प्रेम
हमेशा की तरह मुँह फट।
क्या बताता? कोई नई बात है क्या? मिलिटेंट गर्दन पर
ए.के.सैंतालिस रख कर छिपने की जगह माँगेंगे, तो कोई भी उन्हें
सात तहखानों में छिपा देगा। हिंदू हो या मुसलमान। दुलारी का घर
खाली था तो उनकी ही मिल्कियत समझिए। फिर मिलिटेंटों से रिश्ते
बना कर रहते हैं वहाँ लोग। उसे यकीन होगा कि यह लोग दुलारी को
नुकसान नहीं पहुँचाएँगे।
कमला ने उन्हें तगड़ी सी गाली दी। त्रटि लद , तावनजद।
शुक्र है तुम्हें शूट न कर दिया। उन सिरफिरों का क्या भरोसा?
राकेश की भी विपरीत बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। बता देता।
किस्साकोताह यह कि जुत्शी साहब का घर आने-पौने दामों में बिक
गया। केशवनाथ के घर में कागजातों पर हस्ताक्षर हुए। जुत्शी
साहब ने यह भी कहा, कि उधर आस्ट्रेलिया में विस्थापित
कश्मीरियों को कुछ रियायतें मिल रही हैं। सोच रहा हूँ,
रिटायरमेंट के बाद वहीं बस जाऊँ। अब यहाँ रहने का मन ही नहीं
होता। जिस देश में अपनों की कदर नहीं, वह कैसा वतन?
इस किस्से का आश्चर्यजनक पहलू यह भी रहा कि रसूल अहमद ने
भोभाजी से आत्मीय अनुरोध किया कि घर के कागजात वह दुलारी बहन
के हाथ से लेगा, और वह भी आही के हाथ।
प्रेम जी ने रसूल अहमद से पूछा, - "क्यों भाई रसूल अहमद,
कभी हम उधर आएँ तो घर में घुसने दोगे? रसूल अहमद बिछ गया,
हमारे सिर माथ भायजान। हमारी आँखों पर। घर तुम्हारा है, आखिर
हम भाई-भाई हैं, रहे हैं और आगे भी रहेंगे।
तो अभी भी काश्मीरियत की पूँछ बची हुई है।
गुलाम मुहम्मद फाजिल के शब्दों की गंूज कहाँ से सुनाई दी।?
'समिथ दीन धर्मस, छु इंसान छारान
खोदायत दयस यिम, अकी घांटे प्यारान'
अब एक ही घाट पर शाह हमदान और काली मंदिर में भिन्न धर्मों
के लोग इकठ्ठे होंगे? सुना है शाह हमदान मस्जिद के अंदर हिंदू
काल का प्राचीन कंुड है, जिसे मुसलमान भी पवित्र मानते हैं।
दुलारी के दिल से धंुआ उठ रहा था। नौकरी के लिए घर से
निकले कम से कम सेवानिवृत्ति के बाद, अपने घर में रह सकते थे,
लेकिन अब पिंड से जुड़ा आखरी तार भी टूट गया।
पूर्णाहुति की गंभीरता के साथ उसने रसूल अहमद को घर के
कागज थमाए।
आही करो बहन! रसूले ने इसरार किया।
खुश रहो। और क्या कहूँ?
