यानी कुछ भी
आश्चर्यजनक नहीं था। तभी तो, जब, रक्त की नदी में डूबा रतन
खुश्क गले से "त्रेश-त्रेश" चीख रहा था, तो उसके मुँह में पानी
के बदले पेशाब दिये जाने की घटना से भी किसी को आश्चर्य नहीं
हुआ।
फिर भी।
दरअसल, इस फिर भी से जीतेजी छुटकारा नहीं।
हुआ यों, कि नवंबर की सुहानी शाम, जब केशवनाथ, शुगर,
बी.पी. को कंट्रोल में रखने के चक्कर में, घर के सामने वाली
सड़क पर चक्कर लगा रहे थे, तो पास की पुलिस चौकी से जोर-जोर की
आवाजें सुनाई पड़ीं।
पानी-पानी।
आवाजों का कोलाज ऐसा कि केशवनाथ के कान खड़े हो गए।
पुलिस की धमकदार पूछताछ के जवाब में मिमियाती सफाइयाँ,
अजित बोला, 'झूठ बोलूँ तो जहन्नुम में जाऊँ ' का खुदाई खौफ और
ठेठ कश्मीरी आदत और लहजे में बच्चों और खुदा की कस्में, खोदाय
सुंज द्रिय, बचन होन्द मख्न।
केशवनाथ उत्सुक हुए, कौन होगा? क्या कुसूर किया होगा? वही,
बच्चों के कहे, दूसरे के मामले में टांग घुसाने की पारंपारिक
आदत!
पास आकर देखा, रसूल अहमद था, महदजू का लड़का। साथ में,
राजेश खन्ना और शाहरूख खान की मिली-जुली सूरतों वाला युवक। जो
कुछ न कर पाने की विवशता में अपने हाथ निचोड़ रहा था।
रसूल अहमद केशवनाथ को देख पैरों पर गिर पड़ा, खोदा-ताला
आपकी उम्र दराज करे। आपके ही पास आ रहा था। इन लोगों ने पकड़
लिया आप इन्हें बता दीजिए न कि उधर का हर आदमी मिलिटेंट नहीं
होता। पता चला, पुलिस वाले रसूल अहमद को घरों के चक्कर लगाते
देख, शक की बिना पर, पूछताछ कर रहे थे, यानी कि अपनी ड्यूटी
निभा रहे थे। रसूल वादी से आया कोई दहशतगर्द हो सकता था। उसके
झोले में बम, बंदूक, स्मैक-चरस कुछ भी हो सकता था।
लेकिन वहाँ तुड़े मुड़े कुछ कागज पत्तर दो जोड़ी मुचड़े
हुए सफरी कपड़े और पांच हजार के नोट निकले, जो केशवनाथ के
प्रकट होने से वापस झोले में सुरक्षित हो गए।
अब रसूल अहमद, केशवनाथ के घर में बैठा, जम्मू आने का कारण
बयाँ कर रहा था। रसूल अहमद का जम्मू आना साधारण सी बात थी।
क्योंकि वादी में तमाम दहशत के बावजूद दरबार मूवी सिस्टम की
तरह कश्मीरी व्यापारी, व्यापार के लिए और मजदूर, मजदूरी के लिए
जम्मू आता जाता रहता है।
लेकिन रसूल अहमद न व्यापारी था, न मजदूर।
वह गाँव का छोटा किसान था। उसने कहा, आप जानते हैं भोभा जी
(उसे मालूम था केशवनाथ को घर में भोभा जी कहते हैं) किसान छ:
मास वादी में बेकार बैठा रहता है। आप दानिश्वर हैं, जानते हैं
कि बाल बच्चों का कुछ सबीला हमें करना ही पड़ता है। आखिर उनका
मुस्तकबल हम न देखें तो कौन देखेगा?
