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                     मेज़ 
                    पर बैठकर मैं फिर पढ़ने का उपक्रम करने लगती हूँ, पर मन है कि 
                    लगता ही नहीं। पर्दे के ज़रा-से हिलने से दिल की धड़कन बढ़ 
                    जाती है और बार-बार नज़र घड़ी के सरकते हुए काँटों पर दौड़ 
                    जाती है। हर समय यही लगता है, वह आया! वह आया! 
 तभी मेहता साहब की पाँच साल की छोटी बच्ची झिझकती-सी कमरे में 
                    आती है,
 "आँटी, हमें कहानी सुनाओगी?"
 "नहीं, अभी नहीं, पीछे आना!" मैं रूखाई से जवाब देती हूँ। वह 
                    भाग जाती है। ये मिसेज मेहता भी एक ही हैं! यों तो महीनों शायद 
                    मेरी सूरत नहीं देखतीं, पर बच्ची को जब-तब मेरा सिर खाने को 
                    भेज देती हैं। मेहता साहब तो फिर भी कभी-कभी आठ-दस दिन में 
                    खैरियत पूछ ही लेते हैं, पर वे तो बेहद अकड़ू मालूम होती हैं। 
                    अच्छा ही है, ज़्यादा दिलचस्पी दिखाती 
                    तो क्या मैं इतनी आज़ादी से घूम-फिर सकती थी?
 
 खट-खट-खट वही परिचित पद-ध्वनि! तो आ गया संजय। मैं बरबस ही 
                    अपना सारा ध्यान पुस्तक में केंन्द्रित कर लेती हूँ। रजनीगन्धा 
                    के ढेर-सारे फूल लिए संजय मुस्कुराता-सा दरवाज़े पर खड़ा है। 
                    मैं देखती हूँ, पर मुस्कुराकर स्वागत नहीं करती। हँसता हुआ वह 
                    आगे बढ़ता है और फूलों को मेज पर पटककर, पीछे से मेरे दोनों 
                    कन्धे दबाता हुआ पूछता है, "बहुत नाराज़ हो?"
 रजनीगन्धा की महक से जैसे सारा कमरा महकने लगता है।
 
 "मुझे क्या करना है 
                    नाराज़ होकर?" रूखाई से मैं कहती हूँ। वह कुर्सी सहित मुझे 
                    घुमाकर अपने सामने कर लेता है, और बड़े दुलार के साथ ठोड़ी 
                    उठाकर कहता, "तुम्हीं बताओ क्या करता? क्वालिटी में दोस्तों के 
                    बीच फँसा था। बहुत कोशिश करके भी उठ नहीं पाया। सबको नाराज़ 
                    करके आना अच्छा भी नहीं लगता।"
 
 इच्छा होती है, कह दूँ- "तुम्हें दोस्तों का खयाल है, उनके 
                    बुरा मानने की चिन्ता है, बस मेरी ही नहीं!" पर कुछ कह नहीं 
                    पाती, एकटक उसके चेहरे की ओर देखती रहती हूँ उसके साँवले चेहरे 
                    पर पसीने की बूँदें चमक रही हैं। कोई और समय होता तो मैंने 
                    अपने आँचल से इन्हें पोंछ दिया होता, पर आज नहीं। वह मन्द-मन्द 
                    मुस्कुरा रहा है, उसकी आँखें क्षमा-याचना कर रही हैं, पर मैं 
                    क्या करूँ? तभी वह अपनी आदत के अनुसार कुर्सी के हत्थे पर 
                    बैठकर मेरे गाल सहलाने लगता है। मुझे उसकी इसी बात पर गुस्सा 
                    आता है। हमेशा इसी तरह करेगा और फिर दुनिया-भर का लाड़-दुलार 
                    दिखलाएगा। वह जानता जो है कि इसके आगे मेरा क्रोध टिक नहीं 
                    पाता। फिर उठकर वह फूलदान के पुराने फूल फेंक देता है, और नए 
                    फूल लगाता है। फूल सजाने में वह कितना कुशल है! एक बार मैंने 
                    यों ही कह दिया था कि मुझे रजनीगन्धा के फूल बड़े पसन्द हैं, 
                    तो उसने नियम ही बना लिया कि हर चौथे दिन ढेर-सारे फूल लाकर 
                    मेरे कमरे में लगा देता है। और अब तो मुझे भी ऐसी आदत हो गई है 
                    कि एक दिन भी कमरे में 
                    फूल न रहें तो न पढ़ने में मन लगता है, न सोने में। ये फूल 
                    जैसे संजय की उपस्थिति का आभास देते रहते हैं।
 
