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आधा-पौने घंटे बाद जब चाय-नाश्ता सजाकर बाहर ले गई, उस समय ड्राइंगरूम कहकहों से गुलजार था। इस बीच शायद शिव भी कॉलेज से लौट आया था और उसी के किसी चुटकुले पर सब लोग ठहाके लगा रहे थे।

मुझे देखते ही शिव ने आगे बढ़कर ट्रे थाम ली। ध्रुव ने मेज़ से सारा कबाड़ हटाकर जगह बनाई। पानी का जग और चटनी की शीशी अन्दर छूट गई थी। ट्रे रखकर शिव दौड़कर दोनों चीज़ें ले आया। सबकुछ एकदम स्वाभाविक ढंग से ही हो रहा था। जब से सविता ससुराल गई है, बच्चे इसी तरह माँ का हाथ बँटा लेते हैं। पर पता नहीं क्यों आज मुझे यह सब अच्छा नहीं लगा। थोड़ा तो सब्र किया होता इन लोगों ने! मैं भी तो देखती, मीतू नाम की यह लड़की कितना अदब-कायदा जानती है। घर की बहू बन कर आ रही है, यह तो हुआ नहीं कि खुद चलकर किचन तक आती, झूठ-मूठ ही सही, मदद के लिए पूछती। बस, लाट साहब की तरह बाहर बैठी रही। लड़के बेचारे बैरों की तरह दौड़-धूप कर रहे हैं।

नाश्ते के लिए गरम समोसे बना लिए थे। सूजी के लड्डू और घर का बना चिवड़ा भी साथ था। जनता ने नाश्ते का सरंजाम देखा और खुश हो गई।

"हाय माँ! आपने यह सब घर पर बनाया है, "मीता किलककर बोली, "मैं तो बिलीव नहीं कर सकती - रोज़ इतना रिच नाश्ता देती हैं आप! तभी आपके दोनों सुपुत्र मोटूमल हो रहे हैं।"
"ऐ! हमें नज़र मत लगाओ, "ध्रुव ने टोका, "माँ की जीवन-भर की साधना है हमारी पीछे।"
"जानती हैं मीता जी, "शिव ने कृत्रिम गंभीरता ओढ़कर कहा, "माँ ने हमको खिला-पिलाकर ऐसा तैयार कर दिया है कि अब कैसी ही कर्कश बीवी मिलें, हम निपट लेंगे। मैदान छोड़कर भागेंगे नहीं।"
कमरा एक बार फिर हँसी में डूब गया। मुझे लेकिन बड़ा ताव आ रहा था।

मेरे बच्चों को मोटूमल कहने का हक इसे किसने दे दिया? अभी तो घर में आई भी नहीं और रोब झाड़ने लगी? वाह, यह भी कोई बात हुई! तुम्हारे माँ-बाप ने तुम्हें नहीं खिलाया तो हम क्या करें? तुम अपने राज में डबलरोटी खिला-खिलाकर उसे दुबला कर लेना - बस!

"चलूँ माँ," मैंने अपनी तन्द्रा से चौंककर देखा, सब लोग उठ खड़े हो गए थे। मीता नमस्ते कर रही थी। गेट तक छोड़कर हम लोग लौट आए। ध्रुव उसे घर तक छोड़ने चला गया।
"पहली बार आई थी," बच्चों के पापा घर में आते ही शुरू हो गए, "जिस-तिस को तो तुम नेग बाँटती फिरती हो। उसे यों ही खाली हाथ भेज दिया!"

मैंने कोई जवाब नहीं दिया। खाली प्लेट-प्याले समेटकर रसोई में चली आई। हुँह! पहली बार आई थी तो कोई क्या करे! रीति-रिवाजों का ठेका क्या हमने ही ले रखा है! वह क्या एक बार झुककर पैर नहीं छू सकती थी! एकदम ही अंग्रेज़ बनी जा रही थी।

सारी शाम मैं रसोई में ही बनी रही। मुझे मालूम था, मेरी प्रतिक्रिया जानने को सब उत्सुक होंगे। पर मैंने किसी को हवा नहीं लगने दी। शिव तक एक-दो बार आकर मंडरा गया, पर मैं व्यस्त होने का दिखावा करती रही।

