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कुछ क्षण मैं उसे देखती ही रह गई। दिल्ली में सरदारों और पंजाबियों की संख्या अधिक होने के कारण लम्बी गोरी सुन्दरियों की कमी नहीं है। परंतु फैशन की अधिकता और सौन्दर्य प्रसाधनों का अधिकाधिक प्रयोग होने के कारण ऐसा सरल, स्वाभाविक और अछूता सौन्दर्य कम ही दिखाई देता है। मुझे लगा जैसे किसी श्रेष्ठ कलाकार की बनाई हुई गुलाबी, संगमरमरी तराशी हुई प्रतिमा ही जीवंत होकर सामने आ खड़ी हुई हो। उसने दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते किया। उसके इस 'नमस्ते' शब्द बोलने में भी एक अदा थी।तभी एक अन्य स्त्री और पुरूष कमरे से बाहर आये। मैंने पूछा, "आप लोगों को ठंडा पानी पिलाऊं?"

भद्रपुरूष ने धन्यवाद देते हुए कहा, "नहीं, मैं मयूर जग साथ लेकर आया हूँ।" मैंने फिर आग्रहपूर्ण स्वर में कहा,
"किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो अवश्य बताइयेगा।" दोनों नये स्त्री पुरूष ने बहुत शालीनता से 'धन्यवाद' दिया। उस सुन्दरी का स्वर भी सुनाई पड़ा, "थैंक यू।" जैसे सितार के तार ही झनझना उठे।

इस परिवार और इस सुन्दरी से परिचय बढ़ाने के लिये मन उत्सुक हो उठा। शक्ल, सूरत, हावभाव, पहनावे और बातचीत से यह लोग बहुत सभ्य एवं सुसंस्कृत लगे। मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया कि भले पड़ोसी आयें हैं। अन्यथा यही डर लगा रहता था कि न जाने कौन आये। अपने सामने वाले फ्लैट में ही देखती थी कि दोनों पड़ोसियों में आये दिन तू तू, मैं मैं होती रहती थी।

धीरे धीरे पता लगा कि आगन्तुक भद्रपुरूष का नाम डा. मल्होत्रा है। वह अपनी पत्नी और छोटे बेटे के साथ इस फ्लैट में रहेंगे। बेटे सिद्धार्थ का नाम पास के स्कूल में लिखा दिया गया था। डा. मल्होत्रा के माता पिता व बहन साउथएक्स में रहते हैं। जिस दिन वह पहली बार सामान सहित आये थे, उनकी बहन ही सहायता करने के लिये साथ आ गई थी।

इस तरह मेरा पड़ोस आबाद हो गया। सन्नाटे का घेरा टूट गया। सुबह उठते ही सामने के घर से रेडियो, टी.वी.की आवाज़ें, बर्तनों की खनक, बच्चे की बातें, स्कूल और अस्पताल जाते हुए डा. मल्होत्रा और बेटे सिद्धार्थ के पदचापों की आवाज़ें सुनाई पड़ने लगतीं। मैं समझती थी कि मिसेज मल्होत्रा भी किसी अच्छी कम्पनी या एम्बैसी आदि में काम करती होंगी क्योंकि वह केवल रूप की रानी ही नहीं, शिक्षित और बुद्धिमती महिला भी मालूम पड़ती थीं। बाद में पता चला कि वह कहीं काम नहीं करती हैं। अतः एक संध्या को मैं इन लोगों से मिलने और उन्हें चाय के लिये आमंत्रित करने उनके घर पहुँच गई।

ड्राइंगरूम में एक छोटा सा सोफा, बीच में बिछा बड़ा सा सुन्दर ईरानी कालीन, डायनिंग टेबल और मल्होत्रा दम्पत्ति के दो सुन्दर फोटोग्राफ, सुन्दर से फ्रेम में जड़े रखे थे। सामान सीमित होते हुये भी घर की सज्जा सुरूचिपूर्ण थी। मैंने मिसेज मल्होत्रा से बातें करने का प्रयास किया तो डा. मल्होत्रा ने ही बताया कि "इन्हें हिन्दी या इंग्लिश नहीं आती हैं। थोड़ा बहुत बोल या समझ लेती हैं।"

इतने में मिसेज मल्होत्रा चाय लेकर आ गई। ट्रे में करीने से रखे हुये सुन्दर कप और प्लेट में सजे बिस्कुट उनकी सुरुचि का संदेश दे रहे थे। हम लोग चाय पीने और बातें करने लगे। मिसेज मल्होत्रा की आयु पच्चीस–छब्बीस के आस पास लगती थी। अतः मैंने उनका नाम पूछा।

