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                     बड़ा शायराना 
                    अन्दाज़ था उनका और जल्दी ही मालूम पड़ गया कि वे कविताएँ भी 
                    लिखते हैं। पत्र-पत्रिकाओं में वे धड़ाधड़ छपती भी रहती हैं और 
                    इस क्षेत्र में उनका अच्छा खासा नाम है। आयकर विभाग की अफसरी 
                    और कविताएँ। हैं न कुछ बेमेल-सी बात ! पर यह उनके जीवन की 
                    हक़ीकत थी। 
 मैं स्थितियों और उम्र के उस दौर से गुज़र रही थी, जब लड़कियों 
                    में प्रेम के लिये विशेष प्रकार का लपलप भाव रहता है। बूढ़ी माँ 
                    तीनों छोटे भाई-बहनों को लेकर गाँव में रहती थी और मैं इस 
                    महानगरी में कामकाजी महिलाओं के एक होस्टल में। न घर का कोई 
                    अंकुश था और न इस बात की सम्भावना कि कहीं मेरा ठौर-ठिकाना लगा 
                    देंगे।
 
 आखिर मैंने अपनी नाक और आँखों को कुछ अधिक सजग और तेज़ कर लिया। 
                    बस, ऐसा करते ही मुझेहर नौजवान की नज़रों में अपने लिये विशेष 
                    संकेत दिखने लगे और उनकी बातों में विशेष अर्थ और आमन्त्राण की 
                    गन्ध आने लगी। तभी भिड़ गया शिंदे। उसके तो संकेत भी बहुत साफ 
                    थे ..... निमन्त्रण भी बहुत खुला। लगा, किस्मत ने छप्पन 
                    पकवानों से भरी थाली मुझ भुक्खड़ के आगे परोसकर रख दी है। सो 
                    मैंने न उसका आगा-पीछा जानने की कोशिश की और न 
                    अपना आगा-पीछा सोचने की। बस, आँख 
                    मूंदी और प्रेम की डगर पर चल पड़ी।
 
 हर प्रेम की शुरूआत 
                    क़रीब-क़रीब एक-सी होती है। प्रेमियों को वे सारी बातें चाहे 
                    जितनी रोमाँचकारी और गुदगुदानेवाली लगें, देखने-सुननेवालों को 
                    बड़ी उबाऊ और सपाट लगने लगती हैं। शामें हमारी किसी रेस्तरां के 
                    नीम-अंधेरे कोने में बीततीं, तो कभी बाग के झुरमुट के बीच। कभी 
                    हम आपस में ऊँगलियाँ उलझाये रहते, तो कभी वह मेरी लटों से 
                    खिलवाड़ करता रहता। एक बार उसने कविता में मेरे बालों की उपमा 
                    बदली से दे दी। बस, फिर क्या था, मैं जब-तब गोदी में रखे उसके 
                    सिर पर झुककर बदली छितरा देती और वह उचक-कर ....
 
 यह क्या, आपकी आँखों में तो अविश्वास उभर आया। मैं समझ गयी। एक 
                    सीनियर अधिकारी और ऐसीछिछोरी फिल्मी हरक़तें। पर सच मानिये, अब 
                    भी मैं दावे के साथ कह-सकती हूँ कि यहाँ के हर पुरुष के भीतर 
                    एक ऐसा ही फिल्मी हीरो आसन मारे बैठा रहता है और जब तक वह पूरी 
                    तरह तृप्त न हो जाये,मरता नहीं। उम्र के किसी भी दौर पर, उस 
                    समय चाहे वह छह बच्चों का बाप ही क्यों न हो ... जरा-सा मौक़ा 
                    मिलते ही भड़भड़ाकर जाग उठता है और पूरी तरह अपनी गिरफ्त में जकड़ 
                    लेता है। फिर तो बड़ी-बड़ी तोपें तक ऐसी बचकाना और बेवकूफ़ाना 
                    हरकतें करती हैं कि बस, तौबा ! न कोई शर्म, न उम्र का लिहाज! 
                    आजकल की लड़कियों ने उस राज़ को अच्छी तरह समझ लिया है, पर मैं 
                    तो उन बहनों को सावधान 
                    करना चाहती हूँ, जो शादी के पहले ही से उस हीरो के चंगुल में 
                    आकर अपने को चौपट कर लेती हैं।
 
