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दस-एक बीघे के इर्द-गिर्द, अँधेरे और भय में धँसी हुई पूरी मंडली सिमट आयी। चेहरे किसी के नहीं दिखाई पड़े, पर हँसी के मारे सबका पेट फूल रहा था। उसी बीच थूक घोंटने की-सी आवाज करता हुआ, वह आया और जोर से हँसने लगा।
”होई गयी गलती भइया। मैं का जानूँ कि मेहरिया है। समझा, तुम में से कोई रुक गया है।“
मगनू ने कहा, ”सरऊ, साँड़ हो रहे हो, अब मरद-मेहरारू में भी तुम्हें भेद नहीं दिखाई पड़ता?“
”नाहीं, भाय, जब ठोकर खा कर गिरने को हुये न, मैंने सहारे के लिए उसे पकड़ लिया। फिर जो मालूम हुआ, तो हकबका गया। तभी बुढ़वा ने एक लाठी जमा दी। खैर कहो निकल भागा।“ उसने झुक कर अपनी टाँगों पर हाथ फेरा।
नीचे से ऊपर तक झरबेरी के काँटे चुभे हुए थे।
”ससुरे को बीच में कर लो।“ बाबा ने कहा।

मगनू कहने लगे, ”चलो मेहरारू तो छू लिया, ससुरे की किस्मत में लिखी तो है नहीं।“
उसे लोग हंसा कहते हैं, काला-चिट्ठा बहुत ही तगड़ा आदमी है। उसके भारी चेहरे में मटर-सी आँखें और आलू-सी नाक, उसके व्यक्तित्व के विस्तार को बहुत सीमित कर देती हैं। सीने पर उगे हुए बाल, किसी भींट पर उगी हुई घास का बोध कराते हैं। घुटने तक की धोती और मारकीन का दुगजी गमछा उसका पहनावा है। वैसे उसके पास एक दोहरा कुर्ता भी है, पर वह मोके-झोंके या ठारी के दिनों में ही निकालता है। कुर्ता पहन कर निकलने पर, गाँव के लड़के उसी तरह उसका पीछा करने लगते हैं, जैसे किसी भालू का नाच दिखाने वाले मदारी का।

”हंसा दादा दुल्हा बने हैं दुलहा।“ और नन्हें-नन्हें चूहों की तरह उसके शरीर पर रेंगने लगते हैं। कोई चुटइया उखाड़ता है, तो काई कान में पूरी-की-पूरी अँगुली डाल देता हैं। कोई लकड़ी के टुकड़े से नाक खुजलाने लगता है, तो कोई उसकी बड़ी-बड़ी छातियों को मुँह में लेकर, हंसा माई, हंसा माई, का नारा लगाने लगता है। इसी बीच एक मोटा सोटा आ जाता है, वह हंसा के कंधे से सटा कर लगा दिया जाता है और हंसा दो-एक बार उस पर अँगुलियाँ दौड़ा कर, अलाप भरते-भरते रूक कर कहता है, ”बस न।“

लड़के चिल्ला पड़ते हैं, ”नहीं, दादा। अब हो जाय।“ कोई पैर से लटक जाता है, तो कोई हाथ से। फिर वह मगन हो कर गाने लगता है, ”हंसा जाई अकेला, ई देहिआ ना रही.....“

उस दिन बारह बजे रात को गाँव लौट कर, हंसा सीधे बाबा के दालान आया। लालटेन जलायी गयी। हंसा अपनी पिंडलियों में धँसे झरबेरी के काँटों को चुनने लगा। जैसे जाड़े मे चिल्लर पड़ जाते हैं, उसी तरह हंसा की टाँग में काँटे गड़े थे।

बाबा ने कहा, ”कहाँ जाएगा ठोंकने -पकाने इतनी रात को, यहीं दो रोटी खा ले।“ और झरबेरियों के काँटे देखे, तो उन्हें जैसे आज पहली बार हंसा की भीतरी जिन्दगी की झाँकी दिखाई दी। - इतनी खेत-बारी, ऐसा घर-दुआर, पर एक मेहरारू के बिना बिलल्ला की तरह घूमता रहता है। बाबा उठ कर हंसा की पिंडलियों से काँटे बीनने लगे।

