| 
                       आधी 
                      टूटी इमारतें, सूखे-भग्न कंकालों-सी खड़ी थीं। सूखी रेत के कण 
                      तितीरी धूप में मोतियों-से झिलमिला उठते थे। तरन को लगा, 
                      मानो उसके दाँतों के भीतर भी रेत चरमरा रही हो। 
 - देख तो, तरन, बाबू उठ गए हों, तो हुक्का उनके कमरे में रख 
                      आ। - बुआ ने रसोई से सटी कोठरी से आवाज़ दी। इतनी उम्र में 
                      भी बुआ को सबकुछ याद रहता है। लगता है, जैसे उठते-बैठते, 
                      सोते-जागते उनकी चेतना की डोर बाबू की दिनचर्या से जुड़ी 
                      रहती है। अपनी कोठरी की देहरी पर ऊँघती रहती है बुआ, आसपास 
                      के कार्य-कलाप से सर्वथा निर्लिप्त। इस पर भी उन्हें बाबू की 
                      हर ज़रूरत का आभास कैसे हो जाते हैं, तरन के लिए यही सबसे 
                      बड़ा आश्चर्य है।
 
 शाम होते ही दीवान साहब अधीर आतुरता से मेहमानों की 
                      प्रतीक्षा करने लगते हैं। थोड़ी देर के लिए कुछ दूर छोटी 
                      लाइन के स्टेशन पर टहलने निकलते हैं, तो भी जल्दी वापस लौट 
                      आते हैं, ताकि कोई अचानक उनकी अनुपस्थिति में घर न आ जाए। 
                      आते ही बुआ से पूछते हैं कि उनके पीछे कोई आया तो नहीं था? 
                      बुआ 'ह-न' के अलावा कोई उत्तर नहीं दे पातीं। बरसों के बाद 
                      आज भी उन्हें दीवान साहब से विचित्र अज्ञात-सा भय लगा रहता 
                      है। छोटी थी, तो भी भाई के सामने सिर झुका रहता था, विधवा 
                      होने पर दीवान साहब ने कुछ रुपए महीने बाँध दिए थे। अब इस 
                      उम्र में, मालकिन के न रहने पर आई हैं, वह भी इसलिए कि इतने 
                      बड़े घर में तरन अकेली है। तरन न होती तो क्षण-भर के लिए भी 
                      उनका इस उजाड़ अकेले घर में रहना दूभर हो जाता।
 
 धूप मिटते ही बरामदे में जमघट लग जाता है। सरकारी सुपरवाइज़र 
                      मिस्टर दास से लेकर बड़े ठेकेदार मेहरचंद तक काम ख़त्म होने 
                      पर दीवान साहब के बरामदे में कुछ देर के लिए सुस्ताने आ 
                      बैठते हैं। और है भी क्या इस उजाड़ बस्ती में, जहाँ दिन की 
                      थकान उतारी जा सके? अहीरों के मिट्टी के झोंपड़ें, 
                      इक्की-दुक्की पान-बीड़ी की दुकानें, ढाबे और ऊपर टीले पर 
                      काल-भैरव का मंदिर। ले-देकर एक दीवान साहब का ही तो घर है, 
                      जहाँ दूर शहरों से आए प्रवासी भद्र लोग घड़ी-दो-घड़ी हँस-बोलकर जी हल्का कर लेते हैं।
 
 - देख तो, तरन, जरा चिलम तो भर लाना दास बाबू के लिए। - 
                      दरवाज़े की ओर मुँह मोड़कर बाबू ने कहा। उनके चेहरे की 
                      मुस्कान में अब ऊब का भाव डूबने लगा था। दास बाबू आए हैं, तो 
                      और लोग भी आते होंगे।
 
 - आज इतनी देर कैसे हो गई? भोंपू तो कब का बज चुका।
 
 दास बाबू का थुल-थुल गेंद-सा शरीर आरामकुर्सी में धँस गया। 
                      बोले, तो नकली पीले दाँत कटकटा गए - नहर-पार ज़मीन देखने गया 
                      था। वापस लौटते हुए नया पेट्रोल-पंप देखने रुक गया। अब 
                      यहाँ पेट्रोल की दिक्कत नहीं रहेगी, दीवान साहब!
 