"अनहिता" बहुत प्यार से मुस्कराकर उसने अपना नाम बताया। उसके सौन्दर्य के अनुरूप मुझे यह नाम कुछ विचित्र सा लगा। मेरे मन का भाव समझकर डा. मल्होत्रा ने बताया कि ईरानी भाषा में 'अनहिता' एक ऐंजिल का नाम है। मैंने सोचा तब तो यह नाम बहुत उचित है। यह स्त्री भी किसी देवकन्या से कम नहीं लगती। अनहिता भी मुझसे टूटी फूटी अंग्रेजी में बात करती रही। मेरी जो बात वह न समझ पाती, उसके पति उसे फ्रेंच में समझा देते।

डा.मल्होत्रा मुझे बहुत ही सज्जन और मितभाषी व्यक्ति लगे। उन्हीं की बातों से मुझे पता लगा कि उन्हें डब्लू.एच.ओ. की ओर से कुछ वर्षों के लिये फ्रांस और खाड़ी देशों में भेजा गया था। अनहिता से उनका परिचय फ्रांस में ही हुआ। एक वर्ष बाद यह परिचय विवाह में बदल गया। अनहिता ईरानी महिला है। अनहिता के दो भाई फ्रांस में और बहन इटली में हैं। माता पिता तेहरान में अकेले रहते हैं। विदेश में रहने की अवधि पूरी होने पर यह लोग भारत आ गये। अब तो उनका बेटा भी इतना बड़ा हो गया है।

अब अनहिता अपने बेटे को स्कूल बस तक छोड़ने जाती और दोपहर में लौटने पर अपने नटखट बेटे के पीछे भागती दिखाई देती। बेटा कभी अपने मित्रों के साथ भागता, कभी कहीं छुपकर बैठ जाता। बेटे को नीचे से ऊपर तक लाने में उसे काफी समय लग जाता परंतु कभी किसी ने उसकी तेज़ आवाज़ नहीं सुनी। बस की प्रतीक्षा में खड़ी पड़ोस की स्त्रियों से वह हाथ जोड़कर नमस्ते करती। उन लोगों की हिन्दी, पंजाबी वह नहीं समझ पाती और मुस्कराकर "थैंक यू" कहकर चुप हो जाती। यहाँ की भाषा न बोल, समझ पाने के कारण वह अपने को बहुत अकेला पाती। ईरानी, मुस्लिम संस्कृति के अनुसार वह सदा अपना सिर ढक कर रखती। सुन्दर लेस लगे सफेद या रंगीन स्कार्फ के बीच उसका मुख फ्रेम में जड़ी सुन्दर तस्वीर सा लगता।

हम दोनों के बीच भाषा का व्यवधान होने पर भी एक आत्मीयता का रिश्ता जुड़ गया था। जब तक उनका फोन नहीं लगा, अनहिता दो तीन बार फोन करने आई। मैंने उसे आग्रहपूर्वक चाय पीने के लिये कहा। चाय देखकर उसने स्पष्ट कहा, "आई मुस्लिम"। उसे पता था कि हिन्दू परिवार मुसलमानों को अपने साथ अपने बर्तनों में नहीं खिलाते–पिलाते। मुझे उसकी यह निश्छल भावना बहुत अच्छी लगी। मैंने प्यार से उसे चाय पीने को कहा और वह प्रसन्न होकर पीने लगी। भेदभाव की यह दीवार गिर जाने से वह बहुत सहज दिखाई दी। उसके माता पिता की बात पूछने पर उसने उदास स्वर में जो कुछ कहा उससे मैं इतना समझ गई कि उसके पिता ९२ वर्ष के वृद्ध, बीमार व्यक्ति हैं। उसे उनकी बहुत याद आती है। बाद में डा.मल्होत्रा से पता चला कि एक वर्ष पहले उसकी माता का देहान्त हो चुका है। उनकी बीमारी की खबर पाकर अनहिता जाने के लिये तैयार हुई परंतु जब तक वीसा टिकट आदि की व्यवस्था हुई, मां का देहान्त हो चुका था। इस बात से वह बहुत दुःखी रहती है। वहाँ जाकर कुछ महीने पिता के साथ रहकर वह वापस लौट आई थी परंतु अभी तक वह इस सदमे से उबर नहीं पाई है। सदा चिंतित और उदास रहती है। डा. मल्होत्रा ने कुछ विवशता दिखाते हुये कहा,
"मैं भी क्या करूँ? मैं अनहिता को अधिक समय नहीं दे पाता हूँ। सिद्धार्थ को पढ़ाना व बाज़ार आदि का सारा काम मुझे ही करना होता है। मेरा काम भी ऐसा कि समय–कुसमय मरीज़ों को देखना ही पड़ता है।"

