर सिर टिका दिया। घोड़े ने मुँह ज़मीन पर मारा। घास के कुछ तिनके होठों के बीच पकड़कर चबाने लगा।

आज दो अक्टूबर था। फंक्शन के लोभ से चाचू घोड़ा लेकर जल्दी रिज पर पहुँच गया था। निर्धारित स्थान पर घोड़ा खड़ा किया और अगली टाँगों के बाईं तरफ सट कर बैठ गया। अब पहले जैसी खुली जगह घोड़े के लिए कहीं नहीं रही। रिज के पूर्वी छोर पर नीचे की ओर आठ-दस घोड़ों को खड़ा करने की जगह है। पर उनमें भी अच्छी तरह घोड़े खड़े नहीं रह सकते। उसी के बिल्कुल साथ नगर निगम ने कूड़ादान भी रख दिया है। साथ ही रोगी वाहन भी खडे रहते हैं। इस जगह और बापू जी के बुत तक का फासला आठ-दस हाथ रहा होगा। चाचू दिन भर कई बार आते-जाते सोचता है। मन-ही-मन
में। चाचू को यहाँ बुत स्थापित करने की तिथि याद नहीं। पर चाचू के लिए पता नहीं क्यों वह अँधे की लाठी है। उनका रिश्ता सिर-टोपी जैसा ही है।

चाचू इत्मीनान से बैठा सभी कुछ देख रहा था। आज रिज पर रौनक है। बापू का बुत खूब सजा है। हर बरस दो अक्टूबर के दिन ही ऐसा होता है। बुत की सफाई भी हो जाती है। किसी पालिश से बुत खूब चमक रहा है। ऊपर तक सीढ़ियाँ हैं। दोनों तरफ पत्ते सजाए गए हैं। बुत के आगे दरियाँ बिछी हैं। पिछली दरियाँ खाली हैं। पर आगे दो रंगीन गलीचे हैं जिन पर टेरीकोट की सफेद चादरें हैं। उन पर तीन-चार मखमली सिरहाने चमक रहे हैं - यहीं मुख्य अतिथि व विशिष्ट व्यक्ति बैठेंगे। कान्वेंट और कुछ साधारण स्कूलों के बच्चे अपनी-अपनी पोशाकों में बड़े भले लग रहे हैं। किनारे और बीच-बीच में पुलिसकर्मी तैनात हैं। कुछ सरकारी अफसर खड़े हैं जिनकी निगाहें दाईं ओर से आने वाली कारों और व्यक्तिओं पर लगी हैं। बीच-बीच में वे कार्यक्रम के आयोजन का भी निरीक्षण आँखों-आँखों में कर लेते हैं। सामने की तरफ लोकसंपर्क विभाग की भजनमंडली अपनी ढोलकी और हारमोनियम के साथ बैठी है। पीछे की ओर पार्टी कार्यकर्ता बैठे हैं। उनकी सफेद पोशाकें, सिर पर नोका-टोपी और छाती पर रिबन के लाल फूल उनका गाँधीवादी होना दर्शा रहे थे। चाचू ने ऐसे कई कार्यक्रम देखे थे। पहले तो रिज भी भर जाता था पर अब कोई पहल नहीं करता। हाँ जब ऐसे कार्यक्रम होते हैं तो कुछ
बेरोजगार, माल पर घूमते टहलते छोकर-छल्ले और बेकार बैठे कुली इधर-उधर भीड़ बढ़ा देते हैं। कई रिटायर कर्मचारी और अधिकारी अवश्य शिष्टता का परिचय देते हुए भजन-कीर्तन कर लेते हैं। भीड़-भाड़ रहे इसलिए कई स्कूलों के बच्चों को रिज पर जमा होने के आदेश दे दिए जाते हैं।

