रवीश शूटिंग देखने जाने के लिए उठा तो
रुख़ आंटी भी साथ हो लीं,
फिर तो जैसे वे बच्ची हो आयीं। दोनों भागे, दौड़े, भीड़ में
धँसे। सामने कुर्सी पर बड़े-बड़े फिल्मी सितारे अपनी
दमदमाहट-चमचमाहट को बिखेरे थे। इतने सारे दर्शक - कोई फब्तियाँ
कसता, कोई खिलखिलाता, कुछ भौंचक दमसाधे सितारों की आकाशचुम्बी
दुनिया में खो जाते। उन्हीं क्षणों में रुख़साना आंटी, रुख़ आंटी
हो आई थीं और रवीश 'रीश'। शूटिंग के बाद, वे साथ-साथ
ओबेरॉय के
गार्डेन में घूमते रहे थे। कोल्ड ड्रिंक पीते रहे थे और फिर एक
बजते-बजते अच्छे बच्चों की तरह पापा की हिदायतानुसार खाने की
टेबल पर की कुर्सियों पर आकर बैठ गये थे।
सामने से पापा आते दिख गये थे। पापा की चाल हमेशा की तरह
मरी-मरी-सी नहीं थीं। सिर पर भार ढोते झुके-झुके से नहीं चल
रहे थे। वे तनकर चलते-मुस्कराते हमारे पास पहुँच गये। रुख़ आंटी
को बैठा पाकर तो उनकी मानों बाँछें खिल आयी थीं, जिस खुशी को
उन्होंने बिल्कुल छिपाया नहीं। ऐसा लगा जैसे पापा-बेटे के बीच
कोई गुपचुप समझौता हो गया था - एक-दूसरे से कुछ न छिपाने का
समझौता।
स्वाद होटल के खाने में था, या रुख़ आंटी की हाज़िरी या फिर
पापा का व्यवहार था, जिसने उसमें स्वाद भर दिया था या फिर
देखने का नज़रिया बदल गया था। पता नहीं क्या था? रवीश ने उस
दिन तक इतनी खुशी कभी महसूस नहीं की थी।
लंच के बाद पापा मीटिंग में चले गये। रवीश और रुख़साना को ऑफिस
की कार मिल गयी। सोचा गया था कि निशात-शालिमार आदि बागों की
सैर करते हुए 'डल' पर वापिस आकर बोटिंग करेंगे और अँधेरा होने
से पहले होटल में वापसी होगी। सब जगह घूमकर वापिस आये डल लेक
में बोटिंग की। फिर 'नेहरू पार्क' में घूमने लगे। नेहरू पार्क
के चारों कोनों से कश्मीर की वादी के सौन्दर्य को घूँट-घूँट पी
लेने के बाद जब बजरे की ओर वापिस जाने लगे तथा एक छोटे कद का,
कुछ रोली-पोली-सा (यही शब्द रवीश के मन में आया था) आदमी,
जिसके बाल खिचड़ी हो गये थे और माथा आधे सिर तक पहुँच गया और
पास आकर खड़ा हो गया।
बेशरमी से मुस्कराता रहा। रुख़ आंटी हकबका गयी, कुछ झेंपी भी लग
रही थी। रवीश तो मानो उससे लड़ने को तैयार हो गया। आखिर इतनी
बेअदबी वो भी एक खूबसूरत महिला से उबाल क्यों न आता?
तभी रुख़साना के चेहरे का भाव बदला और वो "ओह तुम।" कहते-कहते
जोर से हँस पड़ीं, साथ ही वे महाशय भी हँसी से लोट-पोट हुए जा
रहे थे। वैसो भी रोली-पोली से वे महाशय, हँसते तो गेंद की तरह
इधर-उधर लुढ़कते लग रहे थे। जब दोनों ढेर-सा हँस चुके तो कुछ
वहाँ बैठे लोगों को तथा कुछ रवीश के चेहरे पर बेवकूफी और
झुँझलाहट के भाव को भाँपते हुए रुख़ आंटी ने परिचय करवाया।
"रीश! ये हैं माननीय सुमन्त! हमारे साथ कॉलिज में पढ़ते थे "
और फिर कान में फुसफुसाया - "अद्धा! अद्धा साहब।"
"क्या फुसफसा रही हो? लगता है बुराइयाँ करने और फब्तियाँ करने
की आदत छूटी नहीं हैं।"
"तुम्हारी छूट गयी क्या?"