यह सब सुनकर मैं कह ही क्या सकती थी। मुझे यह अवश्य लगा कि बेचारी अनहिता इस महानगर की भीड़ में बहुत अकेली पड़ गई है। हर समय मन ही मन घुटती रहती है। ऐसा लगता था कि उसकी ससुराल वालों ने भी उसे स्वीकार नहीं किया था। यह मुस्लिम सुन्दरी उनके गले का काँटा बनकर ही रह गई थी।

एक दिन मैं स्कूल से लौटी तो देखा अनहिता घर के बाहर जीने में खड़ी है। सामान्यतः ऐसा कभी नहीं होता था। मैंने उससे कारण जानना चाहा। उसने अपनी मधुर भाषा और इशारों से जो कुछ समझाया उससे में समझ गई कि उसकी कुकिंग गैस समाप्त हो गई है। वह मेरी गैस पर कुछ खाना बनाना चाहती है। वह जल्दी में हैं क्योंकि उसे सिद्धार्थ को बस स्टॉप पर लेने भी जाना है। मैंने उसे किचेन में ले जाकर नमक व मसाले का डब्बा खोलकर रख दिया और पानी का बर्तन दिखा दिया। मैं दूसरे कमरे में चली गई जिससे वह निसंकोच अपना काम कर सके।

थोड़ी देर में जब मैं इधर आई तो देखा उसने मेरे किसी सामान को हाथ भी नहीं लगया था। अपने घर से ही सब कुछ ले आई थी। यहाँ तक कि जग में पानी और समय देखने के लिये अलार्म घड़ी भी उठा लाई थी। नाप नाप कर हर चीज़ कुकर में डाल रही थी। मसाले की खुशबू से लग रहा था कि स्वादिष्ट पुलाव बनाया जा रहा है। उसको काम करते देखकर मुझे लग रहा था कि उसके व्यक्तित्व के समान ही उसके काम करने का ढंग भी कितना व्यवस्थित और संतुलित था। सब कुछ नपा तुला। पकाने का समय भी निश्चित। न एक मिनट इधर न उधर। परंतु उसके चेहरे को देखकर लगता था कि उसके मन में भी पुलाव की तरह हर समय कुछ कुछ उबलता रहता है, उबल उबलकर अंदर ही अंदर गहन होता जा रहा है, बाहर नहीं आ पाता है। आंखों में उदासी बनकर छा जाता है। उसे आये कई महीने बीत गये थे पर मैंने कभी उसे खुलकर हँसते, खिलखिलाते नहीं देखा। उसकी सौम्य मुस्कराहट भी दबी हुई, औपचारिक सी लगती।

पुलाव बन गया था। कुकर खोलकर उसने मेरे लिये पुलाव निकालना चाहा। पहले तो मैंने मना कर दिया परंतु तुरंत ही मुझे लगा कि वह यह न समझ ले कि मैं उसके हाथ का बना पुलाव नहीं खाना चाहती हूँ। अतः मैं उससे दो चम्मच पुलाव लेकर खाने लगी। यह देखकर उसके मुखपर प्रसन्नता छा गई। मैंने कभी पूछा तो नहीं लेकिन मुझे यह विश्वास हो गया था कि उसकी ससुराल वाले उसके हाथ का छुआ नहीं खाते थे। इक्कीसवीं सदी के द्वार पर खड़े भारत के पढ़े–लिखे महानगरीय नागरिकों की ऐसी दकियानूसी मानसिकता देखकर मन खिन्न हो जाता है। आखिरकार वह मल्होत्रा परिवार की बहू थी, उनके पोते की माँ थी। उसके घर मल्होत्रा परिवार का कोई भी नहीं आता जाता था। कभी कभार डा. मल्होत्रा की बहन अवश्य थोड़ी देर के लिये चक्कर लगा लेती थी। ससुराल वालों के ऐसे व्यवहार से वह बहुत दुःखी रहती थी।