 थोड़ी देर बाद हम घूमने निकल जाते हैं। एकाएक ही मुझे इरा के 
                    पत्र की बात याद आती है। जो बात सुनने के लिए में सवेरे से ही 
                    आतुर थी, इस गुस्सेबाज़ी में जाने कैसे उसे ही भूल गई!
 "सुनो, इरा ने लिखा है कि किसी दिन भी मेरे पास इंटरव्यू का 
                    बुलावा आ सकता है, मुझे तैयार रहना चाहिए।"
 "कहाँ, कलकत्ता से?" कुछ याद करते हुए संजय पूछता है, और फिर 
                    एकाएक ही उछल पड़ता है, "यदि तुम्हें वह जॉब मिल जाए तो मज़ा आ 
                    जाए, दीपा, मज़ा आ जाए!"
 हम सड़क पर हैं, नहीं तो अवश्य ही उसने आवेश में आकर कोई हरकत 
                    कर डाली होती। जाने क्यों, मुझे उसका इस प्रकार प्रसन्न होना 
                    अच्छा नहीं लगता। क्या वह चाहता है कि मैं कलकत्ता चली जाऊँ, 
                    उससे दूर?
 
 तभी सुनाई देता है, "तुम्हें यह जॉब मिल जाए तो मैं भी अपना 
                    तबादला कलकत्ता ही करवा लूँ, हेड ऑफिस में। यहाँ की रोज़ की 
                    किच-किच से तो मेरा मन ऊब गया है। कितनी ही बार सोचा कि तबादले 
                    की कोशिश करूँ, पर तुम्हारे खयाल ने हमेशा मुझे बाँध लिया। 
                    ऑफिस में शान्ति हो जाएगी, पर मेरी शामें कितनी वीरान हो 
                    जाएँगी!"
 उसके स्वर की आर्द्रता ने मुझे छू लिया। एकाएक ही मुझे लगने 
                    लगा कि रात बड़ी सुहावनी हो चली है।
 हम दूर निकलकर अपनी प्रिय टेकरी पर जाकर बैठ जाते हैं। दूर-दूर 
                    तक हल्की-सी चाँदनी फैली हुई है और शहर की तरह यहाँ का वातावरण 
                    धुएँ से भरा हुआ नहीं है। वह दोनों पैर फैलाकर बैठ जाता है और 
                    घंटों मुझे अपने ऑफिस के झगड़े की बात सुनाता है और फिर 
                    कलकत्ता जाकर साथ जीवन बिताने की योजनाएँ बनाता है। मैं कुछ 
                    नहीं बोलती, बस एकटक उसे देखती हूँ, देखती रहती हूँ।
 जब वह चुप हो जाता है तो बोलती हूँ, "मुझे तो इंटरव्यू में 
                    जाते हुए बड़ा डर लगता है। पता नहीं, कैसे-क्या पूछते होंगे! 
                    मेरे लिए तो यह पहला ही मौका है।"
 वह खिलखिलाकर हँस पड़ता है।
 "तुम भी एक ही मूर्ख हो! घर से दूर, यहाँ कमरा लेकर अकेली रहती 
                    हो, रिसर्च कर रही हो, दुनिया-भर में घूमती-फिरती हो और 
                    इंटरव्यू के नाम से डर लगता है। क्यों?" और गाल पर हल्की-सी 
                    चपत जमा देता है। फिर समझाता हुआ कहता है, "और देखो, आजकल ये 
                    इंटरव्यू आदि तो सब दिखावा-मात्र होते हैं। वहाँ किसी 
                    जान-पहचान वाले से इन्फ्लुएँस डलवाना जाकर!"
 "पर कलकत्ता तो मेरे लिए एकदम नई जगह है। वहाँ इरा को छोड़कर 
                    मैं किसी को जानती भी नहीं। अब उन लोगों की कोई जान-पहचान हो 
                    तो बात दूसरी है," असहाय-सी मैं कहती हूँ।
 "और किसी को नहीं जानतीं?" फिर मेरे चेहरे पर नज़रें गड़ाकर 
                    पूछता है, "निशीथ भी तो वहीं है?"
 "होगा, मुझे क्या करना है उससे?" मैं एकदम ही भन्नाकर जवाब 
                    देती हूँ। पता नहीं क्यों, मुझे लग ही रहा था कि अब वह यही बात 
                    कहेगा।
 "कुछ नहीं करना?" वह छेड़ने के लहजे में कहता है।
 