रात खाने की मेज़ पर भी एक अव्यक्त तनाव था। बच्चों के पापा ने एक-दो चुटकुले सुनाकर उसे तोड़ने की कोशिश भी की, पर बात कुछ बनी नहीं।

खाने के बाद भी काम कहाँ खत्म होता है! सारे दरवाज़े-खिड़कियाँ मुझी को देखनी होती हैं। घर-भर की बत्तियाँ बुझानी होती हैं। टंकी में पाइप छोड़ना होता है। दूध-दही के बर्तनों को जाली की अलमारी में रखना होता है। आँगन में सूखते कपड़े उतारना होता है।

एक-एक काम निपटाती जा रही थी कि देखा, ध्रुव पास आकर खड़ा हो गया है।
"माँ!" उसने काँपते हुए स्वर में पुकारा।
"क्या है?" तौलिए को तहाते हुए मैंने पूछा।
"तुम्हें तुम्हें मीता कैसी लगी?"
"मेरे लगने का क्या है! तुम्हें पसंद आनी चाहिए, बस!"
"नो ममा। तुम्हारी पसंद बहुत ज़रूरी है। तुम्हारी और पापा की।"

शाम से मन में जो अंधड़ उठ रहा था, ध्रुव के प्रश्न से तीव्र हो उठा।
"तुमने जवाब नहीं दिया माँ!"
"अच्छा, यह बताओ, क्या उसे पता था कि तुम उसे कहाँ ले जा रहे हो?" मैंने प्रति प्रश्न किया।
"हाँ, क्यों?"
"तो क्या वह ढंग के कपड़े पहनकर नहीं आ सकती थी? कम-से-कम तुम उसे..."
"मैंने कहा था माँ!"
"फिर?"
"वह बोली -- मैं जैसी हूँ वैसी ही उन्हें देख लेने दो। बेकार नाटक करने से फ़ायदा खैर, कपड़ों को छोड़ो। वैसे कैसी लगी, बताओ।"

ध्रुव इतनी अज़िज़ी से पूछ रहा था कि उसका दिल दुखाते न बना। "अच्छी है, "मैंने अनमने ढंग से कहा और बात समाप्त कर दी। वरना सच तो यह था कि मैंने मीता को ठीक से देखा ही नहीं था। पहली ही नज़र में उसका हुलिया देखा और मन खट्टा हो गया था। बहू को लेकर मन में कितनी कोमल कल्पनाएँ थीं, सब राख हो गई थीं, गुस्सा तो अपने लाड़ले पर आ रहा था। प्रेम करते समय इन लोगों की अक्ल क्या घास चरने चली जाती है!

कैसे प्यारे-प्यारे रिश्ते आ रहे थे - पर तक़दीर में तो यह सर्कस-सुन्दरी लिखी थी न!
एक उसांस भरकर रह गई मैं।
एक बार हम लोगों की स्वीकृति की मुहर लगने भर की देर थी - फिर तो सारे काम फटाफट और कायदे से होते चले गए। मीता के पिता जी स्वयं घर आए और उन्होंने औपचारिक रूप से रिश्ते की पहल की। मीता को अपनी बहू बना लेने के लिए करबद्ध निवेदन किया। उन्होंने बताया कि पत्नी की मृत्यु के बाद उनके बच्चे अक्सर होस्टल में ही पले हैं। वे भी हमेशा टूर पर ही बने रहे।

दो साल पहले लड़के की शादी हुई है। तब से घर कुछ आकार ग्रहण करने लगा है। होस्टल में रहने के कारण मीतू काफी कुछ सीखने से वंचित रह गई है। वे तो डर रहे थे, पर ध्रुव ने उन्हें आश्वस्त किया है कि माँ बहुत सहनशील और स्नेहमयी है, वे उसे अपने अनुसार ढाल लेंगी।

उत्तर में ध्रुव के पापा ने भी उन्हें आश्वस्त किया। कहा कि हम लोग इतने दकियानूसी नहीं है कि एक आर्किटेक्ट लड़की मे सोलहवीं सदी की बहू तलाशें।