"क्यों भई? हम क्यों छोड़ें? भई! वक्त बदल जाता है, उम्र निकल
जाती है, शक्ल-सूरत भी पहले जैसी नहीं रहतीं, दोस्त लोग रास्ता
बदल लेते हैं एक ही तो चीज़ है जिसे हम सँभाले चलते हैं, जो
हमारी पहचान बनती है। उसे भी छोड़ देंगे तो बीत नहीं जायेंगे।"
सुमन्त यानि अद्धा महोदय ने जिस फ़िलौसफ़र के अन्दाज में कहा और
सिर झुकाकर आदाब बजाया, सभी हँस पड़े।
"कहाँ ठहरी हो?"
"सामने ओबेरॉय में, चलो, साथ चलो सुवि से भी मिल लेना वो भी
आये हुए हैं।"
और फिर चलते-चलते "तुम कहाँ हो, कैसे हो, कैसे हो, बच्चे कितने
हैं, कितने बड़े आदि-आदि जाने परिचय की कितनी खाइयाँ भरी जाती
रहीं। दोनों भूल गये थे कि रवीश भी साथ चल रहा है।
रवीश ये तो नहीं जानता था कि रुख़ आंटी या फिर अद्धा अंकल कितना
उत्साहित हैं, पर रवीश का मन तो पंख लगाकर उड़ जाना चाहता था।
यह दिन भी अजब इत्तफाकों से भरा था। सुबह की शुरूआत रुख़ आंटी
से मिलने से, फिर पापा और आंटी के बीच के सम्बन्धों की कड़ी
पकड़ में आने से और फिर 'अद्धा अंकल', जिनकी सुबह यूँ ही चर्चा
हो गयी थी यानि इत्तफाक कहानियों और फिल्मों में नहीं होते,
जिन्दगी में भी होते हैं।
पापा लॉबी में नहीं दिखे अत: रवीश सबको अपने कमरे में ले गया।
कमरे में घुसे तो बाथरूम से पानी के चलने और गुनगुनाहट की आवाज
आ रही थी। तो पापा की मीटिंग खत्म हो गयी। सुबह चार बजे ही
एयरपोर्ट पहुँचना था इसलिए नहाना नहीं हुआ था। पापा अब नहा रहे
थे और गुनगुना रहे थे। एक और रहस्य पर का पर्दा हटा था। पापा
गाते भी हैं वो भी गज़ल। कमरे में सन्नाटा छा गया, सिरफ पापा
की धीमी-धीमी आवाज गूँजने लगी - 'वो जो हमने तुमसे करार था,
हूँ हूँ हूँ ऊँ तुम्हें याद हो कि न याद हो' इसी लाइन को पापा
लगातार दोहरा रहे थे। रवीश ने कनखियों से रुख़ आंटी के सफेद
पड़ते व पीड़ा से दु:खते चेहरे को देखा। उसे भीतर क्यों कुछ न
पिघला, क्यों नहीं पिघलता? रुख़ आंटी से तो उसका कोई सम्बन्ध
नहीं है। 'अजीब है मेरा मन' - उसके मन में ' गिल्ट' का भाव
जागा तो पर...
"अच्छा तो ये जनाब अभी भी वही गज़ल गाते हैं। कमाल का इंसान
है। कुछ भी न बदला, न इश्क, न मुश्क, न गज़ल।"
रुख़ आंटी तो मानो संग की मूर्ति बन गयीं थीं। तभी पापा बाथरूम
से बाहर आ गये।
"हैलो सन! आ गये तुम। कहाँ घूमते रहे यार, इतनी देर तक? पर
तुम्हारा भी क्या कसूर? रुख़साना साथ हो तो देर-सबेर का पता ही
कहाँ और कैसे चलेगा?"