हल्की-हल्की धूप लगी थी। रिज की सर्द हवा के बीच इस तपन का अपना ही आनंद होता है। दूर सायरन की आवाज गूँजी। ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मी और दूसरे अधिकारी सतर्क हो गए। बैठे हुए बच्चों और चंद लोगों में सुगबुगाहट हुई। दो-तीन और घोड़ेवाले भी पहुँच गए थे पर वे सवारियों की तलाश में थे। चाचू उस समय तक किसी सवारी को नहीं लेता जब तक फंक्शन पूरा नहीं हो जाता। मुख्य अतिथि पहुँच गए। सभी खड़े हो गए। चाचू नहीं उठा। विशेष सचिव ने याद न दिलाई होती तो मुख्य अतिथि बूट समेत सफेद चादर पर चले आते।

प्रारंभिक औपचारिकताएँ पूरी हुई। मुख्य अतिथि ने बापू के गले में फूल मालाएँ पहनाईं। लौटते हुए एक चलती-सी नज़र पीछे तक घुमाई। देखा होगा कि भीड़ कितनी है। फिर चुपचाप बैठ गए। कई दूसरे मंत्रियों और अधिकारियों ने भी हार पहनाए। बापू का गला ऊपर तक फूलों के हार से लद गया था। चाचू ने मन ही मन श्रद्धासुमन अर्पित किए। अब कीर्तन शुरू हो गया। "रघुपति राघव राजा राम, सबको..." गुनगुनाते हुए चाचू को पता नहीं कब मीठी धूप में नींद आ गई।

पीछे अलग से एस.डी.एम. खड़े थे। उनकी चौकस आँख जब फूलों से लदे बापू के बुत पर गई तो पाँव के नीचे की ज़मीन खिसक ली। शरीर सिहर उठा जैसे जनवरी के महीने में कोई बिना कंबल बर्फ में निकल आया हो। उनके दोनों हाथ पेंट की जेब में थे। गुस्से और भय के बीच हाथों ने जेब के भीतर-भीतर चमड़ी मरोड़ ली। किसी ने चाचू की मटमैली टोपी उतार कर बुत के सिर पर रख दी थी।

एस.डी.एम. ने तिरछी निगाह मुख्य-अतिथि पर डाली। उसके बाद इधर-उधर देखा तकरीबन सभी आँखें बंद किए भजन गा रहे थे। साहस बटोर कर खिसकने लगे तो महसूस हुआ कि कंपकंपाती उनकी टाँगे भी कीर्तन करने लगी हैं। वे घबरा गए। पर एस.डी.एम. होने का ख्याल पुन: खोया साहस लौटा गया। पास एक खान कुली खड़ा था। उसके कानों में फुसफुसाए। खान ने उस तरफ देखा तो मुश्किल से हँसी रोकी। एस.डी.एम. साहब ने पुन: मुख्य-अतिथि की तरफ देखा। सबकुछ पूर्ववत् था। थोड़े मुड़े तो बाई तरफ ऊंघ रहे चाचू के सिर पर नज़र टिकी। टोपी गायब थी। एक मन किया कि साले बुढ्ढ़े के बाल नोच लें। गुस्सा पी गए। बुत पर जब इस बार देखा था तो टोपी उतर गई थी। तभी खान पास पहुँचा और मुठ्ठी में भींची टोपी उनके हवाले कर दी। एस.डी.एम. ने खान के हाथ से इस तरह टोपी लेने में सतर्कता बरती जैसे सुल्फे की डली लेकर जेब में रख ली हो। राहत की सांस ली। रूमाल निकाला और पसीना पोंछ लिया।

फंक्शन खत्म हो गया। सभी चले गए। एस.डी.एम. अभी भी वहीं खड़े चाचू के नंगे सिर को घूर रहे थे। पीछे खड़े थानेदार और हवालदार ने यह दृश्य देख लिया था। उनके साथ एक नगरनिगम के अधिकारी और पत्रकार ने भी। वे उनके पास आए और उनकी बुद्धि की दाद दी। मुख्य अतिथि या किसी मंत्री व वरिष्ठ अधिकारी ने देख लिया होता तो नौकरी चली जाती।