 हाँ, तो मैं पूरी तरह शिंदेमयी हो गयी, पर तभी एक भयंकर झटका 
                    लगा। बल्कि कहूँ कि जो लगा, उसके लिये झटका शब्द हल्का ही है। 
                    मालूम पड़ा कि शिंदे की एक अदद बीवी है, जो पहली बार पुत्रावती 
                    बनकर पांच महीने बाद अपने मैके से लौटी है यानी एक अदद बीवी और 
                    एक अदद बच्चा। मुझे तो सारी दुनिया ही लड़खड़ाती नज़र आने लगी। 
                    लगा, मैं बहुत बड़ा धोखा खा गयी हूँ ? मेरे भीरत गुस्सा बुरी 
                    तरह बलबलाने लगा। लगा, मैं बहुत बड़ा धोख खा गई हूँ, और 
                    बीवी-बच्चे के रहते मेरी ओर प्रेम का हाथ बढ़ाने का मतलब, मैंने 
                    जब भी उससे घर और घरवालों के बारे में पूछा, वह तीन-चार शेर 
                    दोहरा दिया करता था, जिनका शाब्दिक अर्थ होता था, ‘‘ मेरा न 
                    कोई घर है न दर, न कोई अपना न पराया।इस ज़मीन और आसमान के बीच 
                    मैं अकेला हूँ, बिल्कुल अकेला ’’, पर मेरे लिये इन शेरों का 
                    सीधा-सादा अर्थ था-हरी झंडी, लाइन क्लीयर। सो मैं सपाटे से चल 
                    पड़ी। बल्कि चलने में थोड़ा फुर्ती भी की। आप तो जानती ही होंगी 
                    कि इस उम्र तक शादी न होने पर लड़कियों में एक खास तरह की 
                    हड़बड़ाहट आ जाती है। चाहती हैं, जैसे भी हो, जल्दी-से-जल्दी 
                    प्रेमी को पूरी तरह क़ब्ज़े 
                    में करके, पति बनाकर अपनी टेंट में खोंस लें।
 
 मैं भी इसी नेक इरादे से लपक रही थी कि बीच में ही औंधे मुँह 
                    गिरी।
 पर गिरने नहीं दिया शिंदे ने। हाथों-हाथ झेल लिया।
 उसने बिना किसी बात को मौक़ा दिये मुझे बाँहों में भर लिया और 
                    धुआँधार रोने लगा, ‘‘ पिता के दबाव में आकर की हुई शादी मेरे 
                    जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजेडी बन गई... बीवी के रहते भी मैं कितना 
                    अकेला हूँ .... दो अजनबियों की तरह एक छत के नीचे रहने की 
                    यातना.... ’ ऐसी-ऐसी बातें के न जाने कितने टुकड़े आँसुओं से 
                    भीग-भीगकर टपक रहे थे। मेरा विवेक मुझसे संकल्प करवा रहा था कि 
                    लौट जाओ, इस दिशा में अब एक कदम भी आगे मत बढ़ो। मैं रो-रोकर 
                    अपना संकल्प देाहरा रही थी। वह 
                    रो-रोकर अपना दुःख दोहरा रहा था।
 
 इसी तरह हम दो-तीन बार और मिले। वही बातें, वही रोना। मैंने 
                    सोचा था कि आँसुओं के साथ मैं अपना सारा प्रेम और ग़म भी बहा 
                    दूँगी और हमेशा के लिये अलबिदा कहकर लौट जाऊँगी। पर हुआ एकदम 
                    उल्टा। आँसुओं के जल से सिंचकर प्रेम की बेल तो और ज़्यादा 
                    लहलहा उठी। उब देखिये न, मीरा का पद-‘‘ अंसुवन जल सींच-सींच 
                    ... ’’ बचपन से पढ़ा था। पर हम सबकी ट्रेजेडी यही है कि स्कूली 
                    शिक्षा को जीवन में गुनते नहीं। शिक्षा एक तरफ जीवन एक तरफ और 
                    इसीलिये ठोकर खाते हैं।
 
 यही हुआ। उसका दुखी और दयनीय चेहरा देखकर मेरे मन में प्रेम का 
                    ज्वार उमड़ने लगा। उसके आँसुओंने प्रेम को इतना गीला और रपटीला 
                    बना दिया कि वापस मुड़ने को तैयार मेरा पैर, अपने-आपको स्वाहा 
                    करने के लिये आगे बढ़ गया।
 