उसे रतौंधी का रोग है! इसीलिए रात को वह गाँव से बाहर नहीं जाता। वह तो मजगवाँ का दंगल था, जो उसे खींच ले गया। बाबा सरताज हैं पहलवानों के, भला क्यों न जाते। बेर डूबा गयी वहीं, चले तो अँधेरा घिर आया था। पाँच मील का रास्ता था। हंसा दस लोगों की टोली के बीच में चल रहा था। कई बार उसके पाँव लोगों से लड़े, तो लोगों ने गालियाँ दीं और उसे पीछे कर दिया। हंसा गालियों का बुरा नहीं मानता। वह बहुत सारे काम गाली सुनने के लिए ही करता है। गाँव के बूढ़ों-बुजुर्गों की इस दुआ से उसे मोह है।

वह पीछे-पीछे आ रहा था। रास्ते में एक गाँव आया, तो गलियों के घुमाव फिराव में वह जरा पीछे रह गया। एक झोपड़ी के आगे एक बूढ़ा बैठा हुक्की गरमाये था। उसकी जवान बहू किसी काम से बाहर आयी थीं, दस आदमियों की लम्बी कतार देख कर बगल में खड़ी हो गयी। फिर हंसा के आगे से वह निकल जाने को हुई, तो संयोग से हंसा के पाँव उससे लड़ गये और अँधेरे मे गिरते-गिरते वह हंसा के बाजुओं में आ गयी। बहू चीख उठी। बूढ़ा हुक्की फेंककर डंडा लिये दौड़ा। लेकिन हंसा निकल गया। दूसरा डंडा उसकी बहू की ही पीठ पर पड़ा। यह गये, वह गये और सारी मण्डली रात के अँधेरे में खो गयी। सबकी आँखें साथ दे रही थीं पर हंसा खाइयों-खंदकों मे गिरता-पड़ता भागता रहा।

बाबा काँटा बीनते जा रहे थे। हंसा अपनी मटर-सी आँखों को बार-बार अपने भालू के-से बालों में धँसता-हाथ को काँटे मिल जाते, पर आँखें न खोज पातीं। रह-रह कर रास्ते की वह घटना उसके सामने नाच जाती। -क्या सोचती होगी बेचारी? और वह बाबा की ओर देखने लगा।

”बड़ी चूक हो गयी, भइया। समझो, निकल भागे किसी तरह नहीं तो जाने का कहती दुनिया? हमें तो यही सोच कर और लाज लग रही थी कि तुम भी साथ थे।“
”अरे, यह क्या कहा है, हंसा।“
”यही कि आपके साथ ऐसे लोग रहते हैं। कितना नाँव-गाँव है। कितनी हँसाई होगी“
हंसा कभी कोई बात सोचता नहीं पर आज बार-बार उसका दिमाग उलझ जाता था। अगर भइया चाहें तो....

इसी बीच आजी पूड़ियाँ थाल में परसे बाहर आयीं। हंसा हड़बड़ा कर उठ गया। बहुत दिन पर भउजी को देखा था। रात न होती, तो वह बाहर क्यों आती। उसने सलाम किया। थाल थमने ही जा रहा था कि उन्होंने मजाक कर दिया,
”कहीं डड़वार डाके रहे का बबुआ, जो काँट विनाय रहा है।“
”कुछ न कहो भउजी। “ हंसा कह ही रहा था कि बाबा बोला उठे, ”फँसी गया था हंसवा आज, वह तो खैर मनाओ, बच गया, नहीं वह पड़ती कि याद करता! एक औरत को इसने.....!“
”अब हँसी-ठिठोली छोड़ कर, बियाह करो। जब तक देह कड़ी है दुनिया-जहान है, नहीं तो रोटी के भी लाले पड़ जाएँगे! कहते क्यों नहीं अपने भइया से? गूँगे-बहरे, कुत्ते-बिल्ली सबका तो बियाह रचाते रहते हैं, पर तुम्हारा ध्यान नहीं करते। खेत-बारी, जगह, जमीन सब तो है।“