आवाज गले में फंस गई। भीतर प्रश्न खंगालते रहे।
मुझसे दुआ-आशीष माँगते हो, पर खुद एक बार भी हमारे घर
लौटने की दुआ नहीं माँगी।
मुझे कहा उधर सुकून है। मरते हैं बेकसूर। फिर भी तुम
लुटे-पिटे निष्कासितों की जायदाद सस्ते में खरीद रहे हो,
क्योंकि तुम्हें बच्चों के भविष्य की चिंता है। तुम्हारे दिल
में कहीं यह डर भी है कि घर बार पीछे रहेगा तो एक दिन
निष्कासित वापस लौट आएँगे। तुम उनकी यह उम्मीद भी खत्म कर देना
चाहते हो।
तुम अपनी सलामती की दुआ उनसे माँगते हो, जिनके कटने-छिलने
के जख्म अभी भरे नहीं हैं।
लेकिन फिर भी दुआएँ दी गई, ली गई क्योंकि दुलारी का मन
हुआ। चीख मार कर रो दे।
प्रेम जी ने मन ही मन दाद दी, वाह री कश्मीरियत। दूसरी
घटना पर भी आश्चर्य तो होना चाहिए था। जन्म लेने पर आश्चर्य
नहीं तो मृत्यु पर कैसा आश्चर्य? दस द्वारे का पिंजरा, कह गए
हैं कबीरदास।
फिर अस्सी पार के केशवनाथ, तमाम शारीरिक बीमारियों के
बावजूद अच्छे काम करते रहे। पढ़ते-पढ़ाते रहे। लोगों से अच्छे
रसूख रखे। मजहबों के बीच दरारें आने के बाद भी मन से 'सर्वे
भवन्तु सुखिन:' वाले श्लोक में विश्वास बनाए रखे।
घर छूटने पर उन्होंने 'वसुधैव कुटुम्बकम' की बात की।
ग्लोबलाइजेशन, कम्प्यूटर क्रांति और विश्व व्यापार नीतियों की
चर्चा करते बच्चों को तसल्ली दी, कि अब पूरा विश्व ही अपना घर
समझो।
लल्ली को लगा कि उसके पति दिमागी संतुलन खोने लगे हैं।
प्रेम जी ने रसूल अहमद की सोच पर टिप्पणी की, तो केशवनाथ
मार्क्स को कोट करते बोले, कि लोग बुरे नहीं होते, हालात
उन्हें वैसा बनाते हैं, जैसा वे बनते हैं।
एक महदजू था, जो हमारे पास दो मास घर से दूर रहने पर
चिठि्ठयाँ पर चिठि्ठयाँ भेजता था कि घर लौटे जाओ आपके बिना दिल
नहीं लगता। एक यह रसूल। उसका ही लड़का है, अच्छा किया वहाँ से
चले आए
कमला को देवरजी का दर्शन गले नहीं उतरा।
"यह क्यों नहीं मानते भोभा जी कि लोगों के दिलों में खोट
आयी है।"
वक्त भी तो बदल गया। महदजू घर का नौकर था, चाहे हम कितने
भी अच्छे रहे हों, वह जानता था। उसके लड़के अपना अच्छा कमाते
खाते हैं, थोड़ी जमीन जायदाद भी है। उनकी सोच अलग तो होगी ही।
वे हमारे शुक्रगुजार क्यों रहें? यानी संबंधों के भावनात्मक,
आर्थिक आधारों में आर्थिक पक्ष महत्वपूर्ण होगा न। यही वक्त की
सच्चाई है।
लल्ली रसूल अहमद को दोष नहीं देती। वक्त वक्त की बात है।
परिस्थितियाँ। भोभा जी भावुकता से नहीं, तर्क से प्रश्नों के
उत्तर तलाशते हैं।
"सुनो, आदमी को जैसे हालात मिलते हैं, उन्हीं में वह अपना
इतिहास बनाता है। उसमें उसकी स्वतंत्र इच्छा या उसका अपना
चुनाव जैसा कुछ नहीं होता।
महदजू नंुद ऋषि और ललधद की बात करता था। जैन ऋषि और बाबा
ऋषि की कथाएँ जानता था। उन्हीं के दर्शन से उसकी सोच बनी थी।
देने की सोच।
रसूल अहमद ने होश में आते ही, सियासी चालबाजियों और भेदभाव