 और मैं भभक पड़ती हूँ, "देखो संजय, मैं हज़ार बार तुमसे कह 
                    चुकी हूँ कि उसे लेकर मुझसे मज़ाक मत किया करो! मुझे इस तरह का 
                    मज़ाक ज़रा भी पसन्द नहीं है!"
 वह खिलखिलाकर हँस पड़ता है, पर मेरा तो मूड ही खराब हो जाता 
                    है।
 हम लौट पड़ते हैं। वह मुझे खुश करने के इरादे से मेरे कन्धे पर 
                    हाथ रख देता है। मैं झपटकर हाथ हटा देती हूँ, "क्या कर रहे हो? 
                    कोई देख लेगा तो क्या कहेगा?"
 "कौन है यहाँ जो देख 
                    लेगा? और देख लेगा तो देख ले, आप ही कुढ़ेगा।"
 "नहीं, हमें पसन्द नहीं हैं यह बेशर्मी!" और सच ही मुझे रास्ते 
                    में ऐसी हरकतें पसन्द नहीं हैं चाहे रास्ता निर्जन ही क्यों न 
                    हो, पर है तो रास्ता ही, फिर कानपुर जैसी जगह।
 कमरे में लौटकर मैं उसे बैठने को कहती हूँ, पर वह बैठता नहीं, 
                    बस, बाहों में भरकर एक बार चूम लेता है। यह भी जैसे उसका रोज़ 
                    का नियम है।
 
 वह चला जाता है। मैं बाहर 
                    बालकनी में निकलकर उसे देखती रहती हूँ। उसका आकार छोटा 
                    होते-होते सड़क के मोड़ पर जाकर लुप्त हो जाता है। मैं उधर ही 
                    देखती रहती हूँ - निरुद्देश्य-सी खोई-खोई-सी। फिर आकर पढ़ने 
                    बैठ जाती हूँ।
 
 रात में सोती हूँ तो देर तक मेरी आँखें मेज़ पर लगे रजनीगन्धा 
                    के फूलों को ही निहारती रहती हैं। जाने क्यों, अक्सर मुझे भ्रम 
                    हो जाता है कि ये फूल नहीं हैं, मानो संजय की अनेकानेक आँखें 
                    हैं, जो मुझे देख रही हैं, सहला रही हैं, दुलरा रही हैं। और 
                    अपने को यों असंख्य आँखों से निरन्तर देखे जाने की कल्पना से 
                    ही मैं लजा जाती हूँ।
 मैंने संजय को भी एक बार यह बात बताई थी, तो वह खूब हँसा था और 
                    फिर मेरे गालों को सहलाते हुए उसने कहा था कि मैं पागल हूँ, 
                    निरी मूर्खा हूँ!
 कौन जाने, शायद उसका कहना 
                    ही ठीक हो, शायद मैं पागल ही होऊँ!
 
 कानपुर
 
 मैं जानती हूँ, संजय का मन निशीथ को लेकर जब-तब सशंकित हो उठता 
                    है, पर मैं उसे कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मैं निशीथ से नफरत करती 
                    हूँ, उसकी याद-मात्र से मेरा मन घृणा से भर उठता है। फिर अठारह 
                    वर्ष की आयु में किया हुआ प्यार भी कोई प्यार होता है भला! 
                    निरा बचपन होता है, महज पागलपन! उसमें आवेश रहता है पर 
                    स्थायित्व नहीं, गति रहती है पर गहराई नहीं। जिस वेग से वह 
                    आरम्भ होता है, ज़रा-सा झटका लगने पर उसी वेग से टूट भी जाता 
                    है। और उसके बाद आहों, आँसुओं और सिसकियों का एक दौर, सारी 
                    दुनिया की निस्सारता और आत्महत्या करने के अनेकानेक संकल्प और 
                    फिर एक तीखी घृणा। जैसे ही जीवन को दूसरा आधार मिल जाता है, उन 
                    सबको भूलने में एक दिन भी नहीं लगता। फिर तो वह सब ऐसी बेवकूफी 
                    लगती है, जिस पर बैठकर घंटों हँसने की तबीयत होती है। तब एकाएक 
                    ही इस बात का अहसास होता है कि ये सारे आँसू, ये सारी आहें उस 
                    प्रेमी के लिए नहीं थीं, वरन् जीवन की उस रिक्तता और 
                    शून्यता के लिए थीं, जिसने जीवन 
                    को नीरस बनाकर बोझिल कर दिया था।
 