अचानक पापा की निगाह तीसरे व्यक्ति पर पड़ी। एक पल के सौंवे
हिस्से भर वे भौंचक रहे
और फिर चिल्ला पड़े - "अब ओय अद्धे! तू कहाँ से मिल गया इनको?"
और फिर एक हँसी का दौर गले से लिपटते, लोट-पोट होते रहे। रवीश
हैरान-सा देखता रहा। रुख़साना शायद बीते वक्त की एक कसक बनी
बैठी थी जो उसके भीतर धड़क रही थी। हँसी जब खत्म हुई तो पापा
ने हाथ में कंघी लेकर बातचीत शुरू की। बाल बनाते हुए दोनों के
बीच की खबरों का जायज़ा लिया जाता रहा। तभी पता चला कि अद्धे
अंकल श्रीनगर में ही बसे हैं। ' शिवपुरी कार्पेट कम्पनी' में
मैनेजर हैं तथा पिछले आठ साल से यहीं की जरो-जमीन के स्वर्ग का
मज़ा ले रहे हैं।
पापा ने बाल ठीक किये। फिर 'डीन्वॉर' की सेण्ट का स्प्रे किया।
"यार! बड़ा चिपकू है। सेंट तो बदल लिया होता। रुख़ यार। तुम अभी
तक यही सेंट गिफ्ट करती हो उसे।"
पापा तथा रुख़ आंटी के चेहरे पर एक रंग आ रहा था, एक जा रहा था।
अचानक पापा ने बात बदल दी।
"अद्ध " बीच में ही रोककर बोले, "कान्त। इनसे मिली। ये हैं
मेरे साहबज़ादे - रवीश। आजकल इंजीनियरिंग के दाखिले की तैयारी
में हैं। छुट्टियाँ थी इधर मेरी मीटिंग, साथ घूमने चले आये।"
"वेरी गुड तुमसे ज्यादा हैण्डसम निकल रहा है बेटा। खुश कीत्ता।
इसे अपनी सूरत का बड़ा गुमान था। कॉलिज का हीरो या अपना यार।
अब पुत्तर ने मात दे दी है। हाँ, भई! 'चाइल्ड इज द फादर ऑर हिज
फादर।"
कान्त अंकल लगातार बोलते चले जाते अगर उनकी निगाह घड़ी पर न
पड़ जाती। घड़ी देखते ही वे तो हाथों से तोते उड़ जाने तथा
उड़ते तोतों को पकड़ने की जल्दी वाले भाव से उठे, अपना कार्ड
निकालकर दिया, अगले दिन अपने घर पर ' डिनर' का इन्वीटेशन देते
हुए कमरे से निकलने लगे। पापा 'अरे अरे यार क्या हुआ?' कहते
हुए उनके साथ दरवाजे तक आये। दरवाजे के पास कान्त अंकल ने पापा
का हाथ दबाया और बोले - "खुशकिस्मत हो भाई। जो चाहा, पा लिया।
सबकी ऐसी किस्मत कहाँ होती है?"
