बच्चे और सरना। दत्ताचित्त पिछले कमरे में जन्माष्टमी की
झाँकी सजाने में लगे थे। पीछे का अँगड़-खंगड़ सरना ने अपनी
पुरानी रेशमी साड़ी से ढँक दिया। पास-पड़ोस से खिलौने और
रंग-बिरंगी तस्वीरें माँग ही ली थीं, तो दो-तीन पड़ोसिनों को
आरती के लिए न्यौत भी आयी। न्यौत आने पर प्रसाद बनाने का
अतिरिक्त उत्साह भी उसमें आ गया। केले, अमरूद मँगाते गुल्लू को
वापस टेरकर बोली, ''दो-एक सेब और एक पाव भर अंगूर भी लेते आना।
भगवान का काम है।'' गद्गद सरना अंदर-बाहर जाते कहती। गुल्लू
चला गया तो उसे कलाकंद की याद आयी... ''यह सोच मरी रह-रहकर आती
है...बच्चा बेचारा...? शायद अभी दूर न गया हो...,'' वह
दौड़ी-दौड़ी बाहर आयी।
गुल्लू तो निकल गया था, पर पति दहलीज पर बैठा बीड़ी फूँक रहा था
चेहरा घिरा हुआ, भवें घनी होती हुईं।
''छि:-छि:...त्योहार के दिन तो रहने दो...वैसेई उपास का दिन
है...यहाँ कैसे बैठे हो? अंदर चलो, देखो बच्चे कैसे...''
''नहीं, अभी बाहर जाना है,'' वह बात काट देने की नीयत से बोला।
''वहाँ?'' फिर बिना जवाब सुने बोली, ''पहले कहा होता। नाहक़
गुल्लू को दौड़ाया। तुम्हीं सब चीज़ें लेते आते।''
वह कुछ न बोला। ढलती शाम को वैसे ही निर्विकार भाव से देखते
हुए आधी पी हुई बीड़ी को एक कोने में फेंक दिया।
''कहाँ जाओगे, इस वक्त?''
''बनिये के यहाँ...सुबह उसकी स्टॉक चेकिंग हो रही थी, बोला शाम
को आना।''
''कल चले जाना,'' फिर कुछ सोचकर स्वयं ही बोली, ''नहीं, अभी दे
आओ...। न हो, एक गिलास दूध पी लो...आरती-प्रसाद में तो आज देर
लगेगी?' '
''नहीं।''
वह इतने छोटे में उत्तर देता है कि बात को आगे जाते-जाते लौट
आना पड़ता है। ''तबीयत तो ठीक है न?'' वह उसका माथा छूती बोली।
''हाँ...बिलकुल,'' पत्नी के हाथ की करुणा उसने हौले से परे
सरका दी।
पूजन पूरा हुआ। आरोपित प्रसव और कृष्ण-जन्म उपलब्धि के तन्मय
उल्लास में बही जाती पत्नी ने अचानक थाली में पैसे डालने को
तत्पर उसके हाथ अधबीच थाम लिये। थाली में पड़ते-पड़ते पैसे उसके
हाथ में ही थमे रह गए। वह मुँह-बाए देखता रहा। पड़ोसिनें
भौचक्क, बच्चे विस्मित। अपने में लौटते हुए सरना ने फौरन सहज
होते हुए कहा, ''सवी, जा...जा मेरा बटुआ उठा ला, छोटी संदूकची
में धरा है।''
आरती में फिर अमर का ध्यान न लगा। बार-बार पिछड़ता जाता अपना ही
स्वर, घर के स्वामी की-सी बुलंद तन्मयता से शून्य। बच्चों और
औरतों की छोटी-सी भीड़ में से खिंचता-खिंचता वह एकदम पीछे सरक
लिया। पत्नी प्रसाद बाँटते इधर-उधर नज़रें दौड़ाती उसे ढूँढती
रही। उसने चाहा कि वह प्रसाद पहले पति को देती। पर वह वहाँ
नहीं था। सहन में तुलसी के झाड़ के नीचे के सूखे पत्ते बटोर रहा
था।
''मन बुरा न करो। ...यह सब भी तो तुम्हारा लाया हुआ है...पूजा
में वह पैसे खर्च करना ठीक नहीं था...भगवान का काम है...।''
''माँ के मरने पर इतना खर्च हुआ, तब तो तू कुछ नहीं बोली,'' एक
रूठा हुआ उपालंभ आवाज़ में था।
''कैसी बातें करते हो?'' वह तनिक आहत होकर बोली, 'वह मौत का
काम था। माँ से कभी दो हाथ करते देखा है क्या तुमने मुझे?''