 तभी तो संजय को पाते ही मैं निशीथ को भूल गई। मेरे आँसू हँसी 
                    में बदल गए और आहों की जगह किलकारियाँ गूँजने लगीं। पर संजय है 
                    कि जब-तब निशीथ की बात को लेकर व्यर्थ ही खिन्न-सा हो उठता है। 
                    मेरे कुछ कहने पर वह 
                    खिलखिला अवश्य पड़ता है, पर मैं जानती हूँ, वह पूर्ण रूप से 
                    आश्वस्त नहीं है।
 
 उसे कैसे बताऊँ कि मेरे प्यार का, मेरी कोमल भावनाओं का, 
                    भविष्य की मेरी अनेकानेक योजनाओं का एकमात्र केन्द्र संजय ही 
                    है। यह बात दूसरी है कि चाँदनी रात में, किसी निर्जन स्थान 
                    में, पेड़-तले बैठकर भी मैं अपनी थीसिस की बात करती हूँ या वह 
                    अपने ऑफिस की, मित्रों की बातें करता है, या हम किसी और विषय 
                    पर बात करने लगते हैं प़र इस सबका यह मतलब तो नहीं कि हम प्रेम 
                    नहीं करते! वह क्यों नहीं समझता कि आज हमारी भावुकता यथार्थ 
                    में बदल गई हैं, सपनों की जगह हम वास्तविकता में जीते हैं! 
                    हमारे प्रेम को परिपक्वता मिल गई हैं, जिसका आधार पाकर वह अधिक 
                    गहरा हो गया है, स्थायी हो गया है।
 
 पर संजय को कैसे समझाऊँ यह सब? कैसे उसे समझाऊँ कि निशीथ ने 
                    मेरा अपमान किया है, ऐसा अपमान, जिसकी कचोट से मैं आज भी 
                    तिलमिला जाती हूँ। सम्बन्ध तोड़ने से पहले एक बार तो उसने मुझे 
                    बताया होता कि आखिर मैंने ऐसा कौन-सा अपराध कर डाला था, जिसके 
                    कारण उसने मुझे इतना कठोर दंड दे डाला? सारी दुनिया की 
                    भर्त्सना, तिरस्कार, परिहास और दया का विष मुझे पीना पड़ा। 
                    विश्वासघाती! नीच कहीं का! और संजय सोचता है कि आज भी मेरे मन 
                    में उसके लिए कोई कोमल स्थान है! छि:! मैं उससे नफरत करती हूँ! 
                    और सच पूछो तो अपने को भाग्यशालिनी 
                    समझती हूँ कि मैं एक ऐसे व्यक्ति 
                    के चंगुल में फँसने से बच गई, जिसके लिए प्रेम महज एक खिलवाड़ 
                    है।
 
 संजय, यह तो सोचो कि यदि ऐसी कोई भी बात होती, तो क्या मैं 
                    तुम्हारे आगे, तुम्हारी हर उचित-अनुचित चेष्टा के आगे, यों 
                    आत्मसमर्पण करती? तुम्हारे चुम्बनों और आलिंगनों में अपने को 
                    यों बिखरने देती? जानते हो, विवाह से पहले कोई भी लड़की किसी 
                    को इन सबका अधिकार नहीं देती। पर मैंने दिया। क्या केवल इसीलिए 
                    नहीं कि मैं तुम्हें प्यार करती हूँ, बहुत-बहुत प्यार करती 
                    हूँ? विश्वास करो संजय, तुम्हारा-मेरा प्यार ही सच है। निशीथ 
                    का प्यार तो मात्र छल था, भ्रम था, झूठ था।
 
 कानपुर
 
 परसों मुझे कलकत्ता जाना 
                    है। बड़ा डर लग रहा है। कैसे क्या होगा? मान लो, इंटरव्यू में 
                    बहुत नर्वस हो गई, तो? संजय को कह रही हूँ कि वह भी साथ चले, 
                    पर उसे ऑफिस से छुट्टी नहीं मिल सकती। एक तो नया शहर, फिर 
                    इंटरव्यू! अपना कोई साथ होता तो बड़ा सहारा मिल जाता। मैं कमरा 
                    लेकर अकेली रहती हूँ यों अकेली घूम-फिर भी लेती हूँ तो संजय 
                    सोचता है, मुझमें बड़ी हिम्मत है, पर सच, बड़ा डर लग रहा है।
 
