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                      छज्जे पर भूरी, जलती रेत की 
                      परतें जम गई है। हवा चलने पर अलसाए-से धूल-कण धूप में 
                      झिलमिल-से नाचते रहते हैं। लड़ाई के दिनों में जो बैरक बनाए 
                      गए थे, वे अब उखाड़े जा रहे हैं। रेत और मलबे के ढूह ऐसे 
                      खड़े हैं, मानो कच्ची सड़क के माथे पर गोमड़े निकल आए हों।
                      
 खिड़की से सबकुछ दीखता है। दिन और शाम के बीच कितने विचित्र 
                      रंगों की छायाएँ टीलों पर फिसलती रहती है! दूर से निरंतर 
                      सुनाई देता है, पत्थर तोड़ने की मशीन का शोर, दैत्य के 
                      खर्राटों की तरह घुर्र-घुर्र-घुर्र...
 
 दोपहर की नींद के कच्चे कगारों पर ये आवाज़ें लहरों-जैसी 
                      थप-थप टकराती है। त़रन अकबकाकर जाग गई। हाथ माथे पर गया तो 
                      लगा, पसीने की बूँदों पर बाल चिपक गए हैं, बिंदी की रोली 
                      दोनों भौहों के बीच फैल गई है। उसे लगा, मानो वह अब तक जाग 
                      रही थी। सचमुच जागने पर पता चला था कि सोते समय भी वह यही 
                      बराबर सोच रही थी। दुपहर की नींद जो ठहरी, आधी आँखों में, 
                      आधी बाहर।
 
 आँखें धोईं, बिंदी पोंछ दी, पंप के पानी को चुल्लू में लेकर 
                      आँखों में छिड़का। गुसलखाने की खुली खिड़की से मैदान का वह 
                      हिस्सा दीखता था, जहाँ बैरकों को ढहाया जा रहा था।
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