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गौरव गाथा

वरिष्ठ कथाकारों की प्रसिद्ध कहानियों के इस स्तंभ में इस सप्ताह
प्रस्तुत है भारत से मन्नू भंडारी की कहानी- 'स्त्री सुबोधिनी'।

 


प्यारी बहनों,
न तो मैं कोई विचारक हूँ, न प्रचारक, न लेखक, न शिक्षक। मैं तो एक बड़ी मामूली-सी नौकरी पेशा घरेलू औरत हूँ, जो अपनी उम्र के बयालीस साल पार कर चुकी है। लेकिन उस उम्र तक आते - आते जिन स्थितियों से मैं गुज़री हूँ, जैसा अहम् अनुभव मैंने पाया... चाहती हूँ, बिना किसी लाग - लपेट के उसेआपके सामने रखूँ और आपको बहुत सारे खतरों से आगाह कर दूँ।

अब सीधी बात सुनिये। सीधी और सच्ची !
मेरा अपने बॉस से प्रेम हो गया। वाह! आपके चेहरों पर तो चमक आ गयी ! आप भी क्या करें? प्रेम कम्बख्त है ही ऐसी चीज़। चाहे कितनी ही पुरानी और घिसी - पिटी क्यों न हो जाये .... एक बार तो दिल फड़क ही उठता है ... चेहरे चमचमाने ही लगते हैं। खैर, तो यह कोई अनहोनी बात नहीं थी। डॉक्टरों का नर्सों से, प्रोफेसरों का अपनी छात्राओं से, अफसरों का अपनी स्टेनो - सेक्रेटरी से प्रेम हो जाने का हमारे यहाँ आम रिवाज है। यह बात बिलकुल अलग है कि उनकी ओर से इसमें प्रेम कम और शग़ल ज़्यादा रहता है।

शिंदे नये-नये तबादला होकर हमारे विभाग में आये थे। बेहद खुशमिज़ाज और खूबसूरत। आँखों में ऐसी गहराई कि जिसे देख लें, वह गोते ही लगाता रह जाये।

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