अब तो अनहिता अपनी गैस समाप्त होने पर निःसंकोच मेरे किचेन में कुछ न कुछ बना लेती। हम लोग इसी बहाने कुछ देर साथ बैठ जाते। उसके व्यवहार की शालीनता, संकोच, दृढ़ता और सुन्दर चेहरे पर छाई उदासी देखकर वह मुझे एक रहस्यमयी नारी ही लगती।

छुट्टी का दिन था। पड़ोस से सिद्धार्थ के चहकने की आवाज़ें आ रही थीं। मैंने उस दिन छोले बनाये थे। सोचा अनहिता को भी खिलाऊं। मैं एक कटोरे में छोले लेकर गई। दरवाज़ा अनहिता ने ही खोला। मैंने कटोरा उसके हाथ में थमाते हुये बताया कि शायद उसे अच्छा लगेगा। उसने मधुर मुस्कराहट और आँखों में प्रसन्नता के साथ "थैंक यू" बोला। सितार के तार फिर झनझना उठे। परंतु उसके स्वर की उदासी स्पष्ट लक्ष्य की जा सकती थी। थोड़ी देर बाद मुझे लगा जैसे अनहिता के रोने की आवाज़ आ रही है परंतु मैंने उसे टी.वी. की आवाज़ समझकर विशेष ध्यान नहीं दिया। वैसे भी मेरी दूसरों के घर में ताक–झाँक करने और थोड़े से तिल बटोर कर ताड़ बनाने की आदत नहीं हैं।

दो चार दिन बाद अनहिता मेरा कटोरा वापस करने आई। कटोरे में सादे से सूप में पड़ी सब्ज़ियों जैसी कोई चीज़ थी। उसके बताने से मैं समझ गई कि वह कोई ईरानी डिश है। शुद्ध शाकाहारी है और मैं उसे खा सकती हूँ। मैंने उसके सामने ही दो चम्मच खाकर उसकी प्रशंसा की। उसके हाथ की बनी चीज़ें मुझे खाते देखकर वह सदा बहुत प्रसन्न हो जाती थी। परंतु आज अनहिता सामान्य से कुछ अधिक उदास थी। जिज्ञासा होने पर भी मैं उससे कुछ पूछ न सकी। दूसरों के घर का भेद जानने का प्रयत्न करना भला कहाँ की सभ्यता है। मुझे सदा यही लगता है।

थोड़े दिनों में मुझे संदेह ही नहीं वरन् विश्वास हो गया कि अकेले में अनहिता के रोने की आवाज़ कभी कभी आती रहती है। कभी डा. मल्होत्रा की तेज़–तेज़ आवाजें भी सुनाई पड़तीं। मैं सोचती भला किस घर से पति–पत्नी के लड़ने झगड़ने की आवाज़ें नहीं आती। यह तो सामान्य बात है। परंतु यह भी सत्य है कि अधिकतर इस गरज़ने–बरसने के बाद दोनों का हृदयाकाश निर्मल, स्वच्छ हो जाता है और घर गृहस्थी की गाड़ी पूर्ववत चलने लगती है।

इसी बीच कुछ दिनों के लिये मुझे दिल्ली से बाहर जाना पड़ा। वहाँ पहुँचने के कुछ दिन बाद ही मेरी पड़ोसन मित्र ने जो कुछ फोन पर बताया वह सुनकर मैं अवाक् रह गई। मेरी पड़ोसन कह रही थी, "आपके सामने वाले फ्लैट की सुन्दरी ने आपकी छत से कूदकर आत्महत्या की कोशिश की थी। सौभाग्य से वह तो बच गई क्योंकि वह नीचे खड़ी कार पर गिरी थी। कार बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई है।" सुनकर मैं सोच में पड़ गई। घर से दूर होने की कुछ प्रसन्नता भी हुई। क्या पता पुलिस केस बना हो। मैं वहाँ होती तो पुलिस मुझसे भी सवाल–जवाब करती क्योंकि वह मेरी छत से नीचे गिरी थी। पुलिसवालों का क्या ठिकाना कब, किसे, किस बात के लिये चपेट में ले लें। पुलिसवालों से बचती तो ब्लाक के लोग अपने मर्मभेदी प्रश्न बाणों से हर समय बींधते रहते। खैर, दूर रहकर मैं निश्चिंत थी। मेरी काम वाली बाई अवश्य पकड़ी गई। लोग उससे रोक रोक कर पूछते, "तुम्हारी आंटी छत से क्यों कूद गई? बेचारी क्या मर गई? बहुत दिनों से दिखाई नहीं दी? कामवाली जो बताती उस पर उन्हें विश्वास नहीं होता। लोगों की जिज्ञासा शांत नहीं होती। ब्लाक के बहुत से लोग जो विशेष परिचित नहीं थे, केवल आते जाते मुझे देखते थे। उनके अनुसार तो मैं स्वर्ग सिधार चुकी थी।