चाचू की झपकी टूटी। हाथ सर पर गया। टोपी गायब थी। ऐसे उठा मानो किसी तितैया ने काट खाया हो। कुछ सूझता, सामने एस.डी.एम. और थानेदार थे। जेब से टोपी निकाल कर बरसे, "बुढ्ढ़े! टोपी भी संभाल नहीं सकता। साले ने मरवा दिया था।"

जो एस.डी.एम. पहले वहाँ से गुजरते चाचू के हालचाल पूछ लेता था और बड़े अदब से चाचू से बात किया करता था वह आज इतना अशिष्ट हो जाएगा चाचू ने कभी नहीं सोच था।
हाथ जोड़कर चाचू बोला, "सा...ब मुझे कुछ पता नहीं क़्या हुआ?"
"इसे क्यों होगा पता सर? कुड़ी दा न हो टोपी बुत दे सर ठोक के सुत गया होणा।"
थानेदार ने अपनी अक्ल का इस्तेमाल करते हुए हाथ में पकड़े बेंत का कसाव और मजबूत कर दिया।
चाचू बौखला गया। ये अप्रत्याशित हमले चाचू को अचम्भित कर रहे थे। गिड़गिड़ाया, "इतना गज़ब ना बोलो सा'ब। मैं आपणी टोपी बापू जी के सिर पर रखूँगा नई नहीं साब राम राम।
नगर निगम का अधिकारी आगे बढ़ा, "सर ब़ुढ्ढ़ा तेज है। घाट-पाट का पानी पिया है हरामी ने। तेज दमाक है। घोड़ों को खड़ा करने की जगह कम हो गई है ना। शिकायतें करता फिरता है। ऊपर अर्जी देता है। लीडरी करता है। सोचा होगा, इ
सके बावजूद भी कुछ नहीं हुआ। मौका है। मरवाओ सालों को।"

जब तक वह कुछ कह पाता, दाढ़ी वाले पत्रकार ने तिरछा होकर पान रिज पर ही थूक दिया। झोला कंधे पर ठीक करते हुए स्पष्टीकरण दिया, "आप नहीं जानते ये राष्ट्रपिता का अपमान है। थैंक गॉड। कुछ ऐसा-वैसा नहीं घटा। अन्यथा इसी बात का ऑपोजिशन हंगामा कर सकता थी। दंगे-फसाद हो सकते थे। और भई मुख्य-अतिथि की नजरों से मामला गुजर गया होता तो साहब की नौकरी-ओकरी न रहती।"

एस.डी.एम. साहब ने एक तीर से दो शिकार किए, पत्रकार की बात थी, "बिल्कुल सही बोला। फिर ये तो अपने आदमी है। किसी दूसरे पत्रकार की बात होती तो टोपी अखबारों की सुर्खियों में होतीं।"
पत्रकार हल्के-से मुस्कराए।

चाचू हाथ जोड़े चुपचाप खड़ा था। कुछ बोलने के लिए होंठ खोले ही थे कि एस.डी.एम. ने जेब से तुड़ी-मुड़ी टोपी निकाल कर चाचू के मुँह पर दे मारी। कुछ बड़बड़ाता हुआ चला गया। पीछे थानेदार, अधिकारी और पत्रकार थे।

चाचू को कुछ नहीं सूझ रहा था। पास भीड़ लग गई, पर उसकी समझ में अधिक कुछ नहीं आया। चाचू शर्म से छुई-मुई जैसा हो गया था। रिज की हवा बदहवास-सी हो गई थी। धूप आग की तरह नंगे सिर पर बैठी लगी। चाचू भीतर-भीतर पसीने से तर-बतर हुआ जा रहा था। माथे की झुर्रियों के बीच पसीना किसी खेत में हल की लकीरों के बीच ठहरे पानी-जैसा जमा था। हल्की, सफेद और काली दाढ़ी के बीच भी बूँदें उग आई थीं। आज चाचू वैसा ही अपराधी या अपमानित-सा खड़ा था जैसा कभी चाचू का घोड़ा खड़ा होता है। बिदकने या कुछ ऐसी-वैसी बात करने पर जब चाचू उसे खरी-खोटी सुनाता है, झाड़ता है, और पतली छड़ी की एक-आध चोट उसकी टाँगों या कहीं बदन पर मार देता है।