इस प्रकार बहुत ही सौजन्यपूर्ण वातावरण मे परिचय का पहला दौर समाप्त हुआ। फिर धूमधाम से सगाई हुई। दोनों पक्षों ने जी खोलकर खर्च किया। दान-दहेज तो कुछ लेना था नहीं, लेन - देन की कड़वाहट-भरी चर्चा से बच गए हम लोग। फिर भी मैंने सबकी नज़र बचाकर समधी जी के हाथ में एक लिस्ट थमा दी थी। पहले बेटे की शादी थी। नाते-रिश्तेदारों के नेग तो मिलने ही चाहिए थे। अपनी बेटी को तो लोग देते ही हैं। ज़िन्दगी-भर यह देना समाप्त ही नहीं होता। पर बाकी लोगों को मौका तो सिर्फ़ शादी में ही आता है न।

एक लिस्ट मैंने ध्रुव को भी पकड़ाई थी। लिस्ट क्या थी, होनेवाली बहू के लिए पूरी आचार संहिता थी :
. मीता अब शादी के बाद ही इस घर में आएगी।
. भविष्य में वह बाल नही कटवाएगी।
. हाथ में चूड़ियाँ डालने की आदत डालेगी।
. शादी में सिर ढँकेगी।
. घर में मेहमान रहेंगे तब तक साड़ी पहनेगी।
. लोगों के सामने ध्रुव को नाम लेकर नहीं पुकारेगी।

खूब लम्बी सूची थी। बारीक से बारीक जो भी बात याद आती गई, जोड़ दी थी। शिव ने तो उसका नाम बीससूत्री कार्यक्रम रख दिया था। आते-जाते ध्रुव को छेड़ देता, "दादा भाई, भाभी को कितने सूत्र रटा दिए?"
कभी कहता, "भाभी से कहना, फर्स्ट डिवीजन न आने से भी चलेगा। पर कम-से-कम पासिंग मार्क्स तो आने ही चाहिए।"

यह छेड़छाड़ सिर्फ़ मज़ाक के तौर पर नहीं होती थी। इसमें एक अव्यक्त आक्रोश भी था। माँ के कारण उन लोगों की इमेज एकदम पुराणपंथी हो गई थी। ध्रुव मुँह से तो कुछ नहीं कहता था, पर शिव के छेड़ने पर जैसी उदास हँसी हँस देता, उससे यह स्पष्ट हो जाता था।

आखिर एक दिन मैंने कह ही दिया, "देखो शिव, ये मजाक उड़ानेवाली बात नहीं हैं। ये मत सोचो कि मैं अपने लिए कुछ कर रही हूँ। मेरी तो बस यही इच्छा है कि नई बहू की आते ही आलोचना न शुरू हो जाए। आखिर मेरी भी तो वह कुछ लगती है - और तुम तो जानते हो - शादियों में कुछ लोग आते ही इसी मकसद से हैं कि नुक्स निकालें और आलोचना शुरू कर दें।"

बच्चे इसके बाद चुप हो गए थे।
वैसे मैंने एकदम ग़लत भी नहीं कहा था। शादी में सचमुच कुछ लोग मीनमेख निकालने के लिए ही आते हैं। नई-नवेली दुलहनों को सबसे ज़्यादा आलोचना झेलनी पड़ती है। झूठ क्यों बोलूँ - खुद ही मैं कई बार इस अभियान में सम्मिलित हुई हूँ। दोनों ओर के परिवारों में अब तक जितनी बहुएँ आई हैं, सबके लिए मेरे पास कहने के लिए कुछ-न-कुछ है। सुरेश की बहू रसोई तक में चप्पलें पहनकर घूमती है। महेश की बहू नौ बजे से पहले बिस्तर नहीं छोड़ती। राजन की बहू रसोई में झाँकती तक नहीं। आलोक की बहू चौबीसों घंटे उसके नाम का जप करती रहती है। जेठ, ससुर तक का उसे होश नहीं रहता। निखिल की बहू तो और भी तीसमारखाँ हैं। जहाँ पति को चार लोगों के बीच हँसते-बोलते देखेगी, बच्चे को लद्द से लाकर गोद में पटक देगी। उस पर तुर्रा यह कि "कोई मेरी अकेली का नहीं है, जो दिनभर मैं ही लादे फिरूँ।"

सुन-सुनकर कान पक गए तो बुआ जी ने एक दिन कह ही दिया, "बहू! सब जानते हैं कि बच्चे कोई अकेले नहीं पैदा करता, पर उसका कोई इस तरह ढिंढोरा नहीं पीटता।"
ये सारे नमूने मेरी आँखों के सामने थे। इसीलिए मन में एक आदर्श बहू की कल्पना थी। सोचा था कि ध्रुव के लिए जो लड़की लाऊँगी वह इन सबसे अलग होगी।
पर अपना सोचा सब कहाँ हो पाता है!