 तरन भीतर से हुक्का लेकर आई, तो दास बाबू सिमट गए अपने में। 
                      पचास से ऊपर उनकी उम्र लाँघ गई है, किंतु किसी स्त्री के 
                      सामने आज भी घबरा-से जाते हैं।
 
 तरन के पाँव पीछे मुड़े, तो वह तनिक स्वस्थ हुए। गले को साफ़ 
                      किया, फिर भी जब बोले, तो आवाज़ खँखारती रही - कुछ दिनों के 
                      लिए हरिद्वार-ऋषिकेश क्यों नहीं घूम आते, दीवान साहब? न हो, 
                      बिटिया का मन ही बहल जाएगा। दिन-रात अकेले में क्या ऊब नहीं 
                      जाती होगी?
 
 दास बाबू तरन का नाम नहीं ले पाते। वह ज़रा उम्र में छोटी 
                      होती, तो उसके सम्मुख इतना घना-सा संकोच न घिर आता; जरा उम्र 
                      में छोटी होती, तो नाम सहज-स्वाभाविक हो जाता। किंतु इन दो 
                      सीधी, स्पष्ट सीमाओं के बीच आयु की धुरी समय के जिस दलदल 
                      में फँसी रह गई हैं, उम्र जहाँ न बढ़ती है, न घटती है, उसे 
                      क्या कहकर संबोधित करें, दास बाबू कभी समझ नहीं पाते।
 
 बाबू कुछ भी न कहकर चुप बैठे रहे। वह अपने इन मित्रों से 
                      हँस-बोल लेते हैं, यह बात और है; किंतु मन में हमेशा उन्हें 
                      अपने से छोटा समझते हैं। इतनी घनिष्ठता के बावजूद उन्होंने 
                      अपने और दूसरों के बीच कहीं एक लकीर खींच रखी है, जिसका 
                      उल्लंघन करने का दुस्साहस कोई भी नहीं कर पाता।
 
 तरन के पाँव, जो दास बाबू की बात पर सहसा देहरी पर ठिठक गए 
                      थे, फिर आगे बढ़ गए। दूसरे कमरे में बुआ पुराने कपड़े सी रही 
                      थीं। उनकी आँख बचाकर वह अपने कमरे में चली आई। दरवाज़ा बंद 
                      करके भी देर तक दरवाजे के आगे खड़ी रही। बरामदे की आवाज़ों 
                      को नहीं सुनती, सुनती है उस निर्भेद्य मौन कों, जो सारे घर 
                      में छाया है, जिसके भीतर ये आवाज़ें पराई, अपरिचित, भयावह-सी 
                      जान पड़ती है।
 
 खिड़की से बरामदा दीखता है। जब किसी शाम बाबू के मित्र नहीं 
                      आते, तो वह अकेले आँखें मूँदे कुर्सी पर बैठे रहते हैं। ऐसे 
                      क्षणों में कितना गहन-सा मौन बाबू के ईद-गिर्द घिर जाता है! 
                      उसने कई बार सोचा है कि ऐसे में वह बरामदे में उनके पास जाकर 
                      बैठ जाए, इधर-उधर की बातें करे। आख़िर इस घर में अब वे दो ही 
                      तो रह गए है, जो विगत दिनों की स्मृतियों में एक-दूसरे के 
                      साझीदार हो सके। किंतु इतने पर भी कभी पाँव नहीं उठते, 
                      सिर्फ़ खिड़की से ही वह चुपचाप उन्हें देखती रही है।
 
 हवा चलती है, दुपहर-शाम, साँय-साँय। मैदानों के टीलों-ढूहों 
                      से मिट्टी, रेत के गर्म रेले बार-बार दरवाज़े खटखटाते है और 
                      रास्ता न पाकर आँगन में बिखर जाते हैं।
 
