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हँसी के मारे वे दुहरी-तिहरी हुई जा रही थीं और यह भी भूल गई थीं कि दोनों दिशाओं से एक-एक कार केवल उन्हीं के कारण हार्न पर हार्न बजा रही थी। और जब एक कार ने पीछे से रानी की टाँगों पर हल्का-सा ठहोका दिया तो उसकी हँसी चीख में बदल गयी और उसने मुड़ कर कारवाले को पाँच-छ: घरेलू गालियों से विदा किया।

जब वह सड़क के किनारे लग गयीं तो शीला (जिसकी तरंग उन्हें घर से निकाल लायी थी) को जाने क्या सूझी, कहने लगी "कनाट प्लेस चलोगी।" नाम तो सबने सुन रखा था। वन्ती का घर वाला दफ्तर से लौटते समय हर पहली तारीख को कनाट प्लेस से ही फूलों का एक हार उसके लिए ले आया करता था। वीरां का रामदयाल भी अपने काम-काज के सम्बन्ध में कनाट प्लेस जाया करता था, जहाँ उसके सस्ते बिस्कुटों के पक्के ग्राहक थे। रानी तो स्वयं भी दो बार कनाट प्लेस हो आयी थी -- एक बार जब उसके अनुरोध पर उसका पति आजादी का जुलूस दिखाने ले गया और एक बार वह अकेली घूमती-घामती उधर जा निकली थी। शीला का सुझाव हाथों-हाथ लिया गया और वे एक ताँगे में सवार हो गयीं।

घोड़ा पहले ही काफी तेज था, मगर रानी ने जरा नखरे के साथ ताँगेवाले पर चोट करते हुए कहा "लैन, इसी तरह टिचकूँ-टिचकूँ चलेगा क्या?" तो ताँगेवाले ने घोड़े की पिछली टाँगों में छड़ी के साथ कुछ इस शरारत से खुजली की कि घोड़ा हवा से बातें करने लगा। तड़ाख-तड़ाख करने लगा। तड़ाख, तड़ाख के पाँव पक्की सड़क पर पड़ते और ताँगेवाला कभी रानी और कभी शीला की ओर जो उसके बराबर अगली सीट पर बैठी हुई थीं ऐसे देखता जैसे इनाम की माँग कर रहा हो परन्तु रानी और शीला घोड़े से भी अधिक तेज दौड़ रही थीं। रानी का दुपट्टा सिर पर तो पहले ही नहीं था, अब उसके बदन के किसी भी हिस्से पर नहीं था। नीचे गिर गया था उसके पाँवों में। शीला के बाल उसकी चोटी से भाग-भाग कर इधर-उधर दौड़ रहे थे। पीछे बैठी वन्ती और वीरां बच्चों की तरह सीट पर घुटने टेक कर आगे की ओर देख रही थीं।
रानी कह रही थी, "बल्ले ओ बल्ले।"
शीला कह रही थी, "हाय राम इतना तेज।"
ताँगेवाला कह रहा था, "कहो तो और तेज।"
वन्ती और वीरां पीछे बैठी बोल उठीं, "हाँ भाई और तेज और तेज।"
ताँगेवाला पायदान पर खड़ा ललकार रहा था, "आ हा हा हा "
और सड़क पर आने-जाने वाले लोग इस फर्राटे भरते हुए ताँगे पर दृष्टि तो न जमा सकते थे, पर टीका-टिप्पणी सब कर रहे थे। यदि वह किसी तरह सब एक स्थान पर इकठ्ठे हो जाते तो सर्वसम्मति से निर्णय हो जाता कि ताँगे पर वेश्याएँ बैठी है, तेज कैसे न दौड़े।

लेकिन चूँकि ताँगा वेश्याओं को न बैठाये था, इसलिए कनाट प्लेस पहुँच कर ताँगेवाले को भी निराशा हुई। इनाम देने की बजाय रानी उससे कह रही थी "भाई हमारे पास तो साढ़े ग्यारह आने है, अब दो पैसे के लिए क्या जान लेगा।"
ताँगेवाले को शायद रानी का यह वाक्य सुन कर ठेस-सी लगी। एकदम बोल उठा "रानी तू यह भी रख ले!"

उसका यह कहना था कि वन्ती, वीरां और शीला खटाक से हँस उठी थीं। जैसे किसी ने तीन फव्वारे छोड़ दिये हों। रानी पहले एक क्षण के लिए भौंचकी सी रह गई, फिर जब बात समझ में आयी तो इतनी हँसी कि खड़ी न रह सकी और वहीं बैठ कर 'उई' ,'उइ' , करने लगी। ताँगेवाले ने अपने आप से कहा, 'पागल होंगी' और कदम-कदम घोड़े को चलाने लगा।

जब जरा दम में दम आया तो अपनी आँखों को पोंछते हुए रानी ने कहा, "मुए को मेरा नाम कैसे पता चल गया?" वन्ती ने जवाब दिया, "भाई तुम्हें कौन नहीं जानता?" और इस पर हँसी का दूसरा दौर शुरू होने वाला ही था कि उसी ताँगेवाले की आवाज फिर आई "क्यों जी कुतुब की सैर करवा लाऊँ।"

