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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू.एस.ए. से लक्ष्मी शुक्ला की कहानी- अनहिता


मैं जब भी अपने घर का दरवाज़ा खोलती, सामने वाले फ्लैट में लटका बड़ा सा ताला दिखाई देता। एक वर्ष से अधिक हो गया था, यह ताला खुलने का नाम ही न लेता था। मैं सोचती कि न जाने कब यह फ्लैट आबाद होगा। कोई आये तो कुछ चहल पहल हो। हर समय एक सन्नाटा दोनों फ्लैटों को घेरे रहता। दोपहर एक बज़े स्कूल से लौटती, खामोशी के बीच चार घरों में झूलते तालों को देखती हुई ऊपर चढ़ती और अपने घर के सन्नाटे में गुम हो जाती। यों तो दिल्ली की बस्तियों में 'सन्नाटा' एक दुर्लभ वस्तु है परंतु फिर भी जब फ्लैट खाली पड़े हों तो खालीपन रहता ही है। कभी लगता यह सन्नाटा मेरे मन में ही व्याप्त हो गया है।
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परंतु एक रविवार को कुछ खटर पटर सुनकर मैंने द्वार खोला। देखा सामने का ताला खुला था। मज़दूर सीढ़ी, सफेदी आदि ला रहे थे। मैंने एक व्यक्ति को रोककर पूछा, "आप लोग सफेदी करेंगे, क्या कोई इस फ्लैट में रहने आ रहा है?"ठेकेदार जैसे एक व्यक्ति ने आगे बढ़कर कहा, "हाँ, माताजी पहली तारीख से किरायेदार आ रहे हैं। इसीलिये बाबूजी सफेदी करवा रहे हैं।"
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सुनकर मेरा मन प्रसन्न हो गया। इतने दिनों बाद कोई तो रहने आयेगा। अब मैं पहली तारीख आने की प्रतीक्षा करने लगी। उस दिन दोपहर बाद कुछ लोगों के ज़ीने में चढ़ने की आहट पाकर मैंने दरवाज़ा खोला। मेरा सामना बड़ी बड़ी आँखों, गुलाबी आभा लिये गोरा रंग, काले बाल और छरहरे बदन वाली एक सुन्दरी से हुआ।

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