"तुम्हारी सारी शर्तों का पालन करेगी तब तो तुम्हें वह अच्छी लगेगी न माँ!" ध्रुव ने एक दिन गले में बाँहें डालकर बड़ी आशा से पूछा था। तब यही सोचकर सन्तोष कर लिया था कि लड़का आज भी मुझे कितना चाहता है। आसपास के वातावरण को देखते हुए यह भी कम न था।
शादी हुई और खूब धूमधाम से हुई।
घर की पहली शादी थी। अनगिनत मेहमान आये थे। उनमें से कइयों को निराश लौटना पड़ा। टीका-टिप्पणी का एक भी मौका हाथ नहीं लगा।

मैं खुद बहुत डरी हुई थी। एक तो लड़की की माँ नहीं थीं। कर्ता-धर्ता बड़ी बहन थी, जो अमेरिका में ही बस गई थी। पति-पत्नी दोनों डाक्टर थे। भैया-भाभी तो अभी नए ही थे। पर स्वागत-सत्कार में, खान-पान में कहीं कोई त्रुटि या अव्यवस्था नहीं हो पाई थी।

मीता के पापा तो बिछे जा रहे थे, पर बहन-बहनोई, भैया-भाभी, चाचा-ताऊ सभी सौजन्य और विनम्रता की मूर्ति बने हुए थे। और जयमाला के समय जब मीता को देखा तो बस आँखें जुड़ा गई। अपना यह रूप-लावण्य इतने दिनों तक उसने कहाँ छिपा रक्खा था। लाल, सुर्ख बनारसी साड़ी में लिपटी वह किसी सलौनी गुड़िया-सी लग रही थी।

अन्तर्जातीय विवाह को लेकर एक शूल था मन में, वह भी जाता रहा। इसी बात को लेकर ननदरानी कोंचती रही हैं। अब सर उठाके सबके सामने कह सकूँगी, "भाई, हमने तो लड़की का रूप-गुण देखा, विद्या-बुद्धि देखी और घर-परिवार देखा। बस, जात-पांत को आजकल पूछता ही कौन है?"

आठ-दस दिन घर में मेला-सा लगा रहा।
मीता जितने दो-चार दिन रही, ननदों के बीच दबी-ढ़ँकी बैठी रही। उनके बच्चों का लाड़-दुलार करती रही, रिश्ते की सास और जिठानियों की मान-मनुहार करती रही। सभी लोग प्रसन्न थे और जाते समय हर कोई मुझे बधाई देता हुआ गया।

शादी के बाद दोनों ८-१० दिन के लिए मसूरी घूमने चले गए थे। उनके लौटने तक मैंने सविता को रोक लिया था। सोचा, ननद-भौजाई थोड़े दिन साथ रह लेंगी।
दूसरे दिन सुबह-सुबह मैं रसोई में व्यस्त थी कि सविता पास आकर फुसफुसाई, "माँ! बहूरानी को तो देखो।"
देखा, बड़े-बड़े पीले फूलोंवाली मैक्सी पहनकर वह मेज पर प्लेटें लगा रही है।

मैं और सविता - दोनों एक-दूसरे का मुँह ताक रहे थे। इस बात को कौन उठाए, और कैसे? मैं तो आजकल लड़कों से खौफ़ खाने लगी थी। पर सविता तो उन दोनों को घास नहीं डालती थी। दनदनाती हुई बाहर चली गई और बोली, "मीतारानी, आज ये कौन-सी ड्रेस निकाल ली?"