तो रसूल अहमद ने बच्चों के मुस्तकबल की फिक्र में नया काम
हाथ में लिया था। वह था घर छोड़ भाग निकले भट्टों के घर
बिकवाने में मदद करने, चिंताएँ बड़ी जेनुइन थीं।
अब वापस तो लौट नहीं सकते भट्ट भाई अपने घर। पर पैसे टके
की जरूरत रहती है परदेश में। सोचा, इसमें हम कुछ मदद कर सके तो
हाजिर हैं, आखिर हम भाई-भाई हैं, हमवतनी, हमजबान हैं
उसके शब्दों में ऋषि परंपरा की परोपकारिता, नई परिभाषाओं
में मौजूद थी। केशवनाथ कुछ कुछ उलझते से गए।
'मगर हमें तो अपना घर बेचना नहीं है।'
'जानता हूँ, जानता हूँ भोभा जी!'
जाहिर है, रसूल अहमद पूरी जानकारी हासिल करके आया था।
'आपके घर में बी.एस.एफ. के जवान रहते हैं, जानता हूँ,
मंदिर के पास है न आपका घर? अच्छा किया आपने, इससे हिफाजत
रहेगी।'
दूसरे ही पल रसूल अहमद जुतशी साहब का हाल-चाल पूछने लगा -
"कैसे हैं आपके दामाद साहब? सुना है वे अपना घर बेचना चाहते
हैं। मुझे उस दर्जी ने बताया। दरअसल ये लड़का है न, उसने इशारे
से राजेश, खन्ना शाहरूख खान की एकल प्रस्तुति की तरफ इशारा
किया, रिश्ते में मेरा बाबथर है, इसे वह घर पसंद आ गया "
'हूँ।' केशवनाथ ने छोटा सा हुँकारा भरा, कहानी आगे बढ़े।
रसूल अहमद ने चेहरा लटकाया। गठीले बदन पर अनुपात से कुछ
दुबली गर्दन के ऊपर टिका दाढ़ी वाला चेहरा ज्यादा लम्बोतरा हो
गया। अच्छा किया भोभा जी आप लोगों ने, उधर से निकल आए। अब
मारामारी के सिवा वहाँ रखा ही क्या है।
राजेश-शाहरूख ने टुकड़ा जोड़ा, कोई सुकून ही नहीं है वहाँ।
केशवनाथ हूँ हूँ करते सिर हिलाते सुनते हैं। प्रेम जी रसूल
के चेहरे की हलीमी के पीछे आँखों की शातिर चमक पढ़ने लगे।
लल्ली कमला सोचती रही कि यह रसूल अहमद उसी महदजू का लड़का है,
जिसे आधी उम्र रैना परिवार में गुजारने पर ताता साहब ने आबी
जमीन का टुकड़ा काश्त के लिए दिया था। केशवनाथ ने लड़कों को
स्कूल भेजने की सिफारिशें की थी। कुछ बनेंगे तुम्हारे लड़के,
तो तुम्हारा बुढ़ापा भी सुख से कटेगा ।
रसूल सचमुच कुछ बन गया था। भट्टों के घर बिकवाने का दलाल!
उसे विश्वास था और उसने कहा भी, कि अच्छा हुआ, आप लोग वहाँ से
निकल आए।
अब उसके बाबथर को जुत्शी साहब का घर पसंद आ गया था।
मैंने सोचा, आपको बेचना ही है, तो क्यों न हम ही लें?
यानि के पहला हक हमारा?
महदजू कैसा है? कभी हमें याद करता है?
लल्ली ने जानना चाहा, क्या वह भी बेटे के विचारों इरादों
में शामिल हैं? बाबा तो पांचेक साल पहले गुजर गया लल्ला मोजी।
लल्ली को अफसोस हुआ। रसूले को समझने में कम दिक्कत आने लगी।
लड़का गुजरी पीढ़ी के भौतिक बोध से मुक्त हो चुका है।
रसूल अहमद भावुक हो आया।
उम्र भर आप लोगों की ही बातें करता रहा। हमें तो आप सभी के
नाम तक याद हैं। आपके वालिद मरहूम ताता साहब, आपकी लड़की डा.
कात्यायनी, उधर गंगजी बाग में अस्पताल खोला है न! और इधर
दुलारी जी, लड़का तो अमेरिका में ही है न?