 कभी-कभी सड़क को समतल बनाने के लिए बारूद से चट्टानों को 
                      फोड़ा जाता। विस्फोट होते ही कंपकंपाता-सा धमाका होता, 
                      आर-पार धरती हिल जाती, दूर-दूर तक ख़तरे की लाल झंडियाँ हवा 
                      में लहराती रहतीं।
 
 ऊँघती हुई तरन अचानक अचकचाकर चौंक-सी गई, मानो किसी ने झटका 
                      देकर उसे झिंझोड दिया हो। शाम का बुझा-बुझा-सा पीलापन 
                      चुपके-से सारे मैदान में फैल गया था।
 
 बुआ कमरे में आईं। उसे खिड़की के पास ऊँघते देखा, तो झिड़ककर 
                      कहा- कितनी बार कहा है, दोनों वक्त मिलते समय अँधेरे कमरे 
                      में नहीं बैठते। शंभु को लेकर तनिक बाहर क्यों नहीं घूम 
                      आतीं?
 
 किंतु उसी समय सीढ़ियों पर भारी पदचाप सुनाई दी। तरन की 
                      आँखें अनायास खिड़की की ओर उठ गईं, इंजीनियर बाबू आए थे। यह 
                      इंजीनियर बाबू भी अजीब है! इस तरह धम-धम करते आते हैं कि 
                      सारा घर हिल उठता है।
 
 चार-पाँच महीने पहले इधर सरकारी आर्किटेक्ट होकर आए थे, 
                      किंतु यहाँ सब उन्हें 'इंजीनियर बाबू' के नाम से ही संबोधित 
                      करते हैं। उनकी चाल-ढाल और बातचीत से ऐसा जान पड़ता है, मानो 
                      बरसों से यहाँ रहते आए हों। वह बाबू के रोज़मर्रा आनेवाले 
                      मित्रों में नहीं हैं, बाबू के मित्र हैं, यह कहना भी कठिन 
                      है, शायद इसलिए कि उम्र में वह बाबू से आधे हैं और कोशिश 
                      करने पर भी बाबू उनसे हँस-खुलकर बातचीत नहीं कर पाते।
 
 तरन ने हड़बड़ाकर बालों को समेट लिया, दो-तीन बार 
                      जल्दी-जल्दी कंघी से उन्हें कहीं धीरे-से दबाया, कहीं 
                      हल्के-से उठाया। पाउडर लगाया तो आँखें फड़फड़ा उठीं। माँग के 
                      नीचे, माथे के बीचोबीच बिंदी लगाते हुए तरन का हाथ क्षण-भर 
                      के लिए ठिठक-सा गया। सोचा, क्या यह भ्रम है? न, अपने लिए उसे 
                      कोई भ्रम नहीं था। चेहरे का आकर्षण, चाहे जिसमें जैसा होता 
                      हो, वह जानती थी कि उसमें नहीं है। उसके लिए अब मन क्लांत 
                      नहीं होता। बरसों पहले सड़क पर चलते हुए कोई उसकी ओर देखता, 
                      तो तन-मन सिहर उठता था। वह दौड़कर वापस आती थी, घंटों आईने 
                      के सामने खड़ी रहती थी। क्या देखते हैं लोग उसमें? यह प्रश्न 
                      कितना विचित्र था और इसका उत्तर पाने के लिए कितनी देर तक 
                      दिल धौंकनी की तरह चलता रहता था।
 
 आज जब कभी लोग देखते हैं, तो उसे स्वयं अपने पर आश्चर्य होता 
                      है। लगता है, जैसे वह अपने को छोड़कर उसके संग मिल गई है, 
                      उन्हीं की कौतूहल-भरी दृष्टी से अपने को देख रही है
 
 - आप अभी तक यहीं बैठी हैं?
 तरन एकाएक चौंक-सी गई। दरवाज़े पर इंजीनियर बाबू खड़े थे।
 - मैं अभी बरामदे में आ रही थी। आप चाय पी चुके?
 - चाय फिर किसी दिन पीने आऊँगा, जब आपको बरामदे में आने की 
                      फुरसत होगी! इस वक्त तो झटपट घर पहुँचना है।
 तरन ने उनके सामने चौकी रख दी।
 - ठहरिए, कुछ खाकर जाइए! अभी तो आप आए हैं!
 
