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वे इंतज़ार करने लगती है मेरी ओर
से कुछ कहे जाने का। मुझे एक और सवाल सूझ जाता है जो कि
मुझे काफी सही ही लगता है पूछना "क्या हिन्दुस्तानी मित्र है
आपके?" "जानती हूं मैं . . .पश्चिमी देशों पर भी यह अपराध बोझ है कि तीसरी दुनिया के बूते पर ही वे अमीर भी हुए है इसलिये उनकी मदद करना इन देशों का नैतिक दायित्व है . . .लेकिन कब तक भरते रहेंगे ये हर्जाना! और कब तक हम इनके आगे हाथ पसारे बैठे रहेंगे। मुझे तो हिन्दुस्तानियों के रवैये से बहुत शर्म आती है . . .आखिर यहां भी तो पैसा कोई आसमान से तो गिरता नहीं . .. .सबकी मेहनत से ही होता है . . .यहां तो अनलिखा कानून है कि जिन छात्रों को आर्थिक सहायता दी जाती है नौकरी लगने के बाद वे अपने कालेज की आर्थिक सहायता करते हैं . . .आज हमारे कालेज को जो सबसे बड़ी ग्रांट मिल रही है वो यहीं के एक पुराने छात्र की कंपनी से हैं . . .हिन्दुस्तानी छात्र तो इस तरह की कोई जिम्मेदारी नहीं समझते . . .सिर्फ लेना ही जानते हैं।" बात सही होते हुए भी मुझे उनकी इस बात से बड़ी तकलीफ हो रही थी . . .शायद मैं विदेश में बैठी किसी हिन्दुस्तानी के मुंह से हिन्दुस्तानियों की बुराई सुनने की आदी नहीं थीं . . .हिन्दुस्तानियों से मिलकर ज्यादातर घर की खट्टीमीठी यादों को ही दुहराया जाता या फिर राजनीति की बात छिड़ जाती। पर इस तरह के औपचारिक माहौल में हिन्दुस्तानी होने मात्र से आ जाने वाली अनौपचारिकता बड़ी अस्वाभाविक सी लग रही थी और मुझे अपने आप में अजीब तरह का नैतिक बोझ महसूस होने लगा। खास तौर से इसलिये भी मैं कुछ अटपटा महसूस करने लगी क्योंकि उनकी बातों में कुछ वैसी ही गंध थी जैसी कि उंचे तबके के अमरीकियों की बातों में होती हैं . . .कुछ पेट्रनाइज करने की, कुछ यह मान कर चलने की कि अगर मैं सफल हो सका हूं तो दूसरे क्यों नहीं हो सकते और अगर नहीं होते तो उन्हीं में कमी हैं और इसलिये वही इसका फल भी भोगे! जबकि मेरी अपनी परवरिश चाहे भरेपूरे घर में हुई थी फिर भी समानता और समाजवाद के हक में बोलना मैंने अपने कालेज के माहौल से जज्ब किया हुआ था। "अब आप ही बताइये कि ऐशियाई देशों को सहायता देकर अगर अमीर बन जाने के बाद भी ये लोग अपने कालेजों की सहायता न करे तो फिर इन कालेजों के आर्थिक स्त्रोत तो एकदम सूख जायेंगे . . और अगर एशियाईयों को ही मदद मिलती रही और बदले में उन्होंने कुछ भी दिया नहीं तो कालेज बंद होने की नौबत आ जाएगी। आजकल कालेज यूनिवर्सीटियों में जो इतना आर्थिक संकट आ पड़ा है उसकी एक वजह तो यही है कि लोगों में वैसी देने की प्रवृत्ति नहीं रही . . .और लेने वालों की गिनती में इज़ाफा होता जा रहा है।" मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मुझे यह सब क्यों सुनाया जा रहा है। कौनसी भड़ास है जिन्हें मुझ पर उगला जा रहा है। अमरीका की पैरवी करके या हिन्दुस्तानियों की बुराई करके यह मुझसे क्या पाने की अपेक्षा कर रही हैं . . .सिर्फ हमदर्दी या एक सक्रिय अभियान! या कुछ और परेशान कर रहा है इन्हें! मेरी सहज बुद्धि चुपके से बोली, "हीनता ग्रंथि।" पर किसी ने ज़ोर देकर थप्पड़ जमाया उसे . . ."