बाद में मुझे अनहिता के विषय में पता लगा कि दोपहर में बारह बज़े के लगभग उसके मन में न जाने क्या आया कि उसने मेरी छत के दरवाज़े का कुंडा ज़ोर से खींचा। उसका पेंच पहले ही ढीला था। अतः कुंडा अलग हो गया और दरवाज़ा खुल गया। वह मेरी सपाट छत पर आई और नीचे कूद गई। "भड़ाक" की तेज़ आवाज़ सुनकर आसपास की स्त्रियाँ घर के दरवाज़े खोल अपने ज़ीने में खड़ी होकर देखने लगीं। उन्होंने देखा कि अनहिता कार के पास पड़ी है। उसकी कदली स्तम्भ सी सुन्दर, अनावृत्त टाँगें और स्कार्फ के चौखटे से मुक्त अनावृत्त चेहरा निश्चेष्ट दिखाई दे रहा था। जैसे देवलोक की कोई शापग्रस्त अप्सरा ही धरती पर आकर गिर पड़ी हो। मानव स्वभाव भी कैसा विलक्षण होता है। जो स्त्रियाँ कठोर आवाज़ का कारण जानने आई थी वह कारण जानना भूल गई। पहली बार उस सुन्दरी का खुला मुख और खुली टाँगों का सौन्दर्य निहारती ही रह गई। कुछ को उसे देखकर आश्चर्य हुआ तो कुछ को ईष्र्या। धीरे धीरे सम्मोहन भंग हुआ और भीड़ ने उसे घेर लिया। अनहिता भी सचेत हुई। भीड़ देखर वह धीरे से उठकर बैठ गई। उसने अपना सिर और टाँगे ढ़क ली। "जाको राखे साइयाँ, मार सकै न कोई" का साक्षात प्रमाण बनी अनहिता चुपचाप बैठी थी। उसे कुछ खरोंचों के सिवा कुछ भी न हुआ था। कोई हड्डी भी न टूटी थी परंतु मारूति कार बुरी तरह पिचक कर क्षतिग्रस्त हो गई थी। लोग यह तमाशा देख ही रहे थे कि एक नवयुवक जो किसी काम से दोपहर में घर आया था, भीड़ को चीरता हुआ आगे आया। उसने दो स्त्रियों से आग्रह किया, "आंटी, प्लीज़ इन्हें पकड़ाकर मेरी कार में बिठाइये। मैं इन्हें अस्पताल ले जाता हूँ।"

अनहिता को लेकर वह पास के नर्सिंग होम में ले गया और उसे डाक्टर के सुपुर्द किया। डा.मल्होत्रा को आये बहुत कम समय हुआ था। अतः वे किस अस्पताल में काम करते हैं? उनका फोन नं. क्या है? किसी को पता नहीं था। अनहिता भी कुछ बताने की स्थिति में नहीं थीं। कुछ लोगों को केवल यही पता था कि सिद्धार्थसेकेण्ड क्लास में सेंट फ्रांसिस स्कूल में पढ़ता है। उस युवक ने स्कूल जाकर डा. मल्होत्रा का फोन नंबर लिया और उन्हें इस दुर्घटना के विषय में सूचित किया। जब तक वह आ न गये, युवक अस्पताल में बैठा रहा। मैं सोचती हूँ कि यदि कहीं यह युवक भी उस सुन्दरी के सौन्दर्य में खो जाता तो बेचारी अनहिता अस्पताल ही न पहुँच पाती।

अनहिता के अस्पताल चले जाने पर उपस्थित भीड़ में कार की मालकिन और अनहिता की पड़ोसन की ओर अग्रसर हुई। कोई कार टूट जाने पर सहानुभूति और संवेदना प्रकट कर रहा था। कोई पूछ रहा था, "यह स्त्री छत से क्यों कूदी?"