 तरन रसोई की ओर जाने लगी, किंतु इंजीनियर बाबू ने उसे बीच 
                      में ही रोक दिया- देखिए, इस वक्त यह झंझट रहने दीजिए। 
                      अभी-अभी शहर से लौट रहा हूँ। रास्ते में धूल-गर्द खाई है, 
                      उससे बिल्कुल पेट भर गया है।
 
 जब कभी इंजीनियर बाबू हँसते हैं, तरन को हमेशा यह महसूस होता 
                      है कि इस बस्ती के लोग चाहे आदर-भाव से उन्हें 'इंजीनियर 
                      बाबू' कहकर पुकारें, उम्र में वह उससे छोटे ही है। पहले-पहले 
                      जब उसने उन्हें दीवान साहब की मित्र-मंडली के बीच बरामदे में 
                      देखा था, तो गहरा आश्चर्य हुआ था। इतने बड़े बुजुर्गों के 
                      बीच कॉलेज के छात्र-से दीखनेवाले यह इंजीनियर बाबू ठीक से 
                      फिट नहीं बैठते थे।
 
 - आप उस तरफ़ आई नहीं, मोंटू आपके बारे में रोज़ पूछता है। 
                      मोंटू इंजीनियर बाबू का नौकर है, जब कभी तरन रेलवे लाइन के 
                      पार टहलने जाती है, वह उसे हमेशा मिलता है।
 - इस बार आऊँगी। आप रहेंगे?
 - अगले हफ़्ते आइएगा। चार-पाँच दिन के लिए एकदम बहुत काम आ 
                      पड़ा है।
 
 इंजीनियर बाबू जाने से पहले एक क्षण रुके, रूमाल से अपनी 
                      ऐनक का शीशा साफ़ किया।
 
 तरन की आँखें चुपचाप ऊपर उठ गईं और देर तक उसी रिक्त स्थान 
                      पर टिकी रहीं, जहाँ कुछ क्षण पहले इंजीनियर बाबू खड़े थे।
 
 कैसे है यह इंजीनियर बाबू! खट-खट करके जब सीढ़ियाँ उतरते हैं 
                      तो सारा घर हिल उठता है।
 
 खिड़की के परे रेलवे लाइन के ऊपर डूबता सूरज खून की लंबी-सी 
                      रेखा खींच गया था। ऊँची-नीची चट्टानों के बीच मज़दूरों के 
                      खोखल, शाम की पीली धूप में छोटे-छोटे लकड़ी के बक्सों-से 
                      दिखाई देते थे। काली देवी के मंदिर के आस-पास फीके गुलाबी 
                      धुएँ का बादल क्षण-प्रतिक्षण गाढ़ा होने लगा था।
 
 तरन खिड़की से उठकर पलंग के पास चली आई। अधलिखा पत्र तकिये 
                      के नीचे अब भी दबा था। सुबह से भाई को पत्र लिखने बैठी है, 
                      किंतु अभी तक मुश्किल से पाँच-छ: सतरें ही लिख सकी है। जब-जब 
                      लिखने की कोशिश करती है, भाई का चेहरा समय की बुझी-बासी 
                      परतों को काटता हुआ आँखों के सामने घूम जाता है - वह चेहरा 
                      नहीं, एक और शक्ल है, बहुत सादी, बहुत उदास त़ब माँ नहीं रही 
                      थी। शुरू से ही बाबू का इतना डर था कि जी भरकर रोने में भी 
                      झिझक होती थी। और तब भाई आए थे।
 - देखती नहीं तरन, बाबू कितने अकेले रह गए हैं! - उन्होंने 
                      कांपते होठों से कहा था - हमें उनके संग रहना होगा। कुछ 
                      दिनों में फिर सबकुछ पहले-जैसा ही हो जाएगा।
 