 बार-बार मैं यह मान लेती हूँ कि मुझे नौकरी मिल गई है और मैं 
                    संजय के साथ वहाँ रहने लगी हूँ। कितनी सुन्दर कल्पना है, कितनी 
                    मादक! पर इंटरव्यू का भय मादकता से भरे इस स्वप्नजाल को 
                    छिन्न-भिन्न कर देता है ।
 काश, संजय भी किसी तरह 
                    मेरे साथ चल पाता!
 
 कलकत्ता
 
 गाड़ी जब हावड़ा स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर प्रवेश करती है तो 
                    जाने कैसी विचित्र आशंका, विचित्र-से भय से मेरा मन भर जाता 
                    है। प्लेटफॉर्म पर खड़े असंख्य नर-नारियों में मैं इरा को 
                    ढूँढती हूँ। वह कहीं दिखाई नहीं देती। नीचे उतरने के बजाय 
                    खिड़की में से ही दूर-दूर तक नज़रें दौड़ाती हूँ। आखिर एक कुली 
                    को बुलाकर, अपना छोटा-सा सूटकेस और बिस्तर उतारने का आदेश दे, 
                    मैं नीचे उतर पड़ती हूँ। उस भीड़ को देखकर मेरी दहशत जैसे और 
                    बढ़ जाती है। तभी किसी के हाथ के स्पर्श से मैं बुरी तरह चौंक 
                    जाती हूँ। पीछे देखती हूँ तो इरा खड़ी है।
 
 रूमाल से चेहरे का पसीना 
                    पोंछते हुए कहती हूँ, "ओफ! तुझे न देखकर मैं घबरा रही थी कि 
                    तुम्हारे घर भी कैसे पहुँचूँगी!"
 बाहर आकर हम टैक्सी में बैठते हैं। अभी तक मैं स्वस्थ नहीं हो 
                    पाई हूँ। जैसे ही हावड़ा-पुल पर गाड़ी पहुँचती है, हुगली के जल 
                    को स्पर्श करती हुई ठंडी हवाएँ तन-मन को एक ताज़गी से भर देती 
                    हैं। इरा मुझे इस पुल की विशेषता बताती है और मैं विस्मित-सी 
                    उस पुल को देखती हूँ, दूर-दूर तक फैले हुगली के विस्तार को 
                    देखती हूँ, उसकी छाती पर खड़ी और विहार करती अनेक नौकाओं को 
                    देखती हूँ, बड़े-बड़े जहाजों को देखती हूँ।
 
 उसके बाद बहुत ही भीड़-भरी सड़कों पर हमारी टैक्सी रूकती-रूकती 
                    चलती है। ऊँची-ऊँची इमारतों और चारों ओर के वातावरण से कुछ 
                    विचित्र-सी विराटता का आभास होता है, और इस सबके बीच जैसे मैं 
                    अपने को बड़ा खोया-खोया-सा महसूस 
                    करती हूँ। कहाँ पटना और कानपुर और कहाँ यह कलकत्ता! मैंने तो 
                    आज तक कभी बहुत बड़े शहर देखे ही नहीं!
 
