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इसी बीच कीर्तन-प्रवचन हो गया। सुशीला जी ने भाषण भी दिया और सारी ग्राम-मंडली, (बिन विधा के भारत देश, दिन-दिन होती हे तेरी ख्वारी रे।’ गुनगुनाती वापस जाने लगी। हंसा खोया बैठा रहा। खंजड़ी की डिम्-डिम् और झाँझ की झंकार उसके कानों में गूँजती रही। सुशीला का पैना स्वर उसके हृदय को बेधता रहा, और दंगल की शामवाली घटना का भी उसे बार-बार ध्यान आता रहा। - देखो तो इन आँखों की जो न करा दें।- उसकी नसों में रक्त की झनझनाहट भर जाती। एकाएक, ‘गन्ही महात्मा की....’ सुनकर, वह चैंक पड़ा और जोर से चिल्ला पड़ा, ‘जय...जय...’

बहुत रात बीत चुकी है। हंसा के घर में पूड़ियाँ छानने की तैयारी हो रही है। आटा गूँधा जा रहा है। तरकारी कट रही है। आग जल रही है। पर भीतर के कमरे की भंडरिया से घी कौन निकाले? हंसा वहीं इधर-उधर डोलता है। उसकी आँखें सुशील जी की आवाज का पीछा कर रही हैं। सुशीला जी कभी-कभी संकोच में पड़ती हैं, पर हंसा के चैड़े सीने पर उगे हुए बालों के जंगल में वह खो जाती हैं। कितना पौरुषी आदमी है। लेकिन हंसा के आगे वह छाया-मात्र हैं, जिसका बस रूप नहीं है आगे, और सब कुछ हैं। - मीठी-मीठी, थकनभरी आवाज और डाल के ताजे फल जैसी सुगंध। वह बड़ा खुश है। एक औरत के रहने से घर कैसा हो जाता है। कितना अच्छा लगता है।....वह सोच ही रहा है कि घी की माँग होती है। हंसा उठता है। पर चारपाई से ठोकर खा कर गिर पड़ता है। सुशीला जी दौड़ कर उसे उठाती हैं। हंसा मारे लाज के डूब जाता है।

धत्, तेरी आँखों की। और वह जल्दी से उठ खड़ा होता है।
सुशीला जी उसका हाथ पकड़े थीं, ”चोट तो नहीं आयी।“
घुमची की तरह की आँखें मुलमुला कर हंसा हँसता है। उसके रोएँ भभर आई है, उसका कलेजा धड़कने लगता है।
कहार कहता है, ”हंसा दादा को रतौन्ही हैं, रतौन्ही।“
”रतौधी! तो बताओ, कहाँ है घी? मैं चलती हूँ, साथ।“

मेनका के कंधे पर विश्वामित्र के उलम्ब बाहु। सावन की अंधियारी और बादलों की रिम-झिम। बीच-बीच के हवा का सर्द झोंका। दोनों आँगन पार करते बूँदों में भींगते हैं। पीछे से आवाज आती है, लालटेन दूँ?
”एक ही तो है रहने दो, काम चल जाएगा।“
घर की अँधेरी भँड़रिया। दोनों भटकते हैं। हंसा कुछ बताता है। सुशीला जी कुछ सुनाती है। आँख कुछ देखती है। हाथ कुछ टटोलते हैं।
बहरहाल, पता नहीं कहाँ क्या है?
अँधेरे में जैसे आँख, तैसे बेआँख। दोनों को सहारा चाहिए। कभी वह लुढ़कता है, कभी वह लुढ़कती हैं और दोनों दृष्टिवान हो जाते हैं-दिव्यदृष्टिवान।