की रीति नीतियाँ देखीं। पाकिस्तानी दुष्प्रचार ने दिल दिमाग
में जहर भर दिया कि हिंदू हिंदुस्तान तुम्हारे दुश्मन हैं। सो
उसकी सोच को दोष क्यों दें।
यानी कि भोभा जी! आप कहते हैं, वादी का नया इतिहास हमारे
सत्ताधारियों की गलतियों, स्वार्थों और नाकामयाबियों से
उत्पन्न स्थितियों के बीच से ही बनेगा। भीतर की खामियाँ, और
बाहर जो तालिबानों-जेहादियों ने ग्लोबल इस्लामिक मूवमेंट छेड़ी
है, उसका प्रभाव भी वादी पर पड़ रहा है, उपर से पाकिस्तान
तीन-तीन लड़ाइयों में हार कर प्राक्सी वार चला रहा है, सो ऐसी
हालत में वादी के हिंदुओं को अपने पुरखों के स्थायित्व की
चिंता छोड़, जहाँ सींग समाए वहीं जाना चाहिए।
शायद यही होना है प्रेम! केशवनाथ ने दबी-दबी सी सांस ली।
पहले की डिक्सन योजना, या आज वादी में उठी आजादी की माँग।
हर जगह कश्मीरी पंड़ित ही मार खाता रहा है। ल ाख के लिए
आटोनोमस हिल कौंसिल की माँग शायद ल ाखियों के हितो की रक्षा
करे। काउंसिल जम्मू के लिए उनके नफा-नुकसान देख लेगी। कश्मीरी
पंडित की सुनवाई कहाँ होगी? वादी का तो तेजी से इस्लामीकरण हो
रहा है, वहाँ से हिंदू निष्कासित हो ही गया। अब सरकार कश्मीर
के लिए पैकेज की बात कर रही है पर पंडितों का नाम कौन लेता है?
उस रात देर तक घर में चर्चाएँ होती रहीं। केशवनाथ पूरे
होशोहवास में बातें कर रहे थे। ऑटोनोमी और कश्मीरियत पर खूब
बहसें की गइंर्।
रिद्धि की समझ में नहीं आता था कि फारूख साहब बार-बार
ऑटोनोमी की माँग क्यों करते हैं। तीन सौ सत्तर धारा ने हमारे
क्षेत्र को तो विशिष्ट दर्जा दिया ही है। अब और क्या चाहिए?
प्रेम ने इस माँग को पोलिटिकल गिमिक कहा।
ऑटोनोमी कौन चाहता है? किसान, मजदूर, व्यापारी? नहीं, यह
कहाँ कि ऑटोनोमी नेतागण चाहते हैं, वह भी असंतुष्ट नेतागण। उन
लोगों के लिए जो उन्हें मानने से इनकार करते हैं।
कश्मीर स्टेट सिर्फ वादी नहीं है, केशवनाथ ने जोड़ा -
"इसमें जम्मू और ल ाख भी हैं। ये भारत के साथ पूर्ण विलय के
पक्ष में हैं। वादी के शिया और गुज्जर भी ऑटोनोमी की बात नहीं
करते। प्रेम ने ठीक ही कहा, इसे पोलीटिकल गिमिक ही मानो।"
और खुराफातियों की चाल, कि जितना हो सके, भारत से दूर होते
जाओ। रिद्धि ने नाना जी की बात पूरी कर दी।
तुम उन्हें खुराफाती ही कहो, वे कहते हैं ऑटोनोमी
कश्मीरियत को बचाए रखने के लिए चाहिए।
दुलारी ने नया मु ा छेड़ दिया - कश्मीरियत।
केशवनाथ ने घड़ी देखी। ग्यारह बज रहे हैं। अब सो जाओ
रिद्धि, सुबह तुम्हें कालेज जाना है। कश्मीरियत को ऑटोनोमी से
कुछ लेना देना नहीं है। वह हमारी सामाजिक संस्कृति है।
पर इधर कुछ लोग उसे मुस्लिम आइडेंटिटी के साथ जोड़ कर
देखते हैं भोभा जी। बकवास। केशवनाथ बिस्तर में घुसते हुए बोले,
"हमारी कश्मीरियत के पीछे हजारों सालों का इतिहास है। वह बौद्ध
धर्म, सूफी और ऋषि संप्रदायों के मिले-जुले प्रभावों से बनी