 सारी भीड़ को चीरकर हम रैड रोड पर आ जाते हैं। चौड़ी शान्त 
                    सड़क। मेरे दोनों ओर लम्बे-चौड़े खुले मैदान।
 "क्यों इरा, कौन-कौन लोग होंगे इंटरव्यू में? मुझे तो बड़ा डर 
                    लग रहा है।"
 "अरे, सब ठीक हो जाएगा! तू और डर? हम जैसे डरें तो कोई बात भी 
                    है। जिसने अपना सारा कैरियर अपने-आप बनाया, वह भला इंटरव्यू 
                    में डरे! फिर कुछ देर ठहरकर कहती है, "अच्छा, भैया-भाभी तो 
                    पटना ही होंगे? जाती है कभी उनके पास भी या नहीं?"
 "कानपुर आने के बाद एक बार गई थी। कभी-कभी यों ही पत्र लिख 
                    देती हूँ।"
 "भई कमाल के लोग हैं! बहन को भी नहीं निभा सके!"
 मुझे यह प्रसंग कतई पसन्द नहीं। मैं नहीं चाहती कि कोई इस विषय 
                    पर बात करे। मैं मौन ही रहती हूँ।
 इरा का छोटा-सा घर है, सुन्दर ढंग से सजाया हुआ। उसके पति के 
                    दौरे पर जाने की बात सुनकर पहले तो मुझे अफसोस हुआ था, वे होते 
                    तो कुछ मदद ही करते! पर फिर एकाएक लगा कि उनकी अनुपस्थिति में 
                    मैं शायद अधिक स्वतन्त्रता का अनुभव कर सकूँ। उनका बच्चा भी 
                    बड़ा प्यारा है।
 शाम को इरा मुझे कॉफी-हाउस ले जाती है। अचानक मुझे वहाँ निशीथ 
                    दिखाई देता है। मैं सकपकाकर नज़र घुमा लेती हूँ। पर वह हमारी 
                    मेज़ पर ही आ पहुँचता है। विवश होकर मुझे उधर देखना पड़ता है, 
                    नमस्कार भी करना पड़ता है, इरा का परिचय भी करवाना पड़ता है। 
                    इरा पास की कुर्सी पर बैठने का निमन्त्रण दे देती है। मुझे 
                    लगता है, मेरी साँस रूक जाएगी।
 
 "कब आईं?"
 "आज सवेरे ही।"
 "अभी ठहरोगी? ठहरी कहाँ हो?"
 जवाब इरा देती है। मैं देख रही हूँ, निशीथ बहुत बदल गया है। 
                    उसने कवियों की तरह बाल बढ़ा लिए हैं। यह क्या शौक चर्राया? 
                    उसका रंग स्याह पड़ गया है। वह दुबला भी हो गया है।
 विशेष बातचीत नहीं होती और हम लोग उठ पड़ते हैं। इरा को मुन्नू 
                    की चिन्ता सता रही थी, और मैं स्वयं भी घर पहुँचने को उतावली 
                    हो रही थी। कॉफी-हाउस से धर्मतल्ला तक वह पैदल चलता हुआ हमारे 
                    साथ आता है। इरा उससे बात कर रही है, मानो वह इरा का ही मित्र 
                    हो! इरा अपना पता समझा देती है और वह दूसरे दिन नौ बजे आने का 
                    वायदा करके चला जाता है।
 पूरे तीन साल बाद निशीथ का यों मिलना! न चाहकर भी जैसे सारा 
                    अतीत आँखों के सामने खुल जाता है। बहुत दुबला हो गया है निशीथ! 
                    लगता है, जैसे मन में कहीं कोई गहरी पीड़ा छिपाए बैठा है।
 मुझसे अलग होने का दु:ख तो नहीं साल रहा है इसे?
 कल्पना चाहे कितनी भी मधुर क्यों न हो, एक तृप्ति-युक्त आनन्द 
                    देनेवाली क्यों न हो, पर मैं जानती हूँ, यह झूठ है। यदि 
                    ऐसा ही था तो कौन उसे कहने गया 
                    था कि तुम इस सम्बन्ध को तोड़ दो? उसने अपनी इच्छा से ही तो यह 
                    सब किया था।
 
 एकाएक ही मेरा मन कटु हो उठता है। यही तो है वह व्यक्ति जिसने 
                    मुझे अपमानित करके सारी दुनिया के सामने छोड़ दिया था, महज 
                    उपहास का पात्र बनाकर! ओह, क्यों नहीं मैंने उसे पहचानने से 
                    इनकार कर दिया? जब वह मेज़ के पास आकर खड़ा हुआ, तो क्यों नहीं 
                    मैंने कह दिया कि माफ कीजिए, मैं आपको पहचानती नहीं? ज़रा उसका 
                    खिसियाना तो देखती! वह कल भी आएगा। मुझे उसे साफ-साफ मना कर 
                    देना चाहिए था कि मैं उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहती, मैं उससे 
                    नफरत करती हूँ!
 