रसूल अहमद ने लंबी उसांस भरी, "आप संवाद करने की बात करते
हैं? मरने के बाद भी जेब से आप लोगों की फोटो निकली बाखोदा।
उसे सीने से लगा कर सोता था।
केशवनाथ दसेक वर्ष पहले मिला था। महदजू ने अमरनाथ यात्रा
के दौरान चंदनवाड़ी टट्टूओं पर यात्रियों का सामान उठा रहा था
: पूरी यात्रा साथ लगा रहा। चेहरे पर वक्त के बुने जालों के
सिवा कुछ भी न बदला था। वही पहचानी आत्मीयता, हलीमी, सलामती की
चिंताएँ और दुआएँ।
महदजू की याद ने घर को खामोश कर दिया।
लल्ली ने चाय बनवाई। रसूल अहमद ने तारीफ की। तल्ख बनी है
दिमाग तर हो गया। उसे शिकायत थी कि पिछले हफ्तों से खाना पीना
हराम सा हो गया है। होटलों में दाल रोटी और भिंडी टिंडे। इधर
वालों को माँजिहाख बनाना भी नहीं आता। पत्ते फेंक देते हैं,
भला ठंूठ मोंजी में क्या स्वाद बचता है।
सोच रहा हूँ, कब घर पर पहुँचू और घर का हाकबत नसीब हो। घर
की त्रेश के लिए तरशता हूँ यहाँ । केशवनाथ अभी भी हाँ हाँ वाली
मुद्रा बनाए रखे थे।
खाना खाकर जाओ। लल्ली ने माजरत की, यों स्वाद आबो हवा में
हैं
भट्ट भात नहीं खाता, चाय पी लेता हूँ, सो पी ली।
अल्लाहताला खुश रखे। यह लड़का खाता है। उसने फिर लड़के की तरफ
इशारा किया।
"फिर कभी।" लड़का दो शब्द बोल कर चुप हो गया।
वे मुद्दे की बात पर आ गए।
अगर आप जुत्शी साहब से कह दें, तो यह लड़का अच्छी रकम देने
को तैयार है। सच कहूं तो इसे कर्णनगर वाला वह घर पसंद आ गया।
वरना आप जानते हो काम बड़ा जोखम का है। सरकार ने घरों की
खरीद-फरोख्त पर पाबंदी लगा दी है।
लड़के की नई सड़क पर तेल की दुकान है। उसके पास पैसा आ गया
है, तेल बेचने या अफीम गांजा इधर-उधर करने से कौन जाने यों
वादी में नए धंधे खुले हैं, मिलिटेंटों से पत्रकारों की
मुलाकातें करवाना, न्यूज एजेंसियों को भीतरी खबरें देना।
बी.एस.एफ. या आर्मी के जवान को मारने के तो दो लाख तक मिलते
हैं। लेकिन रसूल अहमद मिलिटेंट नहीं था। उसने वादी से उठती
आजादी की आवाजें सुनी थीं और उसे यकीन सा हो गया था कि आजादी
की राह में हिन्दू लोग रोड़े भर रहे हैं क्योंकि वे
हिन्दुस्तानी एजेंट हैं। तो उनका वादी से चले जाना ठीक ही है।
उनके जाने के बाद, जाहिर है घर बार जमीन जायदाद, नौकरी-वोकरी
पर किसी का हक बनता है, तो रसूल अहमद और उसके बाबथर का?
केशवनाथ ने कहा, ' मैं दामाद साहब से बात करूँगा।'
लल्ली को कफनचोर कहानी याद आई। पहले पहले कफनचोर कब्र से
मुरदे को निकाल कर, कफन चुराता था। फिर दोबारा ताबूत बंद कर
जमीन में दबा देताा। एक दिन आया कि कफनचोर कफन चुरा कर मुरदे
को जमीन पर नंगा छोड़ चला गया।
सैंतालीस से लेकर सदी के अंत तक अपनी वादी ने कैसे कफन चोर
ईजाद किए हैं। पहले स्कूल कालिजों में सीटों कम की गइंर्। फिर
प्रदेश में नौकरियों का टोटा पड़ गया, फिर पदोन्नतियाँ रूक
गयीं। फिर केन्द्र सरकार के कार्यालयों में जगह पाने के लिए
गुस्सा उपजा। आखिरकार एक दिन जमीन कम पड़ गई। सो बाकी बचे खुचे
पर भी हक जमाने का सिलसिला चल निकला। भागते भूत की लंगोटी भी
गई और मुर्दा आसमान के नीचे नंगा रह गया।
जुत्शी साहब बोले, जब घर लौटने की उम्मीद ही खत्म हो गई
है, तो घर रखकर क्या करूँगा। यों भी वह घर अब मिलिटेंटों की
रिहायिशी हो गई है। कोई भी खरीदे, फर्क क्या पड़ता है।? उनकी
मुद्रा विराग भरी है।
दुलारी पिछले साल तक राजी नहीं हुई थी। घर बेचने के लिए।
सास ससुर जी छ: महीने कर्णनगर में रहते थे। वे बच्चों के साथ
गर्मियों के दो महीना रह आते। सेवानिवृत्ति के बाद तो सोचा था,
छ: मास श्रीनगर में रहेंगे। उन्हें देख आंगन की बाड़ पर छाए
लाल गुलाबों के गुच्छे हँस पड़ते। हवा में सिर नहीं चलता।
उसने कहा भी, कि अब चुनी हुई सरकार बनी हैं, हालात बेहतर
होने की उम्मीद जगी है।
आखिर भारत सरकार यों ही प्लेट में सजा कर कश्मीर
मिलिटेंटों के हवाले कर देगी क्या?