 शिंदे इस मैदान का पक्का खिलाड़ी था। मेरे असमंजस और दुविधा को 
                    चट भांप गया। केवल भांप ही नहीं गया, वरन् उसने यह भी महसूस कर 
                    लिया कि बीवी की उपस्थिति से हमारे प्रेम में आपातकालीन स्थिति 
                    पैदा हो गयी है। अब यदि इसे बचाकर रखना है, तो प्रेम करने के 
                    तरीके में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना होगा। बिना उसके 
                    मामला चलनेवाला नज़र नहीं आ रहा था। रेस्तरां और बाग-बगीचों के 
                    बीच तो यह परिवर्तन आ नहीं सकता था, इसलिये बड़ी 
                    शिद्दत के साथ एक कमरे की तलब 
                    महसूस होने लगी।
 
 तीन-चार कमरा-मुलाक़ातों में ही मैंने समझ लिया कि इन मुलाक़ातों 
                    के कारण उसके भीतर किसी तरह का अपराध-बोध, या कुछ गलत करने का 
                    भाव लेशमात्रा भी नहीं है। वह काफी तृप्त और छका हुआ लगता था। 
                    मुझे समझते देर नहीं लगी कि शरीर के स्तर पर भी मैंने अपने को 
                    उसके लिये अनिवार्य बना लिया है। मुझे पक्का विश्वास हो गया कि 
                    मेरा यह समर्पण तुरुप के इक्के की तरह कारगर सिद्ध होगा और 
                    बाज़ी मेरे हाथ। निश्चय ही इन मुलाक़ातें ने मेरे प्रेम को बड़ी 
                    मज़बूत बैसाखियाँ थमा दीं और मेरे लड़खड़ाते क़दम फिर जम गये।
 
 वह मेरे साथ भविष्य की योजनाएँ बनाता, पर उन्हें अमल में लाये, 
                    तब तक के लिये एक मौन समझौता हम लोगों के बीच हो गया। अपना 
                    शरीर, अपनी भावनाएँ उसने मेरे ज़िम्मे कर दीं और घर, बच्चा, 
                    बूढ़ाबाप और सारी पारिवारिक खिचखिच बीवी के जिम्मे। इस विभाजन 
                    में मैं कुछ समय के लिये परम प्रसन्न।यों भी इस उम्र में आदमी 
                    को सबसे ज़्यादा भरोसा अपने शरीर पर ही होता है। शरीर पा लिया, 
                    समझो दुनिया-जहान हथिया लिया। ऊपर से मुझे वह कभी बातों से, तो 
                    कभी कविताओं से समझाता रहता किमन और शरीर की पवित्रा भूमि पर 
                    ही असली प्रेम पनपता है। घर की चहारदीवारी के बीच निरन्तर 
                    होनेवाली खिचखिच में तो वह मरता ही है। मैं समझती रहती और अपने 
                    को बहुत पुख़्ता ज़मीन पर महसूसकरती। वह बातें ही ऐसी करता कि 
                    सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता। मुझे पूरा विश्वास था कि एक
                    दिन वह खूँटे से उखड़कर 
                    मेरी गिरफ्त में आ जायेगा।
 
 बीवी की याद और बात से ही शिंदे अपना चेहरा एकदम मायूस बना 
                    लेता और बिना कहे ही मेरे दिमाग़ में यह बिठाने की कोशिश करता 
                    कि बीवी बनते ही औरत बहुत उबाऊ और त्रासदायक बन जाती है .... 
                    कि रिश्तों में बंधते ही प्रेम नीरस और बेजान हो जाता है ... 
                    कि सच्चे प्रेमियों को तो हमेशा मुक्त ही रहना चाहिये।
 
 बीवी बनने की ललक जब-तब मेरे भीरत जोर मारती थी। सच बात है, 
                    मुझे तो घर भी चाहिये था, पति भी और बच्चे भी। पर उसे तो जैसे 
                    बीवी नाम से ही चिढ़ हो गयी थी। कभी-कभी तो वह अपनी बीवी के 
                    कर्कश स्वभाव और तुनकमिज़ाजी की बात करते-करते रो तक पड़ता। तब 
                    मैं लपककर उसे बांहों में भरती, अपने होंठों से उसके आँसू 
                    पोंछती और उसे हौसला बंधाती कि जल्दी ही हम कुछ ऐसा करेंगे कि 
                    वह इस दुःख से मुक्त हो ... कि मैं उसे एक सही, सुखद ज़िन्दगी 
                    दूँगी। यह आश्वासन उसके लिये कम, मेरे अपने लिये ज्यादा होता 
                    था।
 