 और आज तरन सोचती है, कहाँ हो पाया सबकुछ पहले-जैसा? उन दिनों 
                      वह काफ़ी छोटी थी। भाई क्यों चले गए और बाबू उन्हें क्यों 
                      नहीं रोक पाए, तब कुछ भी समझ में नहीं आया था। आज लगता है, 
                      माँ एक कड़ी थीं परिवार और बाबू के बीच, उनके जाते ही वे एक 
                      घर में रहते हुए भी सहसा एक-दूसरे के लिए अजनबी-से बन गए थे।
 
 बुआ उसे भोजन के लिए बुलाने आई। तरन के हाथ में कागज देखकर 
                      पूछा - क्या कोई चिठ्ठी आई है?
 - भाई को लिख रही थी। कल से उनका पत्र आया पड़ा है।
 - क्या कुछ आने के लिए लिखा है?
 - लिखा है, कुछ दिनों के लिए मैं उनके पास चली जाऊँ क़्यों 
                      बुआ, चली जाऊँ तो कैसा रहेगा?
 
 बुआ विस्मय से आँखें फाड़ते हुए तरन को देखती रहीं। इतनी दूर 
                      आसाम तरन अकेली जाएगी, इसकी कल्पना करना भी पागलपन लगता है।
 
 बहन के लिए इतनी मोह-ममता होती, तो इतने बरसों में क्या एक 
                      बार भी वह देखने नहीं आता? - बुआ बोलीं- बाप से लड़ाई है, तो 
                      क्या सबसे किनारा कर लेना चाहिए?
 
 दमा के कारण बुआ से अधिक नहीं बोला जाता। जितने शब्द मुँह से 
                      बाहर निकलते हैं, उनसे कहीं ज़्यादा चढ़ती साँस के भँवर में 
                      डूब जाते हैं। बुआ की आँखों में आँसू देखकर तरन एकाएक निश्चय 
                      नहीं कर सकी कि वे उसके भाई के लिए हैं, अथवा खाँसी के कारण 
                      खुद-ब-खुद उमड़ आए हैं।
 
 -तुम चलो बुआ, मैं अभी आती हूँ। -कमरे में बोझिल-सा 
                      सन्नाटा छा जाता है। बरामदे में चहलकदमी करते हुए बाबू की 
                      थकी, अनिश्चित-सी पदचाप सुनाई दे जाती है। खिड़की के बाहर 
                      मैदान के अँधेरे में मिट्टी के लंबे-लंबे ढूहों की पतली 
                      छायाएँ फीकी चाँदनी में उघड़ आई है।
 एक धँधली-सी तस्वीर उभर आती है। ढलवां घाटियों पर दूर-दूर 
                      तक ऊपर-नीचे चाय के बाग फैले हैं इन्हीं बागों के बीच 
                      पेड़ों के झुरमुट के पीछे कहीं भाई रहते होंगे। कहते हैं, 
                      वहाँ स्टीमर पर जाना पड़ता है ज़ाने स्टीमर पर बैठकर कैसा 
                      लगता होगा!
 
 तरन उस छोटे-से स्टेशन के सिग्नल की बत्ती देखती रही। पास 
                      आती ट्रेन के पहियों की गड़गड़ाहट मकान की दीवारों, मैदान 
                      में दूर खड़े घट्टों और टीलों को झिंझोड़-सी जाती है। कुछ 
                      देर के लिए पत्थर तोड़ने की मशीन की भयावह घुर्र-घुर्र ट्रेन 
                      के पहियों-तले डूब जाती है। इंजन की हेडलाइट के घूमते 
                      प्रकाश-वृत्त में आस-पास खड़े झाड़-झंखाड़ झिलमिला उठते हैं 
                      औ़र फिर वही पहले-जैसी घनी, बोझिल चुप्पी चारों ओर फैल जाती 
                      है।
 
