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वे मुझे पिछवाड़े वाले दरवाज़े से घर के अंदर ले चली। मैं उनके पीछे–पीछे चलती हुई भी उनकी फुलवारी को ही निहारती जा रही थी और सोच रही थी ऐसे अभिजात और अमीर अमरीकियों के कालेज के प्रिंसिपल का घर भी कुछ खास तो होगा ही। और यह महिला भी खास होगी जिससे प्रिंसिपल ने शादी की है।

घर सच में ही खास था। उंची–उंची छतोंवाला विक्टोरियन शैली का जिसे बड़े ही करीने से सजाया गया था। उस सारी सजावट पर अंग्रेज़ियत की जगह ऐशियाई छाप थी। दरअसल एशिया के हर देश की कलाकृतियों के खूबसूरत नमूने वहां मौजूद थे . . .तिब्बत के थका, इंडोनीशिया की कठपुतलियां, जापान का जैन बुद्ध, भारत की चोल मूर्तिया और श्रीलंका के मुखौटे। फिर भी चीज़ों का जमघट नहीं लग रहा था। हर कलाकृति का अपना कोना था, अपनी जगह थी और उस विशालाकार भवन में जगह की कमी तो थी नहीं। इसलिये सजावट भी सिर्फ बैठक की धरोहर नहीं थी। खाने और पढ़ने के कमरों की सजावट भी खास थी। सोने के कमरे चूंकि ऊपरी मंजिल पर थे इसलिये वहां तक हम नहीं गये, बाकी का घर बैठने से पहले ही मिसेज मिलर ने दिखा दिया था। दरअसल बाहर से ही फूलों की जो पूछताछ करनी मैंने शुरू कर दी थी, उससे उन्हें लगा कि मेरी रूचि घर की चीजों में होगी ही इसीलिये घर दिखाते हुए वे बड़े शौक से मुझे बताती रही कि किन–किन ऐशियाई देशों में वे अपने पति के साथ गयी और वहां से ये खरीदारी की। यूं उस बताने में कोई विशेष उत्साह नहीं था . . .एक टूरिस्ट गाईड के अभ्यस्त वाक्यों की दोषहीन प्रस्तुति थी। मेरा ध्यान फिर उनके पहनावे और चेहरे–मोहरे पर चला गया और मैं उस घर के माहौल के साथ उनका तालमेल बिठाने लगी। यूं उनका बादामी रंग का रेशमी कुरता–चूड़ीदार तो इस माहौल के साथ मेल खा जाता था पर उस पठानी चेहरे पर एक पंजाबी किसान का सा अक्खड़पन था जो करीने से कटे बाल होने पर भी किसी तरह की अभिजातता को चीर कर पार आ जाता था। उस चेहरे को मैं सुंदर भी नहीं कह सकती थी। इसलिये मैं हैरान होती रही कि क्या था इस महिला में जो इस कॉलेज के अभिजात परिवार के प्रिसिंपल को भाया होगा जो उनके विवाह के गठबन्धन की नींव बना। क्योंकि अब तक मैंने उन बंगाली औरतों को ही अभिजात परिवारों के अमरीकियों से शादीशुदा देखा था और वे महिलायें अपने आप में भी बड़ी अभिजात, इंग्लैंड की रानी की शैली की अंग्रेजी बोलनेवाली और बला की रूपवती थी। मिसेज मिलर तो अंग्रेजी भी पंजाबी लहजे में बोल रही थी . . .फिर क्या था? क्या किसी तरह का यौनाकर्षण! शायद उन बिल्ली आंखों और गोरे रंग की वजह से वे उनको अमरीकी ही लगी हो . . .और बाकी सब कुछ उनका नयापन! या उनके उस किसान महिला के स्वस्थ, गुलाब की तरह दमकते रंग की ताज़गी और लंबा उंचा कद अपने आप में हिन्दुस्तानी खूबसूरती की एक नवीनता थी! यूं अगर वह हिन्दुस्तान में होती तो मैं पहली नज़र में उसे किसी पुलिस इंस्पेक्टर या सूबेदार की पत्नी समझती।