पता नहीं कहाँ, जिसके मन के स्तर पर क्या चुभता रहता है? वह
दूसरों की तुलना में अपना गम ज्यादा महसूसता रहता है। उस दिन
रवीश की अक्ल की किताब के कुछ और पन्ने लिखे और पढ़े गये कुछ
और किरदार समझ आने लगे। समझ ऐसे ही आती है ऐसे ही आनी चाहिए
वक्त धीरे-धीरे बीतता है, घटनाएँ वक्त के साथ घटती हैं, तिस पर
परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं तथा इन्सान इन्सान ताज़िन्दगी
इस किताब को पढ़ता रहता है, इसमें
कुछ-कुछ पन्ने जोड़ता रहता है।
कान्त अंकल चले गये। एकाएक बड़े हो आये रवीश ने पापा तथा रुख़
आंटी के साथ डिनर किया जिसका स्वाद उसे याद रहा न रहा, पर पापा
और रुख़ आंटी के रिश्तों की गंध उसके भीतर बस-सी गयी। मम्मा के
साथ ज्यादती हो रही है, यह बात उसे ध्यान आकर भी ध्यान न आई।
अगले दिन पापा हमेशा की तरह मीटिंग में थे। रवीश ने अब तक
महसूस कर लिया था कि पापा जब भी अपनी मीटिंगों के लिए आते
होंगे, इतना ही व्यस्त रहते होंगे। उसे लग रहा था कि मम्मा की
भी और उन दोनों (यानि रवीश और निदा) की शिकायतें कि पापा कभी
भी कोई ' गिफ्ट' नहीं लाते, नाजायज़ थी। पापा के पास वक्त ही
नहीं होता होगा, ऐसा रवीश ने सोच लिया था। पापा के मीटिंग में
चले जाने के बाद रुख़ आंटी के साथ प्रोग्राम के अनुसार पहलगाँव
के लिए चल दिये। कश्मीर की खासियत है - उसके प्राकृतिक नज़ारे,
जो दमसाधे खुद को आपकी निगाहों को सुकून देने के लिए, बिखरे
रहते। आप उससे बचकर निकल ही
नहीं सकते। जब बच नहीं पाते तो देख ही लेते हैं, देख लेने पर
'वाह-वाह' कर ही उठते।
दोनों 'एम्बेसेडर' कार में बैठे और चल दिये। एक अजब-सा अहसास
था रस मानों टपक रहा था मन उसमें गीला-सना। सफर कार का था।
पहाड़ों को लाँघने-फलाँगने का था। कभी पहाड़, कभी दायीं ओर,
कभी बायीं ओर। एक ओर गहरी खाई या फिर चौड़ा मैदान दूर-दूर
तक फैला मैदान, हरी छींटवाली चादर ओढ़े हरी इसलिए कि हरी घास
से भरा था, छींटवाली इसलिए कि कहीं पत्थरों का बिखराव, कहीं
पानी के झरने, कहीं फूलों की क्यारियाँ, कहीं फलों के पेड़।
घाटी के निचले हिस्सों में पेड़ों पर ढेर-सी स्ट्राबेरिंज़ व
चेरीज़ लटकी थीं। महीने भर बाद आते तो काली काली चेरी खाने को
मिलती। वैसे भी शहर तक तो पहुँच ही कहाँ पाती हैं, तिस पर यहाँ
खरीदकर, झरने के बर्फीले पानी में धो-धोकर खाने का मज़ा ही कुछ
और है। कार के ड्राइवर अंकल किसी गाइड से कम न थे। फिर बड़े
साहब के वली अहद होने का असर कुछ कम तो न था। पहलगाँव के
रास्ते भर ये अलग-अलग फिल्मों के दृश्यों की शूटिंग के हिस्से
तथा उनसे जुड़ी मनोरंजक घटनाएँ सुनाते रहते थे।
पहलगाँव के बाज़ार में निकले तो रवीश के कदम जमीन पर न पड़ रहे
थे। वह जौगिंग करता चल रहा था। रुख़ आंटी हँसती जा रही थी। वहीं
मार्केट से कागज़ी अखरोट खरीदे और मार्केट के आखिर में बनी एक
छोटी-सी पुलिया पर बैठकर दाँतों को हथोड़ी बनाकर तोड़ते हुए