 अच्छा है, आए कल! मैं उसे बता दूँगी कि जल्दी ही मैं संजय से 
                    विवाह करनेवाली हूँ। यह भी बता दूँगी कि मैं पिछला सब कुछ भूल 
                    चुकी हूँ। यह भी बता दूँगी कि मैं उससे घृणा करती हूँ और उसे 
                    जिन्दगी में कभी माफ नहीं कर सकती।
 
 यह सब सोचने के साथ-साथ जाने क्यों, मेरे मन में यह बात भी उठ 
                    रही थी कि तीन साल हो गए, अभी तक निशीथ ने विवाह क्यों नहीं 
                    किया? करे न करे, मुझे क्या ?
 क्या वह आज भी मुझसे कुछ उम्मीद रखता है? हूँ! मूर्ख कहीं का!
 
 संजय! मैंने तुमसे कितना कहा था कि तुम मेरे साथ चलो, पर तुम 
                    नहीं आए। इस समय जबकि मुझे तुम्हारी इतनी-इतनी 
                    याद आ रही है, बताओ, मैं क्या करूँ?
 
 कलकत्ता
 
 नौकरी पाना इतना मुश्किल है, इसका मुझे गुमान तक नहीं था। इरा 
                    कहती है कि डेढ़ सौ की नौकरी के लिए खुद मिनिस्टर तक सिफारिश 
                    करने पहुँच जाते हैं, फिर यह तो तीन सौ का जॉब है। निशीथ सवेरे 
                    से शाम तक इसी चक्कर में भटका है, यहाँ तक कि उसने अपने ऑफिस 
                    से भी छुट्टी ले ली है। वह क्यों मेरे काम में इतनी दिलचस्पी 
                    ले रहा है? उसका परिचय बड़े-बड़े लोगों से है और वह कहता है कि 
                    जैसे भी होगा, वह काम मुझे दिलाकर ही मानेगा। पर आखिर क्यों?
 कल मैंने सोचा था कि अपने व्यवहार की रूखाई से मैं स्पष्ट कर 
                    दूँगी कि अब वह मेरे पास न आए। पौने नौ बजे के करीब, जब मैं 
                    अपने टूटे हुए बाल फेंकने खिड़की पर गई, तो देखा, घर से थोड़ी 
                    दूर पर निशीथ टहल रहा है। वही लम्बे बाल, कुरता-पाजामा। तो वह 
                    समय से पहले ही आ गया! संजय होता तो ग्यारह के पहले नहीं 
                    पहुँचता, समय पर पहुँचना तो वह जानता ही नहीं।
 उसे यों चक्कर काटते देख मेरा मन जाने कैसा हो आया। और जब वह 
                    आया तो मैं चाहकर भी कटु नहीं हो सकी। मैंने उसे कलकत्ता आने 
                    का मकसद बताया, तो लगा कि वह बड़ा प्रसन्न हुआ। वहीं बैठे-बैठे 
                    फोन करके उसने इस नौकरी के सम्बन्ध में सारी जानकारी प्राप्त 
                    कर ली, कैसे क्या करना होगा, उसकी योजना भी बना डाली, 
                    बैठे-बैठे फोन से ऑफिस को 
                    सूचना भी दे दी कि आज वह ऑफिस 
                    नहीं आएगा।
 
 विवित्र स्थिति मेरी हो रही थी। उसके इस अपनत्व-भरे व्यवहार को 
                    मैं स्वीकार भी नहीं कर पाती थी, नकार भी नहीं पाती थी। सारा 
                    दिन मैं उसके साथ घूमती रही, पर काम की बात के अतिरिक्त उसने 
                    एक भी बात नहीं की। मैंने कई बार चाहा कि संजय की बात बता दूँ,
 पर बता नहीं सकी। सोचा, कहीं वह सुनकर यह दिलचस्पी लेना कम न 
                    कर दे। उसके आज-भर के प्रयत्नों से ही मुझे काफी उम्मीद हो चली 
                    थी। यह नौकरी मेरे लिए कितनी आवश्यक है, मिल जाए तो संजय कितना 
                    प्रसन्न होगा, हमारे विवाहित जीवन के आरम्भिक दिन कितने सुख 
                    में बीतेंगे!
 शाम को हम घर लौटते हैं। मैं उसे बैठने को कहती हूँ, पर वह 
                    बैठता नहीं, बस खड़ा ही रहता है। उसके चौड़े ललाट पर पसीने की 
                    बूँदें चमक रही हैं। एकाएक ही मुझे लगता है, इस समय संजय होता, 
                    तो? मैं अपने आँचल से उसका पसीना पोंछ देती, और वह क़्या बिना 
                    बाहों में भरे, बिना प्यार किए यों ही चला जाता?
 "अच्छा, तो चलता हूँ।"
 यन्त्रचलित-से मेरे हाथ जुड़ जाते हैं, वह लौट पड़ता है और मैं 
                    ठगी-सी देखती रहती हूँ।
 सोते समय मेरी आदत है कि संजय के लाए हुए फूलों को निहारती 
                    रहती हूँ। यहाँ वे फूल नहीं हैं तो बड़ा सूना-सूना सा लग रहा 
                    है।
 पता नहीं संजय, तुम इस 
                    समय क्या कर रहे हो! तीन दिन हो गए, किसी ने बाँहों में भरकर 
                    प्यार तक नहीं किया।
 