 उस रात बुआ तरन के कमरे में आई और देर तक बैठी रहीं। तरन की 
                      ओर कभी-कभी देख लेतीं और फिर एक लंबी गहरी साँस लेकर सुपारी 
                      कतरने लगतीं।
 - सो गई, तरन? - बुआ कभी-कभी शंकित स्वर में सिर उठाकर पूछ 
                      लेतीं।
 - न बुआ, अभी नहीं।
 
 तरन समझ जाती कि बुआ कोई बात शुरू करने से पहले रास्ता टटोल 
                      रही है। वह चुपचाप आँखें मूँदकर प्रतीक्षा करती रहती।
 - आज तेरी माँ के कमरे में गई थी, - बुआ कुछ देर बाद 
                      धीरे-धीरे बोलीं - मैं तो देखकर हैरत में आ गई, तरन! न जाने 
                      कितने बरसों से उसने ये सब चीज़ें जोड़-जोड़कर जमा की है! 
                      उसने ब्याह की साड़ी तक संदूक में अभी तक संभालकर रखी है।
 
 तरन के मन में हल्का-सा कौतूहल जाग उठा, माँ का भी ब्याह हुआ 
                      होगा, इस पर कभी-कभी विश्वास नहीं होता।
 - तेरे बाबू उन दिनों नये-नये दीवान बने थे। बड़ी धूमधाम से 
                      उनका ब्याह हुआ था।
 सिखों के दरबार में एक वही तो हिंदू दीवान थे, जो बेरोक-टोक 
                      राजा से मिलने जाया करते थे।
 
 बुआ की आँखों में एक बहुत पुराना, कभी न मिटनेवाला सपना तिर 
                      आया, हाथ का सरौता चलते-चलते रुक गया - एक दिन रिसायत के अँग्रेज़ रेजिडेंट उनसे मिलने आए थे। मुहल्ले के सब लोग 
                      आश्चर्य में अपने-अपने घरों से निकलकर हमारे घर के सामने जमा 
                      हो गए थे। किंतु तेरे बाबू अपने नेम-धर्म के इतने पक्के थे 
                      कि उनके जाने के बाद उन्होंने स्नान किया और सब बर्तनों को 
                      दुबारा धुलवाया था।
 
 तरन उठकर पलंग पर बैठ गई। कितनी बार उसने बुआ के मुँह से ये 
                      सब बातें सुनी है, किंतु हर बार मन में नये सिरे से उत्सुक 
                      हो उठती है। लगता है, जैसे वह चोरी-चुपके, दबे पाँवों किसी 
                      विचित्र, मायावी प्रदेश में चली आई है
 - बुआ, तुमने तो उन दिनों बाबू को देखा होगा। क्या तब भी 
                      तुम्हें उनसे आज की तरह डर लगता था?
 - अरे, कौन नहीं डरता था तेरे बाबू से? - बुआ के होठों पर एक 
                      ग्लान महीन-सी मुस्कराहट सिमट आई- उन दिनों का डर ही तो आज 
                      तक चला आता है। तेरी माँ को तो मुझसे भी ज़्यादा डर लगता 
                      था। वह तो बस टुकुर-टुकुर उन्हें देखती ही रहती थी। जिस दिन 
                      तेरे बाबू दरबार जाते थे, मैं और वह झरोखे में खड़े होकर 
                      लुक-छिपकर उन्हें देखा करती थीं। चूड़ीदार चमचमाता पाजामा, 
                      सफ़ेद रेशमी अचकन और सिर पर राजसी, प्याजी रंग की पगड़ी 
                      ह़मारी आँखें उन पर से उठती ही न थीं।
 
 बुआ के हाथ सरौते पर टिके रहे, आँखें शून्य के न जाने किस 
                      कोने में जाकर अटक गईं।
 - सोचती हूँ जब आज बाबू तेरे लिए ऊँची जात और बड़े घरने की 
                      बात चलाते हैं, तो क्या यह ठीक है? वह बात आज कहाँ रही, जो 
                      वर्षों पहले थी? आज अपनी कौन इज़्ज़त रह गई है, जो बड़े 
                      घर-घराने का लड़का मिले! लेकिन उन्हें यह बात समझाए कौन?
 