खाये गये ढेर-सी गप्पे थीं ढेर-सी मस्ती। हाँफते-हाँफते
बॉयसरन पहुँचे। वहाँ की एक मात्र झोंपड़ी में घुसे जो चाय की
दुकान थी। वहाँ चाय पी, कुछ अपनी, कुछ चाय वाले की, कुछ चाय
वाले के मोती-कुत्ते की और फिर कुछ उड़ने-उड़ाने की बातें की।
ये सफर - था तो काश्मीर की वादियों का, पर रवीश के लिए रिश्तों
की वादियों का था। तभी उसने जाना कि जगहें तो मात्र हड्डियों
होती हैं, उन पर माँस, माँस पर चमक तो रिश्ते ही चढ़ाते हैं।
रिश्ते ही उन्हें महकाते हैं। जगह कोई सुन्दर या असुन्दर नहीं
होती, नज़रिया अहम् होता है। यह भी कि बाहरी सभी चीजों से कहीं
ज्यादा महत्ता भीतरी सम्बन्धों की होती है। उसी दिन एक अनोखा
ख्याल मन में आया था ख्याल जिसमें रुख़ आंटी के 'माँ' बन जाने
की कल्पना थी, यानि पापा के शरीके-हयात सहम गया था रवीश पर --
फिर जिन्दगी के महककर चन्दन बन जाने का ख्याल भी आया था।
रिश्ते रिश्तों में अगर प्यार हो तो वे खुशी बन जाते हैं।
प्यार खुशी है, आनन्द है, रोशनी है प्यार के बाद कुछ और पाना
बाकी नहीं बचा रहता।
श्रीनगर का वह सफर न तो गुलमर्ग का था, न पहलगाँव का, न जेहलम
या डल में बोटिंग का था, वो तो रवीश के भीतर का था। रिश्तों के
पीछे छिपे उन छोटे-बारीक (माइक्रो) तन्तुओं को खोज निकालने का
था जिनके न होने पर रिश्ते मुरझा जाते हैं। यहीं वह समझ पाया
था कि मम्मा के लिए उसके मन में गीलापन क्यों नहीं है, जो बेटे
के मन में होना चाहिए। माँ ने शायद आपसी रिश्तों को ममता से
वैसे नहीं सींचा जैसे सींचना चाहिए था। रुख़ आंटी ने उसे समझाया
कि प्यार रोशनी है और रोशनी का गुण है कि वह रिफ्लेक्ट होकर
सामने की चीजों को साफ व सूर्खरू कर देती है। यही यह भाव है
जिसमें इंसान दिल से सोचता और दिमाग से महसूसने लगता है।
रुख़साना के लिए भी वह सफर पसेमंजर का था। उसने भी समझ लिया कि
अकेले रहने का फैसला कोई सही न था। 'और भी गम है ज़माने में
मुहब्बत के सिवा।' माँ-बेटे के रिश्तों के पीछे सुरक्षा,
स्नेह, ममता व संवेदना का अहसास हुआ था। रवीश का छोटा-सा वाक्य
'आंटी, जब तक मैं हूँ, तुम्हें सूखने नहीं दँूगा' ने उसकी
ज़िन्दगी की परिभाषाएँ बदल दी थीं। लावा-सा जलता मन एक ही लाइन
ने सुखद शाम में बदल दिया था। अच्छा लगने लगा था।
आज तक वह कितना अकेला व कितना तन्हा थी यह जानते हुए भी रवीश
पर उसका कोई हक नहीं आज कितना भरपूर और सुरक्षित महसूस कर रही
थी। उसने आज समझा था कि पसेमंजर में खोये रहने का मतलब पेश
मंजर को खोना है और यही इंसान को नहीं करना चाहिए था।
होटल में लौटे तो रुख़ आंटी की खरीदवाई गई ढेरों सौगातें भी
थीं। पापा मीटिंग खत्म कर शायद कमरे तक आये होंगे। किसी को न
पाकर फिर कहीं घूमने निकल गये होंगे, या फिर मीटिंग चल रही
होगी। इतनी ढेर-सी सौगातें लेने में रवीश झिझक उठा था, पापा से
पूछना चाहता था किन्तु रुख़ आंटी के 'क्या माँ से नहीं लेते?"
