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                       शामनाथ 
                      सिगरेट मुँह में रखे, सिकुड़ी आँखों से श्रीमती के चेहरे की 
                      ओर देखते हुए पल-भर सोचते रहे, फिर सिर हिलाकर बोले - "नहीं, 
                      मैं नहीं चाहता कि उस बुढ़िया का आना-जाना यहाँ फिर से शुरू 
                      हो। पहले ही बड़ी मुश्किल से बन्द किया था। माँ से कहें कि 
                      जल्दी ही खाना खा के शाम को ही अपनी कोठरी में चली जाएँ। 
                      मेहमान कहीं आठ बजे आएँगे इससे पहले ही अपने काम से निबट 
                      लें।" सुझाव ठीक था। दोनों को पसन्द आया। मगर फिर सहसा श्रीमती बोल 
                      उठीं - "जो वह सो गयीं और नींद में खर्राटे लेने लगीं, तो? 
                      साथ ही तो बरामदा है, जहाँ लोग खाना खाएँगे।"
 "तो इन्हें कह देंगे कि अन्दर से दरवाजा बन्द कर लें। मैं 
                      बाहर से ताला लगा दूँगा। या माँ को कह देता हूँ कि अन्दर 
                      जाकर सोयें नहीं, बैठी रहें, और क्या?"
 "और जो सो गई, तो? डिनर का क्या मालूम कब तक चले। 
                      ग्यारह-ग्यारह बजे तक तो तुम ड्रिंक ही करते रहते हो।"
 
 शामनाथ कुछ खीज उठे, हाथ झटकते हुए बोले - "अच्छी-भली यह भाई 
                      के पास जा रही थीं। तुमने योंही खुद अच्छा बनने के लिए बीच 
                      में टांग अड़ा दी!"
 "वाह! तुम माँ और बेटे की बातों में मैं क्यों बुरी बनूँ? 
                      तुम जानो और वह जानें।"
 मिस्टर शामनाथ चुप रहे। यह मौका बहस का न था, समस्या का हल 
                      ढूँढ़ने का था। उन्होंने घूमकर माँ की कोठरी की ओर देखा। 
                      कोठरी का दरवाज़ा बरामदे में खुलता था। बरामदे की ओर देखते 
                      हुए झट से बोले - "मैंने सोच लिया है", - और उन्हीं कदमों 
                      माँ की कोठरी के बाहर जा खड़े हुए। माँ दीवार के साथ एक चौकी 
                      पर बैठी, दुपट्टे में मुँह-सिर लपेटे, माला जप रही थीं। सुबह 
                      से तैयारी होती देखते हुए माँ का भी दिल धड़क रहा था। बेटे 
                      के दफ्तर का बड़ा साहब घर पर आ रहा है, सारा काम सुभीते से 
                      चल जाय।
 "माँ, आज तुम खाना जल्दी खा लेना। मेहमान लोग साढ़े सात बजे 
                      आ जायेंगे।"
 माँ ने धीरे से मुँह पर से दुपट्टा हटाया और बेटे को देखते 
                      हुए कहा, "आज मुझे खाना नहीं खाना है, बेटा, तुम जो जानते 
                      हो, माँस-मछली बने, तो मैं कुछ नहीं खाती।"
 "जैसे भी हो, अपने काम से जल्दी निबट लेना।"
 "अच्छा, बेटा।"
 "और माँ, हम लोग पहले बैठक में बैठेंगे। उतनी देर तुम यहाँ 
                      बरामदे में बैठना। फिर जब हम यहाँ आ जाएँ, तो तुम गुसलखाने 
                      के रास्ते बैठक में चली जाना।"
 माँ अवाक बेटे का चेहरा देखने लगीं। फिर धीरे से बोलीं- 
                      "अच्छा बेटा।"
 "और माँ आज जल्दी सो नहीं जाना। तुम्हारे खर्राटों की आवाज़ 
                      दूर तक जाती है।"
 माँ लज्जित-सी आवाज़ में बोली - "क्या करूँ, बेटा, मेरे बस 
                      की बात नहीं है। जब से बीमारी से उठी हूँ, नाक से सांस नहीं 
                      ले सकती।"
 
 मिस्टर शामनाथ ने इन्तजाम तो कर दिया, फिर भी उनकी उधेड़-बुन 
                      खत्म नहीं हुई। जो चीफ अचानक उधर आ निकला, तो? आठ-दस मेहमान 
                      होंगे, देसी अफसर, उनकी स्त्रियाँ होंगी, कोई भी गुसलखाने की 
                      तरफ जा सकता है। क्षोभ और क्रोध में वह झुँझलाने लगे। एक 
                      कुर्सी को उठाकर बरामदे में कोठरी के बाहर रखते हुए बोले - 
                      "आओ माँ, इस पर जरा बैठो तो।"
 माँ माला संभालतीं, पल्ला ठीक करती उठीं, और धीरे से कुर्सी 
                      पर आकर बैठ गई।
 "यों नहीं, माँ, टाँगें ऊपर चढ़ाकर नहीं बैठते। यह खाट नहीं 
                      हैं।"
 माँ ने टाँगें नीचे उतार लीं।
 "और खुदा के वास्ते नंगे पांव नहीं घूमना। न ही वह खडाऊँ 
                      पहनकर सामने आना। किसी दिन तुम्हारी यह खड़ाऊ उठाकर मैं बाहर 
                      फेंक दूँगा।"
 "माँ चुप रहीं।"
 "कपड़े कौनसे पहनोगी, माँ?"
