मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


सवेरे घर बुहारते वह उस कोने में जाना बचा गई। देर से उठते पति के आलस्य को अनदेखा कर गई...बोरी ढोकर ले जाने का अहसास होने पर भी बाहर टिफिन देने न गई...सवी को भेज दिया...।

अनाज के इस मालगोदाम की रखवाली के ही लिए रखे गए थे वह। लाला ने यही सोचकर यह छोटा-सा दो कोठरियों का चाहे टूटा-सा घर उन्हें बिना भाड़े के दे दिया थाअागे एक छोटा-सा सहन और दालान। क्लर्की से कुछ बनता नहीं था। बीमार माँ, एक बहन, एक भाई और तीन बच्चे...बहन जैसे- तैसे ब्याह गई थी...भाई होशियार था, अपने पाए वज़ीफे से पढ़ रहा था...कभी- कभार आता था और बड़े भाई के कंधे पर एक नपुंसक दिलासा छोड़ जाता था...अभी उसकी तीन साल की पढ़ाई बाकी थी...तब तक सवी सोलह की हो जाएगी और गुल्लू बारह का। गीतू तो अभी छोटी थीएक का ब्याह, दूसरे की पढ़ाई...। इन दो सुलगते सवालों से आँखें भींच लेना चाहते थे वे...जो कुछ जोड़ा, बचाया था, पिछले साल माँ की बीमारी में...'सेरीबरल'...कुछ ऐसी ही टेढ़ी-मेढ़ी बातें कही थीं डॉक्टर ने... 'पहले बहत्तर घंटे खींच गई तो जी जाएँगी।' ऐंठे हुए अंगों और ऊपर टँगी हुई पुतलियों के बावजूद माँ जी गई थीं।

और जीने की डोर रुपयों की थैली के साथ बँधी यथार्थ की चर्खी पर खिंचती सतत। ऊपर-नीचे। बार-बार...

अपने मन का चोर वह जानती है। उसे लगा करता है, मरना तो है, एक दिन सबको...हर किसी को...क्या फ़र्क पड़ता है! माँ जी गईं तो पीछे जीवित रहने वाले सबके-सब। वह, अमर, देबू, सवी, गुल्लू, गीतू सब मर जाएँगे...धीरे- धीरे। सिर्फ डॉक्टर खाएगा और गले पड़ी बीमारी...नहीं तो सब खाते...थोड़ा- थोड़ा...साधकर, संभालकर...

छि:! छि:! क्या सोचती रहती है। अमर जान जाएगा तो क्या सोचेगा...? 'ऐसा न्याय घरों में नहीं होता...श्मशानों में, अस्पतालों में होता है, लाशें आधी रात या मुँह-अँधेरे बिकने आती हैं बीस-बीस रुपये में।' देबू बताया करता है, 'साइकिलों पर लंबे-लंबे पैंडें मारकर लाशें लादकर लाते हैं सगे-संबंधियों की। बीस-पच्चीस रुपयों की ख़ातिर...' 'संबंध तो वैसे ही मर गया है डाकदर साब
...यह तो मिट्टी है...' 'यह बात संबंध से ज्यादा जानदार होती है क्योंकि रोटी दे सकती है,' देबू यह बात अपनी तरफष् से जोड़ देता है।

''बस-बस, देबू...बस कर!'' उसने सुनते-सुनते घबराकर कहा था, ''आदमी की चेतना क्या इतनी मर जाती है?''

''किस चेतना की बात करती हो भाभी...शास्तर वाली चेतना की?''

''चुप देबू...शास्तर का नाम न ले...पढ़-लिख गया है, तो इसका यह मतलब तो नहीं...''

''एक बार मेरे साथ अस्पताल चलकर देखो भाभी।''

और अस्पताल गए बिना ही वह देख रही है...देख लेती है। अपने को। अपने भीतर पनपते विषाणुओं को। माँ जीवित रहेंगी तो सबके भविष्य का संतुलन डोल जाएगा। देबू की बात इतनी नंगी...इतने पास।

मन की शांति कहीं उड़ गई थी...उठते-बैठते माँ की जगह एक लाश दीखने लग गई थी...उसने एक दिन डरते-डरते अमर से पूछा, ''क्या तुम्हें भी लगता है कि...''