सुबह कुत्तों की झाँव-झाँव के बीच, कारवाँ आगे बढ़ गया। बैलों की घंटियाँ टुनटुनायीं, भुजंगे बोले और बाबा ने उठ कर अपना छप्पन पतरीवाला बाँस का छाता छठाया और ताल की ओर चल पड़े, निरूआही हो रही थी।
रास्ते में मगनू सिंह मिल गये, ”लग गयी पार हंसवा की नाव!“
”क्या हुआ?“
”कुछ न पूछो, भइया। तुम्हें खबर ही नहीं, सारे गाँव में रात ही खबर फैल गयी। यह ससुरा दुआरे बैठाने-लायक नहीं है। कहते थे कि कोई राँड़-रेवा मढ़ दो इसके गले। कल रात बाबू साहब के यहाँ पंचाइत हुई। तय हुआ कि अब सभा-सोसाइटी की चैकी, गाँव में नहीं धरी जाएगी। औरत-सौरत का भासन यहाँ नहीं होने पाएगा। बहू-बेटियों पर खराब असर पड़ता है।
बात यह है भइया कि राजा साहब ओट लड़ रहे हैं, कांगरेस के खिलाफ। बाबू साहब उनको ओट दिलाना चाहते हैं। आपके डर से कुछ कह तो सकते न थे। अब मौका मिला है।
”कैसा मौका?“ बाबा झुँझला कर बोले।
अगनू आकर उनके छाते के नीचे खड़े हो गये। बोले, ”उलट दिया हंसवा ने कल रात!“
”क्या मतलब?“
”सच मानो, खाना-पीना नहीं हुआ। जब बहुत देर होने लगी, तो बंगा ने लालटेन ले कर देखा, और बाहर निकल कर, सारे गाँव में ढिंढोरा पीट दिया।
अभी तो सर-सामान ले कर, घाट तक पहुँचाने गया है।“ बाबा चुपचाप आगे बढ़ गये। इस तरह की बात सुन कर बरदाश्त करना उनके लिए कठिन है, पर न जाने क्यों उन्हें हँसी आ रही थी। तभी दूर हंसा की भारी आवाज सुनाई दी?

-जग बेल्हमौलू जुलूम कइलू ननदी....जग....बरम्हा के मोहलू, बिसुनू के मोहलू सिव जी के नचिया नचैलू मोरी ननदी....जग....।

बाबा खड़े थे। हंसा धीरे-धीरे पास आ गया। अँधेरा छँट गया था। हंसा डर गया। -कैसे खड़ा हूँ भइया के सामने, कैसे? कुछ देर दोनों चुप रहे। बाबा ने देखा, हंसा के हाथों में खद्दर के कुछ कपड़े थे, पर उसकी निगाह नीचे जमीन में धँसी थी।
”हंसा!“ बाबा बड़ी कड़ी आवाज में बोले, ”जहाँ पहुँच गये हो, वहाँ से वापस नहीं आना होगा!“
”भइया, बोटी-बोटी कट जाऊँगा, पर यह कैसे हो सकता है!“
हंसा जाने लगा, तो बाबा ने कहा, ”घर जा कर सीधा-समान बाँधे आना।
आज मछरी पकड़वाऊँगा, वहीं खावाँ पर बनेगी।“
”अच्छा, भइया!“ कह कर हंसा अपनी बटन-सी आँखों को पोंछता हुआ चला गया।

गाँव में चुनाव की धूम मची थी। बाबू साहब बभनौटी के साथ कांग्रेस का विरोध कर रहे थे। उनके पेड़ों पर इश्तिहार टांग दिये जाते, तो उनके आदमी उखाड़ देते। किसान बुलवाये जाते, उन्हें धमकाया जाता। खेत निकाल लेने की, जानवरों को हँकवा देने की बातें कही जातीं और हंसा-सुशीला की कहानी का प्रचार किया जाता, भ्रष्ट हैं सब! इनका कोई दीन-धरम नहीं है! गन्ही तो तेली है।.... और हंसा अब पूरा स्वयंसेवक बन गया है। खद्दर का कुर्ता-धोती और हाथ की लम्बी लाठी में तिरंगा। बगल में बिगुल लटका रहता है और वह बापू के संदेश की परची बाँटता फिरता है।

”बाबू साहब जो कहें मान लो! पूड़ी-मिठाई राजा के तम्मू में खाओं! खरचा खोराक बाबू साहब से लो और मोटर में बैठो! लेकिन काँगरेस का बक्सा याद रखो! वहाँ जा कर, खाना-पीना भूल जाओ? कँगरेस तुम्हारे राज के लिए लड़ती है। बेदखली बंद होगी! छुआछुत बंद होगा। जनता का राज होगा। एक बार बोलो, बोलो गन्हीं महात्मा की जय!....जय....
घर-घर में, कंठ-कंठ में सुशीला के मनोहर गानों की धुनें गूँजने लगीं। गाँव के बच्चे हंसा दादा के पीछे, हाथों में अखबार की रंग कर बनायी झंडियाँ लिये इधर-से-उधर चक्कर लगाया करते थे।

उन्हीं दिनों गाँव में रामलीला होने को थी। बाबू साहब की पार्टी के राम-लक्ष्मण बने थे। पर रावण बनने वाला कोई नहीं मिलता था। लोग कहते, रावण बनने वाला मर जाता है। कोई तैयार न होता था। बाबा दशमी के मालिक थे। हंसा कैसे बरदाश्त करता कि लीला खराब हो।