जिस खान कुली ने टोपी उतारी थी वह एक तरफ खड़ा सबकुछ सुन रहा था। उसके साथ तीन-चार और खान भी थे। रिज पर अक्सर खान कुली होते हैं जो सुबह से शाम तक पर्यटकों और दूसरे लोगों का बोझा ढोते रहते हैं। वह चाचू के
पास आया। आग में घी फेंक गया, "कुच भी बोलो बई चाचू। टोपी सई जगह पउँच गई।"

पास खड़े दो-चार खान हँस पड़े। चाचू जमीन में धँसता चला गया। एक मन किया कि खान के मुँह पर एक धर दे। पर चुप कर गया। सोचा कुत्तों को घी कहाँ पचता है।

सिर नंगा था। उसे लगा वह पूरा नंगा हो गया है। उसके बदन के सारे कपड़े उतार दिए हैं। आँखें झुकीं तो पाँव के बीच टोपी थी। चाचू को अपनी ही टोपी बिच्छू लगी। अनमने से झपटी और सदरी की जेब में भर दी। चाचू को जेब में रखी टोपी पाँच सेर लग रही थी। चाचू ने इधर-उधर देखा। सभी अपने-अपने में व्यस्त थे। पर चाचू को लगा कि वे सभी चाचू पर हँस रहे हैं। उसकी आँखें भर आई। अपने घोड़े पर नजर पड़ी तो वह भी स्तब्ध-सा खड़ा लगा। उसकी आँखें भी भीगी हुई थीं। घोड़ा तो अँधे की लाठी है। कुछ देर दोनों आँखें एक-दूसरे में खोई रहीं। कोई घोड़े की आँख की भाषा पढ़ पाता तो जानता यह घिनौनी हरकत किसकी थी।

चाचू के पास तभी दो-तीन पर्यटक आए और घोड़ा लेने के लिए कहने लगे। चाचू बहरा हो गया। घोड़े की लगाम पकड़ी और आगे निकल गया। आँखें जमीन पर थीं। घोड़े ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। चुपचाप पीछे-पीछे चला आया। साथी घोड़े वाले चाचू से आधी उम्र के थे। वे भी चुपचाप सभी कुछ देखते रहे। किसी ने कुछ देखा भी होगा तो मन ही मन ओट गए। कौन झंझट में फँसे। उन्हें चाचू के बखेड़े में पड़ने की अपेक्षा अपनी ध्याड़ी ज्यादा प्यारी थी। जो चाचू उनके हितों के लिए टूटता-गिरता, हाँफता जगह-जगह फरियाद करने जाता, उनके सुख-दुख में साथ-साथ रहता, उसी चाचू के लिए उनके पास आज हमदर्दी के भी दो बोल न रहे। एक-दो ने खरा भी माना। चाचू की सवारी भी उन्हें ही मिलेगी। और दिनों से
ज्यादा कमाई।

चाचू और दिनों जब रात्रि कमा कर लौटता तो भरी जेब के बीच घोड़े की नाल की पदचाप बहुत भाती। टक-टक की आवाज कानों में रागनी जैसी घुल-मिलकर एक मीठा-सा संगीत उपजाती। चाचू कई बार फेरी के पैसे से भरी जेब पर हाथ फेरता और यही सोचता कि उसका घोड़ा खूब जीये, खूब खाए और चाचू उसे खूब प्यार करे। आज ऐसा न था। खाली जेब थी। खाली मन था। खुरों में गड़ाए नाल आज चाचू के मन में गड़ते चले गए थे। उनकी ठक-ठक थानेदार की बेंत की नोक-जैसी तीखी हो रही थी। आसपास आते-जाते बातें करते जो भी मिलते चाचू को लगता कि वे वही सबकुछ बके जा रहे हैं जो कुछ देर पहले रिज पर उसने एस.डी.एम. और दूसरों से सुना। कोई खान दिखता तो चाचू को वह अपना
सबसे बड़ा दुश्मन लगता। फिर उन खान कुलियों के वे ठहाके चाचू के कानों में घुस जाते।