वह कहती, "मुझे इस सम्बन्ध में कुछ नहीं मालूम है।" दूसरा कहता, "अरे, आप तो पड़ोसी है। आपको तो पता होना चाहिये।" कुछ आपस में कहते, "पता होगा, बताना नहीं चाहती। हमारे पड़ोसी के घर में क्या चल रहा है हम लोगों को क्या पता नहीं है।" जितने मुंह उतनी बातें। लोग गाड़ी की मालकिन मिसेज़ वर्मा को छोड़ने को तैयार ही नहीं। कोई गाड़ी ठीक होने में लगने वाले खर्च का अंदाज़ लगाता। कोई इंश्योरेंस से मिलने वाले पैसे की बात करता। अनजाने लोग भी घंटी बजा बजाकर गाड़ी का हाल पूछने चले आते। लाचार मिसेज़ वर्मा ने फोन कर के मिस्टर वर्मा को घर बुला लिया और गाड़ी जल्दी से जल्दी गैरेज़ में पहुँचा दी। तब कहीं उन्हें कुछ चैन मिल पाया।

मैं जब दिल्ली पहुँची, सदा की भांति सिद्धार्थ के लिये दो चाकलेट लेकर डा.मल्होत्रा के घर मिलने पहुँची। हम दोनों ही दिल्ली से कहीं बाहर जाने या लौटकर आने पर एक दूसरे को सूचित करते थे। मैंने उनसे दो चार औपचारिक बातें कीं, अनहिता ने बनाई चाय पी, परंतु इस दुर्घटना से सम्बन्धित कोई भी बात नहीं की। मैंने भी ऐसा प्रकट किया कि मुझे इस विषय में कुछ भी मालूम नहीं है। अनहिता पहले से कुछ अधिक उदास और गुमसुम सी लगी परंतु उसके सौन्दर्य और औपचारिक मुस्कराहट में कहीं कोई कमी नहीं थीं।

समय पंख लगाकर उड़ता रहा। हमारी दिनचर्या का चक्र घूमता रहा। कई महीने बीत गये। फिर डा.मल्होत्रा ने बताया, "अनहिता के पिता की तबियत खराब है। वह जा रही है। सीधी फ्लाइट मुम्बई से मिलेगी। अतः मैं उसे मुम्बई तक पहुँचने जा रहा हूँ। चार दिन में लौट आउंगा।"
मैंने पूछा, "सिद्धार्थ भी जा रहा है?"
डा.मल्होत्रा ने कहा, "नहीं, उसे दादा–दादी के पास छोड़ दिया है।"
मेरी इच्छा हुई अनहिता से एक बार मिल लूं परंतु सोचा कि वह अपनी तैयारी में व्यस्त होगी। ऐसे में पहुँचकर व्यवधान डालना उचित नहीं लगा। सोचा सुबह जाते समय मिल लूँगी।

सुबह मैं जल्दी ही उठ गई। गर्मी के दिन थे परंतु अभी झुटपुट अंधेरा सा ही था। पूर्वाकाश में सफेदी आ रही थी। ज़ीने में खटर–पटर सुनकर मैं बाहर निकल आई। देखा दोनों सामान निकालकर बाहर आ गये थे। अनहिता ने हाथ जोड़कर "नमस्ते" कहा। मैंने उसे सुखद यात्रा के लिये शुभकामनायें और उसके पिता के स्वास्थ्य के लिये मंगलकामनायें दीं। उत्तर में उसकी मधुर "थैंक यू" सुनाई पड़ी। नीचे उतरते हुये उसने पीछे मुड़कर एक बार मेरी ओर देखा। मैंने हाथ हिलाकर उसे विदाई दी। चेहरा स्पष्ट दिखाई न देने के कारण उसके चेहरे के भाव मैं नहीं पढ़ सकी।

चार दिन बाद डा.मल्होत्रा बेटे को लेकर वापस आ गये। वह स्कूल जाने लगा। डा. मल्होत्रा अपने बेटे का सारा काम जिस कर्मठता, सहिष्णुता और धीरज से करते, उसे देखकर मुझे आश्चर्य होता। हर काम व्यवस्थित और नियत समय पर। मैं मन ही मन उनकी सराहना करती। घर, बाहर और बच्चे का सारा काम स्वयं करते। मां के अभाव में सिद्धार्थ धीर–गंभीर, बूढ़ा–सा बन गया था। न कोई ज़िद, न कोई हंगामा, पिता के साथ जाकर चुपचाप स्कूल बस पकड़ता। लौटकर आता, खाना खा कर सो जाता। उठता तो टयूशन पढ़ने चला जाता। लगता ही नहीं कि यह वही बच्चा है जो हर समय मां की नाक में दम किये रहता था। शुक्रवार शाम को दोनों बाप बेटे दादा दादी के पास चले जाते और रविवार रात तक वापस आते। घर के सामने फिर से ताला लटक गया। मैं इस ताले और सन्नाटे को देखकर ऊब जाती। सोचती कब अनहिता आये और पड़ोस में कुछ रौनक हो।