बाबा कुछ नहीं बोले, लगा सेंध पर धरे गये हों। आजी जाने लगीं, तो बाबा ने तेल भेजने को कहा। तेल की कटोरी लेकर हंसा बाबा के पैताने जा बैठा।
”अपने पैरों में लगाओ न हंसा! दरद कम हो जाएगा।“
”गजब कहते हो, भइया। अरे लगाया भी है कभी तेल।“ और बाबा की मोटी रान पर झुक गया।
”मनों तेल पी गयीं ये रानें। कितने तो तेल ही लगा कर पहलवान हो गये....“ हंसा कहने लगा।
बाबा चुप पड़े रहे। ओरउती से लटती हुई लालटेन में गुल पड़ गया था धुएँ से उसका शीशा काला पड़ चुका था और कालिख ऊपर उड़ने लगी थी।
हंसा उठा और बत्ती बुझा कर लेट गया।

भउजी की बात हंसा के कानों में गूँज रही थी, - जब तक देह कड़ी हैं। ... हंसा ने करवट लेते लेते बूढे़ के डंडे की चोट का हाथ से अंदाज लिया और भुनभुनाने लगा, ”जान-बुझकर तो कुछ नहीं देखते। यह रतौन्हीं साली जो न कराये।“ उसने इधर-उधर आँख चलायी, पर कुछ नहीं-सब मटमैला, धुंध।

पाला पड़े चाहे पत्थर, काम से खाली होकर हंसा बाबा के पास जरूर आएगा। कभी देश-विदेश की बात कभी महाभारत-रामायण की बात। लेकिन ‘गन्ही महत्मा’ की बात में उसे बड़ा मजा आता है। किसी ने उसे समझा दिया है कि गाँधी जी अवतारी पुरुष थे।

उस दिन दालान में कोई नहीं था। शाम का वक्त था। बाबा की चारपाई के पास बोरसी में गोहरी सुलग रही थी। जानवर मन मारे अपनी नाँदों में मुँह गाड़े थे। रिम-झिम पानी बरस रहा था। कलुआ पाँवों से पोली जमीन खोद कर, मुकुड़ी मारे पड़ा था। बीच-बीच में जब कुटकियाँ काटतीं, तो वह कूँ....कूँऽ करके, पाँवों से गर्दन खुजाने लगता। इसी समय एक आदमी पानी से लथ-पथ, कीचड़ में अपनी साईकिल को खींचता आया और जैसे ही साइकिल खड़ी करके दालान में घुसने लगा, हंस ने कहा, ”जै हिन्द, गनेश बाबू।“
”जै हिन्द हंसा भाई, जै हिन्द।“

उसने अपने झोले से नोटिसों का पुलिन्दा निकाल कर, बाबा के आगे रख दिया। हंसा बाबा की गोड़वारी बैठ गया। बाबा नोटिस पढ़ कर बोले, ”कैसे होगा, बरखा-बूनी का दिन है।“
हंसा कुछ समझ नहीं सका। जब उसका पेट फूलने लगा, तो वह बोल बैठा, ”का है भइया।“
”कोई सुशीला बहिन आज यहाँ गांधी जी का संदेश सुनाना चाहती हैं। जिला कमेटी का नोटिस है।“
”का लिखा है नोटिस में!“ हंसा मुँह बा कर उन्हें देखते हुए बोला, तनी बाँच दो, भइया। गवनई भी न होगी।“
”अरे वही, जागा हो बलमुआ गांधी टोपी वाले...“