"चाय लेंगी?" वे पूछ रही थीं।
"तकलीफ नहीं होगी बनाने में?" मैंने औपचारिकतावश ही कहा था वर्ना चाय का मूड तो खूब था।
"तकलीफ किस बात की!" और वे किचन की तरफ बढ़ गयी। मैं उनकी अनुपस्थिति में बैठक की चीजों को और भी गौर से देखने लगी। शायद ये सारी कलाकृतियां खुद प्रोफेसर मिलर ने ही खरीदी होगी! क्या उनकी सजावट का सलीका भी उन्हीं की निगाह ने नहीं चुना होगा! लेकिन मिसेज़ मिलर भी जितने आराम के साथ इन सब से जुड़ी हुई है ऐसा तो नहीं लगता कि घर उनका बनाया–सजाया नहीं है। फिर वे गृहस्थी के इलावा कोई और काम भी करती दीखती नहीं।

पलों में ही ट्रे में चाय सजाकर बैठक में दाखिल हुई। सुनहरी लकीरों वाला वह बड़ी महंगी और बेहतरीन किस्म की इंग्लिश चाईना का टी सेट दिख रहा था। केतली पर पंजाबी फुलकारी की कढ़ाई वाली टिकोज़ी चढ़ी थी। काफी मेज़ पर ट्रे रखकर वे बड़ी नफासत से सुनहरी लकीर वाले उन प्यालों में चाय उड़ेलने लगी। एक तश्तरी में बिस्कुट भी थे।

"भारत जाती रहती हैं आप?" यह सवाल मैंने उठाया था।
"इतने साल तो हम लोग भारत में ही रहे। निक फोर्ड फाउन्डेशन के हैड थे न वहां। . . .अभी पांच साल ही तो हुए हैं यहां आए। कोई खास नहीं जाती। यूं भी . . ."

उनका "यूं भी" मेरी आंखों में शायद सवाल बना टंगा रहा था इसीलिए कहना फिर से जारी कर दिया – "वहां जाकर मन खराब हो जाता है . . .सब लोग बस रोते–धोते ही हैं! यहां अच्छा ही है कि लोग सिर्फ उपरी बात ही करते हैं . . .अपने कष्टों को लेकर चुप ही रहते हैं . . .एक हफ्ते के लिये गयी थी . . .सिर्फ रोना ही सुनती रही। जी उखड़ गया।"

मैंनै गौर किया कि मेरे लगातार हिन्दी में बात करने के बावजूद वे अंग्रेजी में जवाब दिये चले जा रही थी।
"वहां या तो कोई न कोई मरता रहता है या बीमारी या आर्थिक चिन्तायें लगी रहती हैं। मैं तो भारत से कोई नाता नहीं रखना चाहती। यहीं की होकर रहना चाहती हूं।"
"आपका परिवार कहा है?"
"वैसे तो नाभा से है . . .पर अब मां बाप नहीं हैं . . .बस भाई बहन हैं।"
"कितने भाई बहन हैं?"
"आठ – तीन बहनें . . .पांच भाई।"
"क्या करते हैं?"
"सब अपनी–अपनी जगह सेटेल्ड है . . .वहीं पंजाब में ही। एक पुलिस इन्स्पेक्टर था . . .टैरेरिस्टो ने हत्या कर दी . . .उसके बीवी बच्चे दूसरे भाई के साथ रहते हैं।"
मेरी आगे पूछने की हिम्मत नहीं हुई। बात का रूख बदलने के लिये मैंने कहा, "आप की प्रोफेसर मिलर से मुलाकात कैसे हुई?"
"एक कैम्प में . . .ये अपनी ऐन्थ्रोपालौजी के शोध के सिलसिले में वहां आये हुए थे। मैं बच्चों को पढ़ाती थी।"
"आपने पढ़ाई कहां की?"
"वहीं, गवर्नमेन्ट कालेज से बी•ए• की थी।"