 दिन सरकते जा रहे थे और अपने प्रेम करने के तरीक़े में 
                    क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के बावजूद स्थिति जहाँ-की-तहाँ थीं 
                    यानी कि मैं अपने हॉस्टल के कमरे में बन्द, शिंदे अपनी बीवी की 
                    मुट्ठी में। 
                    आज सोचती हूँ तो अपने पर ही सौ-सौ धिक्कार के साथ आश्चर्य भी 
                    होता है कि कैसे मेरी बुद्धि पर ऐसा मोटा परदा पड़ गया था कि यह 
                    भी नहीं सोच सकी कि उसकी बीवी भी आखिर मेरी तरह ही एक स्त्री 
                    है ... अपने पति के छलावे और मक्कारी की शिकार। पर नहीं, यह तो
                    तब समझ में आया जब उसकी 
                    मक्कारी ने मुझे भी तबाही के कगार पर ला पटका।
 
 तभी तो मैंने सोचा कि क्यों न मैं जब-तब वहाँ उपस्थित होकर 
                    उसके त्रास को इतना बढ़ा दूँ कि वह खुद ही इस अपमानजनक स्थिति 
                    को नकारकर अलग हो जाये। रक़ीब को सामने देखर अच्छों-अच्छों के 
                    हौसले पस्त हो जाते हैं, फिर अपमान और अपेक्षा की आग में झुलसी 
                    इस औरत हा हौसला ही क्या होगा। और यही सोचकर आखिर मैं एक दिन 
                    शिंदे के घर जा धमकी।
 
 एक सुहागिन औरत की सारी नियामतों यानी कि बूढ़े ससुर के वरदहस्त 
                    की छत्रा-छाया और बच्चे के पोतड़ों की बन्दनवार के बीच, दूधों 
                    नहाई पूतों फली भाव से वह कुर्सी पर विराजमान थी।
 मुझे देखकर उसके चेहरे पर किसी तरह का कोई विकार नहीं आया।
 
 विकार तो मुझे देखक़र शिंदे के चेहरे पर आया, जिसे उसने थोड़ी-सी 
                    कोशिश करके अफसरी नकाब के नीचे ढक लिया। दफ़्तरी भाषा में 
                    दफ्तरी बातें करके उसने मुझे चलता किया। पर बाहर निकलते समय 
                    हाथ दबाकर लाड़ में लिपटी 
                    हल्की-सी-फटकार के साथ शाम को कमरे पर आने का निमन्त्राण भी दे 
                    दिया।
 
 मैं उसकी बीवी को त्रास्त करने गयी थी, पर खुद ही त्रास्त और 
                    पस्त होकर लौटी। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि यह औरत है या माँस 
                    का लोंदा ? इसका आदमी तीन साल से एक दूसरी लड़की के साथ मस्ती 
                    मार रहा है और उसे न कोई तकलीफ, न कष्ट! मैं इसकी जगह होऊँ तो 
                    शायद एक दिन में इस तरह की अपमानजनक स्थिति को बर्दाश्त न 
                    करूं। इसके शरीर पर चमड़ी लिपटी है, या गैंडे की खाल? यह तो 
                    मुझे बहूत बाद में अपने अनुभव ने सिखाया कि अधिकतर शादी-शुदा 
                    औरतें ऐसी होती है, जिन्हें अपने घर की दीवारों से बेशुमार 
                    लगाव होता है। इतना ज्यादा कि धीरे-धीरे उन दीवारों को ही अपने 
                    शरीर के चारों ओर लपेट लेती हैं। फिर मान-अपमान के सारे हमले 
                    उनसे टकराकर बाहर ही ढेर हो जाते हैं और वे उनसे बे-असर 
                    सती-साध्वी-सी भीतर सुरक्षित बैठी रहती हैं।
 