"घर की ड्रेस है दीदी!" फिर सविता की प्रश्नार्थक दृष्टि को समझते हुए बोली, "माँ का आर्डर था कि मेहमानों के सामने साड़ी पहननी होगी। इसलिए इतने दिन पहनती रही। पर इतना बँधा-बँधा लगता है उसमें।"
"तो हमें मेहमानों में नहीं गिनती तुम?"
"आप तो घर की हैं - दीदी हैं अपनी।"

और कोई वक्त होता तो मैं इसी बात पर निहाल हो जाती, पर इस समय समस्या जरा नाजुक थी। मैंने आगे बढ़कर कहा, "बेटै, घर में जब-तब कोई आ निकलता है और लोग अक्सर तुम्हें देखने के लिए ही आते हैं।"
"पर माँ, साड़ी पहनकर जरा भी कम्फर्टेबल नहीं लगता। काम तो कर ही नहीं सकती मैं। बस, गुड़िया की तरह सजने-सँवरने के ही दिन हैं। काम करने की तो ज़िन्दगी पड़ी है। और अभी तो मैं बैठी हूँ।"
"ठीक है। लेकिन माँ, आफिस में तो साड़ी पहनकर जाना ज़रूरी नहीं है न? मुझसे तो गाड़ी चलाते न बनेगी।"

गाड़ी का मतलब लूना। ये भी एक शूल था मन में। शादी के सामान के साथ लूना देखकर मेरी भाभी फिच्च-से हँस दी थी, "वाह ध्रुव जी! सीधेपन की हद कर दी आपने। आजकल बजाज सुपर से नीचे कोई बात नहीं करता। आप कम-से-कम..."
"मामी जी," ध्रुव बात काटकर बोला, "यह मेरी नहीं, मीता की गाड़ी है। मेरे पास तो अपनी प्रिया है। मीता ने पापा से कहा था कि जेवर चाहें न दें, पर एक गाड़ी ज़रूर दें।"

यानी सब-कुछ अपने-आप ही तय हो गया था। मन इतना खट्टा हो गया था! स्कूटर ही ले लेते तो क्या हो जाता! प्रिया-शिव के काम आ जाती। स्कूटर पर तो दोनों ही जा सकते थे। तब यह पहनने-ओढने का झंझट भी न खड़ा होता।

"दफ्तर सलवार-कमीज़ पहनकर जाया करना, "मैंने फैसला सुना दिया। लेकिन बहू घर में आती है तो समस्या सिर्फ़ पहनने-ओढ़ने की ही तो नहीं रहती।

उसका घर-भर में उन्मुक्त होकर घूमना, खिलखिलाना, दिन-भर ध्रुव डार्लिंग की रट लगाना, शिव से छीना-झपटी करना, भूख लगने पर नाश्ते के डिब्बे टटोलना, बात-बात पर गले में झूल जाना - सब-कुछ आँखों में खटकने लगता।

बच्चों के पापा तक को तो उसने नहीं बख्शा था। सुबह वे पेपर पढ़ते तो उनकी कुर्सी के हत्थे पर बैठकर ही पूरा पेपर पढ़ जाती। घर में रहती तब तक उनके आसपास मंडराया करती, पापा का जाप किए जाती। उन्हें इसरार कर-करके खाना खिलाती, दवाई समय पर न लेने के लिए डांटती। शाम को लौटती तो चाय का कप हाथ में लेकर सीधे बगिया में पहुँच जाती और छोटे से पीढ़े पर बैठकर उनसे बतियाती रहती। उस समय तो सचमुच मेरा खून जल जाता। घर में तो जो चल रहा था, ठीक ही था। बाहर उसका प्रदर्शन करने की क्या ज़रूरत थी? आसपास के घरों में कई जोड़ी आँखें उस समय खिड़कियों पर टँग जाती थीं।

हैरत तो यह थी कि बच्चों को, उनके पापा को यह सब सहज-स्वाभाविक लगता था। उनके माथे पर शिकन तक न आती थी। उस दिन तो हद ही हो गई। रोज़ की तरह हम लोग दोपहर की चाय ले रहे थे कि मीता आँधी की तरह घर में घुस आई। "अरे, आज इतनी जल्दी!"
"पहले आप लोग आँखें बन्द कीजिए, प्लीज़!"
"क्या बात है?"
"पहले आँखें बन्द!"

और हमारे पलक झपकाते ही उसने दोनों के गले में एक-एक फूलमाला डाल दी और तालियाँ बजाते हुए किलकने लगी, "मेनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ द डे।"
"अरे, बात क्या है... मैंने कहना चाहा और एकदम मुझे याद आ गया - आज १२ दिसंबर थी, हमारी शादी की सालगिरह। दूसरी-दूसरी बातों में इतनी खो गई थी कि इसकी याद ही न आई थी।

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