|  जुबेदा 
                    की अम्मा भी यही कहती थीं कि सोला रुपए वो देंगी, तीस-बत्तीस 
                    रुपए, शायद, ये शहनाज भी देने वाली थीं कि ''अम्मा अपने बेटों 
                    को तो बख्श देंगी, हमें नहीं।'' अब इन बेवकूफों को कौन समझाये 
                    कि दो किलो घासलेट और तेल-मसाला करते-करते सौ रुपए निकल 
                    जाएँगे। राशन का चावल तो मेहमानों के लिए पुलाव में इस्तेमाल 
                    होगा नहीं और ढंग की बासमती साढ़े चार-पाँच से कमती का सेर 
                    नहीं। इंसान को अपना वक्त और सहूलियत देख के चलना चाहिए, 
                    जज़्बातों पर चलने के दिन लद गए।'' ''कहते ठीक हो, बेटे! मेरी 
                    भी राय यही है। ज़रा तुम अम्मा से मिलकर, ऊँच-नीच समझा दो। 
                    ज़िद्दी ज़रूर हैं, लेकिन नासमझ नहीं।'' आवाज़ साफ़-साफ़ 
                    सुनायी दे गई। जहीर की घरवाली यह कहते हुए उठ खड़ी हुई कि 
                    ''तुम लोग शुरू करो, मैं जरा अब्बा हुजूर के हाथ धुलवा दूँ।'' 
                    खाना खा चुकने पर जहीर सीधे भीतर 
                    के कमरे में गया कि अम्मा सोयी होगी, लेकिन शहनाज ने बताया, 
                    ''यों कहकर निकल गई हैं कि जरा रिजवी साहब के घर तक जाएँगी। 
                    उनके घर पिछले हफ्ते गमी हो गई थी। कहकर गई है कि शायद शाम हो 
                    जाए, देर से लौटेंगे। मेरा ख़याल है, अम्मा ने समझ लिया है कि 
                    अब बकरा बचता नहीं। गमी में शरीक होना तो एक बहाना है। घर से 
                    दूर जाना चाहती होंगी।' शहनाज धीमे से हँसना चाहती 
                    थी, लेकिन सिर्फ़ उदास होकर रह गई।जहीर ने बाहर निकलकर, अपने ग्यारह-बारह साल के बड़े लड़के से 
                    कहा, 'जुबैद, ज़रा सलीम को बुलाकर लाइयो। मेहमानों के आने तक 
                    में सफ़ाई हो जाए, तो ही ठीक है। जुबेद की अम्मा, भई, तुम लोग 
                    ज़रा बाहर वाला कमरा मेहमानों के लिए ठीक-ठाक कर देना।
 शहनाज के अब्बा लोगों को किसी 
                    तरह की कमी की शिकायत न हो। बेचारे हर फसल पर चले आते हैं और 
                    हर बात का लिहाज रखते हैं। खुद तुम्हारे साथ अपनी सगी बेटी से 
                    ज़्यादा मुहब्बत का बर्ताव करते हैं। तुम दोनों जने प्याज़ और 
                    मसाले वगैरह पीसकर तैयार कर लेना। बाकी बाज़ार का सामान शराफत 
                    लेता आएगा। सलीम आ जाए, तो उससे कह देना, गंद जरा-सी भी न छूटे 
                    आँगन में। पोंछा लगवा लेना। खून के धब्बे वगैरह देखेंगी अम्मा 
                    तो, और बिगड़ेंगी। तुम लोगों से कुछ कहने लगें, तो कह देना, 
                    जुबेद के अब्बा ने ज़बर्दस्ती कटवा दिया। मैं उन्हें समझा 
                    लूँगा।' 
 शाम की जगह घड़ी-भर रात बीत चुकने के अहसास में ही, जद्दन घर 
                    वापस लौटी और गली में से होते हुए, घर के पीछे वाले सँकरे आँगन 
                    में निकल गई। खटोला गिराकर उस पर लेट गई और, आस-पास के 
                    नीम-अँधेरे में अपने-आपको छिपा लेने की कोशिश में, आँखें बन्द 
                    कर लीं।
 मेहमान आ चुके थे और उनके तथा 
                    आपस के लोगों की बातचीत यहाँ पिछवाड़े भी सुनायी दो रही थी। 
                    छोटे बच्चों को बाहर लेकर आई, तो शहनाज ने देखा और करीब आकर, 
                    पाँव दबाती हुई बोली, ''अब्बा आ गए हैं। आते ही आपकी बाबत पूछ 
                    रहे थे कि अम्मा ने पुछवाया है, कैसी हैं। कभी रायबरेली की 
                    तरफ़ आने की इस्तजा करवा रही हैं। मैंने भी अब्बा से कहा है कि 