ऐसे भी कहीं बिना पड़ताल किये फैसले दिये जाते हैं . . .यह सब सरलतावादी दृष्टिकोण हैं . . .नहीं चलेगा।" यूं भी फ्रायड की भाषा अब फैशनेबल नहीं रही . . .ज़रूरत से ज्यादा घिसायीपिटायी जा चुकी हैं। मैंने धीरे से पूछा, "आपके ख्याल से हिन्दुस्तानी यहां के वैभव को पराया या लूट का धन मान उसका भोग करते या उसे उज़ाड़ते हैं . . .अपनों जैसा नहीं समझते?" मेरा सवाल कुछ ज्यादा तीखा रहा होगा . . .वे अचकचायी। "परायी संपत्ति जैसा बर्ताव तो ज़रूर करते हैं . . .तभी लूटमारकर . . .चाहे वाजिब ढंग से ही . . .अपना घर भरने की . . .अपने साथ हिन्दुस्तान भरसक ले जाने की कमोबेश प्रवृत्ति सभी में होती है . . .पर जहां तक अपना समझने का सवाल है . . ." वे कुछ पल सोचने की मुद्रा में रही।
दायां हाथ कुछ उपर को उठा फिर गोदी में वापिस आ गिरा। वे जैसे
शब्द ढूंढ़ती रही . . ."अपना बनाना या अपना हो पाना . . .शायद
वह सब मुमकिन ही नहीं . . ." मैं घूरे जा रही थी उन्हें! यह बीस साल की पत्नी कह रही हैं! वह पत्नी जो कि उन्हीं की भाषा बोलती है, उन्ही के लिये लड़ती है, उन्हीं की पैरवी करती है, उन्हीं के सिद्धान्त बघारती है, फिर भी उनके समाज का हिस्सा नहीं! बहुत अजीब सा लगा। एक पत्नी एक तरह
से पुरूष के जीवन में सबकुछ होती है। अगर पुरूष की जगह समाज
में होती है तो पत्नी की जगह अपने आप ही बन जाती है। फिर निक तो
खुद भी भारत का बड़ा हिमायती, बड़े खुले दिल वाला इन्सान दिखता
है . . .अपने भाषण में भी उसने इसी बात पर जोर दिया था कि
उसके कालेज में ऐशियाई विषयों को पढ़ाने पर विशेष ध्यान
दिया जायेगा, कि वह बहुत जरूरी समझता है कि अमरीकी लोग बाहर
की दुनिया को जानेसमझे। ऐसे व्यक्ति की पत्नी होकर भी यह
खुद को बाहर का महसूस करती है। मैंने पूछ ही लिया, "लेकिन
आपके पति तो . . ." वे रूक गयी। मेरी आंखें उन पर जमी रही। शायद हार मान आंखें नीचे झुकाये ही उन्होंने फिर से कहना शुरू किया, "शायद मैं खुद अपनी पहचानी दुनिया के करीब जाना चाहती हूं . . .एक अरसा घूमघाम के अब अपने घर लौट आने का मन होता है।" मैं दुविधा में पड़ गयी। अभी कुछ देर पहले वे यही की होकर रहने की बात कर रही थी, अब घर लौटने की। पर मेरे कुछ कहने से पहले ही वे बोल उठी, "पर घर से मेरा मतलब हिन्दुस्तान से नहीं है . . .शायद वहां भी रहना अब तकलीफदेह ही होगा . . .घर मेरे लिये एक आरामदेह माहौल का ही नाम है . . .जिसे यूं कहीं भी खोजा जा सकता है . . .और कहीं भी खोया . . ." और उन्होंने एकदम चुप्पी साध ली मानो इस विषय पर और बात नहीं करना चाहती हो और अपनी नज़र अजे़लिया के नीले झाड़ पर गाड़ दी। मैं कुछ देर इधर उधर ताकती रही। मैंने चाय की चुस्की ली तो बड़ी
पहचानी सी खुशबू नथुनों की ओर दौड़ी। मैं सुनहरी लकीर वाले उस बढ़िया अमरीकी प्याले से कड़क हिन्दुस्तानी चाय का स्वाद लेते हुए लान में चहकतेमहकते अज़ेलिया फूलों को देख सोचने लगी कि इनसे पूछूं कि क्या इन्हें हर कहीं उगाया जा सकता है! |
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