''क्या?''

''कुछ नहीं...यही कि पैसे कम होते जा रहे हैं। कितने बचे हैं? तुम तो आज पोस्ट ऑफिस गए थे न?''

एक दीर्घ दृष्टि से उसे भाँपता वह चुप रहा।

''तुमने जवाब नहीं दिया...कितना बचा है अब?''

''तुम्हें हर बात से क्या मतलब?''

''मतलब क्यों नहीं...सब कुछ तुम्हारे अकेले के सिर...क्या मैं जानती नहीं, अब तो तुम भर पेट खाना भी नहीं खाते...''

''ओह! चुप रह सरना...मैं कहता हं, तू चुप रह...ऐसी दया से मुझे न तोड़...' '

वह सहम गई।



''आज क्या देबू आया था?'' वह खाना खाकर बिस्तर पर लेटा था।

''आया था...सुनो, तुम्हें उससे डर नहीं लगता?''

''किससे? ...देबू से...?''

''नहीं, अनाज वाले लाला से...तुम्हारी शिकायत कर दे तो?'' वह साहस करके कह गई।

वह धीमे परंतु कठोर स्वर में बोला, ''नहीं।''

''क्यों नहीं...?''

''वह लोगों को लूटता है, मैं उसको लूटता हूँ।''

''उसका लूटना ग़लत है तो तुम्हारा भी...''

वह उठकर बैठ गई। अमर कुछ न बोला।

''सुनो, तुम्हें भगवान से भी डर नहीं लगता...?''

''तुम जो डर लेती हो...।''

''उससे क्या होता है...''

''होता है...मेरी करनी मेरे पास रहती है। तुम्हारी तुम्हारे पास...बोझ से मरूँगा तो मैं ही...।''

''ऐसा मत कहो...'' पति का मुँह अपनी कांपती हथेली से ढँकती हुई वह बोली, ''हम-तुम दो हैं क्या...?''

फिर वही अँधेरे को घूरती उसकी अबूझ चुप्पी।

''हाँ, किसी-किसी जगह पर पहुँचकर हम-तुम दो हैं...!''

''कैसे?''

''तुम इसे समझ नहीं सकतीं...। चलो छोड़ो...! माँ की तबीयत अब कैसी है...?''

उसने आँखें फाड़कर पति को देखा, ''क्यों, क्या तुम घर में नहीं रहते?''

''मैं? मैं घर में कहाँ रहता हूँ...! कब होता हूँ मैं घर में...? मेरे भीतर
तो...'' स्वर में एक अबूझ विषाद।

''किस तरह की बातें कर रहे हो तुम...? सुनो, एक बात मानोगे?''

''हूँ...।''

''छह महीने के लिए तुम देबू की पढ़ाई छुड़वा दो...वज़ीफे से कुछ मदद होगी छह महीने बाद भी डॉक्टर बन जाएगा तो क्या फ़र्क पड़ेगा।''

''नहीं सरना...देबू की अपनी ज़िंदगी है, अपनी किस्मत...। उसे अपने लिए दाँव पर नहीं लगाऊँगा।''

''पर उसकी भी तो कोई जिम्मेवारी है।''

''है, पर मेरी भी तो उसके लिए कोई जिम्मेवारी है।''

''तो फिर...फिर मुझे स्वेटर बुनने की एक मशीन दिला दो...इसमें बुरा तो कुछ नहीं...सब घर बैठे-बैठे करते हैं...''

''दिला दूँगा, अभी तो...जानती हो, माँ की बीमारी में सब कुछ हाथ से निकल गया।''

''जानती हूँ,'' आवाज़ कटार हो आयी।

''उनका इसमें क्या दोष है सरना...? क्या इसके लिए तुम उन्हें माफ नहीं कर सकतीं...?''

सिर से पकड़ी जाकर वह खिसिया गई। फूट पड़ी, ''तो फिर मैं क्या करूँ...? क्या करूँ?''