                    अब की बार मैं अम्मा के साथ ही आऊँगी। अम्मा, तुम खाना कहाँ 
                    खाओगी? मेहमानों का दस्तरखान तो वहीं बाहर बैठक में बिछेगा। 
                    जल्दी खा-पी लेने की बातें कर रहे थे सभी लोग। कोई मज़हबी 
                    किस्म की फिल्म शहर में कहीं लगी हुई है!'' ''मेरे लिए दो रोटियाँ यहीं 
                    भिजवा देना। मेरा न जी ठीक है, न पेट। जुबैद को जरा भेज देना, 
                    मैं उससे कुछ मँगवा लूँगी। तुम सब लोग आराम से खाओ-पिओ। मेरी 
                    फिक्र ना करना। अब तो कोई सर्दी ना रही। मैं यहीं सो जाऊँगी। 
                    अपने अब्बा हुजूर से मेरा सलाम कैना और कैना कि सुबह दुआ-सलाम 
                    होगी, अभी अम्मा का जी ठीक नहीं।''  शहनाज ने अनुभव किया कि जद्दन 
                    की आवाज़ मरते वक्त की-सी हो आयी है। निहायत हल्की और बेजान। 
                    वह चाहती थी कि कुछ बातें करके, उसकी उदासीनता को कम करने की 
                    कोशिश करे, लेकिन इस डर से चुप रह गई कि कहीं अंदर इकठ्ठा किया 
                    हुआ दु:ख गुस्से की शक्ल में बाहर फूट आया, तो पूरे घर का 
                    वातावरण बदल जाएगा। आज के वक्त को तो अब यों हीं टल जाने देना 
                    अच्छा है।  वापस लौटकर उसने बताया, 'तो 
                    जहीर और अशरफ मियाँ, दोनों ने मुँह बना लिया।'हम लोगों ने तो हरचंद वही कोशिश की है कि कहीं से उस नामुराद 
                    बकरे की कोई चीज अम्मा को दिखे ही नहीं। वो तो इतनी संजीदा है 
                    गई हैं, जैसे बकरे का हलाल किया हुआ सर आँगन में टँगा हुआ हो। 
                    कह रही थीं, गोश्त-पुलाव वगैरा कुछ मत भेजना।'' शहनाज ने कहा, 
                    तो अशरफ मियाँ उठ खड़े हुए। बोले, 'जब उसे खिलाना हो, हमें 
                    बुला लेना। क्यों, भई जुबेद, तुम कहाँ तशरीफ ले जा रहे हो? जरा 
                    बैठक में मेहमानों के करीब रहो।''
 
 चाचा जी ने पिछवाड़े भेजा था, बड़ी अम्मा के पास। उन्होंने चार 
                    आने हमें दिए हैं कि ''जाओ, शंभू पंडत की दुकान से आलू की 
                    सब्जी ले आओ।''
 'अबे, इधर ला चवन्नी। जा, 
                    मेहमानों को पानी-वानी पूछना। अम्मा को हम देख लेंगे। शहनाज 
                    बेटे, ऐसा करो -- एक थाली में पुलाव और बड़े कटोरे में गोश्त 
                    लगाकर हमें दो दो। हम ले जाकर समझा देंगे। वाकई, बहुत बेवकूफ़ 
                    किस्म की औरत है। जहीर, तुम बाहर बैठक में बस्तरखान बिछाने में 
                    लगो। शराफत के अलावा और एक-दो लड़कों को साथ ले लो।'' पुलाव की थाली और गोश्त का 
                    कटोरा शहनाज ने ही पहुँचा दिया। खटोेले की बगल में रखकर, पानी 
                    लाने के बहाने तुरन्त लौट आई। अशरफ मियाँ ने करीब से माथा छुआ 
                    और बोले, 'क्यों, भई, ऐसे क्यों लेटी हो? तबीयत तो ठीक है ना? 
                    अरी सुनो, सारे किये-कराये पर मिट्टी न डालो। तुम रूसवा रहोगी, 
                    तो सारी मेहमाननवाज़ी फीकी पड़ जाएगी। सारा घर कबाब-गोश्त 
                    उड़ाए और तुम उस शंभू पंडत के यहाँ के पानीवाले आलू मँगवाओ, ये 
                    तो हम लोगों को जूती मारने के बरोबर है। ऐसी भी क्या बात हो 
                    गई, जो तुमने खटिया पकड़ ली? गोश्त से तुम्हें कभी परहेज़ रहा 
                    नहीं। बिना शोरबे के रोटी गले के नीचे तुम्हारे उतरती नहीं। अब 
                    इस हद तक जज़्बाती बनने से तो कोई फ़ायदा नहीं। आखिर जिन बकरों 
                    का गोश्त तुम आज तक खाती आई हो, उनके कोई चार सींग तो थे नहीं! 
