मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


कहानियाँ

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस माह प्रस्तुत है,
भारत से
संतोष गोयल की कहानी-"घर"।


इतने सारे खिले-खिलखिलाते गुलाब पूरा बाग गुले गुलजार हुआ था। फूलों की गन्ध, लम्बी-लम्बी साँसों के साथ रवीश के फेफड़ों में भर रही थी, फिर वह भर लेने की कोशिश भी तो कर रहा था। करता भी क्यों न? जिन्दगी में बहार जो आ गयी थी बहार आ गयी थी? इस फिकरे को सोचकर वह मुस्करा उठा था। उसने तो फिल्मों में देखा था कि किसी लड़की सुन्दरी, मदमाती आँखों वाली, लहराते बालों वाली, मस्तानी चालवाली के जीवन में आने का मतलब 'बहार का आना' माना जाता है लेकिन रवीश की ज़िन्दगी में तो 'बहार' का मतलब कुछ और ही हो आया था।
 
उसके सामने बैठे थे - मम्मा-पापा, इतना खुश खिलखिलाता, उन्हें कभी पहले न देखा था। मम्मा निदा के साथ 'स्टापू' खेल रही थीं और पापा निदा को जितवाने की पूरी कोशिश में एक टाँग से कूदते, कुदवाते, गिरते-पड़ते, सँभलते, खिलखिला रहे थे।

मौसम खुशनुमा हो उठा था। रवीश, सब देखकर भी नहीं देख रहा था कहीं खोया था शायद कश्मीर की घाटियों में। 'नेहरूपार्क' के दूर कोने में खड़ा वह 'डल लेक' में सर्फिंग करते लोगों की ओर देख रहा था। हालाँकि था वो इस समय-घर के पास के ही रोज़ गार्डेन में, जहाँ वह मम्मा-पापा और निदा के साथ पिकनिक के लिए आया हुआ था।

पृष्ठ : . . .

आगे-

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।