आज की घटना पहली नहीं थी। पर बड़ी लज्जित और अलग थी। चाचू की जिंदगी में क्या कुछ नहीं घटा। क्या कुछ नहीं हुआ। कितने तूफान आए। और चाचू के मन में, आँखों में जलते हुए कई दीपकों को रौंदते चले गए। ऐसे बुझे जो दुबारा जल ही न सके। इतनी लंबी उम्र की दो-चार खुशियाँ भी याद नहीं आतीं जिंदगी महज घोड़े की पीठ जितनी रही। न घटी न बढ़ी।

घोड़ा हिनहिनाया। पता नहीं क्यों। चाचू चौंक कर उठा। कितनी देर एक ही करवट कहीं खोया रहा। घोड़ा भी लेट गया था। दरवाजा खुला था। धूप आधे कमरे तक पहुँच गई थी। कमरा जगमगा रहा था। चाचू ने कई बरसों बाद दोपहर की धूप अपने आउट हाउस के इस अस्तबलनुमा कमरे में देखी। उसे देखता रहा। आएगी, चली जाएगी। चाचू के भीतर भी उस धूप के टुकड़े चलते गए, उठा, सिर पर हाथ गया फिर एक बार उसी हादसे से होता निकल आया। एक कील में सदरी के पीछे पुराना परना टंगा था। खींच लिया, उसे झाड़ा। उसके बीच से एक-दो मकड़ी जमीन पर गिरीं और भाग गईं। उसी तरह चाचू ने सिर पर बाँध दिया। बिखरे हुए आज के हादसे के टुकड़ों को जैसे समेटा हो, परने में जकड़ा लिया हो।

चाचू घोड़े के पास गया। उसके माथे पर स्नेह की उँगलियाँ फेरी। घोड़ा बच्चा हो गया। आँखों में पता नहीं कितना प्यार आया। चाचू जानता है या फिर घोड़ा। यह स्नेह घोड़े की देह में रिसता-रिसता बस गया। चाचू ने घोड़े को पानी पिलाया। चने थैली में डाले और उसे दे दिए।
घो
ड़ा चने चबाने लगा।

चाचू ने बाहर जाकर बूट उतारे। पानी लिया और पाँव धोए। भूख नहीं थी इसलिए कुछ खाया-पिया नहीं और न ही चाय बनाई। सदरी की जेब से नसवार की डिबिया निकाली। तिलभर उँगली में लेकर दोनों नथूनों में ठूँस दी। नाक से गहरी साँस ली। आँखों से पानी छलछलाया। कई छींकों के बाद सिर हल्का हुआ। भीतर से खजूर की पुरानी मंजरी उठाई और आँगन में बिछा कर उस पर लेट गया। धूप तेज हो गई थी।

चाचू ने सोये-सोये सामने की पहाडियों के बीचों-बीच नजरें दौड़ाई। हैरान हो गया। भ्रम हुआ के शिमला के उपनगरों की पहाड़ियाँ हैं। चाचू को याद है इन पर बिरले लाल टीन के छतों के पुराने मकान और कोठियाँ हुआ करती थीं। जंगल इतने घने थे कि देवदारों की ओट में सबकुछ हरा भरा लगता था। अब वे लाल टीनों के मकान कहाँ हैं, घने जंगल कहाँ हैं। कुकरमुत्तों जैसे उगे हजारों मकान, बेतरतीब, जो आँखों को भाते नहीं, डराते हैं। उनकी खुली खिड़कियाँ सियारों के खुले मुँह-जैसी दिख रही हैं। इनमें कई पाँच और आठ मंजिले मकान तो मगरमच्छों की तरह हैं। देवदारों के बीचों-बीच आसमान की तरफ बढ़े हुए लग रहे हैं। न लाल टीन की छते हैं, न पुरानी तरह की सुंदरता। चाचू को दूर से ये बिल्कुल वै
सी तस्वीर लग रही है जैसे चाचू का बेटा उस समय ड्राइंगशीट पर बनाया करता था, जब वह तीसरी में था।