''तुम कुछ मत करो सरना!'' एक पीड़ित शैथिल्य से भरा वह सरना को अपने साथ सटाते हुए बोला, ''मेरे पास बनी रहो...इसी तरह...हमेशा...सहना आसान हो जाता है,'' पत्नी की हथेली खींचकर उसने अपनी छाती पर रख ली और अपनी उँगलियों से उसकी खुरदरी उँगलियों के पोरों को छूता रहा।



दूसरे-चौथे दिन उसे साइकिल पर बोरी लादकर ले जाते देख सरना का जी धसक जाता। एक रात पहले पति का गुमसुम खाट पर बैठे होना...आधी रात गए घिस-घिस आवाज़ें...पसीने से लथ-पथ शरीर...श्रांत होकर सुबह उठना...निर्वाक्, इधर से उधर डोलना...अक्सर सब कुछ असह्य लगने लगता। एक दिन डरते-डरते बोली, ''किसी दिन तुलवा लिया तो?''

एक लंबी-सी लोहे की छड़ अंदर से खोखली, सिरे से पैनी उसने दरवाज़े के पीछे से निकालकर पत्नी के सामने डाल दी। बिना खोले बोरी के पेट में जिसकी नोक भोंककर नमूने का अनाज जिससे निकालते हैं व्यापारी, वह औज़ार।

''थोड़ा-थोड़ा हर बोरी से...इतना अनाज तो चूहे भी खा जाते हैं गोदाम में...।''

''तभी तो पसीने से लथ-पथ हो जाते हो...सुनो, कोई और रास्ता नहीं निकल सकता?''

''क्या चोरी का?'' कड़वी-सी भड़ास फेंकता वह बोला।

वह आहत हुई। फिर भी दृढ़ता से बोली, ''नहीं, कमाई का...।''

''जिस दिन तुझे दिख जाए, मुझे बता देना...छोड़ दूँगा...। तुम लोगों के लिए ही...'' बुदबुदाता हुआ वह बाहर निकल गया। पत्नी अपने ही शब्दों के ताप-संताप में झुलसती रही।

शाम को वह घर आया तो मुँह पर बादल नहीं थे। हाथ में दो बड़े-बड़े कांधारी अनार और संतरों का पैकेट लिये वह सीधा रसोई में घुसता चला आया। गीतू को सामने देख पैकेट नीचे रखे और उसे गोद में उठाकर चूम लिया।

गीतू पहले तो भौचक्क...फिर संतरे लेकर नाचने लगी।

गुल्लू बीच में झपटकर बोला, ''रहने दे, रहने दे, दादी के लिए हैं...डॉक्टर ने बताए हैं।''

''नहीं, तुम्हारे लिए भी हैं बेटे...दादी के लिए वहाँ रख आया हूँ...लाओ, चाय लाओ...'' बूट उतारकर वह खरखरी खाट पर पसर गया।

सरना व्यस्त-सी हो आयी एक अनजानी कृतज्ञता से न जाने उसके मन की कौन-सी कोर भीग आयी...पति को चाय का कप उसने कुरकुरे पापड़ों के साथ पास बैठकर पिलाया।



माँ एक रात अचानक मर गई। देह औंधी ऐंठी हुई। एक टाँग नीचे उतरने की मुद्रा में पाटी से नीचे लटकी हुई...गरदन आधी ऊपर को...आँखें जड़-स्थिर। बिस्तर ऐसी सलवटों से भरा...खूब छटपटाती रही हों जैसे...शायद उन्होंने खाट से उतरना चाहा हो।

वह और सरना दोनों धक् से रह गए आवाज़ ही न निकली। न गंगा-जल, न गीता-पाठ, न दीया, न बाती, न कोई पास...बच्चों का झुंड ज़मीन पर बेख़बर सोया हुआ!