 शाम को शिंदे मुझ पर एकदम बरस पड़ा कि मैंने उसके घर आने की 
                    मूर्खता क्यों की ? कितना चौकस रहना पड़ता है उसे हर समय, जिससे 
                    उसकी बीवी को इस प्रसंग की हवा भी न लग सके, वरना तो वह 
                    शूर्पनखा की तरह ऑफिस, परिवार और सारे शहर में हड़बोंग मचाकर रख 
                    देगी। मौका लगा तो मेरा झोंटा पकड़कर सड़क पर जूते लगवाएगी, और 
                    बड़ी चालाकी से उसने मेरे मन में अपनी पत्नी के लिये, जिसे वह 
                    अक्सर कोतवाल कहता था, ढेर सारी नफ़रत और आक्रोश भर दिया। साथ 
                    ही जल्दबाजी करने की अपनी नादानी-भरी मूर्खता पर मुझे बेहद 
                    शर्मिन्दा भी किया।
 देखा आपने कि कैसे शातिराना अन्दाज़ से पुरुष नफ़रत और गुस्से की 
                    सुई अपनी ओर से सरकाकर दोनों औरतों की ओर घुमा देता है। वे ही 
                    आपस में लड़े-भिडें, कोसे-गालियायें और वह जो असली गुनहगार है, 
                    अपने पर आँच आये बिना 
                    आराम से दोनों का सुख भोगता रहे।
 
 वह समझाता कि सहजीवन का मधुरतम पक्ष तो हम भाग ही रहे हैं, मैं 
                    क्यों बेकार में शादी-ब्याह और घर में जकड़कर इस मधुर सम्बन्ध 
                    का गला घोंटना चाहती हूँ। और इसी चक्कर में वह मधु ऊँड़ेलती हुई 
                    तीन-चार फड़कती कविताएँ मेरे नाम ठोंक देता।
 
 मेरे कन्धों पर स्त्राी-पुरुष के सम्बन्धों को एक नयी दिशा 
                    देने का दायित्व है। अगली पीढ़ी अधिक स्वस्थ, अधिक मुक्त 
                    ज़िन्दगी जी सके, उसके लिये हमें पहल करनी होगी, एक उदाहरण रखना 
                    होगा-चाहे उसके लिये हमें खाद ही क्यों न बनना पड़े। शिंदे तो 
                    ये बातें झाड़कर मज़े से अपनी बीवी का बगलगीर हो जाता है और मैं 
                    असली अर्थों में खाद बनी अपने कमरे में सड़ती रहती।
 
 तभी शिंदे का तबादला हो गया। मैं एक बार फिर डगमगा गयी। मुझे 
                    लगा कि बस, अब यह मेरी ज़िन्दगी से निकला।
 पर उस समय तो बस, शिंदे में ही प्राण बसते थे ..... लगता था, 
                    उसके बिना जी नहीं सकूंगी। ग़लत-सही की समझ ही कहाँ रह गयी थी। 
                    मैं उसे पाना चाहती थी और वह मुझे खोना नहीं चाहता था।
 
 उसके साथ होटल में गुज़ारे वे दिन। मैं तो भूल ही गयी कि हम 
                    दोनों के बीच कोई तीसरा भी है।तबीयत एकदम लहलहा उठी। इस बार 
                    उसने बाकायदा योजना बनायी कि पत्नी को अब यहाँ न बुलाकर उसके 
                    पिता के घर भेज देगा और 
                    धीरे-धीरे उसे कानूनी कार्रवाई करने के लिये राजी कर लेगा ... 
                    यदि नहीं हुई तो, मजबूर करेगा।
 
 बातों का तो वह बादशाह था ही, पत्रा लिखने में भी उसे क़माल 
                    हासिल था। शरीरों में जो दूरी आ गयी थी, उसे वह पत्रों की भाषा 
                    से पाटता रहता। पत्रों में मुझे वह ‘‘ दिव्य-प्रेम ’’ का दर्शन 
                    समझाता। मेरे जन्म-दिन पर अपने इसी दिव्य-प्रेम में डुबोकर 
                    उसने एक खूबसूरत-सा तोहफा मेरे लिये भेजा। कभी वह चांदनी रात 
                    के गीत लिखकर भेजता, तो कभी साथ बिताये मधुर क्षणों की याद को 
                    ताज़ा करनेवाली कविताएँ।
 
 उसने आँखों में सचमुच के आँसू भरकर कहा कि मैं ही शिंदे की 
                    प्राण हूँ, शिंदे की प्रेरणा हूँ। घर-परिवार के अतिरिक्त शिंदे 
                    का जो कुछ भी है-और वही तो असली शिंदे है-वह उसने मुझे पूरी 
                    तरह सौंप रखा है और तुरंत उसने अपनी बात का प्रमाण पेश कर दिया 
                    मुझे समर्पित किया हुआ अपना नया कविता-संग्रह। हाथ से लिखा हुआ 
                    था-‘‘ प्राण को। ’’
 