''मैंने कब कहा?'' पत्नी के स्वर की शिकायत पहचान कर वह नरम
होता हुआ बोला।
''तुम इतने सुस्त क्यों हो गए? तुम ही बताओ, मैंने ग़लत कहा
है?''
''ग़लत-सही मुझसे न पूछ सरना! ...यह समझना मेरे बस का नहीं। मैं
सब लाकर तुम्हें दे देता हूँ। तू जाने, तेरा भगवान जाने।''
''भगवान तुम्हारा नहीं है क्या?'' पत्नी ने न जाने कैसे भय से
आँखें फाड़कर पूछा।
''मुझे पता नहीं...'' बुदबुदाता-सा वह बाहर निकल गया।
औरतें देर तक अंदर शोर करती रहीं।
माँ की बरसी उसने कई ब्राह्मणों को न्यौत कर की। ऐसा करते पिता
के नाम के श्राद्धों की याद करके हुमका भी। अब तक दफ्तर में ही
काम करते लीचड़ जोशीजी की पालथी के नीचे पिता के श्राद्ध की
चौकड़ी बनी रही। वह भी माँ के जीते-जी। यह अशुचिता उसे तब भी
अखरती थी और नये-पुराने दु:खों की अनंत पोटलियों के बीच आ धरती
थी। ऐसा रोग...पिता को अस्पताल भरती करा पाया होता तो...।
डॉक्टर ने तो कहा था, ''ऑपरेशन उन्हें ज़िंदा रखने के लिए है,
मारने के लिए नहीं।'' पर मरना-जीना भाग्य की बात है...भाग्य और
कर्म का हिसाब किस जगह पर तय होता है, वह समझ नहीं पाता...। जी
बहुत दु:ख जाता है तो फैसला भाग्य के पक्ष में कर लेता है।
कई और ब्राह्मणों को आया देख जोशीजी कसमसाए, परंतु अमर ने उनके
प्रति उदारता ही बरती, ''आप तो घर के ही ठहरे,'' कहकर उन्हें
भी संतुष्ट किया। मौत के उत्सव में व्यस्तता से इधर-से-उधर
डोलती सरना अपनी ही आँखों में बड़ी होती रही।
अब अक्सर अमरौती खाकर उतरी नायलॉन की साड़ी को वह अलगनी पर
टाँगकर फूल-छपी कड़क कलफदार धोती पहने अपने पर मुग्ध होती
बार-बार पति की तरफ देखती।
वह ठगा-सा उसे देखता रहता। जाने कैसी अबूझ-सी छाया उसके चेहरे
से गुज़रती आसपास की वस्तुओं पर जाले की तरह जा लिपटती। ठंडे-से
स्वर में पूछता, ''यह कब लाई हो?''
''शंकर-बाज़ार में सेल लगी है न!'' वह पुलकती-सी पास दुबककर
कहती, ''सुनो सवी के लिए भी मैंने धीरे-धीरे चीज़ें जमा करना
शुरू कर दी हैं। ब्याह के समय चार चीज़ें घर से निकल आएँगी तो
तुम्हारा हाथ भी...''
''तुम तो कहती थीं, प्राणनाथ जी के यहाँ शादी करेंगे तो कुछ
ख़ास देना नहीं पड़ेगा?''
''वह तो ठीक है। सामने वाला तो कहता ही है...पर अपना भी तो कुछ
फर्ष्ज बनता है...''
''फर्ज़ छोड़ो, सरना! ...किसका किसके लिए फर्ज बनता है, और
क्यों, यह मेरी समझ में नहीं आता।''
''नयी-नयी-सी बातें करते हो तुम तो...''
''हाँ, करता हूँ! प्राणनाथ जी की हैसियत को हमारी चार चीज़ों की
क्या परवाह पड़ी है?''
''लड़की का रूप-गुण देखकर ले रहे हैं तो इसका यह मतलब तो
नहीं...आखिर तुम भी बाप हो...''
''तुम खुद ही केंचुली से निकलना नहीं चाहतीं...और मुझे भी...''