आखिर कश्मीर का मसला कोई इकहरा मसला तो नहीं? कि भट्टों को
निकाल इसे इस्लामी स्टेट बना कर मामला हल हो जाए। फिर भारत में
जो नौ-दस करोड़ मुसलमान हैं, उनको कितने पाकिस्तान बना कर
देंगे?
एक तरफ चीन-ईरान-पाकिस्तान, भौगोलिक कारणों से वादी को
अपनी बेस बनाना चाहते हें, दूसरी ओर सीमाओं पर अमेरिका की नजर
बराबर लगी है। वे लद्दाख को बौद्ध धर्म के नाम पर आजाद तिब्बत के
साथ मिला दें और चीन के पैरों में जंजीर डाल दें। इस अमेरिकी
प्लान के लिए भारत क्या मुहरा बनेगा?
भारत ने जो करोड़ों अरबों रूपये प्रदेश में झोंके हैं, और
जो अब उसके लिए प्रेस्टिज का ही नहीं, राष्ट्र के अस्तित्व से
जुड़ा प्रश्न है, उसे आप अनदेखा कैसे कर सकते हैं।?
प्रेम ने दुलारी की आंख में उंगली डाल कर हालात दिखाए,
"बड़ी बातें एक तरफ। सीधी सी बात यह है कि जिन नेता जी के
रहते प्रदेश में आतंकवाद जड़ पकड़ता गया है, वे ही दोबारा चुन
कर आ गए, तो क्या आप हालात बदलने की उम्मीद कर सकते हैं?"
नहीं दुलारी बहन, इस खुशफहमी को दिल से निकाल दीजिए।
प्रेम ने मुख्यमंत्री साहब का कथन कोट कर दिया, कि उन्नीस
सौ चौरासी में जब जगमोहन गवर्नर द्वारा पदच्युत किए गए, तब
उनके मन में उन्हें सबक सिखाने की बात जरूर आ गई थी। सो वे
आतंकवादियों की कार्रवाइयों को जान कर भी अनजान बने रहे और
हालात बिगड़ते गए। यों जानकर लोग जानते थे कि लंदन में रहते
उनके संबंध जे.के.एल.एफ वालों के साथ रहे। उन्होंने तब कहा भी
था कि भारत ने उनके पिता के साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया।
यों यह बदला लेने का ढंग था, आतंकवाद को पनपते देख चुप्पी
साधना। जो होता है होने दो। यानी कि अपने पैरों पर कुल्हाड़ी
मार ली।
इधर कुछ लोगों ने कहा आजकल हालात बेहतर हो रहे हैं। अपने
भटके युवा भारी तादाद में हथियार डाल रहे हैं। समझ गए कि जिस
कल्चर में उन्हें बरबादी के सिवा कुछ नहीं दिया। यह भी कि
पकिस्तान उन्हें नहीं, उनकी वादी चाहता हैं।
बी.एस.एफ. काफी सतर्क है। अब वादी में आने जाने के लिए
मिलिटेंटों से इजाजत भी नहीं लेनी पड़ती।
इस बेहतर हालात के आश्वासन से दुलारी और युवा नौकर संतू
टैक्सी में श्रीनगर के लिए चल पड़े।
दुलारी सिंह ने हरे फिरन पहने, डेजहोरू बालों में छिपा
लिया। इधर हरा रंग, सब्ज जारों का नहीं, मजहब का रंग हो गया
था।
यह यात्रा, पहले की यात्राओं से भिन्न थी, अपने घर की नहीं
किसी अंजाने देश में घुसने की अनधिकृत चेष्टा।
जवाहर टनल पर बी.एस.एफ की तलाशियाँ। सॉरी। हम मजबूर हैं,
की नम्रता के साथ।