घबराकर माँ का शव उन्होंने नीचे उतारा और एक अपराधी आकुलता से बच्चों को झकझोर दिया। पास-पड़ोसी जब तक आए...मौत एक यथार्थ बन चुकी थी।

अमर का मन अंदर से रह-रहकर छीजता रहा।

दाहकर्म...दान, सब उसने समुचित श्रध्दा से किए। माँ पहले भी मात्रा उपस्थिति भर थी...पर यह अनुपस्थिति तो? ...क्या था जो पसलियों में सलाख की घोंप की तरह उसे बींधता रहा।

दो ही दिन पहले तो...खाट से लगकर रखे मोढ़े पर बैठे अमर की गोद में माँ ने अपनी शिथिल कलाई डाल दी। वह चौंका, हाथ का अख़बार उसने नीचे रख दिया, ''कुछ चाहिए माँ...?''

''नहीं, कुछ नहीं।'' बेहद थकी-टूटी, भरी-सी आवाज़।

माँ ने अपना हाथ उसकी गोद से वापस न लिया। एक बोलता हुआ दर्दीला स्पर्श उसे छूता रहा।

''माँ!'' बचपन के किसी भूले हुए आवेग का झोंका उससे आ लिपटा, ''कुछ कहना चाहती हो माँ?''

''नहीं रे! सोचती हूँ, तेरे कच्चे कंधों पर कितना बोझ पड़ गया और ऊपर से मैं करमजली...'' फिर फफक कर रो पड़ी। वह विचलित हो गया।

''किसी ने कुछ कह दिया है तुम्हें माँ?' उसका इशारा पत्नी की ओर था।

''नहीं, नऽऽहीं रे...'' रो पाने में भी असमर्थ माँ का स्वर एक घुटी हुई चीख़ की तरह बिखरा।

वह माँ के सिर पर हाथ फेरता रहा। माँ के बाल रस्सियों के से सूखे, खुरदरे हो गए थे...और अब आँसुओं की धाराओं से गीले हो रहे थे।

''माँ! जी छोटा न कर।''

माँ के भीतर कोई फोड़ा फूट गया था। सिसकते हुए बोलीं, ''तेरे बाबूजी गए तो लगता था...लगता था, दस घड़ी न जिया जाएगा...अब दस साल से जीती हूँ...''

''माँ, तुम अच्छी हो जाओगी...'' एक खोखली-सी सांत्वना उसके मन में उभरी, फिर होठों में ही डूब गई।

''नहीं! नहीं...!'' माँ के भीतर उबाल उठा था, ''मेरे जीने में क्या धरा है...तू कमा-कमाकर खुट रहा है...एक बात कहूँ बिटवा...''

''हूँऽ।''

''मेरी मिट्टी तो वैसे ही उठेगी...तू क्यों मेरे कारण बच्चों के मुँह से ग्रास छीने है...?''

''तुम्हें क्या हो गया है माँ?''

माँ फिर फूट पड़ीं, ''सच कहूँ बिटवा, मेरा तो दवा-दारू, डॉक्टर, सेवा
सब होता है...और तू रात-रातभर इस मोढ़े पर निढाल पड़ा रहता है। मैं, क्या अंधी हूँ? ...तू मेरी बात मान, कुछ दिनों के लिए देबू की पढ़ाई छुड़ा दे।''

''देबू अपने उद्यम से पढ़ता है, माँ!''

''उसका उद्यम तेरे किस काम...?''

''तू चिंता न कर माँ!'' एक गहरी साँस उसने भीतर ही रोक ली। ऐसी सहानुभूति से खखोलकर माँ उसे अपने ही सामने नंगा कर देती है। कितना दारुण होता है यह, माँ अगर जानती...

तीसरे ही दिन माँ का यूं मर जाना...इन सब बातों की स्मृति उसे ख़ूब खली। माँ के बक्से से निकलीं बाबूजी की कुछ बहुत पुरानी चिट्ठियाँ...बाबूजी के साथ का एक मटमैला मुड़ा-तुड़ा फोटो...थोड़े-से कपड़े...एक शॉल...दो अँगूठियाँ...दो जोड़े चाँदी के बिछुए और सत्ताईस रुपये तीस पैसे...रुपयों को हथेली पर रखे देखता रहा वह माँ की जन्म-भर की पूँजी...।

पृष्ठ : . . .

आगे-

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।