जब छः माह बीत गये तब मुझसे न रहा गया। मैंने डा.मल्होत्रा से पूछ ही लिया, "मिसेज़ मल्होत्रा कब आ रही है? अब तो वीसा की अवधि भी समाप्त हो गई होगी।"
उन्होंने बताया, "वह अपने भाई–बहन से मिलने फ्रांस और इटली भी जायेंगी। इसीलिये कुछ महीने बाद आयेगी।"

मैं मन ही मन सोचती, हर समय अपने गोल मटोल नटखट बेटे के पीछे भागती और अपने पति के लिये हर चीज़ नाप–नाप कर भोजन बनाने वाली अनहिता अपने पति और बेटे से अलग कैसे रह पा रही है। नीचे वाली मिसेज़ वर्मा तो खीज़ कर कहतीं, "हिन्दुस्तानी लड़की होती तो क्या इस तरह पति और बेटे से अलग रह सकती थी? बेचारा सिद्धार्थ नीचे गर्मी में खड़ा होकर अपने पिता की राह देखता रहता है। मैं ही उसे अंदर बुलाकर पानी पिला देती हूँ। कुछ खाने को दो तो कभी नहीं खाता है। न जाने यह कैसी मां हैं।"

बात सच होने पर भी मुझे लगता अनहिता ऐसी नहीं हैं। अवश्य ही उसकी कोई मज़बूरी रही होगी। इस तरह एक वर्ष से अधिक हो गया और अनहिता नहीं आई। जिज्ञासा होने पर भी डा.मल्होत्रा से इस विषय में कुछ पूछना मुझे सभ्यता के विपरीत लगा। किसी की घरेलू बातें पूछ कर दूसरे की ज़िन्दगी में दखल देना कहाँ तक उचित है। यही सोचकर मैं चुपचाप रह जाती।
यों ही कुछ महीने और बीत गये।एक दिन ज़ीने से कुछ चहल–पहल सुनकर मैंने सोचा शायद अनहिता आ गई हैं। उत्सुकतावश मैंने दरवाज़ा खोला। देखा, सामने वाले घर का द्वार खुला है। लगा जैसे दो–तीन लोग अन्दर हैं। बाहर केवल डा.मल्होत्रा की बहन थी। मुझे देखकर ठिठक गई। बोली, "आंटी, एक बुरी खबर है।"
यह सुनकर मेरे हृदय की धड़कनें तेज़ हो गई। मैंने घबराकर पूछा, "क्या हो गया?"
वह बोली, "भाभी नहीं रहीं।"
सुनकर एक क्षणको जैसे मेरी सांस ही रूक गई। पूछा, "क्या हुआ?"
"कार एक्सीडेंट।"
मैंने प्रश्न किया, "वह कहाँ पर थीं?"
उत्तर, "अमेरिका में।"
मैंने फिर पूछा, "वह कब नहीं रहीं?"
वह अचकचाकर कुछ सोचने लगी, फिर बोली, "इसी सप्ताह। रविवार को मंदिर में चार बज़े क्रिया है। आप आइयेगा।"

यह कहकर मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना अपने घर में जाकर द्वार बन्द कर लिया। मैं भी भारी मन से अपने घर में आ गई। परंतु विचारों ने पीछा नहीं छोड़ा। इस लड़की की कही गई बातें मुझे कुछ अटपटी सी लगी। अभी तक डा.मल्होत्रा और अनहिता से बातचीत करने पर मुझे केवल यही पता लगा था कि उसके सम्बंधी ईरान, फ्रांस और इटली में हैं। अमेरिका का कभी कोई जिक्र ही नहीं हुआ था। 'क्रिया' से पहले ही किसी आत्मीय को दिवंगत व्यक्ति की तिथि न याद हो, यह मुझे बहुत विचित्र लगा। परंतु क्या किया जा सकता है। यह संसार ही विचित्र घटनाओं से भरा पड़ा है।