ताँगेवाला कुछ दूर जाकर फिर मुड़ आया था।
"कुतुब की सैर करवा अपनी माँ को, अपनी बहन को।" रानी ने विशेष घरेलू औरत के स्वर में कहा और अपनी सहेलियों से बोली, "चलो री यह मुआ तो कुत्ते की तरह पीछे ही पड़ गया है। और वे ओडियन सिनेमा की ओर चल पड़ीं।
रानी बोली, "यह है कनाड प्लेट्स।"
वीरां बोली, "कनाड प्लेट्स नहीं, करनाट पलेस।"
वन्ती ने कहा, "क्या बकती हो, नाम है कनास प्लेट।"
शीला ने कहा, "नाम कुछ भी हो स्थान तो यही है न।"
रानी बोली, "पूछ क्यों नहीं लेती किसी से?"
"जाओ न अपने उस ताँगेवाले से।"
ताँगेवाले का नाम सुनते ही रानी एक मुस्कान को दबाते हुए बोली, "मुआ नाम तक जान गया।"

वह ओडियन के सामने रुक कर दूर से तस्वीरें देखती रहीं और फिर झिझकते-झिझकते नजदीक आयीं और फिर धीरे से सिनेमा के पोर्च में दाखिल हो गयीं। फिरती-फिराती पुरुषों के पेशाबघर पर जा रुकीं। कुछ क्षण सोचती रहीं कि अन्दर क्या होगा और फिर रानी ने दरवाजा अन्दर की ओर धकेला और 'उइ माँ' कह कर बाहर की ओर भागने लगी। सबकी सब भागती-फिसलती बाहर आ गयीं और रानी से पूछने लगी कि, "हुआ क्या।" पर रानी हँसती गई, हँसती गई
और जब उन्होंने बहुत तंग किया तो बोली "एक आदमी " और फिर हँसने लगी। "ताँगेवाला याद आ रहा है" वीरां और वन्ती ने कहा। शीला ने बात बदलने के लिए कहा, "यहीं कहीं हनुमानजी का मन्दिर है कहो तो ।"
"राख डालो हनुमानजी के मन्दिर पर। सैर पर निकली हो कि पूजा को? वहाँ भी कोई मोटा-ताजा पुजारी बैठा घूर रहा होगा।"
"आप बीती सुना रही हो" शीला ने कहा और वह फिर हँसने लगी।


और इसी तरह हँसते-हँसाते, फिरते-फिराते उन्होंने शाम कर दी। हँसते-हँसते उनके गले बैठ गये थे और वैसे भी उन्होंने बहुत कुछ अलम-गलम खा लिया था गोलगप्पे, आलू की टिकिया, चाट के पत्ते, चनाजोर गर्म याने कनाट प्लेस के बड़े होटलों को छोड़ कर बाहर जो चीजें मिलती थीं, वे सब उन्होंने थोड़ी-थोड़ी चख ली थीं। कनाट प्लेस के बरामदों में कितने ही चक्कर लगाये थे, कितनी ही दुकानों के सामने हक्की-बक्की होकर खड़ी हुई थीं। कितने ही लोगों को अपनी हँसी के कारण भ्रम में डाल चुकी थीं और अब उनकी टाँगों में हल्का-हल्का दर्द होने लगा था तथा उनके दिमागों को कोई जंजीर घर की ओर खींचने लगी थी।
"चलो न वहाँ क्या हरी-हरी घास है थोड़ी देर बैठ कर आराम कर लें।"
पर इसके जवाब में 'हाँ' या 'ना' की बजाय जब वीरां ने धीमे स्वर में कहा, "घर नहीं चलोगी?" तो घर का नाम जैसे घड़े पर रोड़े के समान लगा। चारों के चेहरे एकदम उतर गये।
"घर जाकर क्या करोगी?" रानी ने हिम्मत से काम लेते हुए कहा। लेकिन उसके इस निर्बल से प्रतिवाद का यथार्थ के कडुवे बादलों पर कोई प्रभाव न पड़ा, जो शायद आसमान से छट कर अब उनके दिमागों पर छा रहे थे।
"घर में है क्या?" रानी ने फिर कहा जैसे अपने आपको समझा रही हो।
"है खाक।" शील ने जवाब दिया जैसे कह रही हो जानते-बूझते हुए पूछती हो।
और वे चारों सहेलियाँ हरी-हरी घास पर बैठने की बजाए घर की ओर लौट पड़ीं।
"ताँगा कर लो, रानी ने कहा पर किसी को हँसी न आयी।"
"वन्ती और वीरां को मानो साँप सूँघ गया है।" शीला ने कहा।
"सोच रही हूँ रात को सब्जी क्या पकाऊँगी?" वन्ती ने जवाब दिया।
इसका मजाक उड़ाने की बजाए रानी बोली, मेरे से सुबह की दाल ले लेना।"
और वे रास्ता पूछती-पाछती घर की छोटी-छोटी उलझनों को सुलझाती, घरेलू समस्याओं पर बहस करती, पड़ोसिनों की निंदा करती, एक-दूसरे से ईर्ष्या करतीं, पाइयों-आनों का हिसाब करती तेज-तेज घर की ओर चलने लगीं। जब वे गली के पास पहुँचीं तो अँधेरा काफी गहरा हो चुका था।

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१ जून २००२

 
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