                    लो, शहनाज़ खाना दे गई है। गोश्त वाकई बहुत लज़्ज़तदार बना है। 
                    जहीर तो दूसरा बकरा भी ढूँढ़ने गया था, मगर लौटकर यही कहने लगा 
                    कि ''अब्बा, अपना बेचने जाओ तो सौ के पचास देंगे और दूसरों का 
                    खरीदने जाओ, तो पचास के सौ माँगेंगे। तुम तो घर की इस वक्त जो 
                    अंदरूनी हालत है, जानती ही हो।'' जद्दन ऐसे उठी, जैसे 
                    कब्रिस्तान में गड़ा हुआ मुर्दा खड़ा हो रहा हो। तीखी आँखों से 
                    अशरफ मियाँ की ओर उसने देखा और आवाज़ मेहमानों तक न पहुँचे, इस 
                    तरह दबाकर बोली, ''जहीर के अब्बा, नसीहतें देने आए हो? मेरी 
                    तकलीफ़ तुम लोग समझोगे? रिजवी के यहाँ घंटों पड़ी रही हूँ, तो 
                    कैसे यही मेरे तसब्वुर में आता रहा कि अब तुम लोग मेरे मैसूद 
                    के सिर को धड़ से कैसे जुदा कर रहे होंगे -- जार-जार रोती रही 
                    हूँ और रिजवी की बीबी यों समझ के मुझे समझाये जा रही है कि मैं 
                    उसके बदनसीब भाई की बेवक्त की मौत पे रो रही हूँ। आज ससुरा 
                    सवेरे-सवेरे से बार-बार मेरे कान मुँह में भरे जाता था और मैं 
                    थूथना पकड़कर, धक्का दे देती थी।  मैं क्या जानूँ कि बदनसीब 
                    चुपके से कान में यही कहना चाहता है कि ''अम्मा, आज हम चले 
                    जाएँगे!'' तुम लोग समझोगे मेरी तकलीफ़ कि कैसे मेरे लबों पर 
                    'मैमूद' की सदा आएगी और खत्म हो जाएगी?''  जद्दन काफी देर तक फूट-फूटकर 
                    रोती रही और अशरफ मियाँ हक्का-बैठे रहे। उनकी समझ में नहीं आ 
                    रहा था कि स्थिति अब सँभले कैसे! आखिर उन्होंने यही तय किया कि 
                    चुपचाप खाना उठा ले जाना ही ठीक है। वह थाली-कटोरा उठाते कि 
                    जद्दन जहरबुझी आवाज़ में बोल उठी, ''तुम बेदर्दों से ये भी न 
                    हुआ कि मैं अव्वल दर्जे की गोश्तखोर औरत जब कै रही हूँ कि 
                    'बेटे शहनाज, हमें गोश्त-वोश्त न देना।'' तो इसकी कोई तो वजह 
                    होगी? और जहीर के अब्बा, इंसान दाढ़ी बढ़ा लेने से पीर नहीं हो 
                    जाता। तुम ये मुझे क्या नसीहत दोगे कि सभी बकरों के दो सींग 
                    होते हैं? इतना तो नादीदा भी जानता है। दुनिया में तो सारे 
                    इंसान भी खुदा ने दो सींग वाले बकरों की तरह, दो पाँव वाले 
                    बनाए? लेकिन औरत तो तभी राँड होती है, जब उसका अपना खसम मरता 
                    है। अम्मा तो तभी अपनी छाती कूटती है, जब उससे उसका बच्चा जुदा 
                    होता हो। ये मैं भी जानती हूँ कि मेरे मैमूद में कोई सुर्खाब 
                    के पर नहीं लगे थे, मगर इतना जानती हूँ कि मेरी तकलीफ़ जितना 
                    वह बदनसीब समझता था, न तुम समझोगे, न तुम्हारे बेटे ! समझते 
                    होते, तो क्या किसी हकीम ने बताया था कि मेहमानों को इसी बकरे 
                    का गोश्त खिलाना और तुम भी भकोसना, नहीं तो नजला-जुकाम हो 
                    जाएगा? जहीर के अब्बा, उसूलों का तुम पे टोटा नहीं, मगर इस 
                    वक्त अब हमें बहुत जलील न करो। शहनाज से कहो, उठा ले जाए, नहीं 
                    तो फेंक दूँगी उधर! जुबैद से कह देना, अब पंडत के हियाँ से 
                    सब्जी लाने की भी कोई ज़रूरत ना रही। मेरा पेट तो तुम लोगों की 
                    नसीहतों से ही भर चुका।'' अशरफ मियाँ नीचे झुके और 
                    थाली-कटोरा उठाते हुए, वापस आ गए, ''लो बेटे, रखो! ज़िद्दी औरत 
                    को समझाना तो खुदा के बस का भी नहीं। उसे उसके हाल पर छोड़, 
                    मेहमानों की फिक्र करो।'' |