हमारी आचार संहिता और अस्मिता है। उसके पीछे ऐतिहासिक कारण
हैं।
प्रेम जी ने अशोक के पांच हजार भिक्षुकों को लेकर कश्मीर
आने की बात की। हारवन में बिहारी के साक्ष्यों पर बातें हुई।
बौद्ध मत में जाति प्रथा नहीं। कश्मीरी पंडितों में भी जाति
प्रथा नहीं। क्या यह बौद्ध मत का प्रभाव नहीं हो सकता। रिद्धि
ने चौदहवीं शती में सात सौ मुरीदों को लेकर आए शाह हमदानी,
सूफी सैयद और धर्म प्रचारकों को ढूँढ निकाला।
लल्ली ने भी पीरों, फकीरों पर हिंदू मुसलमानों की एक सी
आस्था होने के दो चार उदाहरण दिए। दूर क्यों जाएँ, अपनी मंगला
बहन ने बेटे की बीमारी में कौन से पीर-फकीर के स्थान पर धागा
बांध, मुरादें नहीं माँगी।
रिद्धि को मजाक सूझा-नानी। कालेज में मेरी एक कलीग कहती
है, कश्मीरी पंडित आधा मुसलमान है, और कश्मीरी मुसलमान आधा
हिंदू।
लेकिन अब वह राग भी पुराना हो चला रिद्धि। अब कश्मीर
अंतरराष्ट्रीय मसला बन चुका है। पाकिस्तान के साथ अभी-भी बिल
क्लिंटन सरकार की हमदर्दी है। हथियार बराबर भेजे जा रहे हैं।
मानवाधिकारों का ढिंढोरा पीटने वाले, निष्कासित हिंदुओं को
घरों में बसाने की बात नहीं करते। चीन, अमेरिका, कश्मीर को
नासूर बनाए रखना चाहते हैं। सबके अपने स्वार्थ है। वादी के लोग
भी एक दिन भूल जाएँगे कि कश्मीरियत हिंदू विरासत रही है।
करीब बारह बजे रात वे लोग सो गए।
सुबह धंुधला छटने लगा कि फोन की घंटी उठी। प्रेम ने फोन
उठाया। विजया चौंक कर उठ बैठी। श्रीनगर से नीलम का फोन आया था।
फोन सुन कर प्रेम का चेहरा जर्द पड़ गया।
हे भगवान। कब कैसे? वे लोग चले गए? ऐसी क्या आफत थी? माय
गॉड। फिक्र मत करो, मैं आज ही चल पडंूगा।
क्या बात है? विजया ने प्रेम को बुलाया, क्या हुआ, कहो न।
प्रेम ने रिसीवर रख दिया।
मुसीबत आ गई और क्या। कात्या और डा. जीजा को मिलिटेंटों ने
अगवाकर लिया है।
विजया रोने लगी। प्रेम भोभा जी को खबर देने उनके कमरे में
चला गया।
लल्ली बाथरूम में थी। प्रेम ने भोभाजी को पुकारा -
- भोभा जी
- भोभा जी गहरी नींद में थे।
- भोभा जी, प्रेम ने हाथ से हिलाया डुलाया लेकिन भोभाजी
नहीं जागे रात तक तो अच्छे भले थे। यह अचानक क्या हुआ? घर में
हंगामा हो गया। डाक्टर बुलाया गया। उसने नब्ज देखी, आंखें
खोली, यहाँ-वहाँ टटोला और सॉरी कहा।
हार्ट अटैक लगता है। कोई अचानक सदमा तो नहीं पहुँचा?
सदमा? प्रेम ने कात्या कार्तिक की बात अभी विजया के सिवा
किसी से नहीं कही थी।
ताज्जुब है। वह हैरान था। बारह बजे तक हमसे बातें करते
रहे, हार्ट की कोई शिकायत भी नहीं थी और सदमे की बात
डाक्टर ने स्टैथस्कोप बैग में रखा। केशवनाथ को धरती की सेज
देने का इशारा किया - - "इसमें ताज्जुब की क्या बात है, भाई
साहब, कोई भी मौत हार्ट फेल होने से ही होती है।"
भोभाजी को पलंग से उतारते, प्रेम जी को लगा, जरूर उन्हें
नींद में ही आगामी हादसे का पूर्वाभास हो गया होगा। |