 बुआ की आँखों में एक घना, अभेद्य-सा आश्चर्य घिर जाता है, 
                      मानो वह खुद न समझ पा रही हो कि जो नहीं रहा, आज भी कैसे 
                      जोंक की तरह चिपटा है। मान-गौरव नहीं रहा, ज़मीन-जायदाद कब 
                      की बिक-लुट गई, बाप-दादा की विरासत के नाम पर बचा रह गया है 
                      एक यह मकान और समय की धूल में लदा-फँदा फटे-चिथड़े-सा 
                      'दीवान' का ख़िताब, जिसे चाहे ओढ़ लो, चाहे बिछा लो, पर जो 
                      नहीं है, उसे कोई कब तक मानेगा?
 
 बुआ का कंठ भारी हो उठता है, आँखों के आगे गीला-सा झिलमिला 
                      तैर जाता है, किंतु मुस्कराहट उनके होठों पर तब भी जमी रहती 
                      है, मानो वह उसे मिटाना भूल गई हों।
 
 किंतु तरन को बात का पहलू अब बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। अच्छा 
                      लगता था पहले, जब माँ हँसी-हँसी में वे गहने दिखाया करती 
                      थीं, जो उसे ब्याह पर दिए जाएँगे। तब हल्की-सी गुदगुदी होती, 
                      ब्याह के लिए नहीं, गहनों के लिए नहीं, बल्कि उस अजीब, 
                      अनजानी खुशी के लिए, जो उसकी अपनी थी, जिसमें वह बिल्कुल 
                      अकेली थी।
 
 तरन फिर लेट गई। खिड़की से सिग्नल की लाल बत्ती दीखती है, 
                      दूर अँधेरे में। नहर के पीछे बैरकें हैं, जिन पर रात चुपचाप 
                      झुक आई है। इन्हीं बैरकों की किसी संकरी अँधेरी कोठरी में 
                      इंजीनियर बाबू रहते होंगे, तरन ने सोचा और आँखें मूँद लीं।
 
 उस पल उसे कुछ भी महसूस नहीं हुआ। यह भी याद नहीं रहा कि बुआ 
                      ने उससे कुछ कहा है। टाँगों पर एक हल्की मीठी-सी थकान उतर 
                      आई। बरसों पहले की एक धुँधली-सी अनुभूति कहीं भीतर धीमे-से 
                      उमड़ आई है। लगता है, जैसे वह टब के पानी में अपनी नंगी देह 
                      पसारे लेटी है। बीच में कुछ भी नहीं है, कोई घटना नहीं घटी 
                      है। जो बीता है, जो कुछ भी घटा-बढ़ा है, वह सब पानी के ऊपर 
                      है
 - सो गई, तरन? - बुआ ने पूछा।
 
 इस बार तरन स्वयं निश्चय नहीं कर सकी कि वह नींद के इस तरफ़ 
                      है या दूसरी तरफ़ पानी के ऊपर छायाएँ तिरती है, किंतु उसके 
                      नीचे कितना ढेर-सा मौन बिखरा है!
 
 फिर अनेक दिन ऐसे आते हैं, जब दीवान साहब अपने कमरे से बाहर 
                      नहीं निकलते। बरामदा सूना पड़ा रहता। खाली कुर्सियों पर सूखी 
                      गरम रेत और चूने की परते इकट्ठी होती रहतीं। बुआ कई बार बाबू 
                      के कमरे तक गई है और चुपचाप वापस लौट आई है। खाना भी वह अपने 
                      कमरे में मँगवा लेते। आते-जाते कभी सामने पड़ जाती थी, तो 
                      देखते भी नहीं, देख भी लेते तो इस तरह से मानो उसे पहचान 
                      पाने में दुविधा हो रही हो। उनकी कोशिश यही रहती कि जहाँ वह 
                      बैठी हो, वहाँ न जाना हो, अकस्मात मुठभेड़ भी हो जाए, तो 
                      दूसरी तरफ़ देखने लगें, या रास्ता बचाकर निकल जाएँ।
 |