ऊपर से सुशीला जी लीला खत्म होने पर भाषण करने वाली थीं। हंसा सोचने लगा, क्या हो? सहसा लड़कों ने तालियाँ बजायीं और हंसा दादा को घेरा लिया। जल्दी-जल्दी काला चोंगा रावण के गले में डाल दिया गया। सिर पर पगड़ी बाँध कर दस मुँह वाला चेहरा हंसा दादा ने पहन लिया। हाथ में तलवार ली और गरज कर बोले, ”मैं रावण हूँ कहाँ है दुष्ट राम?“
एक बच्चे ने अपनी छड़ी में लगा हुआ तिरंगा झट दशानन के सिर पर खोंस दिया और सब लोग जोर से हँसने लगे। उसी भीड़ में से किसी ने चिल्ला कर कहा, ”गन्हीं महात्मा की जय...!“

रावण भाषण देने लगा, ”भाइयों! राम राजा था। देखो, छोटी जात का कोई कभी राम नहीं बनने पाता है। राक्षस सब बनते हैं। बिराहिम, कालू, भुलई, फेद्दर, सभी की पालटी है, हमारी। यह जनता की लड़ाई है। बोल दो धावा।“ और हंसा हाथ-पाँव हिलाता आगे को चल पड़ा। पीछे-पीछे सारी राक्षसी सेना। किसानों के बंदर बने लड़के भी अपना चेहरा लगाये, गदा लिये, जनता की पार्टी में शामिल हो गये। राम बेचारे अकेले बैठे रह गये। रामायण बंद हो गयी। तिवारी चिल्लाने लगा, पर कौन सुनता है!

”गन्हीं महतमा की जय!“
बाबा हँसी के मारे लोट-पोट हो रहे थे। उनसे कुछ कहते ही नहीं बनता था। राक्षसी सेना के काले रंग में रंगे मुँह और हाथों में तिरंगे झंडे देख कर, लोग राम के लिए खरीदी मालाएँ, हंसा के ही ऊपर फेंकने लगे।
इसी बीच सुशीला जी तीर की तरह भीड़ में घुसीं, ”कौन बना है रावण? क्या तिरंगा इसीलिए है?“ उन्होंने हाथ से चेहरे को ठेल दिया। सहसा हंसा को देख कर, वह पसीने-पसीने हो गयीं।
”यही स्वयंसेवक हो। बदनाम करते हो झंडे को। बंद करो यह सारा तमाशा, होने दो रामलीला ठीक से।“

सब लोग अपनी जगहों पर लौट गये। बाबा चुपचाप खड़े थे। सुशीला जी अपना झोला सँभाले उनकी बगल आ खड़ी हुईं।
लड़ाई चलती रही। नगाड़े और ढोल बजते रहे। संठे के रँगे हुए तीर छूटते रहे। पर रावण मरे, तो क्यों मरे। चैपाई बार-बार टूटती। व्यास बार-बार कहता, ”सो जाओ।“ पर कौन सुनता है। हंसा की सेना क्यों हारे?

इसी समय लक्ष्मण को जमीन से ठोकर लगी। वह लुढ़क पड़े। उनका मुकुट गिर गया। आगे पीछे दौड़ते-दौड़ते राम को चक्कर आ गया, और उनको उल्टी होने लगी। सारे मेले में शोर मच गया, ”जीत गयी जनता की फौज। हंसा दादा की पाल्टी ऐसे ही वोट जीत लेगी।“

इधर दिन रात सुशील जी खँजड़ी बजाती, घूमती रहतीं और रात हंसा के घर लौट आतीं।

दूसरे दल के लोगों ने चिट्ठियाँ भिजवायीं। -सुशीला जी को यहाँ से बुला लिया जाए। जनता पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।....चुनाव के दो दिन पहले उन्हें नोटिस मिली कि वह बापू के आदर्शों को तोड़ रही हैं, इसलिए उन्हें काम से अलग किया जाता है।

वह हँस पड़ी थी, ईश्वर ने पति से अलग किया और अब बापू के नकली चेले उन्हें जनता से अलग करना चाहते हैं!
उनकी खँजड़ी और जोर से बजने लगी। उनका स्वर और तेज हो गया। चुनाव के दो दिन रह गये। सुशीला जी बीमार पड़ गयीं। हंसा के घर में उनका डेरा पड़ा था। वह बुखार की जलन सह रहीं थीं, पर किसी को अपने पास बैठने नहीं देती थीं। रात जब हंसा लौटता, तो वह उससे कहतीं, ”तुम सुनाओ अपना भजन।“ हंसा बिना कुछ सोचे-विचारे गाने लगता।
‘हंसा जाई, अकेला, ई देहिया ना रही....’ फिर प्रचार का समाचार ले कर, वह उसके रोयें भरे सीने में मुँह छिपा लेतीं।
चुनाव का दिन-आ गया, लेकिन सुशीला जी बिस्तर से नहीं उठीं। किसानों की जय-जयकार करती हुई टोलियाँ गुजरतीं, तो वह अपने बिस्तर में तड़प कर रह जातीं। हंसा उन्हें बहुत रोकता, पर वह उठ कर उनसे मिलतीं। बाबा बहुत समझाते, पर न मानतीं। चुनाव के दिन डोली में उठा कर वह पोलिंग पर ले जायी गयीं। वहीं पेड़ के नीचे बैठे-बैठे उन्हें कई बार चक्कर आया और बेहोश हुईं।