अपना वाक्य हवा में टाँगकर वह बाहर निकल गया और चहलकदमी करने
लगा।
कूड़ा फेंकने वह बाहर आई तो चौंकी, ''अरे, मैं तो समझी थी तुम
जगदीप के यहाँ गए हो...चलो, खा लो।''
हाथ धोकर थाली पर बैठा तो पत्नी ने पीतल का बड़ा कटोरा आगे
सरकाते हुए कहा, ''साग चाहे रहने दो...यह खा लो।''
''क्या है यह?''
''थोड़ी खीर बना ली थी।''
खीर की मात्रा देखकर वह चौंका, ''बच्चों को नहीं दी?''
''बच्चे तो ख़ूब छक चुके...हम दोनों रह गए हैं।''
वह थाली को आगे सरकाता हुआ बोला, ''तो फिर तुम भी खा लो साथ
ही।''
इस आमंत्रण पर वह भीतर से भीग आयी। उमगती-सी मुँह देखती रही
पर वह निर्वाक् खाता रहा। फिर सोचते हुए बोला, ''आज बच्चों में
से किसी का जन्मदिन तो नहीं...तभी तुम खीर बनाती हो।''
वह खिलखिलाकर हँस पड़ी, ''इस महीने में कौन जन्मा था अपने
घर...? तुम तो बस...''
न साग अमर ने पीछे सरकाया, न खीर जमकर खायी, ''रख दे, सुबह
बच्चे खा लेंगे।''
''तुम भी अजीब हो, कुछ अपनी सेहत का...''
''कौन-सी सेहत?'' वह ऐसे कड़वे काठिन्य से बोला कि सरना को
मुँह
उठाकर देखना पड़ा।
''सेहत भी दो-चार होती हैं क्या? तुम भी जाने कैसे...''
''अच्छा, बस-बस!''
वह अपने बिस्तर में दुबक लिया। पत्नी सोने आई तो जैसे टोहती
रही...छाती पर हाथ रखकर। अँधेरे को अपलक घूरता वह निश्चल पड़ा
रहा।
प्रो. प्राणनाथ आज फिर आए थे। वही आते हैं। जबकि जाना अमर को
चाहिए। उनका आना सरना के पैरों में पंख लगा देता है। अमर के
पास सवी को लेकर छोटा-सा गर्व भी नहीं था उसका रूप जो जन्मजात
था और हाई स्कूल में बोर्ड में प्रथम स्थान, उसके अपने परिश्रम
का फल। उसका तो बस...उसकी तो बस वह बेटी थी। इसीलिए वह पत्नी
के उत्साह में इतना भाग नहीं ले पाता था। सवी पर बरसते उनके
वात्सल्य को अविश्वास से देखता रह जाता था।
गुल्लू का मिडिल इन गर्मियों तक...सवी की शादी इन सर्दियों तक।
इस साल तो देबू भी तैयार हो जाएगा...तो बस!
शेव करते शीशे के सामने खड़े अमर को अपने चेहरे के पीछे न जाने
कितनी लहरियाँ काँपती नज़र आयीं। लहरों की उस बावड़ी में वह अपने
भविष्य का चेहरा टटोलता खड़ा रहा।
खड़ा रहता यदि धोती के सिरे से हाथ पोंछती पत्नी उसे न चौंकाती,
''सुनो, सवी के लिए एक कंठी बनवाना है।''
''क्या?'' आश्चर्य के रास्ते धरती पर लौटता वह बोला।
''हाँ! हाँ! कंठी...। तुम्हें तो मालूम है, सवी की कब की साध
है। माँजी कब से सवी के लिए रखे थीं...बिक गईं...! खैर, छोड़ो
पिछली बातों को...''
''प्राणनाथ जी को इन बातों में विश्वास नहीं, रोज़ इतनी बातें
कहते रहते हैं, सुनती नहीं हो?''
''उनके कहने से क्या होता है?''
''होता क्यों नहीं, एकदम दूसरे ख्यालों के हैं...नहीं तो लड़के
वाले होकर रोज-रोज़ यों चले आते...?''
''वह तो देखती हूँ...लड़की की ऐसी ममता करते हैं...छोड़ो, बातों
में न उलझाओ...तुम कहो तो मैं आज सुनार के पास जाऊँ?''