कितने पेड़ कट गए उनका कहीं नामोनिशान नहीं। चाचू पहाड़ियों की पीठ पर शेष बचे हुए पेड़ों को गिनने लग जाता है। गिनते-गिनते फिर ऊँघता है चाचू क़हीं दूर चला जाता है य़ा पीछे लौट जाता है, पचहत्तर वर्षों को घटाता हुआ क़भी साठ के आसपास। कभी पैंतालिस के बीच तो कभी बहुत पीछे बाईस के अँकों पर। उसके बाद बचपन की दहलीज से चढ़ता-बढ़ता दस से तेरह तक। चाचू तेरह का होगा जब शिमला चला आया था। आज के और उस जमाने के शिमले में कितना अँतर है। चाचू सुनाने लगे तो महीनों बीत जाएँ। पिता गाँव में एक सड़क दुर्घटना में मर गए थे। चाचू को माँ बताती थी। एक ही लड़का था। जमीन कम थी, पर बहुत अच्छी। चाचू अपने गाँव के रिश्तेदार के साथ शिमला काम के लिए आ गया था। रिश्तेदार ने चाचू को घोड़े का काम सिखाया। एक दिन वह किसी बीमारी से मर गया। चाचू अकेला पड़ गया। पर कुछ लोगों से जान-पहचान हो गई थी। उसका घोड़ा चाचू ने संभाल लिया। चाचू होशियार था पर पढ़ा-लिखा नहीं था। फिर भी हर बात समझता था।एक अँग्रेज ने चाचू का घोड़ा अपने पास रख लिया। अब दिनचर्या पहले से अच्छी गुजरने
लगी। काम-धँधा सीख गया। अँग्रेजी के बीच रहन-सहन भी। कमाई भी अच्छी होने लगी। चाचू किसी न किसी के पास माँ को भी पैसे भेज देता था।

अँग्रेजों की कई चीजें चाचू को पसंद नहीं थीं। उन दिनों आजादी के लिए भी संघर्ष चल रहा था। चाचू किसी न किसी से बातें सुन-जान लिया करता था। चाचू ने जाना था कि महात्मा गाँधी अँग्रेजी को यहाँ से भगाने के लिए लड़ रहे हैं। चाचू का मन कई बार हुआ कि नौकरी छोड़ दे पर माँ की याद आ जाती। अपनी गरीबी रोड़ा बन जाती। चाचू मन को समझा-बुझाकर काम में लग जाता। इसी बीच माँ ने रिश्ता कर दिया। बाईस की उम्र में शादी हो गई। उसके बाद चाचू के एक लड़का और तीन लड़कियाँ हुए। तीनों लड़कियों की शादी कर ली। लड़के को अच्छे स्कूल में डाल दिया कि वह उसी की तरह न बने। गुलामी न करे। बड़ा आदमी बन जाए। घर-परिवार और बेटे की पढ़ाई के लिए चाचू ने रात-दिन मेहनत की। समय गुजरता चला गया। आजादी मिलने तक चाचू एक ही अँग्रेज के पास वफादार बना रहा। बाद में नया घोड़ा खरीद लिया। और उसके साथ अपना नया काम शुरू किया। उस समय शिमला के रास्तों में गाड़ियाँ बहुत कम चला करती थीं। घोड़ों के
साथ रिक्शे होते थे।