 "जो है, वही पहनूँगी, बेटा! जो कहो, पहन लूँ।"
 मिस्टर शामनाथ सिगरेट मुँह में रखे, फिर अधखुली आँखों से माँ 
                      की ओर देखने लगे, और माँ के कपड़ों की सोचने लगे। शामनाथ हर 
                      बात में तरतीब चाहते थे। घर का सब संचालन उनके अपने हाथ में 
                      था। खूँटियाँ कमरों में कहाँ लगायी जायें, बिस्तर कहाँ पर 
                      बिछे, किस रंग के पर्दे लगायें जाएँ, श्रीमती कौन-सी साड़ी 
                      पहनें, मेज किस साइज की हो श़ामनाथ को चिन्ता थी कि अगर चीफ 
                      का साक्षात माँ से हो गया, तो कहीं लज्जित नहीं होना पड़े। 
                      माँ को सिर से पाँव तक देखते हुए बोले -"तुम सफेद कमीज़ और 
                      सफेद सलवार पहन लो, माँ। पहन के आओ तो, ज़रा देखूँ।"
 माँ धीरे से उठीं और अपनी कोठरी में कपड़े पहनने चली गयीं।
 "यह माँ का झमेला ही रहेगा, उन्होंने फिर अँग्रेजी में अपनी 
                      स्त्री से कहा - "कोई ढंग की बात हो, तो भी कोई कहे। अगर 
                      कहीं कोई उल्टी-सीधी बात हो गयी, चीफ को बुरा लगा, तो सारा 
                      मज़ा जाता रहेगा।"
 माँ सफेद कमीज़ और सफेद सलवार पहनकर बाहर निकलीं। छोटा-सा 
                      कद, सफेद कपड़ों में लिपटा, छोटा-सा सूखा हुआ शरीर, धुँधली 
                      आँखें, केवल सिर के आधे झड़े हुए बाल पल्ले की ओट में छिप 
                      पाये थे। पहले से कुछ ही कम कुरूप नज़र आ रही थीं।
 "चलो, ठीक है। कोई चूड़ियाँ-वूड़ियाँ हों, तो वह भी पहन लो। 
                      कोई हर्ज़ नहीं।"
 "चूड़ियाँ कहाँ से लाऊँ, बेटा? तुम तो जानते हो, सब जेवर 
                      तुम्हारी पढ़ाई में बिक गए।"
 यह वाक्य शामनाथ को तीर की तरह लगा। तिनककर बोले - "यह 
                      कौन-सा राग छेड़ दिया, माँ! सीधा कह दो, नहीं हैं जेवर, बस! 
                      इससे पढ़ाई-वढ़ाई का क्या तअल्लुक है! जो जेवर बिका, तो कुछ 
                      बनकर ही आया हूँ, निरा लंडूरा तो नहीं लौट आया। जितना दिया 
                      था, उससे दुगना ले लेना।"
 "मेरी जीभ जल जाय, बेटा, तुमसे जेवर लूँगी? मेरे मुँह से यों 
                      ही निकल गया। जो होते, तो लाख बार पहनती!"