ओट पड़ता रहा। किसान राजासाहब के कैम्प में खाना खाते, उनकी मोटर में आते, पर ओट डालते कांग्रेस के बक्स में। उन्हें सुराज मिलेगा, उन्हें आजादी मिलेगी, यही सब सोचते थे।

तीसरे पहर जोर की बारिश आयी। सुशीला जी छाया में जाते जाते भींग गयीं। बाबा ने उन्हें डोली में बैठा कर, घर भेज दिया। चुनाव चलता रहा।

हंसा भूत की तरह काम में जुटा था। बहुत देर पर कभी उसे सुशीला की याद आती, तो मन को दबा कर फिर परची बाँटने लगता। बहुत कम ओट राजा के बक्से में गिरे। शाम हो गयी। राजा का तम्बू हारे हुए कर्मचारियों से भर गया।
हंसा उन्हें देख कर जाने क्यों क्रोध से जल रहा था। उसे बार-बार सुशीला की याद आ रही थी।
”भइया, कुछ और होना चाहिए।“
”मुझे चले जाने दो, हंसा।“
-और पच्चीस-तीस लोग हँसिया ले कर राजा साहब के तम्बू की डोरियों के पास खड़े हो गये कौन जाने क्यों खड़े हैं! हंसा ने विजय का बिगुल फूँका और सारा तम्बू एक मिनट में जमीन पर था। जोर का शोर मचा। किसानों ने जय-जयकार की, और लोग अपने घरों को वापस चले गये।

सुशीला जो को निमोनिया हो गया। उनकी साँस फँस गयी। बाबा रात-दिन उनके पास बैठे रहे। हंसा ने जमीन-आसमान एक कर दिया, पर फायदा न हुआ। वह बार-बार महात्मा जी का नाम लेतीं, हंसा से उनका भजन सुनतीं और आँखें बन्द कर लेती।

चुनाव का नतीजा सुनाया गया, तो नेता लोग मोटर पर चढ़ कर सुशीला जी से माफी माँगने आये। पर सुशीला जी ने मुँह फेर लिया, जैसे वह कहती हों, - मैं तुम्हारे करतब जानती हूँ। और हंसा उठ कर बाहर चला गया।

अन्त में एक दिन सुशीला जी की साँस बन्द हो गयी। हाय मच गयी। बच्चे फूट-फूट कर रोने लगे। हंसा ने बकरी के लिये पत्ता तोड़ने वाली लग्गी में तिरंगा टाँग कर, हाथों से ऊपर उठा लिया और अपना बिगुल फूँकने लगा। उसकी हँसी लोगों के मन में भय पैदा करने लगी पर वह हंसाता रहा।

आज तक, गन्हीं महात्मा, जवाहिरलाल और जनता की फउज, सही तीन शब्द वह जानता है। लड़के अब भी उसे उसी तरह घेरे रहते हैं। पर पहाड़ से तखत को उठा नहीं सकता। हाँ, उठाकर ले जाने वालो को देख कर वह जोर-जोर से हँसता है और घंटों हँसता रहता है।

उसके खेत में घास उगी है। मकान ढह गया है। पर लग्गी में फटहा तिरंगा और सुशील का दिया हुआ बिगुल अब भी टँगा रहता है। कभी-कभी वह गन्दे कागज दिवारों पर सटाता फिरता है और कभी सारे गाँव की गलियाँ साफ कर आता है।

आजादी मिली, तो उसे रुपये मिले। राजनीतिक पीड़ित था, वह। पर वह रूपयों की गड्डी ले कर हँसता रहा, और फिर उन्हें गाँव की दीवारों में एक-एक कर टाँग आया।

दो बार लोग उसे आगरे ले गये। पर कुछ ही दिनों बाद फिर ‘हंसा जाई अकेला’ का स्वर गाँव की फिजाँ में गूँजने लगता। अब भी कभी-कभी वह आजादी लेने की कसमें खाता है। उसके तमतमाये हुए चेहरे की नसें तन जाती हैं और वह अपना बिगुल फूँकता हुआ, कभी धान के खेतों, कभी ईख और मकई के खेतों की मेड़ों पर घूमता हुआ, गाया करता हैं...
‘हंसा जाई अकेला....

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२७ सितंबर २०१०

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