 कलकत्ता
 
 आज सवेरे मेरा इंटरव्यू हो गया है। मैं शायद बहुत नर्वस हो गई 
                    थी और जैसे उत्तर मुझे देने चाहिए, वैसे नहीं दे पाई। पर निशीथ 
                    ने आकर बताया कि मेरा चुना जाना करीब-करीब तय हो गया है। मैं 
                    जानती हूँ, यह सब निशीथ की वजह से ही हुआ।
 ढलते सूरज की धूप निशीथ के बाएँ गाल पर पड़ रही थी और सामने 
                    बैठा निशीथ इतने दिन बाद एक बार फिर मुझे बड़ा प्यारा-सा लगा।
 
 मैंने देखा, मुझसे ज्यादा वह प्रसन्न है। वह कभी किसी का अहसान 
                    नहीं लेता, पर मेरी खातिर उसने न जाने कितने लोगों को अहसान 
                    लिया। आखिर क्यों? क्या वह चाहता है कि मैं कलकत्ता आकर रहूँ 
                    उसके साथ, उसके पास? एक अजीब-सी पुलक से मेरा तन-मन सिहर उठता 
                    है। वह ऐसा क्यों चाहता है? उसका ऐसा चाहना बहुत गलत है, बहुत 
                    अनुचित है! मैं अपने मन को समझाती हूँ, ऐसी कोई बात नहीं है, 
                    शायद वह केवल मेरे प्रति किए गए अन्याय का प्रतिकार करने के 
                    लिए यह सब कर रहा है! पर क्या वह समझता है कि उसकी मदद से 
                    नौकरी पाकर मैं उसे क्षमा कर दूँगी, या जो कुछ उसने किया है, 
                    उसे भूल जाऊँगी? असम्भव! मैं कल ही उसे संजय की बात बता दूँगी।
 "आज तो इस खुशी में 
                    पार्टी हो जाए!"
 
 काम की बात के अलावा यह पहला वाक्य मैं उसके मुँह से सुनती 
                    हूँ, मैं इरा की ओर देखती हूँ। वह प्रस्ताव का समर्थन करके भी 
                    मुन्नू की तबीयत का बहाना लेकर अपने को काट लेती है। अकेले 
                    जाना मुझे कुछ अटपटा-सा लगता है। अभी तक तो काम का बहाना लेकर 
                    घूम रही थी, पर अब? फिर भी मैं मना नहीं कर पाती। अन्दर जाकर 
                    तैयार होती हूँ। मुझे याद आता है, निशीथ को नीला रंग बहुत 
                    पसन्द था, मैं नीली साड़ी ही पहनती हूँ। बड़े चाव और सतर्कता 
                    से अपना प्रसाधन करती हूँ, और बार-बार अपने को टोकती जाती हूँ 
                    - किसको रिझाने के लिए यह सब हो रहा है? क्या यह निरा पागलपन 
                    नहीं है?
 सीढ़ियों पर निशीथ हल्की-सी मुस्कुराहट के साथ कहता है, "इस 
                    साड़ी में तुम बहुत सुन्दर लग रही हो।"
 मेरा चेहरा तमतमा जाता है, कनपटियाँ सुर्ख हो जाती हैं। मैं 
                    चुपचाप ही इस वाक्य के लिए तैयार नहीं थी। यह सदा चुप रहनेवाला 
                    निशीथ बोला भी तो ऐसी बात।
 मुझे ऐसी बातें सुनने की ज़रा भी आदत नहीं है। संजय न कभी मेरे 
                    कपड़ों पर ध्यान देता है, न ऐसी बातें करता है, जब कि उसे पूरा 
                    अधिकार है। और यह बिना अधिकार ऐसी बातें करे?
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