 साढ़े पाँच बज चुके थे। अभी मिस्टर शामनाथ को खुद भी 
                      नहा-धोकर तैयार होना था। श्रीमती कब की अपने कमरे में जा 
                      चुकी थीं। शामनाथ जाते हुए एक बार फिर माँ को हिदायत करते गए 
                      - "माँ, रोज की तरह गुमसुम बन के नहीं बैठी रहना। अगर साहब 
                      इधर आ निकलें और कोई बात पूछें, तो ठीक तरह से बात का जवाब 
                      देना।"
 "मैं न पढ़ी, न लिखी, बेटा, मैं क्या बात करूँगी। तुम कह 
                      देना, माँ अनपढ़ है, कुछ जानती-समझती नहीं। वह नहीं पूछेगा।"
 सात बजते-बजते माँ का दिल धक-धक करने लगा। अगर चीफ सामने आ 
                      गया और उसने कुछ पूछा, तो वह क्या जवाब देंगी। अंग्रेज को तो 
                      दूर से ही देखकर घबरा उठती थीं, यह तो अमरीकी है। न मालूम 
                      क्या पूछे। मैं क्या कहूँगी। माँ का जी चाहा कि चुपचाप 
                      पिछवाड़े विधवा सहेली के घर चली जाएँ। मगर बेटे के हुक्म को 
                      कैसे टाल सकती थीं। चुपचाप कुर्र्सी पर से टांगे लटकाये वहीं 
                      बैठी रही।
 एक कामयाब 
                      पार्टी वह है, जिसमें ड्रिंक कामयाबी से चल जाएँ। शामनाथ की 
                      पार्टी सफलता के शिखर चूमने लगी। वार्तालाप उसी रौ में बह 
                      रहा था, जिस रौ में गिलास भरे जा रहे थे। कहीं कोई रूकावट न 
                      थी, कोई अड़चन न थी। साहब को व्हिस्की पसन्द आई थी। मेमसाहब 
                      को पर्दे पसन्द आए थे, सोफा-कवर का डिज़ाइन पसन्द आया था, 
                      कमरे की सजावट पसन्द आई थी। इससे बढ़कर क्या चाहिए। साहब तो 
                      ड्रिंक के दूसरे दौर में ही चुटकुले और कहानियाँ कहने लग गए 
                      थे। दफ्तर में जितना रोब रखते थे, यहाँ पर उतने ही 
                      दोस्त-परवर हो रहे थे और उनकी स्त्री, काला गाउन पहने, गले 
                      में सफेद मोतियों का हार, सेन्ट और पाउडर की महक से 
                      ओत-प्रोत, कमरे में बैठी सभी देसी स्त्रियों की आराधना का 
                      केन्द्र बनी हुई थीं। बात-बात पर हँती, बात-बात पर सिर 
                      हिलातीं और शामनाथ की स्त्री से तो ऐसे बातें कर रही थीं, 
                      जैसे उनकी पुरानी सहेली हों। और इसी रो 
                      में पीते-पिलाते साढ़े दस बज गए। वक्त गुज़रते पता ही न चला।आखिर सब लोग अपने-अपने गिलासों में से आखिरी घंूट पीकर खाना 
                      खाने के लिए उठे और बैठक से बाहर निकले। आगे-आगे शामनाथ 
                      रास्ता दिखाते हुए, पीछे चीफ और दूसरे मेहमान।
 बरामदे में 
                      पहुँचते ही शामनाथ सहसा ठिठक गए। जो दृश्य उन्होंने देखा, 
                      उससे उनकी टांगें लड़खड़ा गई, और क्षण-भर में सारा नशा हिरन 
                      होने लगा। बरामदे में ऐन कोठरी के बाहर माँ अपनी कुर्सी पर 
                      ज्यों-की-त्यों बैठी थीं। मगर दोनों पांव कुर्सी की सीट पर 
                      रखे हुए, और सिर दायें से बायें और बायें से दायें झूल रहा 
                      था और मुँह में से लगातार गहरे खर्राटों की आवाजें आ रही 
                      थीं। जब सिर कुछ देर के लिए टेढ़ा होकर एक तरफ को थम जाता, 
                      तो खर्राटें और भी गहरे हो उठते। और फिर जब झटके-से नींद 
                      टूटती, तो सिर फिर दायें से बायें झूलने लगता। पल्ला सिर पर 
                      से खिसक आया था, और माँ के झरे हुए बाल, आधे गंजे सिर पर 
                      अस्त-व्यस्त बिखर रहे थे।
 देखते ही शामनाथ क्रुद्ध हो उठे। जी चाहा कि माँ को धक्का 
                      देकर उठा दें, और उन्हें कोठरी में धकेल दें, मगर ऐसा करना 
                      सम्भव न था, चीफ और बाकी मेहमान पास खड़े थे।
 माँ को देखते ही देसी अफसरों की कुछ स्त्रियाँ हँ दीं कि 
                      इतने में चीफ ने धीरे से कहा - पुअर डियर!
 माँ हड़बड़ा के उठ बैठीं। सामने खड़े इतने लोगों को देखकर 
                      ऐसी घबराई कि कुछ कहते न बना। झट से पल्ला सिर पर रखती हुई 
                      खड़ी हो गयीं और जमीन को देखने लगीं। उनके पांव लड़खड़ाने 
                      लगे और हाथों की उंगलियाँ थर-थर कांपने लगीं।
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