रविवार को मैं 'क्रिया' में भाग लेने मंदिर पहुँच गई। अनहिता की बड़ी सी फोटो पर फूल माला चढ़ी थी। उसे देखकर और अनहिता की याद कर मेरा हृदय व्याकुल हो गया। वही मुस्कराता चेहरा, सुन्दर, उदास आंखें। पंडित जी आत्मा, परमात्मा, स्वर्गलोक, मृत्युलोक आदि पर प्रवचन कर रहे थे। डा.मल्होत्रा, उनकी बहन और मेरे अनुमान से डा.मल्होत्रा के माता पिता पंडित के पास ही बैठे थे। केवल सिद्धार्थ बेचैन घूम रहा था। कभी बैठ जाता, कभी इधर–उधर घूमने लगता। मैंने मल्होत्रा परिवार को गौर से देखा। मुझे लगा जिस प्रकार किसी आत्मीय की मृत्यु की काली छाया घरवालों के मुख की कांति छीनकर उनके मुख को म्लान बना देती है, ऐसा कुछ डा.मल्होत्रा के मुख पर भी नहीं था। प्रवचन के बाद पंडित जी ने अनहिता के विषय में कुछ बताना प्रारम्भ किया। मैंने देखा मां की बात सुनकर सिद्धार्थ फूटफूटकर रोने लगा। उसे रोते देखकर कई स्त्रियों की आंखों में आंसूं छलक आये। वातावरण बोझिल हो गया। मैं डा.मल्होत्रा से मिले बिना, बीच में ही उठकर चली आई। जैसे यह सब कुछ मुझसे सहन नहीं हो रहा था।

दो चार दिन बाद डा.मल्होत्रा के सब सम्बन्धी चले गये। उन्हें अकेले खड़े देखकर मैंने उनसे संवेदना पकट करते हुये कहा, "मिसेज़ मल्होत्रा के विषय में जानकर बहुत दुःख हुआ। बहुत भली, शालीन महिला थीं। वह कहाँ पर थीं?"
डा.मल्होत्रा ने कहा, "तेहरान में। एक सप्ताह बाद ही उन्हें यहाँ आना था। उनकी फ्लाइट बुक थी। हम लोग तो उनके आने की राह देख रहे थे।"
मैंने पूछा, "आप वहाँ गये नहीं?"
डा.मल्होत्रा, "मन नहीं हुआ। जब वही नहीं रहीं तो जाकर भी क्या करता। हम दोनों का बस इतना ही साथ था।"

सांत्वना के कुछ अन्य शब्द कहकर मैं वापस आ गई। परंतु भाई, बहन द्वारा दिये गये अनहिता की मृत्यु के दो विभिन्न स्थानों का रहस्य मुझे समझ में बिल्कुल नहीं आया। किसी एक देश में विभिन्न शहरों के नाम बोलने में तो संभवतः कोई गलती कर सकता है, परंतु हज़ारों मील दूर दो महाद्वीपों के नाम में कोई पढ़ा–लिखा व्यक्ति कैसे गलती कर सकता है। कहाँ तेहरान और कहाँ अमेरिका। मैं समझ ही नहीं पा रही थी कि वह रहस्यमयी सुन्दरी धरती के किस कोने में विलीन हो गई है। मेरे लिये यह रहस्य ही बना रहा।

कुछ दिनों बाद डा.मल्होत्रा ने सूचित किया कि सिद्धार्थ का नाम दक्षिणी दिल्ली के स्कूल में लिख गया है। अगले शनिवार वह अपने माता पिता के साथ रहने जा रहे हैं।

मेरे सामने वाले फ्लैट में एक बार फिर बड़ा सा ताला लटक गया। सन्नाटे का घेरा फिर से दोनों फ्लैटों के चारों ओर लिपट गया। परंतु इस बार यह सन्नाटा अकेला नहीं था। जब मैं द्वार खोलकर बाहर खड़ी होती, अक्सर इस सन्नाटे को चीरता हुआ अनहिता का चेहरा उभरता। उसके मुस्कराते होठों से निकली "नमस्ते" की गूंज मुझे सुनाई पड़ती। फिर उसकी उदास आंखें मुझसे पूछने लगती "क्या तुम भी मुझसे मेरी उदासी का कारण नहीं पूछ सकती थी? पड़ोसन के नाते न सही लेकिन मानवता के नाते भी मेरा दुःख हल्का नहीं कर सकती थीं? क्या तुम्हारे देश की यही महानगरीय सभ्यता है?"

मैं उसके प्रश्नों से घबराकर अपनी पलकें झपकाती हूँ, सिर झटकती हूँ और अनहिता का चेहरा फिर से सन्नाटे में गुम हो जाता है।

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 ९ अक्तूबर २००३

 
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