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                    महमूद फिर ज़ोर बाँधने लगा, तो जद्दन ने दायाँ कान ऐंठते हुए, 
                    उसका मुँह अपनी ओर घुमा लिया। ठीक थूथने पर थप्पड़ मारती हुई 
                    बोली, ''बहुत मुल्ला दोपियाजा की-सी दाढ़ी क्या हिलाता है, 
                    स्साले! दूँगी एक कनटाप, तो सब शेखी निकल जाएगी। न पिद्दी, न 
                    पिद्दी के शोरबे, साले बहुत साँड बने घूमते हैं। ऐ सुलेमान की 
                    अम्मा, अब मेरा मुँह क्या देखती है, रोटी-बोटी कुछ ला। तेरा 
                    काम तो बन ही गया? देख लेना, कैसे शानदार पठिये देती है। इसके 
                    तो सारे पठिये रंग पर भी इसी के जाते हैं।'' 
                    अपनी बात पूरी करते-करते, जद्दन 
                    ने कान ऐंठना छोड़कर, उसकी गरदन पर हाथ फेरना शुरू कर दिया। अब 
                    महमूद भी धीरे-से पलटा, और सिर ऊँचा करके जद्दन का कान मुँह 
                    में भर लिया, तो वह चिल्ला पड़ी, ''अरी ओ सुलेमान की अम्मी, 
                    देख तो साले इस शैतान की करतूत जरा अपनी आँखों से! चुगद कान 
                    ऐंठने का बदला ले रहा है। ए मैमूद, स्साले, दाँत न लगाना, नहीं 
                    तो तेरी खैर नहीं। अच्छा, ले आयी तू रोटियाँ? 
                    अरी, ये तो राशन के गेहूँ की नहीं, देसी की दिखती हैं। ला इधर। 
                    देखा तूने, हरामी कैसे मेरा कान मुँह में भरे था? अब तुझे यकीन 
                    नहीं आएगा, रहीमन! ये साला तो बिलकुल इंसानों की तरह जज़्बाती 
                    है!'' |