|  | और एक दिन 
                      वह सब काम-धन्धे छोड़ कर घर से निकल पड़ी। 
 कोई निश्चित प्रोग्राम नहीं था, कोई सम्बन्धी बीमार नहीं था, 
                      किसी का लड़का पास नहीं हुआ था, किसी परिचित का देहान्त नहीं 
                      हुआ था, किसी की लड़की की सगाई नहीं हुई थी, कहीं कोई 
                      सन्त-महात्मा नहीं आया था, कोई त्योहार नहीं था -- कोई बहाना 
                      नहीं था।
 
 वास्तव में हुआ यह कि बरतन माँजते-माँजते अचानक जाने कहाँ से 
                      और कैसे शीला के मन में एक अनजानी तरंग-सी उठी और हाथ में 
                      पकड़े हुए बरतन को पटक कर हाथ धोये बिना वह जैसी की तैसी 
                      कमरे से बाहर आयी और पुकारने लगी --
 "रानी ओ रानी ।" रानी का कमरा अहाते की दूसरी छत पर था।
 
 आवाज़ देते-देते शीला की दृष्टि शून्य को चीर कर आकाश पर 
                      छाये हुए बादलों से टकरायी और पानी का एक कतरा उसकी दायीं 
                      आँख में आन गिरा। शीला ने एकदम आँख मींच ली और फिर जोर से 
                      आवाज देने लगी -- "रानी ओ रानी।"
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