बड़शाह चौक पर टैक्सी वाले का बीच राह अड़ जाना कि "बहन
जी, बाल बच्चे वाला हूँ उधर कब क्रास फायरिंग हो, पता नहीं
चलता, कब मारा जाऊँ।"
रिद्धि का सड़क पर खड़े पुलिस से पूछताछ कर ड्राइवर को
मनाना कि मरेंगे तो हम भी, मरना हुआ अगर ।
आगे तो अपरिचय दीवार की तरह तना था। अपनी गली से गुजरते
दोस्त, पड़ोसी, नजर नीचे कर बिना पहचाने बतियाये निकल गए। शहर
खौफ की मुठ्ठी में बंद था।
पड़ोसी राकेश के पास घर की चाबियाँ थीं। उसने बंद दरवाजा
खोला तो घर का हुलिया देख, पहली नजर में ही दिल धंस गया। बाद
में।
उम्रों के घरौंदे, पुरखों की यादगारों से अटी धरती, हवा और
मौसम की महक सब कुछ बदल गया था। शैंडिलियरों - कारपेटों से सजा
घर किसी अनदेखे भूचाल से तहस-नहस हो गया हो जैसे। नक्काशीदार
अखरोडी लकड़ी के पलंगों पर रजाइयाँ कंबल, बंडल, बने बेतरतीब
शक्ल में पड़े थे। अजीब शी उबकाई लाती गंध कमरे में ठहर गई थी।
बिस्तर पर सूख कर गाढे हो चुके खून ओर पेशाब के धब्बे देख
दुलारी का चेहरा सफेद पड़ गया कहीं यहाँ भी भोगी गई लड़कियों
की लाशें न पड़ी हों, जैसे कई खाली घरों में पाई गई हैं।
कालीन पर उल्टी कांगड़ियों की राख और कैंपा कोक की खाली
बोतलों के बीच रास्ता बनाती, दुलारी चौके में गई तो कुकर,
थालियाँ, गिलास फैले देख लगा कोई भूत घर में बस रहा है। बंद
दरवाजों के पीछे भला कौन रह बस सकता है।
पिछवाड़े का कमरा खोला तो कुर्सियों पर तने अकड़े भूत बैठे
हुए मिले।
दुलारी की टांगे भय से थरथराने लगीं।
एक फ्रेंचकट दाढ़ी वाला भूत, खुशनुमा लहजे में नमस्कार कर
बोला कि वे लोग इधर रहने आए हैं, किराए पर। आजकल में ही घर
वालों से बात करेंगे।
दुलारी ने आसपास, ऊपर नीचे देखा, कोई बिस्तर बोरिया,
चटाई-बक्सा कुछ तो होगा उनके पास। पर वहाँ सिर्फ संजीदा चेहरों
वाले युवक, हाथ पीछे किए, कुर्सियों पर तने-अकड़े बैठे थे।
क्या था उन उन पीठ पीछे छिपाए हाथों में? बम, पिस्तौल,
कलिशनिकोण? क्या कर रहे थे। वे पांच युवक घर में छिप कर? और वह
कमरे की उबकाई लाती गंध और चौके में फैले जूठे बर्तन? दुलारी
समझने की कोशिश में चक्कर खाकर गिर पड़ी, इससे पहले ही राकेश
ने आकर
दरवाजा बंद कर दिया।
एक इशारा कि अब लौट जाओ, बहस न करो अगर जान प्यारी है।
इस बीच रिद्धि ने दादा जी की कुछ चुनी हुई किताबें बैग में
डाल दी थीं। राजतरंगिनी, नीलमत पुराण, प्रकाश रामायण, तवारीखे
कश्मीर।
ड्राइवर माँजी का भारी बक्शा खींचकर कार में रख चुका था,
पता नहीं उसमें वे आठ अंगुल जामवार वाले पश्म के शाल थे या
नहीं, जो अनवर जू ने "खास उनकी बहूरानी" के लिए शौक से बनाए