''नहीं,'' वह अलिप्त-सा चेहरे पर साबुन घिसने लगा।
''क्यों?'' एक उद्दंड-सा क्षोभ पत्नी की आवाज़ में भी तिर आया।
''क्योंकि उसे कंठी देने का मेरा कोई इरादा नहीं है। कम-से-कम
दो तोले की बनेगी...और सोने का भाव मालूम है?''
''मालूम है...। पर कब से साध लिये है छोरी...।''
''इतनी और साधें पूरी हो रही हैं...यह सोचकर सबर करो। एक इसी
साध को लेकर मरने की क्या ज़रूरत है? कभी सोचा था तुमने या उसने
कि ऐसे घर जाएगी?''
''उसकी किस्मत! उसकी सज़ा तुम उसे क्यों दे रहे हो?''
''सज़ा किसी को नहीं मिलती...सिर्फ मुझे मिलती है...और सब
तो...'' बाकी का वाक्य वह अंदर घुड़क गया, खीजता हुआ बोला,
''जाओ, मुझे शेव करने दो...देर हो रही है।''
''तुम असल में इस वक्त जल्दी में हो,'' कहती हुई वह रसोई में
लौट गई, उद्विग्न उतावली में वह तैयार होकर दफ्तर
चला गया।
शाम को जब लौटा तो नहीं जानता था कि वह प्रसंग अभी उनके बीच
जीवित है। पत्नी ने यह कहकर कि इस समय तुम्हें जल्दी है, लगाम
अपने हाथ में रख ली थी। बात शुरू होते-होते ही प्रोफेसर
प्राणनाथ आ गए, और उनके साथ ही घर की हवा एक ताज़ा सुगंध से भर
गई। इतनी सहज आत्मीयता से वह यहाँ बैठते-उठते कि उनके
जाते-जाते तक तो घर का वातावरण हलका और तरल हो उठता।
पति को उसने हलका सहज देखा तो कलाई थामकर बोली, ''क्या इतनी-
सी बात भी नहीं रखोगे?''
उसे उसी क्षण जैसे ताप चढ़ आया। झिड़ककर बोला, ''बेवकूफष्ी मत
करो
...कभी तुम अपने लिए कहतीं तो बात भी थी...हिरस समझ सकता
हूँ...सवी को क्या कमी है? एक-एक लड़का है उनका...ज़मीन-जायदाद
है...ऐसे भले विचार हैं...। आगे भी तो देखना है मुझे...पता
नहीं, किस-किससे पाला पड़े...दुनिया में सब प्रोफेसर प्राणनाथ
ही तो नहीं होते...''
''क्या हुआ...गीतू की शादी तक तो देबू भी डॉक्टर हो जाएगा।''
''डॉक्टर क्यों कहती हो, कहो कुबेर हो जाएगा। इतना भरोसा मैंने
किया है किसी का आज तक...?''
''तुमने नहीं किया तो क्या, उसका भी खून इतना सफेद तो नहीं
होगा।''
''मैं कर ही क्या रहा हूँ उसका, जो आशा करूं? वज़ीफा लेता है,
टयूशन करता है, हम लोगों पर तो दो रोटी की मोहताजी भी नहीं रखी
है उसने...''
''वह न करे, पर तुम अपनी लड़की के लिए ऐसे पत्थर दिल क्यों हो
गए हो...?'' चोट करने के तेवर में आ गई थी पत्नी।
''सरना...चुप रहो...मुझे तैश न दिलाओ...'' पास रखी काठ की
कुर्सी पर बैठ गया वह आक्रामक क्रोध में तपता।
''ऐसी बड़ी बात नहीं कह दी है मैंने कि तुम इस तरह
गुस्साओ...आखिर लड़की...''
''ओह! सरना, तुम इतना तो सोचो! मैं कहाँ से करूं...कैसे
करूं...तुम क्या नहीं जानतीं...?''
''इतना करते हो, तो दो-चार बोरियां और...''
सरना की आवाज़ की निरुद्वेग ठंडक और आग के तीरों से उसका पोर-
पोर बिंधना। जाने कैसी तेज़ी से वह उठा। फौलादी पंजों से पत्नी
के कंधे झिंझोड़कर उसे खाट पर धक्का देकर थरथराता हुआ बोला,
''तू...तू...तू भी...मर गई है मेरे साथ। तेरे पुन्न को देखकर
जीता आया था मैं अब तक...मेरा अपना ही बोझ क्या कम था मेरे
लिए...?'' |