हंसा ने खूँटी पर टँगी ढोलक उतारकर गले मे लटका ली और एक ओर पड़े फटहे झंडे को ले कर लाठी में टाँग लिया। दो बार ढोलक पीटी। फिर, - जागा हो बलमुआ गन्हीं टोपी वाले आय गइलैं....टोपी वाले आय गइलैं.... गा कर, ढोलक पर धड़म्-धड़म् घुम्-घुम्....धढ़म-धड़ाम घुमघुम्.... मिनटों में ही पचासों लड़के आ जुटे। चल पड़ा हंसा का जुलूस।
”सुसिल्ला की गवनई, जौने में बीर जवाहिर की कहानी है....“
”दल-के-दल लरिका-बच्चा सब...बोलो, बोलो, गन्हीं बाबा की जय!“
और फिर, जागा हो बलमुआ...और हंसा की ढोलक गमकती रही। क्षण भर में ही जैसे सारे गाँव को हंसा ने जगा दिया हो। जिधर से देखो, लोग चले आ रहे हैं। लड़के गाँधी बाबा को क्या जानें, उनके लिए तो हंसा ही सब कुछ था। एक उनके आगे झंडा तानकर कहता, ”बोलो, हंसा दादा की....!“
कुछ कहते, ‘जै’, और कुछ ‘छै’, फिर जोर की हँसी चारों ओर छा जाती।

कुछ बूढ़े नाक फुलाते हुए, सुरती की नास ले, अपने सुतलियों के ढेरे पर चक्कर दे कर कहते, ”मिल गया ससुर को एक काम। गन्ही बाबा का गायक काहे नहीं हो जाता। कौनों कँगरेसी जात-कुजात मेहरारू मिल जाती। गन्ही का कोई विचार थोड़े है, चमार-सियार का छुआ-छिरका तो खाते हैं।“

हंसा को फुरसत नहीं है। बाबू साहब का तकरवोस और बाबू राम का चमकउआ चादर तो आना ही चाहिए। बाबा चुपचाप बैठे हैं। धीरे-धीरे गाँव सिमटता आ रहा है। दालान भरता जा रहा है। अँधेरे की गाढ़ी चादर फैलती जा रही है। रिम-झिम पानी बरस रहा है। चार लालटेनें जल रही हैं।

”बुला तो लिया पानी-बूनी में। हल्ला भी पूरा मचा दिया। पर ठहरेंगी कहाँ सुशीला? कुछ खाना-पीना...“
”आने पर देख लेंगे। अपना घर तो खाली ही है। खाने की भी चिन्ता न करो। घी है ही, पूड़ी-ऊड़ी बन जाएगी।“ कहता हुआ हंसा बाहर निकला।

हंसा सँभाल सँभाल कर चल रहा था - अँधेरे की वहीं धुंध, वही मटमैलापन। आखिर वह क्या करे कि उसे दिखाई पड़ने लगे। वह एक बच्चे की सहायता से किसी तरह बाबू साहब के दलान के सामने पहुँच गया। पहाड़ से तख्त की सिर पर बिड़ई रख, उठा लिया और किसी तरह रेंगता-रेंगता बाबा के दालान आ पहुँचा। बाबा बहुत बिगड़े, ”ससुरा मरने पर लगा है।“

हंसा को यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि सुशीला जी आ गयी हैं। वह बाबा के पास बैठ, उनकी बातें बड़े ध्यान-पूर्वक पीने लगा।

सुशीला जी हंसा के ठीक सामने बैठी थीं। लालटेन जल रही थी, पर वह देख नहीं पाता था कि वह कैसी हैं! -आवाज तो कड़ी है और यह गन्ने के ताजे रस-सी महक कहाँ से आ रही है? हंसा खो गया। सुशीला का साल भर पहले का गाना, ‘जागा हो बलमुआ गाँधी टोपी वाले आय गइलैं.... उसके होठों पर थिरक उठा। साँवला-साँवला-सा रंग था, लम्बा छरहरा बदन, रूखे-रूखे से बाल और तेज आँखे। कैसा अच्छा गाती थी!-हंसा सोचता रहा।

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