थे।
दुलारी के पास कुछ भी उठाने देखने का समय नहीं था। वे लोग
कुछ भी कर सकते थे। तभी जाने क्या हुआ कि दुलारी ने लपक कर
ठाकुर द्वारे का दरवाजा खोला देवी-देवताओं के फोटो-फ्रेम
दीमकें चाट गई थीं। संगमरमरी शंकर पार्वती और गणेश के ऊपर
गेंदे के सूखे फूल पत्ते चिपके रह गए थे। पूजा की धूप दीप,
बासी गंध के साथ दुलारी के कानों में सुसर जी की भाव विभोर
करती देवी स्तुति गंुज उठी :-
' नित्य: सत्यो निष्कल एको जगदीश:
साक्षी यस्या सर्ग विधो सं हरणे च
विश्वत्राण क्रीड़ाशीला शिवपत्नी
गौरी अंबा अंबरूहाक्षीम, अहमीङये:'
जगत की रक्षा करना जिस माँ की क्रीड़ा है, उसने क्या
क्रीडा करना छोड़ दिया? या वह भी घरवालों के साथ विस्थापित हो
गई है।?
दुलारी ने शिवभक्ति की युगल मूर्ति उठा कर फिरन की जेब में
डाल दी, तुम जो भी क्रीड़ा कर रही हो, तुम्हें इस निष्कासन में
हमारे साथ रहना है।
लौटते में सड़के ज्यादा धंस गयी थीं। पहाड़ इतने कठोर
निर्मम पहले तो कभी नहीं थे। हवाएँ हडि्डयों में सुराख क्यों
कर रही हैं।?
लल्लेश्वरी के पांपोर गाँव में, दूर-दूर तक फैली केसर की
क्यारियाँ, नीललोहित फूलों की आँखों से लल्ली को ढूँढ रही थीं।
(उसने कहा था :- शेव छुय यलि यलि रोजान, मी जान ब्योन, मो जान
ब्योन, हयोंद त मुसलमान। उसकी वाणी लोग भूल क्यों गए?)
कोंगपोश उदास? तटस्थ और अकेले दिखे। उन्होंने दुलारी,
रिद्वि का रास्ता नहीं रोका। यार गयोम पोंपुर वते कोंग पोशव
रोट नालमत्ये। गले बांह डाल बेटियों की अगुवानी नहीं की।
कांजीगंुड में टैक्सी रोक जय दुलारी ने बांह भर चिनार के
पत्ते टैक्सी में भर दिए, तो रिद्वि बौरायी माँ को असमंजस में
देखती रही। काश! समय को किसी कैप्सूल में बंद करके रखा जाता तो
महसूस करने के साथ-साथ उसे देखा छुआ भी जा सकता। शायद खो जाने
के दंश से तब कुछ हद तक मुक्त भी हुआ जा सकता था।
बानिहाल टनल के पास खड़े उन्होंने आसमान तले सहमी सिकुड़ी
सिर झुकाई हुई वादी को देखा, चौतरफा पानी का बृहत् फैलाव।
जिसमें नए जलोद्भव उत्पात मचा रहे हैं। कश्यप ऋषि इतिहास हो
गए, ऋषियों-मुनियों का जमाना लद गया। नाग, आतंक से घबरा कर
वादी छोड़ गए। अब वहाँ राक्षसों का तांडव है।
वादी को मुक्त करने कौन आएगा।?
जम्मू में लल्ली ने "रोट" बना कर महागणपति को धन्यवाद दे
दिया - "तुम लौट आई, यही क्या कम है? आग लगे शाल-दुशालों में।
जिएँगे तो अनेक शाल-दुशालों में।
केशवनाथ को आश्चर्य हुआ, "राकेश के पास चाबियाँ थीं। उसे
मालूम होना चाहिए, घर में मिलिटेंट बैठे हैं। उसे बताना चाहिए
था।" |