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हमारी सीटियों का पहला ग्राहक बना तिलक राज। ग्राहक बनने में दोस्ती का ध्यान अधिक था, उसकी क्वालिटी का कम। सीटियों को मेले में कैसे ले जाएँ, अगर कोई देख लेगा या पिताजी जान जाएँगे तो बहुत ही ठेस लगेगी उनाके मन को। हम अपने मन में दबाव की भावनाओं से घिरे रहने के कारण सीटियों को मेले में बेचने का निर्णय ले ही नहीं पाये और तिलक राज को उसी की इच्छा से सात-आठ सीटियाँ बेच दीं। वह भी कितनी खरीदता और कितनी बजाता उन सीटियों को, और भी तो काम थे उसको।

एक दिन अचानक तिलक राज की माँ तिलक राज को खींचती हुई शाम को हमारे दरवाजे पर आ खड़ी हुई तथा हमारी सीटियों के बेचने की बात पिता जी से कह डाली। आरोप भी लगाया कि आपके लड़के ने हमारे लड़के को फुसला कर ठग लिया है। जबरदस्ती उसको सीटियाँ दे-दे कर पैसे ऐंठता जा रहा है। तिलक राज माँ के साथ मुँह नीचा किए खड़ा रहा, एक भी शब्द उसके मुँह से नहीं निकल पा रहा था। शायद माँ उसे काफी धमका कर लाई थी।

हमने देखा कि पिताजी को इसके लिए काफी शर्मिन्दा होना पड़ा, एक भी शब्द उनके मुँह से नहीं निकल पा रहा था। जब वे दुखी होते थे तो उनका खिचड़ी नुमा दाढ़ी से भरा चेहरा शान्त तथा दूसरी तरह का हो जाया करता था। वे अपने मौन में हमें सिर्फ बुझे-बुझे से देख भर रहे थे, जैसे कह रहे हों कि - "मुझे सुख मिले उसकी चाहना नहीं हैं, पर कम से कम बेमतलब दुख को क्यों बुलावा दे रहे हो तथा क्यों स्वयं तथा मुझे शर्मिन्दगी के कगार पर खड़ा कर रहे हो।"

तिलक राज ने भी हमारे ठगने की बात को गवाही देकर पक्का कर दिया। पिताजी ने अपनी बनियान की छातीवाली जेब से पैसे निकाल कर तिलक राज की माँ को देकर क्षमा याचना की और उन्हें विदा किया। बिना हमारी ओर देखे राज माँ के साथ चला गया, माँ उसे बीच-बीच में धमकाती ले गई पकड़ कर। गली में हमारे घर से उपजी इस अस्वाभाविक घटना के लिए उत्सुकता वश लोगों ने आपस में कानाफूसी करते हुए अपना समय गुजारा।

पिताजी अपनी गाढ़ी कमाई को बनियान की सामने की जेब में ही रखते, उसकी सिलाई दुहरी होती। उसमें रखे गिने चुने पैसों में से इस तरह कम हो जाने से हमारा मन चीत्कार कर उठा। हम लम्बे कमरे के एक कोने में बैठकर ग्लानि भरे मन से सोचते रहे। न कभी पिताजी ने हमसे इन घटनाओं के बारे में सफाई माँगी और न ही हमने सीटियों को बेचने का उ ेश्य बताया उन्हें कभी। वे अपने अन्तिम समय तक भी न जान पाये घर की आर्थिक स्थिति के प्रति हमारी चिन्तामयी भावना के बारे में, जो हमारे बचपन की नर्म भावनाओं का एक मुख्य भाग बन गया था उस समय।

ख र का धोती कुरता पहने पिताजी को देखकर शायद ही कोई अनुमान लगा सके कि वे किसी समय हॉकी के एक अच्छे खिलाड़ी थे। कभी घर में अच्छा खासा कारोबार था, पैसे की कमी नहीं थी। देश की आजादी के अभियान में पिताजी के शामिल होने तथा लम्बी बीमारी के बाद माँ की मृत्यु के बाद सब कुछ बदल गया तथा इस अभाव की स्थिति में आ गये थे हम सब।