बेटा स्कूल से निकला तो सेना में बड़ी नौकरी मिल गई। अब पत्नी भी चल बसी थी। बेटियाँ अपने-अपने घर खुश थीं। चाचू चाहता था कि बेटा जहाँ भी नौकरी करे ठीक है पर अपने गाँव को न भूले। वहाँ अच्छा-सा घर बनाए, ब्याह करके बच्चों को वहाँ रखे। आखिर अपनी जगह जमीन है। पर बेटे को यह नहीं भाया। उसने बार-बार चाचू को घोड़े का धँधा छोड़ने को कहा पर चाचू नहीं माना। अँत में बेटे ने चाचू को ही छोड़ दिया। बाहर रहने लगा। न गाँव आया और न ही शिमला में चाचू की खबर ली। चाचू एक-दो बार गाँव गया। पुराना मकान खंडहर बन गया था। जमीनों पर कई गाँव के भा
इयों ने हक जता दिए थे। चाचू यही सोचकर शिमला लौट आया कि वह किसके लिए गाँव में लड़ेगा। बेटा तो आएगा नहीं।

अँग्रेजों के चले जाने के बाद घोड़ों का खूब काम चलता रहा। लेकिन जहाँ उनको अस्तबल मिले थे वे जगहें खाली करवा दी गईं। वहाँ सरकारी भवन बनने थे। उन्हें खाली करने पड़े। फिर अपने-अपने मकान लेकर सभी रहने लगे। कई तो इतने टूट गए कि उन्होंने धँधा ही बंद कर दिया। चाचू ने शिमला के उपनगर में एक कोठी का आउट हाउस ले लिया। उसी में आज तक रहता है।

रिज मैदान पर पहले घोड़ों के लिए खुली जगह हुआ करती थी। पहले सौ के करीब घोड़े होते थे। उसके बाद आधे से कम हो गए और अब घटते-घटते आठ-दस पहुँच गए। पुरानी जगह से भी कमेटी ने निकाल दिया। अब घोड़े, कमेटी का कूड़ादान और रोगी वाहन एक जगह रहती हैं। पहले घोड़े वालों का सम्मान होता था। नगर निगम अच्छी नस्ल के घोड़ों को ही लाइसेंस दिया करती थी और कई सुविधाएँ भी। अब न घोड़ों की परख रही न सुविधाएँ। रिज पर नीचे की ओर एक रेखा खींच दी है जिसके बीच ही फेरी लगानी होती है। जाखू मंदिर के लिए पहले पर्यटक अधिक घोड़े लेते थे। पक्के रास्तों में एक तरफ घोड़ों के चलने के लिए कच्चा रास्ता रखा जाता था। अब सारे रास्ते पक्के कर दिए हैं। घोड़ों को उतराई उतरते और चढ़ाई चढ़ते तकलीफ होती है। गिरने-फिसलने का खतरा भी है। चाचू के साथ कई बार ऐसा हुआ है, पर
ईश्वर की इच्छा रही कोई बुरी घटना नहीं घटी।

चाचू की कमाई पहले जैसी नहीं रही। जाखू व दूसरी जगहों के लिए जब से टैक्सियाँ और गाड़ियाँ चली हैं, घोड़े कम लगते हैं। चाचू फिर भी औरों से बेहतर कमा लेता है। शहर के पुराने बच्चों को लाने-ले जाने के लिए चाचू का घोड़ा ही पसंद करते हैं। शायद ही कोई ब्याह ऐसा हो जहाँ चाचू का घोड़ा न जाता हो। ब्याह में चाचू का घोड़ा राम के रथ का घोड़ा लगता है। कितने अफसर चाचू ने अपने घोड़े पर दुल्हे बनाए हैं। कितने बच्चे हैं जिन्हें चाचू पहले स्कूल की पढ़ाई के लिए ले जाया करता था और अब उनके ब्याह में उन्हें दूल्हा देखकर मन ही मन खुश होता है। चाचू की कितनी इच्छा थी कि अपने बेटे का इसी तरह ब्याह करेगा। वह उसे पालकी में नहीं घोड़े पर दूल्हा बनाकर बिठाएगा। पर बेटे ने शहर में ही शादी कर ली है। उसने कई बरसों से बेटे को नहीं देखा, न कभी बहू को देखा है। सुना है अब तो छोटा बच्चा भी है।

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