 उसकी प्रेरणा और प्राण बनने का हश्र यह हुआ कि वह तो दिन-दूना 
                    रात-चौगुना फलता-फूलता रहा। धन-यश, सफलता, मान-सम्मान-सभी का 
                    मालिक और मैं भीतर-ही-भीतर झुलसकर काठ का कुंदा हो गयी। सब ओर 
                    से मरी, मुरझायी, टूटी और पस्त। मैं समझ गयी कि मैं बुरी तरह 
                    ठगी गई हूँ।
 
 धीरे-धीरे उम्र की बढ़ोतरी और ऑफिस और दुनियादारी की निरंतर 
                    बढ़ती ज़िम्मेदारियों के बीच शिंदे की रोमानी जरूरत 
                    घटती चली गयी। परिणाम यह हुआ कि 
                    हमारे बीच चलनेवाले पत्रों की संख्या कम और मज़मून मौसम के 
                    सर्द-गर्म होने पर आकर टिक गया।
 
 आठ साल तक चलनेवाला प्रेम-प्रसंग महज़ एक खिलवाड़ था, जिसकी बाज़ी 
                    बड़ी होशियारी से शिंदे ने बांटी। भ्रमजाल के कटते ही नज़र साफ़ 
                    हुई, तो बाज़ी में बंटे हुए पत्तों का यह नशा रह-रहकर मेरी 
                    आँखों में उभरने लगा:
 तुरुप का इक्का यानी घर ....उसके पास
 तुरुप का बादशाह यानी बच्चा ... उसके पास
 तुरुप की बेगम यानी बीवी और प्रेम करने के लिये प्रेमिका .... 
                    उसके पास
 तुरुप का गुलाम यानी नौकर-चाकर-गाड़ी-बंगला ... उसके पास
 लब्बो-लुबाब यह कि तुरुप के सारे पत्ते उसके पास और मुझे मिले 
                    उसके दिये हुए छक्के-पंचे, यानी टोटके की तरह पुड़िया में बंधे, 
                    दार्शनिक लफ़्फाजी में लिपटे हवाई प्यार के चन्द जुमले। इन 
                    टटपूंजिया पत्तों के सहारे मैं ज़यादा-से-ज़्यादा इतना ही कर 
                    सकती थी कि ज़िन्दगी-भर उसकी पूंछ पकड़े रहती और उसे ही अपनी 
                    उपलब्धि समझ-समझकर सन्तोष करती। मन बहुत घबराता, तो उसी पूंछ 
                    से हवा करके उसके साथ बिताये मधुर क्षणों पर जमी समय की धूल 
                    उड़ाकर कुछ समय के लिये अपना खालीपन भर लेती।
 
 निहायत हवाई बातें पल्ले से बांधे-बांधे मैंने अपनी ज़िंदगी को 
                    बरबादी के कगार पर ला पटका था। अब चाहती हूँ, ठेठ दुनियादारी 
                    की बातें अपनी हज़ार-हज़ार मासूम किशोरी बहनों के पल्ले से बांध 
                    दूँ, जिससे वह मेरी तरह भटकने से बच जायें।
 इस देश में प्रेम के बीच मन और शरीर की ‘‘ पवित्रा भूमि ’’ में 
                    नहीं, ठेठ घर-परिवार की उपजाऊ भूमि से ही फलते-फूलते हैं।
 भूलकर भी शादीशुदा आदमी के प्रेम में मत पड़िये। ‘ दिव्य ’ और ‘ 
                    महान प्रेम ’ की खाति बीवी-बच्चों को दांव पर लगानेवाले 
                    प्रेम-वीरों की यहाँ पैदावार ही नहीं होती। दो नावों पर पैर 
                    रखकर चलनेवाले ‘ शूरवीर ’ ज़रूर सरेआम मिल जायेंगे।
 हाँ, शादीशुदा औरतें चाहें, तो भले ही शादीशुदा आदमी से प्रेम 
                    कर लें। जब तक चाहा प्रेम किया, मन भर गया तो लौटकर अपने खूँटे 
                    पर। न कोई डर, न घोटाला, जब प्रेम में लगा हो शादी का ताला।
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