जैसे वाक्य ने मुँह पर टेप लगा दी। फिर सच तो ये भी था कि रवीश
इस सबको 'इन्ज्वाय' रहा था। इन पलों को थामें रखना चाहता था,
उनकी कोई निशानी सँभाल लेनी चाहता था।
कमरे में आते ही रुख़ आंटी का रुख़ बदल गया था। एक अजीब-सी
स्टर्ननैस, जो पहले दिन उनके चेहरे पर देखी थी, वही खोल उनके
चेहरे पर चढ़ आया था। एक ठंडी-सर्द टोन में उन्होंने एक तोहफे
का पैकेट पापा को दे देने के लिए रवीश को थमा दिया। अचानक ममता
भरा चेहरा काफूर हो गया, पीछे से निकल आया - स्टील जैसे सख्त
खोल चढ़ा चेहरा। रवीश को रुख़ आंटी, उस समय अपनी पहुँच-से बहुत
दूर जान पड़ीं।
उसका बच्चा मन, जो इन दो दिनों में खुद को बड़ा मानने लगा था,
कुछ समझ न पा रहा था।
"आप शाम को डिनर पर तो साथ चल रही हैं। मिलेंगी तो खुद दे
दीजियेगा।" रुख़ आंटी जाने कितनी दूरी पर जा खड़ी हुई थी।
उन्होंने शायद रवीश की बात सुनी ही नहीं। न कुछ बोली, न कोई
सवाल, न जवाब। 'बॉय' किया और चली गयीं।
पापा लौटे तो थके-झुके, वही पहले वाले पापा बन गये थे। माथे पर
वह पुरानी तनावभरी रेखाएँ थीं। धीमे से बोले - "रीशू! तैयार हो
जाओ। अभी कान्त अंकल के यहाँ चलना है।"
"और आंटी?" रवीश के मन इतनी उत्सुकता थी कि रूक नहीं सका। पापा
की थकावट भरी लाइनों का अर्थ जानना चाहता था।
"वो चली गयीं।" रवीश के चेहरे पर ढेर से सवाल लहरा आये, शायद
उन्हें देखकर ही पापा बोले, "उनके कोई रिश्तेदार उन्हें लेने आ
गये थे, वे ही एयरपोर्ट पर भी छोड़ देंगे। शायद रात के तीन बजे
की फ्लाइट है उनकी।"
बहुत ही कैजुअल बनते हुए पापा ने कहा था। पर पापा की बेचारगी
ने रवीश को भीतर तक छुआ। वह पापा के पास चला आया, बोला "पापा।
आई लव यू वेरी मच।"
पापा का चेहरा जलती-चमकती-रोशन लालटेन बन गया, जिसकी चमक में
आड़ी-तिरछी पड़ी रेखाएँ मिटने लगीं। रवीश उन्हें मिटते हुए
देखता रहा।
सम्बन्धों पर एक नयी मुहर लग गयी थी। यूँ कोई खास घटना नहीं
थी, कोई खसूसियत लिये सफर भी नहीं था, किसी ने न कुछ कहा था, न
कुछ लफ्जों में बयान किया गया था, फिर भी कुछ सीढ़ियाँ थीं,
जिन पर रवीश एक कदम आगे बढ़ गया था।
हवाई जहाज में बैठते ही रवीश ने अपनी भूमिका निश्चित कर ली थी।
परिणाम-मम्मा के प्यार और ममता पर चढ़ा शक का मुलम्मा पिघल गया
था, पापा के सीने पर रखा भार उतर गया था और रवीश वह तो सर्दी
की गुनगुनी धूप, गरमी की खुशनुमा साँझ, बरसात की पहली फुहार,
वसन्त की खिलखिलाहट सभी कुछ महसूस कर रहा था।
खुशियों का कोई नाम नहीं होता, कोई परिभाषा नहीं होती, लफ्जों
में बयाँ नहीं हो सकती, न जबरन दी जा सकती है, न खरीद-फरोख्त
होती, वो झरोखों से आतीं शरद के मौसम की वह किरण है जो
अँधेरे कमरे में घुसती हैं और उसे दमका देती हैं। शायद यही
कारण था कि पिकनिक पर सभी उस दिन बेहद खुश थे। |