अब मुलाकात का और खुलासा लेने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी न ही वे खुद इस विषय में पहल कर रही थी। ऐसा लग रहा था कि उनको इस विषय में विस्तार से जाने में रूचि नहीं इसीसे उनके जवाब नपे–तुले ही थे। यूं भी जिस तरह की औपचारिक मुलाकात थी उसमें ऐसे सवाल पूछने ठीक भी नहीं थे।आखिर मुझे सिर्फ साड़ी में देख कर ही तो यह चाय का निमंत्रण दे दिया गया था। वर्ना दूसरे छात्रों के मां–बाप भी तो थे। और किसी को तो नहीं बुलाया। खासकर आज तो नहीं बुलाया जबकि सभी सीनियर्स के मां–बाप इस कालेज के उत्सव पर पहुंचे हुए थे। शायद यह मेरी दिल्ली के खजाना से खरीदी गई साड़ी के प्रिंट का कमाल था। यूं साड़ी की खूबसूरती को लेकर तो उन्होंने कोई टिप्पणी नहीं की थी। न ही उसकी वजह से उनकी आंखों में मेरे लिये कोई खास जगह बन गई थी। हां, साड़ीने उनके मन में कौतूहल जरूर जगाया था। तभी तो उनकी निगाह मुझ पर टिककर पूछ बैठी थी – "क्या आप हमारे किसी छात्र की मां है?" और मुझे भी सुनहरी मौका मिल गया था उनके प्रति अपनी सारी जिज्ञासायें शांत करने का। मैंने तो पहले से ही उनके बारे में इस तरह से काफी सुन रखा था कि इस अभिजात्य कालेज के प्रिंसिपल की पत्नी भारतीय है और पंजाबी हैं।

सहसा हम दोनों के बीच चुप्पी का एक सफेद बादल आकर बैठ गया। मुझे घबराहट होने लगी . . .ऐसी स्थिति मुझे हमेशा परेशान करती है कि किसी से बात करने के लिये ही उसे मिला जाये और सहसा लगे कि कहने को कुछ है ही नहीं। पर जल्द ही मिसेज मिलर ने उबार दिया –
"चाय में चीनी कितनी लेंगी आप?"
"चीनी नहीं लेती . . .सिर्फ थोड़ा सा दूध!"
"मैं तो तीन चम्मच चीनी लेती हूं . . .बिना ढेर सारे दूध और चीनी के मुझे तो चाय अच्छी ही नहीं लगती – सब लोग यहां घूरने लगते हैं इतनी चीनी डालते देख . . .बट आई डोंट केयर!"
"सुबह के कार्यक्रम में गई  थीं न आप?"
उन्होंने छोटी सी 'हूं' कर दी।
"मुझे आप दिखी नहीं थीं। क्या आप स्टेज पर थी प्रिसिंपल के साथ?"
"अरे नहीं . . .मैं उस तरह का प्रिसिंपल की पत्नी का रोल नहीं निभाती। मुझे अपनी आज़ादी पसन्द हैं।"
"तो आप कालेज के उत्सवों में कतई हिस्सा नहीं लेती?"
"जितना लेना पड़ता है ले लेती हूं . . .पर किसी तरह अपने को दूसरों पर लादना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं . . .अब देखिये मुझे ऐन्टरटेन तो करना ही पड़ता है सो आये दिन कालेज बोर्ड के सदस्य या दूसरे जो भी कालेज के नज़रिये से महत्वपूर्ण होते हैं उनके लिये डिनर वगैरह करती ही हूं! पर उससे ज्यादा इन्वाल्व होना मुझे सही नहीं लगता। मैं तो निक के साथ ज्यादा कहीं आती–जाती भी नहीं . . .बस जितना जरूरी हो . . ."
"जरूरी–गैरजरूरी का फैसला कौन करता है।"
"काफी दिलचस्प सवाल है आपका . . .शायद हालात सिखा देते हैं . . .एक सहजज्ञान दे देते हैं इंसान को इस तरह के फैसलों के लिये! . . .पता नहीं कैसे करती हूं यह फैसला . . .शायद जब निक ही कह देता है कि जाना चाहिये . . .आप बताईये आप को भी तो जिंदगी में क्या जरूरी या गैरजरूरी है इसका फैसला कदम–कदम पर करना पड़ता होगा . . .कैसे करती हैं?"

मैं सकपका जाती हूं। सच है मुझे ही सवाल पूछने का हक क्यों हो . . .वे भी शायद मेरे प्रति वैसा ही कौतूहल रखती है जैसा कि मैं उनके लिये। शायद जानना चाहती हो कि भारत के कौन से हिस्से से मैं जुड़ी हूं, कि मेरे पति डाक्टर है या बिजनेसमैन, कि मैं खुद भी किसी प्रोफेशन में हूं या कि गृहिणी हूं! पर मैं उनके सवाल पूछते ही बीरबहूटी की तरह अपने चारों पैर समेट कर बंद हो जाती हूं। मुझे अपनी पहचान छुपाकर अनजान लोगों से बात करने में यूं भी एक खास मज़ा आता है इसलिये मैंने उन्हें यह तक नहीं बताया कि मैं भी उन्हीं के जैसे एक कालेज में प्राध्यापिका हूं।

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