उनके पास अक्सर गरीब निर्धन लोग अपनी आर्थिक तथा घरेलू समस्याओं के निपटारे के लिये आया करते थे, तथा उनके निर्णय को सर आँखों पर रखते थे। अपने बचपन के उस काल में पिताजी को उन परिवारों की समस्याओं के साथ आत्मसात होते देखा था हमने कई बार। अपने पैसों को जोड़ कर हम एक बार एक प्लास्टिक का रेजर लाये थे, उनकी खिचड़ी नुमा दाढ़ी को घर में ही बनाने के लिये। काले रंग के उस रेजर को हम हर माल एक आने के सामान में से खरीद कर लाये थे। ऐसा करने से हमें बहुत ही सन्तोष मिला था, यह सोच कर कि हम उनके लिये कुछ कर पा रहे थे, कुछ लायक न होते हुये भी।

करीब बीस-इक्कीस साल के बाद हमारी अलीगढ़ के बाजार में तिलक राज से भेंट हुई एक दिन। गले में बाहर निकाली हुई सोने की चेन, हाथ की हर उंगली में बाधाओं से मुक्ति पाने के मन्त्रों से फंूकी हुई अलग-अलग धातुओं से जड़ी अंगूठियाँ तथा शरीर पर चटक गुलाबी रंग का सफारी सूट पहने उस तिलक राज को एक बार में पहचानना हमें कठिन लगा। बीच में एक बहुत लम्बा दौर गुजर गया था तथा पाँचवीं कक्षा की सीटी वाली बातें समय की पर्तों से ढक गई थी। हमारा भी पूरी तरह सम्पर्क ही नहीं रहा था, इस बीच तिलक राज से। देखते ही कुछ छोटी मोटी बातों के बाद सीधे ही प्रश्न किया तिलक राज ने हमसे -
"क्या कर रहे हो कानपुर में?"
"एक सरकारी नौकरी है।" हमने जवाब दिया।
"कितना पा जाते हो?" तिलक राज ने दूसरा प्रश्न दागा।
"यही गुजारा चल जाता है।" हमने दबते हुये बताया।

फिर एक ही साँस में तिलक राज ने अपनी तरक्की की किताब ही खोल डाली - एक होटल, एक ड्राइक्लीनिंग की दुकान, एक लोहे के बर्तनों की मेन बाजार में दुकान और उसके बाद मथुरा रोड पर बहुत बड़ा खरीदा हुआ प्लाट। उसकी सड़क पर कुछ फासले पर हमारा टूटा फूटा मकान था, उसको खरीदने की बातें करने लगा, क्योंकि उसके अनुसार चंूकि हमें तो बाहर ही रहना है तो उसका हम क्या करेंगे।

भले ही हम उस समय डिफेन्स आर.एण्ड डी के सरकारी क्लास वन गजेटेड आफिसर थे, मोहर लगा कर कापियाँ अटेस्ट करते थे, सच को पूरा सच साबित करने के लिये, पर मानसिक रूप से हम वही बचपन वाले थे। तिलक राज का रूआब पूरा पक्का था, जिस आदमी को बेमतलब ही सीटी खरीद कर अहसानों से दबा दिया गया हो, वैसी ही प्रवृत्ति थी हमारी। उस दिन से ही उसके रूआब से दबते जा रहे थे हम।

हमें लगा कि तिलक राज भले ही बहुत सम्पन्न तथा ऊँचा हो गया हो पर उसके पैर जमीन की सतह से चिपके नहीं थे, उनके बीच में एक हवा की पर्त उसे जीवन की मान्यताओं से अलग कर रही थी। हमें लगा कि अवश्य ही वह न जाने कितने मजबूर हताश लोगों की सीटियाँ खरीदते हुये, उन्हें लज्जित करते हुये तथा उनकी कमजोरियों का फायदा उठाते हुये यहाँ तक पहुँचा है। वह तो इस गलतफहमी में ही रह रहा होगा कि हर समस्या कि निदान उसकी हर ऊँगली में पहनी विभिन्न धातुओं की अंगूठियों में हैं, जिसके कारण वह यहाँ तक पहुँचा है। उसने शायद पलट कर भी देखने की कोशिश न की होगी कभी।

वह शायद अपनी ही कहानी भूल गया होगा कि उसकी माँ का कितना बड़ा योगदान है इसमें, जो लोगों के कपड़े सिल-सिलकर तिलक राज तथा उसकी तीन बहनों का पालन पोषण कर रही थी। उस दिन हमसे काफी देर बाते करते हुये उसे एकबार भी अपना अतीत याद नहीं आया और न ही याद आई उससे जुड़ी मान्यतायें, बस अपनी शेखियाँ बघारने के दलदल से ही नहीं निकल पाया वह।

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२४ जुलाई २००२

 
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